काले कौवा काले घुघुति माला खा ले- कुमायूं उत्तराखण्ड का प्रमुख लोकपर्व;कौवों को क्यों न्यौतते हैं घुघुतिया में
कुमाऊँ में मकर संक्रान्ति को उत्तरायणी के साथ साथ घुघुतिया त्यार के नाम से ज्यादा जाना जाता है। यह त्यौहार विशेषतः बच्चों और कौओं के लिए बना है। इस त्यौहार के दिन सभी बच्चे कौवों को बुलाकर कई तरह के पकवान खिलाते हैं और कहते हैं ” काले कौवा काले घुघुति माला खा ले”। Execlusive Report by Chandra Shekhar Joshi- Editor
काले कौवा काले घुघुति माला खा ले’। ‘लै कौवा भात में कै दे सुनक थात’। ‘लै कौवा लगड़ में कै दे भैबनों दगड़’। ‘लै कौवा बौड़ मेंकै दे सुनौक घ्वड़’। ‘लै कौवा क्वे मेंकै दे भली भली ज्वे’।> >
मकर संक्रांति 14 जनवरी को है. उत्तर प्रदेश में इसे खिचड़ी (Khichdi), उत्तराखंड में घुघुतिया (Ghughutiya) या काले कौवा (Kale Kauva), मान्यता है कि चंद्रमा का प्रतीक चावल को माना जाता है, काली उड़द की दाल को शनि का और हरी सब्जियां बुध का प्रतीक होती है. कुंडली में ग्रहों की स्थिती मजबूत करने के लिए कहा जाता है कि मकर संक्रांति पर खिचड़ी खानी चाहिए. इसलिए इस मौके पर चावल, काली दाल, नमक, हल्दी, मटर और सब्जियां डालकर खिचड़ी बनाई जाती है.
उत्तराखंड में मकर संक्रांति (Makar Sankranti) को घुघुतिया (Ghughutiya) संक्रांति या पुस्योड़िया संक्रांति भी कहते हैं. उत्तराखंड में इसके अन्य नाम मकरैण, उत्तरैण, घोल्डा, घ्वौला, चुन्यात्यार, खिचड़ी संक्रांति, खिचड़ी संगरादि भी हैं.
मान्यता है कि मकर संक्रांति के दिन ही भगीरथ के आग्रह और तप से प्रभावित होकर गंगा उनके पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम पहुंची और वहां से होते हुए वह समुद्र में जा मिली थीं. यही वहज है कि इस दिन गंगा स्नान का खास महत्व माना जाता है. मकर संक्रांति के दिन व्रत रखने का प्रावधान माना जाता है. इस दिन पूजा करने के लिए तिल को पानी में मिलाकार नहाने की बात कही जाती है. पूजा से पहले नहाने के पानी में गंगा जल भी डाला जा सकता है. नहाने के बाद सूर्यदेव की पूजा-अर्चना की जाती है. वहीं, मकर संक्रांति पर पूर्वजों और पितरों को तर्पण करने का भी प्रावधान है.
मकर संक्रांति के त्यौहार के दिन अनेक पकवान कव्वों को खिलाये जाते हैं. घुघता इन पकवानों में मुख्य है. घुघुत एक पक्षी का नाम भी है. त्यौहार के दिन बनने वाला घुघुत पकवान हिन्दी के अंक ४ के आकार का होता है. आटे को गुड़ में गूंदने के बाद उससे घुघते बनाए जाते हैं. इस बात को कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं है कि यह त्यौहार कब से और क्यों मनाया जाता है. इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि इस पकवान को घुघता क्यों कहते हैं.
जनश्रुति है. कहते हैं सालों पहले उत्तराखंड क्षेत्र में एक राजा हुआ करता था. उसे एक ज्योतिषी ने बताया कि उस पर मारक ग्रहदशा आयी हुई है. यदि वह घुघुतों (फ़ाख्तों) का भोजन कव्वों को करा दे तो उसके इस ग्रहयोग का प्रभाव टल सकता है. राजा अहिंसावादी था. उसे संक्रांति के दिन निर्दोष पक्षियों को मारना ठीक नहीं लगा. उसने उपाय के तौर पर गुड़ मिले आटे के प्रतीकात्मक घुघते बनवाये. राज्य के बच्चों से कव्वों को इसे खिलवाया तभी से यह परम्परा चल पड़ी.
