गंगा जयंती का शुभ दिवस आज से 10 दिनों तक

 हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार चार युग बताए गए हैं- सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग। इन चार युगों की समाप्ति के बाद प्रलय होता है। अब तक तीन युग बीत चुके हैं, सतयुग, त्रेता युग और द्वापर युग और इस समय कलियुग चल रहा है। कलियुग की समाप्ति से पूर्व क्या-क्या होगा, इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

दस हजार बीते बरस, कलि में तजि हरि देहि।
 तासु अद्र्ध सुर नदी जल, ग्रामदेव अधि तेहि।

इस दोहे का अर्थ कुछ विद्वानों ने इस प्रकार लगाया है कि जब कलियुग के दस हजार वर्ष शेष रह जाएंगे तब भगवान विष्णु पृथ्वी छोड़ देते हैं। जब पांच हजार वर्ष शेष रह जाएंगे तब गंगा का जल पृथ्वी को छोड़ देता है और जब ढाई हजार वर्ष शेष रहेंगे तब ग्राम देवता छोड़कर चले जाते हैं।

गंगाजी के अंतर्धान का समय नजदीक!    

गंगा आज प्रदूषण के अत्यंत भयानक दौर से गुजर रही है। पर्यावरण की सुरक्षा से उदासीन भोगवादी प्रवृत्ति ने ग्लोबल वार्मिग अर्थात पृथ्वी का तापमान बढा कर इस महानदी के अस्तित्व पर भीषण संकट खडा कर दिया है। गंगावतरण की तरह उनका लुप्त होना भी ऐतिहासिक घटना होगी, जो भारत वर्ष का मानचित्र ही नहीं बल्कि उसकी युगों पुरानी सभ्यता को भी बदल सकती है। पुराणों में यह कथा प्रसिद्ध है कि भगवती लक्ष्मी देवी सरस्वती और गंगाजी परस्पर शापवश नदी बनकर भारत वर्ष में पधारी। ब्रह्मवैवर्त्तपुराण के प्रकृति खण्ड में इस कथानक का विस्तार से वर्णन है। जब इन देवियों ने भगवान नारायण से यह पूछा कि उन्हें कब तक पृथ्वी पर रहना होगा तब श्रीहरि ने उनको यह आश्वासन दिया – ”कलौ पच्चसहस्रे च गते वर्षे च मोक्षणम। युष्मांक सरितां भूयो मदगृहे चा५५मविष्यथ।“

  गंगा जयंती का शुभ दिवस आज से 10 दिनों तक है; “हिमालयायूके” की विशेष हाई लाइट ;

बुधवार, 16 मई 2018 से श्री गंगा दशहरा पर्व का आरंभ , 10 दिन तक है। 
मान्यता है कि गंगा दशहरा के दिन गंगा स्नान करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्ति पाता है। गंगा दशहरा के दिन देवी गंगा धरती पर आई थी। इसी दिन गायत्री मंत्र का प्रकटीकरण हुआ था।

शास्त्र कहते है कि ज्येष्ठ मास के शुक्ला पक्ष की दशमी तिथि को गंगा दशहरा कहते हैं। ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को गंगा जी का जन्मदिन माना जाता है। 
स्कन्दपुराण व वाल्मीकि रामायण के अनुसार आज ही के दिन महाराज भागीरथ के कठोर तप से प्रसन्न होकर स्वर्ग से पृथ्वी पर गंगा जी आई थीं।
गंगा पूजन उत्सव यानि गंगा दशहरा के बारे में स्कंद पुराण में लिखा है कि गंगा स्नान और दान का विशेष महत्व है,
गंगा जी अथवा अन्य किसी पवित्र नदी पर सपरिवार स्नान करना सर्वश्रेष्ठ है, घर पर भी गंगाजल जी को सम्मुख रखकर गंगा जी की पूजा-आराधना की जा सकती है। मान्यता है कि गंगा जी की पूजा से सभी पाप समाप्त होते है। गंगा दशहरा के दिन गंगा में किए गए स्नान और दान से सात जन्मों का पुण्य मिलता ह
गंगा नदी में जाना सम्भव न हो तो गंगा दशहरा के दिन पानी में गंगा जल मिलाकर गंगा मंत्र का दस बार जाप करते हुए स्नान करने से गंगा की पूजा का पूर्ण फल प्राप्त होता है।

