गोविन्द बल्लभ पंत जी ने सोलह हजार एकड का राजकीय फार्म बनाया
उत्तराखण्ड सरकार ने सिडकुल के नाम पर पंत जी द्वारा बसाया राजकीय फार्म सिडकुल को देकर पंत जी के सपनों को चकनाचूर किया– गोविन्द बल्लभ पंत जी ने सोलह हजार एकड का राजकीय फार्म बसाया था ; १७ जुलाई, १९३७ को गोविन्द बल्लभ पंत संयुक्त प्रान्त के प्रथम मुख्यमंत्री बने। जिसमें नारायण दत्त तिवारी संसदीय सचिव नियुक्त किये गये थे। मुख्यमंत्री के रुप में उनकी विशाल योजना नैनीताल तराई को आबाद करने की थी
स्वतंत्रता के पुनीत अवसर पर गोविन्द बल्लभ पंत द्वारा दिया गया सन्देशः- मित्रों और साथियों, इस ऐतिहासिक अवसर पर आप लोगों के प्रति हार्दिक शुभकामनाएं प्रक करते हुए मुझे हर्ष होता है। हम अपनी मंजिल पर पहुंच चुके हैं। हमें अपना लक्ष्य मिल गया है। भारतीय संघ के स्वतंत्र राज्य में मैं आपका स्वागत करता हूं। जनता के प्रतिनिधि राज्य और उसकी विभिन्न शाखाओं का नियंत्रण और संचालन करेगें और जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार केवल सिद्धान्त नहीं रहेगा वरन अब वह सब प्रकार से सक्रिय रुप धारण करेगा और सभी मानों में यह सिद्धान्त व्यवहार में लाया जाएगा। उत्तराखण्ड से हिमालयायूके न्यूज पोर्टल, दैनिक समाचार पत्र के सम्पादक चन्द्रशेखर जोशी की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट-
पन्त जी १९४६ से दिसम्बर १९५४ तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। पंतजी को भूमि सुधारों में पर्याप्त रुचि थी। २१ मई, १९५२ को जमींदारी उन्मूलन कानून को प्रभावी बनाया।
मुख्यमंत्री के रुप में उनकी विशाल योजना नैनीताल तराई को आबाद करने की थी। जून १९५० के अन्त तक १४,००० एकड भूमि को कृषि योग्य बना दिया गया था। ६९३ विस्थापित व्यक्तियों, ५०४ राजनीतिक पीडतों तथा ७५ भूतपूर्व सैनिकों को भूमि दी गई। ३३ गांव बसाये गये। ४५० किलोवाट क्षमता वाले एक बिजली घर की स्थापना की गई। रामपुर तथा बाजपुर और काशीपुर को मिलाने वाली सडके बनाई गई। रुद्रपुर नगर का विकास किया गया। पूर्वी बंगाल से आये हुए ३०० विस्थापित परिवारों को बसाया गया। तराई में गन्ने की खेती का विकास किया गया। १६ नये गांव बसाये गये। हल्द्वानी व नैनीताल नगर को दूध उपलब्ध कराने हेतु डेरी फार्म की स्थापना की गई। सोलह हजार एकड का राजकीय फार्म बनाया गया। जी.बी. पंत कृषि विश्वविद्यालय, व हवाई अड्डा उन्हीं की देन है। एक हजार एकड भूमि पर बाग लगाये गये। वन रोपण का काम भी चलवाया। इस तरह पंत जी एक विद्वान कानून ज्ञाता होने के साथ ही महान नेता व महान अर्थशास्त्री भी थे। कृष्णचन्द्र पंत उनके पुत्र केन्द्र सरकार में विभिन्न पदों पर रहते हुए योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी रहे।
जन्म दिवस पर विशेष- चन्द्रशेखर जोशी की विशेष रिपोर्ट