कव्वे को पकवान खिलने के संबंध में एक अन्य मान्यता यह है कि ठण्ड और हिमपात के कारण अधिकांश पक्षी मैदानों की ओर प्रवास कर जाते हैं. कव्वा पहाड़ों से प्रवास नहीं करता है. कव्वे के अपने प्रवास से इस प्रेम के कारण स्थानीय लोग मकर संक्रांति के दिन उसे पकवान खिलाकर उसका आदर करते हैं. गढ़वाल में इसे ‘चुन्या त्यार’ भी कहा जाता है. इस दिन वहां दाल, चावल, झंगोरा आदि सात अनाजों को पीसकर उससे चुन्या नाम का विशेष व्यंजन तैयार किया जाता है. इस दिन गढ़वाल में आटे के मीठे घोल्डा/ घ्वौलो के बनाये जाने के कारण इसे घोल्डा या घ्वौल भी कहा जाता है.
लोककथा के अनुसार कहा जाता है कि बहुत समय पहले घुघुत नाम का एक राजा हुआ करता था. एक ज्योतिषी ने उसे बताया कि मकर संक्रांति की सुबह कव्वों द्वारा उसकी हत्या कर दी जायेगी. राजा ने इसे टालने का एक उपाय सोचा. उसने राज्य भर में घोषणा कर दी कि सभी लोग गुड़ मिले आटे के विशेष प्रकार के पकवान बनाकर अपने बच्चों से कव्वों को अपने अपने घर बुलायेंगे. इन पकवानों का आकर सांप के आकार के रखने के आदेश दिए गये ताकि कव्वा इन पर और जल्दी झपटे. राजा का अनुमान था कि पकवान खाने में उलझ कर कव्वे उस पर आक्रमण की घड़ी को भूल जायेंगे. लोगों ने राजा के नाम से बनाये जाने वाले इस पकवान का नाम ही घुघुत रख दिया. तभी से यह परम्परा चली आ रही है.
इस त्योहार के संबंध में एक प्रचलित कथा के अनुसार बात उन दिनों की है, जब कुमाऊं में चन्द्र वंश के राजा राज करते थे। राजा कल्याण चंद की कोई संतान नहीं थी। उनका कोई उत्तराधिकारी भी नहीं था। उनका मंत्री सोचता था कि राजा के बाद राज्य मुझे ही मिलेगा।
एक बार राजा कल्याण चंद सपत्नीक बाघनाथ मंदिर में गए और संतान के लिए प्रार्थना की। बाघनाथ की कृपा से उनका एक बेटा हो गया जिसका नाम निर्भयचंद पड़ा। निर्भय को उसकी मां प्यार से ‘घुघुति’ के नाम से बुलाया करती थी। घुघुति के गले में एक मोती की माला थी जिसमें घुंघुरू लगे हुए थे। इस माला को पहनकर घुघुति बहुत खुश रहता था। जब वह किसी बात पर जिद करता तो उसकी मां उससे कहती कि जिद न कर, नहीं तो मैं माला कौवे को दे दूंगी।
उसको डराने के लिए कहती कि ‘काले कौवा काले घुघुति माला खा ले’। यह सुनकर कई बार कौवा आ जाता जिसको देखकर घुघुति जिद छोड़ देता। जब मां के बुलाने पर कौवे आ जाते तो वह उनको कोई चीज खाने को दे देती। धीरे-धीरे घुघुति की कौवों के साथ दोस्ती हो गई।
उधर मंत्री, जो राजपाट की उम्मीद लगाए बैठा था, घुघुति को मारने की सोचने लगा ताकि उसी को राजगद्दी मिले। मंत्री ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर षड्यंत्र रचा। एक दिन जब घुघुति खेल रहा था, तब वह उसे चुप-चाप उठाकर ले गया।
जब वह घुघुति को जंगल की ओर लेकर जा रहा था, तो एक कौवे ने उसे देख लिया और जोर-जोर से कांव-कांव करने लगा। उसकी आवाज सुनकर घुघुति जोर-जोर से रोने लगा और अपनी माला को उतारकर दिखाने लगा।
इतने में सभी कौवे इकट्ठे हो गए और मंत्री और उसके साथि साथीयों पर मंडराने लगे। एक कौवा घुघुति के हाथ से माला झपटकर ले गया। सभी कौवों ने एकसाथ मंत्री और उसके साथियों पर अपनी चोंच और पंजों से हमला बोल दिया। मंत्री और उसके साथी घबराकर वहां से भाग खड़े हुए।
घुघुति जंगल में अकेला रह गया। वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया तथा सभी कौवे भी उसी पेड़ में बैठ गए। जो कौवा हार लेकर गया था, वह सीधे महल में जाकर एक पेड़ पर माला टांगकर जोर-जोर से बोलने लगा।