गंगा मंत्र: ॐ नमो भगवती हिलि हिलि मिलि मिलि गंगे मां पावय पावय स्वाहा॥ (भविष्य पुराण)
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       यानि कलियुग के पांच हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर तुम नदीरुपिणी देवियों का उद्धार हो जाएगा। तदन्तर तुम लोग मेरे पास वापस लौट जाओगी। ब्रह्मवैवर्त्तपुराण इस श्लोक में भगवान विष्णु, गंगा, सरस्वती एवं लक्ष्मीजी को कलियुग में मात्र पांच हजार वर्ष तक ही पृथ्वी पर नदी के स्वरुप में रहने का निर्देष देते हैं। ब्रह्मवैवर्त्तपुराण में प्रकृति खण्ड के सातवें अध्याय के दसवें श्लोक से भी उपयुक्त तथ्य सामने आता है- कलौ पच्जसहस्रं च वर्ष स्वित्वा च भारते। जम्मुस्ताश्च सरिप्रदूपं विहाय श्रीहरेः पद्प।

       भारत में कलियुग के पांच सहस्र वर्ष व्यतीत होने पर वे सभी (गंगा आदि) आपना नदी रुप त्याग कर श्रीहरि के धाम में चली जाएगी। ब्रह्मवैवर्त्तपुराण प्रकृति खण्ड के दसवें अध्याय में वर्णित भगवती गंगा एवं पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का संवाद ध्यान देने योग्य है। गंगाजी कहती हैं- हे भगवान, सरस्वती के शाप, आपकी इच्छा और महाराज भगीरथ के तप के कारण मैं अभी तक भारत वर्ष जा रही हूं किन्तु हे प्रभो! वहां पापी लोग अपने पाप का बोझ मुझ पर लाद देगें। यह स्थिति कैसे खत्म होगी? मुझे भारत वर्ष में कितने वर्षो तक रहना पडेगा। इस पर परमेष्वर श्रीकृष्ण ने कहा- अद्यप्रभूति देवेशि कलेः पज्चसहस्रकं, वर्ष स्थितिस्ये भारस्या भुवि शापेन भारते।।

       ”देवेशि! कलियुग के पांच हजार वर्ष तक तुम्हें सरस्वती के षाप से भारत वर्ष में रहना होगा।“

       श्रीमद्देवी भागतवत के नवम स्कन्ध में भी यही सारी बातें शब्दतशः कही गयी हैं। इसमें सम्पूर्ण कथानक एवं श्लोक ब्रह्मवैवर्त्तपुराण के समान ही हैं। धर्मग्रन्थों में वर्णित कथाओं में आए तथ्यों का सुक्ष्मतापूर्वक अध्ययन करने पर यह निर्ष्षक निकलता है कि भागीरथी गंगा की पृथ्वी पर कलियुग के ५००० वर्ष तक विराजमान रहने का विधान ही भगवान द्वारा निर्दिष्ट किया गया था। अन्तर्यामी प्रभु ने अपनी दिव्य दृश्टि से यह देख लिया था कि कलियुग में पांच हजार वर्ष बीत जाने के उपरांत मनुष्य दुर्बुद्विवश गंगाजी की पवित्रता एवं शुद्धता को भंग करके इसे प्रदूषित करने में कोई कसर नहीं छोडेगे। तब इस देवनदी को धरती पर प्रदूषण की गंभीर स्थिति से गुजरना पडेगा। आज यह सत्य सामने आ चुका है।

       भारतीय काल गणना के अनुसार वर्तमान विक्रम संवत २०६४ तक कलियुग के ५१०८ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। धरा पर गंगाजी के रहने की भगवान द्वारा निर्दिश्ट अवधि पांच हजार वर्श से १०८ वर्ष ज्यादा बीत गये हैं। इस प्रकार गंगाजी की धरती पर रहने की अवधि तो पूरी हो चुकी है। 

       गंगा ती को ईमानदारी के साथ मानवकृत प्रदूशण से मुक्त करने के लिए न जुटे तो भगवती गंगा हम सबको छोडकर निष्चय ही अपने धाम वापस चली जाएगी। हिमालय (उत्तराखण्ड) में गंगाजी के जल का मुख्य स्रोत               ग्लेशियर जिस तेजी से पिघल रहा है उससे भविष्य में गंगाजी के सूख जाने का संकट पैदा हो सकता है। गंगोत्री से गोमुख निरंतर आगे खिसक रहा है। प्रकृति की चेतावनी को नजरअंदाज किया गया और गंगा को प्रदूषण से मुक्त कराने का अभियान चलाने के साथ पहाडों पर हो रही अंधाधुंध खुदाई तथा वनों की कटाई को नहीं रोका गया तो भावी पीढयां गंगाजी के दर्षन से वंचित हो जाएगी। 