भारत रत्न पण्डित गोविन्द बल्लभ पंत संयुक्त प्रान्त के प्रथम मुख्यमंत्री बने। जिसमें नारायण दत्त तिवारी संसदीय सचिव नियुक्त किये गये थे। प्रधानमंत्री संयुक्त प्रान्त, सन् १९३७ से १९३९
मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश, सन् १९४६ से १९५४
गृहमंत्री भारत सरकार, सन् १९५५ से १९६१
पं. गोविन्द बल्लभ पंत का जन्म अल्मोडा के एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इस परिवार का सम्बन्ध कुमाऊं की एक अत्यन्त प्राचीन और सम्मानित परम्परा से है। पन्तों की इस परम्परा का मूल स्थान महाराष्ट्र में कोंकण प्रदेश माना जाता है और इसके आदि पुरुष माने जाते हैं जयदेव पंत। ऐसी मान्यता है कि ११वीं सदी के आरम्भ में जयदेव पंत तथा उनका परिवार कुमाऊं में आकर बस गया था।
पन्तों की वह शाखा, जिसमें पं० गोविन्द बल्लभ पंत के प्रपितामह श्री कमलाकांत नाथू का जन्म हुआ था, अल्मोडा जिले में गंगोलीहाट के समीप उपराडा, जजूट के निकट बस गई थी। यहां से इनकी एक शाखा खूंट चली गई और एक अन्य शाखा छखाता (भीमताल) को चली गई। कमलाकांत के पांच पुत्र थे १. महादेव, २. दुर्गादत्त, ३. शम्भूबल्लभ, ४. घनानंद ५. प्रेम बल्लभ। इनमें से चौथे पुत्र घनानंद, गोविन्द बल्लभ पंत के पितामह थे।
घनानंद पंत के तीन पुत्र थे १. नरोत्तम, २. मनोरथ ३. हरि।
मनोरथ जी का जन्म १८६८ में हुआ। उनका विवाह १८७८ में अल्मोडा के सदर अमीन श्री बद्रीदत्त जोशी की कन्या से हुआ। बद्रीदत्त जोशी ने अपने दामाद मनोरथ को अल्मोडा बुलाकर कुमाऊं कमिश्नर के विश्वस्त अधिकारी होने की वजह से मनोरथ को अल्मोडा की अदालत में रखवा दिया। जहां कुछ वर्षो वाद वे अहलमद हो गये।
१८९० में मनोरथ पंत का स्थानान्तरण जिला गढवाल के पौडी में हो गया। बाद में उनका तबादला काशीपुर हो गया। कुछ समय तक हल्द्वानी में कार्यवाहक नायब तहसीलदार के पद पर भी कार्य करने के बाद पुनः काशीपुर आये। उन दिनों पंत जी काशीपुर में वकालत करने लगे थे। १९१३ में मनोरथ जी को हैजा हो जाने से उनका देहान्त हो गया। उस समय उनकी आयु ४५ वर्ष की थी। यहीं पर १८८७ में बालक गोविन्द बल्लभ का जन्म हुआ। श्री मनोरथ पंत गोविन्द के जन्म से तीन वर्ष के भीतर अपनी पत्नी के साथ पौडी गढवाल चले गये थे। बालक गोविन्द भी कुछ बडा होने पर दो-एक बार पौडी गया परन्तु स्थायी रुप से अल्मोडा में ही रहा जहां उसका लालन-पोषण उसकी मौसी धनीदेवी ने किया। गोविन्द ने १० वर्ष की आयु तक शिक्षा घर पर ही ग्रहण की। १८९७ में गोविन्द को स्थानीय रामजे कालेज में प्राथमिक पाठशाला में दाखिल करा दिया गया और यज्ञोपवीत किया गया। १८९९ में १२ वर्ष की आयु में उनका विवाह पं. बालादत्त जोशी की कन्या गंगा देवी से हो गया, उस समय वह ७वीं क्लास में थे। गोविन्द ने लोअर मिडिल की परीक्षा संस्कृत, गणित, अंग्रेजी विषयों में विशेष योग्यता के साथ प्रथम श्रेणी में पास की। गोविन्द इण्टर की परीक्षा पास करने तक यहीं पर रहा। इसके पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तथा बी.