जब लोगों की नजरें उस पर पड़ीं तो उसने घुघुति की माला घुघुति की मां के सामने डाल दी। माला सभी ने पहचान ली। इसके बाद कौवा एक डाल से दूसरी डाल में उड़ने लगा। सबने अनुमान लगाया कि कौवा घुघुति के बारे में कुछ जानता है।
राजा और उसके घुडसवार कौवे के पीछे लग गए। कौवा आगे-आगे और घुड़सवार पीछे-पीछे। कुछ दूर जाकर कौवा एक पेड़ पर बैठ गया।
राजा ने देखा कि पेड़ के नीचे उसका बेटा सोया हुआ है। उसने बेटे को उठाया, गले से लगाया और घर को लौट आया। घर लौटने पर जैसे घुघुति की मां के प्राण लौट आए। मां ने घुघुति की माला दिखाकर कहा कि आज यह माला नहीं होती तो घुघुति जिंदा नहीं रहता।
राजा ने मंत्री और उसके साथियों को मृत्युदंड दे दिया। घुघुति के मिल जाने पर मां ने बहुत सारे पकवान बनाए और घुघुति से कहा कि ये पकवान अपने दोस्त कौवों को बुलाकर खिला दे। घुघुति ने कौवों को बुलाकर खाना खिलाया। यह बात धीरे-धीरे सारे कुमाऊं में फैल गई और इसने बच्चों के त्योहार का रूप ले लिया। तब से हर साल इस दिन धूमधाम से इस त्योहार को मनाते हैं। इसके लिए हमारे यहां एक कहावत भी मशहूर है कि श्राद्धों में ब्राह्मण और उत्तरायनी को कौवे मुश्किल से मिलते हैं।
मीठे आटे से यह पकवान बनाया जाता है जिसे ‘घुघुत’ नाम दिया गया है। इसकी माला बनाकर बच्चे मकर संक्रांति के दिन अपने गले में डालकर कौवे को बुलाते हैं और कहते हैं –
उत्तराखंड राज्य के कुमाऊं में मकर संक्रांति पर ‘घुघुतिया’ के नाम एक त्योहार मनाया जाता है। इस त्योहार की अपनी अलग ही पहचान है। त्योहार का मुख्य आकर्षण कौवा है। बच्चे इस दिन बनाए गए घुघुते कौवे को खिलाकर कहते हैं-
‘काले कौवा काले घुघुति माला खा ले’।
काले कौवा काले घुघुति माला खा ले’। ‘लै कौवा भात में कै दे सुनक थात’।
‘लै कौवा लगड़ में कै दे भैबनों दगड़’। ‘लै कौवा बौड़ मेंकै दे सुनौक घ्वड़’।
‘लै कौवा क्वे मेंकै दे भली भली ज्वे’।> >
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कौवों को क्यों न्यौतते हैं घुघुतिया में
उत्तरायणी में कौवो को खिलाने की परंपरा के बारे में एक और लोक कथा इस प्रकार है– बात उन दिनों की है जब कुमाऊँ में चन्द्र वंश का राज हुआ करता था. उस समय के चन्द्रवंशीय राजा कल्याण चंद की कोई संतान नहीं थी, जो उसकी उत्तराधिकारी बनती. इस वजह से उसका मंत्री सोचता था कि राजा की मृत्यु के बाद वही अगला शासक बनेगा. एक बार राजा कल्याण चंद रानी के साथ बाघनाथ मन्दिर गए और पूजा-अर्चना कर संतान प्राप्ति की कामना की. बाघनाथ की अनुकम्पा से जल्द ही उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई. पुत्र का नाम निर्भय चंद रखा गया. निर्भय को उसकी माँ लाड़ से उत्तराखंड की एक चिड़िया घुघुति के नाम से बुलाया करती. घुघुति के गले में मोतियों की एक माला सजी रहती, इस माला में घुंघरू लगे हुए थे. जब माला से घुंघरुओं की छनक निकलती तो घुघुती खुश हो जाता था. घुघुती जब किसी बात पर अनायास जिद्द करता तो उसकी माँ उसे धमकी देती कि वे माला कौवे को दे देंगी. वह पुकार लगाती कि ‘काले कौवा काले घुघुति माला खाले’ पुकार सुनकर कई बार कौवा आ भी जाता. उसे देखकर घुघुति अपनी जिद छोड़ देता. जब माँ के बुलाने पर कौवे आ ही जाते तो वह उनको कोई न कोई चीज खाने को दे देती. धीरे-धीरे घुघुति की इन कौवों के साथ अच्छी दोस्ती हो गई.