       हमारे सुख और समृद्धि के स्रोत वन हिमालय पहाड की देन हैं। इस पहाड की ऊॅची चोटियां सदैव बर्फ से ढकी रहती हैं। फिर बीच-बीच में गंगोत्री हिमनद ग्लेषियर बर्फ के लम्बे चौडे मैदान हैं। सतत बर्फ के नीचे ढके रहने वाले क्षेत्र साल में छह माह बर्फ से ढके रहते हैं। बसंत ऋतु आते ही बर्फ पिघलने लगती है और इसके नीचे मखमली घास यानि बुग्याल उग आती हैं। पहाडी ढालों के जंगल नदियों की मॉ हैं। मिट्टी बनाने के कारखाने हैं। हिमालय इतना विशाल और महान हैं कि वह केवल उसकी गोद में बसने वाले पर्वतीय लोगों का पिता की पालन पोषण ही नहीं करता बल्कि इससे निकलने वाली नदियां समुद्र में मिलती हैं। २५०० किमी० लम्बी और कई किमी० चौडी यह पर्वतवाला अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, चीन, भूटान, वर्मा और बंगलादेश के जीवन को प्रभावित करता है। यह इस्लाम, बौद्ध, हिन्दू और अन्य संस्कृति का संगम है। हजरत बल, अमरनाथ, गंगोत्री, बदरीनाथ, केदारनाथ, रुमटेक बौद्ध मठ जैसे धर्मो के पवित्र तीर्थ हिमालय में है। हिमालय और खासतौर से इसके अन्तर्गत उत्तराखण्ड का पवित्र क्षेत्र तपोभूमि के नाम से विख्यात है। अनादिकाल से यहां पर कई तपस्वियों ने तप किया। मानव जाति कल्याण के लिए चिंतन किया और महान ग्रंथों की रचना की। व्यास देव ने बदरी वन में १८ पुराणों की रचना की। भगीरथ जी की तपोभूमि गंगोत्री थी। हिमालय की बेटी गंगा जो सब नदियों की प्रतीक है। करोडों लोग अपनी मॉ मानते हैं। गंगा मैय्या ने मॉ की तरह पालन पोषण किया। गंगा जल के पान और स्नान से कई रोगों से मुक्ति होती हैं। गंगा और हिमालय केवल पर्वतवासियों और भारतवासियों की ही नहीं सारी मानव जाति की अनमोल विरासत हैं। परन्तु आज अनमोल विरासत पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। हिमालय खल्वाट हो गया है। इससे निकलने वाली नदी-नालों में पानी या तो बहुत कम दिखाई देता है या कभी तबाही मचाने वाली बाढे आती हैं। हिमालय अब कुद्ध पिता की तरह कठोर दण्ड देने वाला दिखाई दे रहा है परन्तु यह शुरुआत हमारी ओर से पहले शुरु हुई। वनों की व्यापारिक कटाई, इसके बाद चीड जैसे पेडों को पनपाया गया, मिट्टी और पानी का संरक्षण करने, चारा और खाना देने वाले वन लुप्त हो गये। पानी के स्रोत सूखने लगे। तीखे ढालों पर खेती होने से उपजाऊ मिट्टी बहकर चली गयी। हिमालय का प्राकृतिक सौन्दर्य लौटाने के प्रयास नहीं हुए। वन, हिमालय, गंगा का महत्व नजरअंदाज हो रहा है। प्राकृतिक विरासत की ओर ध्यान न दिये जाने का खामियाजा सम्पूर्ण मानव जाति को भुगतना पडे तो आश्चर्य नहीं। 