ए. में गणित, राजनीति और अंग्रेजी साहित्य विषय लिए। इलाहाबाद उस समय भारत की विभूतियां पं० जवाहरलाल नेहरु, पं० मोतीलाल नेहरु, सर तेजबहादुर सप्रु, श्री सतीशचन्द्र बैनर्जी व श्री सुन्दरलाल सरीखों का संगम था तो वहीं विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान प्राध्यापक जैनिग्स, कॉक्स, रेन्डेल, ए.पी. मुकर्जी सरीखे थे। इलाहाबाद में नवयुवक गोविन्द को इन महापुरुषों का सान्निध्य एवं सम्फ मिला तथा इलाहाबाद के जागरुक, व्यापक और राजनैतिक चेतना से भरपूर वातावरण मिला।
ु गोविन्द के इलाहाबाद पहुंचने के एक महीने बाद ही २० जुलाई, १९०५ को बंगभंग की सरकारी घोषणा होने पर अंग्रेजी शासकों के खिलाफ आर्थिक युद्ध लडने की प्रेरणा दी।
पंत जी की कानून में स्वाभाविक रुचि थी। गर्मियों की छुट्टियों में अल्मोडा जाते थे तो कानून की पुस्तके ले जाते थे तथा खूब अघ्ययन करते थे। १९०९ में गोविन्द बल्लभ पंत को कानून की परीक्षा में विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम आने पर ”लम्सडैन“ स्वर्ण पदक प्रदान किया गया।
१९१० में गोविन्द बल्लभ पंत ने अल्मोडा से वकालत आरम्भ की। अल्मोडा में एक बार मुकदमें में बहस के दौरान उनकी मजिस्ट्रेट से बहस हो गई। अंग्रेज मजिस्ट्रेट को नये वकील का अधिकारपूर्वक कानून की व्याख्या करना बर्दाश्त नहीं हुआ, गुस्से में बोला- ”मैं तुम्हें अदालत के अन्दर नहीं घुसने दूंगा“ पर बिना हतप्रभ हुए गोविन्द बल्लभ ने तत्काल उत्तर दिया- ”मैं, आज से तुम्हारी अदालत में कदम नहीं रखगा।“
अल्मोडा के बाद पंतजी ने कुछ महीने रानीखेत में वकालत की, पर वह तहसील भी अल्मोडा के मजिस्ट्रेट के अधीन थी। अतः स्वाभिमानी पंत जी वहां से काशीपुर आ गये। उस समय कुमाऊं तथा गढवाल के बहुत बडे भाग के पर्वतीय इलाकों को कपडा तथा खाद्यान्न काशीपुर से ही भेजा जाता था। उन दिनों काशीपुर के मुकदमें एस.डी.एम. (डिप्टी कलक्टर) की कोर्ट में पेश हुआ करते थे। यह अदालत ग्रीष्म काल में ६ महीने नैनीताल व सर्दियों के ६ महीने काशीपुर में। इस प्रकार पंतजी का काशीपुर के बाद नैनीताल से सम्बन्ध जुडा।
सन् १९१२-१३ में पंतजी काशीपुर आये उस समय उनके पिता जी रेवेन्यू कलक्टर थे। श्री कुंजबिहारी लाल जो काशीपुर के वयोवृद्ध प्रतिष्ठित नागरिक थे, का मुकदमा पंतजी द्वारा लिये गये सबसे पहले मुकदमों में से एक था। इसकी फीस उन्हें ५ रु० मिली थी। १९०९ में पंतजी के पहले पुत्र की बीमारी से मृत्यु हो गयी, तथा कुछ समय बाद पत्नी गंगादेवी की भी मृत्यु हो गयी। उस समय उनकी आयु २३ वर्ष की थी। वह गम्भीर व उदासीन रहने लगे तथा समस्त समय कानून व राजनीति में देने लगे। घरवालों के दबाव पर १९१२ में पतजी का दूसरा विवाह अल्मोडा में हुआ। उसके बाद पंतजी काशीपुर आये। पंतजी काशीपुर में सबसे पहले नजकरी में नमकवालों की कोठी में एक साल तक रहे। १९१३ में पंतजी काशीपुर के मौहल्ला खालसा में ३-४ वर्ष तक रहे। अभी नये मकान में आये एक वर्ष भी नहीं हुआ था कि उनके पिता मनोरथ पंत का देहान्त हो गया। इस बीच एक पुत्र की प्राप्ति हुई पर उसकी कुछ महीनों बाद मृत्यु हो गयी। बच्चे के बाद पत्नि भी १९१४ में स्वर्ग सिधार गई।
१९१६ में पंतजी राजकुमार चौबे की बैठक में चले गये। चौबे जी पंतजी के अनन्य मित्रों में से थे। उनके द्वारा दबाव डालने पर पुनःविवाह के लिए राजी होना पडा तथा काशीपुर के ही श्री तारादत्त पाण्डे जी की पुत्री कलादेवी से विवाह हुआ। उस समय पन्तजी की अवस्था ३० वर्ष की थी।
गोविन्द बल्लभ पंत जी का मुकदमा लडने का ढंग निराला था, जो मुवक्किल अपने मुकदमों के बारे में सही-सही नहीं बताते या कुछ छिपाते तो पंतजी उनका मुकदमा लेने से इन्कार कर देते थे।
काशीपुर में एक बार गोविन्द बल्लभ पंत जी धोती, कुर्ता तथा गाँधी टोपी पहनकर कोर्ट गये। वहां अंग्रेज मजिस्ट्रेट द्वारा आपत्ति करने पर निर्भीकता पूर्वक कहा- मैं कोर्ट से बाहर जा सकता हूं पर यह टोपी नहीं उतार सकता।
एक बार एक थानेदार पर घुसखोरी का मुकदमा चला। उसकी ओर से गवाही देने के लिए नैनीताल से पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट मि० ब्रस आये। तो पंतजी ने कोर्ट में उनसे गवाह के कठघरे में खडा होने को कहा तो वह क्रोध म गरम होकर असंगत बाते कह गया। नतीजतन- उसका सारा केस ही खराब हो गया।
पन्त जी की वकालत की काशीपुर में धाक शीघ्र ही जम गई। और उनकी आय ५०० रुपए मासिक से भी अधिक हो गई। पंत जी का राजनीतिक जीवन के बारे में बताते हुए वयोवृद्ध समाजसेवी पं० रामदत्त पंत ने बताया था कि पंत जी के कारण काशीपुर राजनीतिक तथा सामाजिक दृष्टियों से कुमायूं के अन्य नगरों की अपेक्षा अधिक जागरुक था। अंग्रेज शासकों ने काशीपुर नगर को काली सूची में शामिल कर लिया। पंतजी के नेतृत्व के कारण नौकरशाही काशीपुर को ”गोविन्दगढ“ कहती थी।
१९१४ में काशीपुर में प्रेमसभा की स्थापना पंत जी के प्रयत्नों से ही हुई। ब्रिटिश शासकों को यह भ्रांति हो गई कि समाज सुधार के नाम पर यहां आतंकवादी कार्यो को प्रोत्साहन दिया जाता है। फलस्वरुप इस सभा को उखाडने के अनेक प्रयत्न किये गये पर पंत जी के प्रयत्नों से उनकी नहीं चली। १९१४ में पंत जी के प्रयत्नों से ही उदयराज हिन्दू हाईस्कूल की स्थापना हुई। राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के आरोप में ब्रिटिश सरकार ने इस स्कूल के विरुद्ध डिग्री दायर कर नीलामी के आदेश पारित कर दिये। पंत जी को पता चलने पर उन्होंने चन्दा मांगकर इसको पूरा किया।