उधर मंत्री जो राज-पाट की उम्मीद में था, घुघुति की हत्या का षड्यंत्र रचने लगा. मंत्री ने अपने कुछ दरबारियों को भी इस षडयंत्र में शामिल कर लिया. एक दिन जब घुघुति खेल रहा था तो उन्होंने उसका अपहरण कर लिया. वे घुघुति को जंगल की ओर ले जाने लगे. रास्ते में एक कौवे ने उन्हें देख लिया और काँव-काँव करने लगा. पहचानी हुई आवाज सुनकर घुघुति जोर-जोर से रोने लगा. उसने अपनी माला हाथ में पकड़कर उन्हें दिखाई.
धीरे-धीरे जंगल के सभी कौवे अपने दोस्त की रक्षा के लिए इकट्ठे हो गए और मंत्री और उसके साथियों के ऊपर मंडराने लगे. मौका देखकर एक कौवा घुघुति के हाथ से माला झपट कर ले उड़ा. सभी कौवों ने एक साथ मंत्री और उसके साथियों पर अपनी चोंच व पंजों से जोरदार हमला बोल दिया. इस हमले से घबराकर मंत्री और उसके साथी भाग खड़े हुए. घुघुति जंगल में अकेला एक पेड़ के नीचे बैठ गया. सभी कौवे उसी पेड़ में बैठकर उसकी सुरक्षा में लग गए.
इसी बीच हार लेकर गया कौवा सीधे महल में जाकर एक पेड़ पर माला टांग कर जोर-जोर से चिल्लाने लगा. जब सभी की नजरें उस पर पड़ी तो उसने माला घुघुति की माँ के सामने डाल दी. माला डालकर कौवा एक डाल से दूसरी डाल में उड़ने लगा. माला पहचानकर सभी ने अनुमान लगाया कि कौवा घुघुति के बारे में कुछ जानता है और कहना चाहता है. राजा और उसके घुड़सवार सैनिक कौवे के पीछे दौड़ने लगे.
घुघुती की रक्षा
कुछ दूर जाने के बाद कौवा एक पेड़ पर बैठ गया. राजा और सैनिकों ने देखा कि पेड़ के नीचे घुघुती सोया हुआ है. वे सभी घुघुती को लेकर राजमहल लौट आये. घुघुती के घर लौटने पर जैसे रानी के प्राण लौट आए. माँ ने घुघुति की माला दिखा कर कहा कि इस माला की वजह से ही आज घुघुती की जान बच गयी. राजा ने मंत्री और षड्यंत्रकारी दरबारियों को गिरफ्तार कर मृत्यु दंड दे दिया.
घुघुति के सकुशल लौट आने की ख़ुशी में उसकी माँ ने ढेर सारे पकवान बनाए और घुघुति से ये पकवान अपने दोस्त कौवों को खिलाने को कहा. घुघुति ने अपने सभी दोस्त कौवों को बुलाकर पकवान खिलाए. राज परिवार की बात थी तो तेजी से सारे राज्य में फैल गई और इसने बच्चों के त्यौहार का रूप ले लिया. तब से हर साल इस दिन धूमधाम से यह त्यौहार मनाया जाता है. तभी से उत्तरायणी के पर्व पर कौवों को बुलाकर पकवान खिलाने की परंपरा चली आ रही है.
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