*माँ गंगा की आत्मकथा

* * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *राजकुमार शर्मा

मै स्वर्ग की अनन्त सीमाओं में स्वच्छंद विचरण करती हुई अपना विशिष्ट प्रभुत्व बनाये हुए सभी देवों की पूज्य हुआ करती थी.युगों पूर्व राजा भगीरथ के कठोर तप,प्रबल आग्रह से वशीभूत हो कर मुझे भगीरथ के पूर्वजों और राजा सगर के साठ हजार पुत्रों का उद्धार करने के लिए धरती पर आना पडा.इस धरती पर मेंरे प्रवल वेग को रोकने के लिए देवाधिदेव महादेव की सक्षमता का भान कर मुझे उनकी हिमाच्छादित पर्वत श्रेणियों रूपी जटाओं में उतरना पडा.स्वर्ग से उतर कर हिमालय क्षेत्र की अनेक पर्वत श्रृंखलाओं से गुजरते हुए विविध जल धारोओं के रूप में अपना मार्ग प्रषस्त करती हुयी इस पवित्र धरती की प्यास बुझाने का लक्ष्य पूर्ण करने का संकल्प लिए ,अनन्त यात्रा पर निकल पडी हूं. इन हिमाच्छादित पर्वत मालाओं का नैसर्गिक सौन्दर्य मुझे अद्वितीय आनन्द की अनुभूति कराता है. ऋशि मुनियों, तपस्वियेंा,साधकों अराधकों ,उपासकों की हिम कन्दराओं से उठने वाली भक्तिमय अविरल ,उत्कृश्ट विचार धारोओं से उत्पन्न सभी भाव तरंगे व वेद ऋचाओं से उत्पन्न *मधुर ध्वनियां मुझे युगों-युगों से मोहित करती आ रही है. इस मधुर संगीत मय वातावरण से उत्पन्न तरंगे मुझे मेरे गंतव्य तक पहुचने की प्रेरणा व षक्ति प्रदान करती आ रही हैं. इस मन मोहक नैसर्गिक परिवेष में स्थिर रह जाने की तीब्र इच्छा होते हुए भी मुझे अपने स्वभाव के वषीभूत होकर लम्बे मार्ग में पडने वाले जल जीव,प्राणीजगत,वन्यजीवों खेत मैदानों के वनस्पतियों के साथ जगत का भरण पोशण करते हुए अपने पिता ’सागर’ तक की यात्रा को आने वाले युगों-युगों तक सतत बनाये रखना है.अनेक हिमश्रृखलाओं के पर्वत श्रेणीयों से निकलने वाली जल धाराओं को अपने स्वरूप में एकाकार करते हुए पूर्णता को प्राप्त करके सागर में समाहित होते रहना है. इससे आगे कि सागर में मिल कर भी हमे अपना अस्तित्व ’गंगासागर’ के रूप में बनाये रखना है .*

धरा पर अवतरण के बाद आरम्भ में मुझे ’अलकनन्दा’ ,’भागीरथी’ दो मुख्यधाराओं के रूप में जाना जाता है. अलकनन्दा के नाम से पहचानी जाने वाली मैं वसुधारा के रूप में प्रकट होकर अपनी अनन्तयात्रा सृश्टि के आदिकाल से पूर्ण करती आ रही हूँ. अपनी इस यात्रा पथ में मेरा सर्वप्रथम परिचय भारत की सीमा पर बसे माणागांव के वनवासियों से होता है. इस माणागांव में महाभारत काल के समय स्वर्गारोहण के समय भीम द्वारा स्थापित ’भीमषिला’ आज भी पर्वास्थित में विद्यमान लोगों को मेरे दोनों किनारों के आर-पार जाने में सहायक सिद्ध होकर सेतु की भूमिका निभा रही है.यही पर मुझे पावन व्यास गुफा के दर्षन होते है.इसी पावन गुफा में बैठ कर महर्शि वेदव्यास ने चार वेद,अठ्ठारह पुराण की रचना की थी.इसी पावन क्षेत्र में आगे बढते ही पवित्र नदी सरस्वती से मेरा मिलन होता है.ऐसी मान्यता है कि यही से सरस्वती मेरे में अदृष्य रूप से प्रयाग तक जाती है,और वहा प्रकट होकरत्रिवेणी*संगम को गौरव प्रदान करती है.आगे नर-नारायण पर्वत के मध्य से गुजर कर पावन ’नारायणधाम’ बद्रीनाथ धाम में विश्णुभगवान के पाव प्रच्छालन *का सौभग्य प्राप्त होता है.इस पावन ’मोक्षधाम’ में वर्श के छःमाह मई से नवम्बर तक देष विदेष के लाखों श्रद्धालूओं द्वारा मेरे प्रति अगाधप्रेम प्राप्त होता है.सूर्य की उपासना के फलस्वरूप प्राप्त हुए एक हजार अजेय कवच धारण करने वाले निरकुंष, अत्याचारी ’सहस्त्रकवची’ नामक राजा के अत्याचार से धरा को मुक्त कराने वाले नर-नारायण नाम से आज भी विख्यात द्वय पर्वतों के मध्य अंचल से प्रवाहित होने पर मुझे असीम आनन्दानुभूति होती है.अनेक हिम जलधाराओं को अपने में अंगीकार करते हुए अनेक वन्यजीवों ,वनस्पतियों को जीवन देते हुए पावन क्षेत्र पाण्डूकेष्वर पहुंचती हूं. इसी क्षेत्र में गोविन्दघाट में प्रख्यात गुरू गोविन्द सिंह की तपस्थली हेमकुण्ड साहब ,विष्वविख्यात फूलों की घाटी से प्रवाहित होकर आने वाली पावन जलधाराओं से मेरा हर्श और भी बढ जाता है .वर्श के पांच माह हेमकुण्ड साहब आने वाले लाखों श्रद्धालूओं,फूलों की घाटी आने वाले सैलानियों का जो स्नेह मुझे मिलता है वही मुझे गति देती है.आदिजगतगुरू षंकराचार्य की तपस्थली के साथ ज्ञानास्थली ’ज्योर्तिमठ’ से सदूर नीतिघाटी की हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं और घाटिओं से निकलने वाली विश्णुगंगा मेरे में समाहित होकर एकाकार हो जाती है.जिस स्थल पर विश्णुगंगा का मुझसे मिलन होता है उसे पावन ’विश्णुप्रयाग’ के नाम से जाना जाता है,जिसमें स्नान से तीर्थयात्रियों को विश्णुपद की प्राप्ति होती है.’हाथीपीठ पर्वत’ की तलहटी से चलते हुए पावन ज्यार्तिमठ का अभिनन्दन स्वीकारते हुए मेरी यात्रा आगे ’पातालगंगा’ को अपने में समाहित करते हुए आगे पीपलकोटी कस्बे की सकरी घाटियों से होते हुए ’गरूणगंगा’ से मेरा मिलन होकर, *चमोली कस्बे को आनन्दित करते हुए मै नन्दप्रयाग पहुंचती हूँ . इस क्षेत्र की मेरी यात्रा कुछ खास हो जाती है,इस क्षेत्र में ही नन्दादेवी की हिमषिखरों से हो कर आ रही नदियों को समेट कर आयी हुई मन्दाकिनी की पावन मिलन स्थली ’नन्दप्रयाग’ के नाम से विख्यात होती है.यह भी मेरे मिलन के कारण ही पावन तीर्थ बन जाता है. नन्दप्रयाग का विह्गंम दृष्य देखते हुए हिमालय के सर्पाकार मार्ग से होकर कर्णप्रयाग पहुंच कर पिडर नदी का मुझसे मिलना हमें अतिसय आनन्द प्रदान करता है.कर्णप्रयाग में जहंा पिण्डर नदी का मुझसे मिलन होता है वह मिलन स्थल ’कर्णप्रयाग’ के नाम से श्रद्धालूओं को अनेक पूर्ण्य को प्रदान करने पाला जनास्था स्थली के रूप में विख्यात होता है.इसी मार्ग में मेरे द्वारा गायों की भरण पोशण के लिए छोडा गया ’गोचर’ एक मनोहारी घाटी है जिससे अनेक गांवों को छोडते हुए कोटेष्वरमहादेव का नमन करते हुए तीर्थनगरी रूद्रप्रयाग पहुंच कर अपनी चीरसंगिनी मंदाकिनी को अलिगंन वद्ध हो कर मै धन्य-धन्य हो उठती हूं . भगवान षिव के ज्यार्तिलिंग केदारनाथ धाम से हिमलयी जीवों वनस्पतियों तीर्थ यात्रियों को आनन्दित करके महादेव षिव की परिक्रमा कर मिलने वाली मंदाकिनी भी हमारी हम रूप भगनी है,हम दोनों बहनों के मिलन से पावन तीर्थ ’रूद्रप्रयाग’ का नामकरण हुआ.हिमालय के दो बडे धामों का हृदयभाग होने के कारण अनके जानकार तीर्थयात्री इस पावन तीर्थ में गोता लगा कर ही ’देव’,’नारायण’ धाम को प्रस्थान करते है. इसके भी आगे मां धरी देवी की तलहटी से होकर श्रीनगर जिसे षिक्षा और यष की नगरी के रूप में सम्मान प्राप्त है कि घाटी को पार करते हुए अध्यत्मिक नगरी देवप्रयाग पहुंचती हूँ ,जंहा मेरी पांचवी बहन ’भागीरथी’ और मेरा मिलन होता है उस पावन स्थल को देवप्रयाग के नाम से प्रसिद्धि मिली है.राजा भागीरथी की तप से निकली इस पावन धारा का नाम ही भागीरथी पडा,जो गोमुख के हिमस्थलो(ग्लेष्यिरो)से निकल कर गंगोत्री की परिक्रमा करते हुए हनुमानचट्टी ,हर्शिल की धरा को*रमणीयता प्रदान करते हुए उत्तरकाषी पहुंचती ह. उत्तरकाषी पहुंचते- पहचते विलासिता की इच्छा रखने वाले मानव के सुख की कामना के लिए हमें विद्युत उत्पादन के लिए कई बार मानव द्वारा बांध फास में हमें बांधा जाने का क्रम षुरू हो जाता है.हमे यह कहने में सकोच नही है कि ’कलयुग’ का मानव हमें अब आस्था की भावना से न देखकर महज अपनी ’लाभ’ और ’सुविधा’ की दृश्टि से देख रहा है……….माता कुमाता नही होती के भाव को आज भी धारण करके टिहरी के आगे एक लम्बि यात्रा पूर्ण करके देवप्रयाग में भागीरथी और अलकनन्दा का मिलन मुझे पूर्णता का अनुभव कराता है,इसी के चलते दोनों नदियों का नाम और अस्तित्व भी हम में ही समाहित हो जाता है.इसके आगे मै पुरी तरह से गंगा के नाम से जानी पहचानी जाती हूं.नदियों के मिलन के साथ पहाडों में भटकाव के साथ मेरा यौवनावस्था भी समाप्त हो जाता है आगे मैं अपनी गम्भीरता के लिए जानी जाती हूँ . पवित्र संगम ब्यास घाट पहुंचती ह यह पर धूतातोली पर्वत श्रृंखलाओं से आरम्भ करने वाली पूर्वी नायर और पष्चिमी नायर,उनकी नदियों का मिला जुला स्वरूप नायर नदी आ मिलती है,कोडियाली, व्यासी, षिवपुरी जैसे अनेक मनोहारी स्थलों को पहचान प्रदान करते हुए मोहनचट्टी,लैंसडाउन,ढगू,उदयपुर की वादियों से आगे वाली ह्यूवल नदी को अपनाती हुई पावन साधना और धर्मनगरी ऋशिकेष पहुचती हूँ .मै आज भी सौ योजन से गंगा के नाम से मातृभाव से पुकारने वाले ’भक्त’ के कल्याण के लिए दौड पडती हूं मेरे दर्षन मात्र से मुक्ति आज भी सम्भव है,यह एक सच है,इसके हजारों प्रमाण है.तीर्थनगरी हरिद्वार में हममें से जो गंग-नहर निकाली गयी उससे मानव की समृद्धि बढी है.हर बारह वर्श बाद हरिद्वार में पूर्ण कुम्भ,छःवर्श बाद हम पर हरिद्वार में अद्धकुम्भ आयोजित होते है जिसमें लाखों देषी-विदेषी भक्त भाग ले की पूण्य अर्जित करते है.इसी यात्रा म अपने साथ इन हिमालयी पहाडयों से उपजाऊ मिट्टी और रेता ले कर आती हूं जो खेतों में उपज और षहरों में भवन निर्माण के लिए उपयोगी सिद्ध होता है,मेरी यात्रा अनेक मैदानी गांव षहर से होकर देष के कल-कारखानों के लिए विख्यात नगरी कानपुर पहुंचती है. कानपुर में हमारे प्रति जो निर्दयता का भाव देखने को मिलता है,उसकी चर्चा करना हमारे मातृ स्वभाव के विपरित हो गया है.माँ होने के गौरव के साथ हमें उसका दर्द भी ढोना पडता है,वैसे तो हमारे प्रति निर्ममता का भाव देवभूमि से ही सहना पडा,कानपुर में तो हमे मल ढोने वाली की दृश्टि से मिलमालिक धनवान लोगों सहित जनता ने भी देखा,दर्दभरी बेदना से कराहती मै किसी तरह तीर्थ नगरी प्रयाग पहुंचती हूँ .तीर्थराज प्रयाग ने मेरा गर्मजोषी से स्वागत किया,प्रयाग पहुंचते पहुंचते मै बुढी, विमार सी दिखने लगी,हिमालय से लेकर मैदान तक हमे ’लाष ढोने के साथ मल ढोने का साधन” मान कर मानव ने जो ब्यवहार मेरे साथ किया उसकी पीडा मेरी आंखों में छलकती देखी जा सकती है.तीर्थराज प्रयाग पहुंच कर मेरा मन बहुत प्रसन्न है क्योंकि चिरप्रतिक्षित यमुना-सरस्वती से गरबहिया करने का एक पावन अवसर मिला,प्रयाग से मैं पूर्वमुखी हो कर ’आद्यषक्ति’ ’महामाया’ विंध्यवासिनी से मिलने , विन्ध्यपर्वत से मिलने मै सभी दर्द भूला कर आगे बढ गतिषील हो चलती रही,रास्ते में मुझे सीता समाहित स्थल पर मेरा अभिवादन संतजनों ने किया.सीता के धरती में समाहित होने की दर्द भरी कहानी ने मेरी आंखे खोल दी.मर्यादापुरूशोतम राम की तिरस्कार से तंग सीता ने माता धरती की कोख में समाना ही उचित समझा.इस घटना ने हमें भी बहुत ढाढस बधाया,जगतपति बाबा विष्वनाथ से मिलने की आस के साथ मै विंध्यनगरी पहुंची.जंहा देखा कि विन्ध्यपर्वत के अह्म रूपि सिंह पर महामाया विराजमान है,मेरे विन्ध्यनगरी आने की खबर मिलते ही विन्ध्यपर्वत ने हाथ फैलाकर मेरा रामगया घाट पर ही स्वागत किया,जिसके कारण अध्यात्मिक विन्ध्य-गंगा का एक पावन संगम हो गया,वही दषो विद्या की अधिश्ठाति देवी तार माँ ने भी अपना आदर दिया,तीनों महाषक्तियां भी मेरे बाबा के धाम हो कर पिता सागर के घर तक जाने की खबर पर अपनी षुभ कामना दी.विंध्यक्षेत्र से आगे बढते ही एतिहासिक दुर्ग चुनार ने हमसे मिल कर भोले नाथ की विख्यात नगरी काषी का मार्ग दर्षन किया और मैं चुनार से ही उत्तरायण हो गयी.काषी पहँचते ही जगतपति की समाधि को मेरी कलकल की धाराओं की आवाज ने भंग कर दिया.काषी से हमें आगे बढने की प्रबल प्रेरणा मिली,आगे पुनःपूर्व की ओर अविरल बहते हुए मैने विहार ,बंगाल की यात्रा पूर्ण करके अपने नसैगिक स्थान गंगासागर की ओर चलती रही.हमने अपनी इस यात्रा में अपनी अन्य छोटी बहने रामगंगा,गोमती,कोसी,बुढीगढक सोन आदि जो हमसे अब तक नही मिली थी उन्हे भी सहेजने का काम किया.जो भी छोटी नदी हमसे विछुडी थी उन्हे भी विना भेद किये अपने में समाहित कर अपना नाम दे कर अपने लक्ष्य की ओर बढ चली मेरा स्वभाव है सब का कल्याण,मैं आज भी उसी स्वभाव पर कायम हूँ.मानव का बदलता स्वभाव मेरे लिए कश्ट का कारण तो बना ही है,कही यह गलती उसके सत्यानाष का भी कारण न बन जाय.मेरी अविरलता को हानि पहुंचा कर अपनी विलासिता की रोटी सेकने वालों को सम्भलने का अभी भी समय है,मैं तो सब की माँ हूँ ,माँ भाव से ही मैं सबका कल्याण चाहती हूँ.मेरा स्वभाव मातृवत सब के कल्याण का है,मै भला अपने बच्चों में भेद कैसे कर सकती हूँ,यही मेरा स्वभाव है,यही मेरी आत्मकथा है.

 

 

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CHANDRA SHEKHAR   JOSHI- EDITOR   Mob. 9412932030    

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