१९१६ में पंतजी काशीपुर की नोटीफाइड ऐरिया कमेटी में नामजद किये गये। बाद में कमेटी की शिक्षा समिति के अध्यक्ष बने। कुमायूं में सबसे पहले निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा लागू करने का श्रेय पंतजी को ही है।
पंतजी ने कुमायूं में राष्ट्रीय आन्दोलन को अंहिसा के आधार पर संगठित किया। आरम्भ से ही कुमाऊं के राजनैतिक आन्दोलन का नेतृत्व पंतजी के हाथों में रहा। कुमाऊं में राष्ट्रीय आन्दोलन का आरम्भ कुली उतार, जंगलात आंदोलन, स्वदेशी प्रचार तथा विदेशी कपडों की होली व लगान-बंदी आदि से हुआ। बाद में धीरे-धीरे कांग्रेस द्वारा घोषित असहयोग आन्दोलन की लहर कुमायूं में छा गयी। १९२६ के बाद यह कांग्रेस में मिल गयी।
दिसम्बर १९२० में कुमाऊं परिषद का वार्षिक अधिवेशन काशीपुर में हुआ। जहां १५० प्रतिनिधियों के ठहरने की व्यवस्था काशीपुर नरेश की कोठी में की गई। पंतजी ने बताया कि परिषद का उद्देश्य कुमाऊं के कष्टों को दूर करना है न कि सरकार से संघर्ष करना।
अब पंतजी की वकालत की ख्याति कुमाऊं की परिधि से निकलकर सारे प्रान्त में व्याप्त हो चुकी थी। मित्रों द्वारा हाईकोर्ट में वकालत का सुझाव देने पर उन्होंने कहा- इलाहाबाद वकालत के लिए भले ही अच्छी जगह हो, लेकिन देशसेवा के लिए नैनीताल ही उपयुक्त है।
२३ जुलाई, १९२८ को पन्तजी नैनीताल जिला बोर्ड के चैयरमैन चुने गये। १९२०-२१ में चैयरमैन रह चुके थे।
पंत जी के राजनैतिक सिद्धान्त का एक आवश्यक अंग था कि अपने क्षेत्र अथवा जिले की राजनीति की कभी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। जिस प्रकार वृक्ष के वृहदाकार हो जाने पर उसकी जड का महत्व कम नहीं होता उसी प्रकार कार्य क्षेत्र व्यापक हो जाने पर व्यक्ति को स्थानीय राजनीति में सक्रिय भाग लेना चाहिए तथा वहां की समस्याओं को हल करने का पूरा प्रयास करना चाहिए।
महात्मा गांधी जी की कुमायूं यात्रा वहां के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का उज्जवल अध्याय है। १९२९ में गांधी जी कोसानी से रामनगर होते हुए काशीपुर भी गये। काशीपुर में गांधी जी लाला नानकचन्द खत्री के बाग में ठहरे थे। एक सजी हुई बैलगाडी में, जिसके पीछे एक विशाल जुलूस था गाँधी जी बैठे थे। काशीपुर में गाँधी जी को दो हजार रुपये तथा कुछ स्वर्णाभूषण प्राप्त हुए। काशीपुर से रवाना होने से पूर्व गांधी जी ने गोविन्द बल्लभ पंत से पूछा कि दान में प्राप्त धनराशि का वहां की जनता के लिए क्या उपयोग किया जा सकता है तो पंत जी ने काशीपुर में एक चरखा संघ की स्थापना का सुझाव दिया, जिसकी बाद में विधिवत स्थापना हुई।
१० अगस्त, १९३१ को भवाली में उनके सुपुत्र श्रीकृष्ण चन्द्र पंत का जन्म हुआ।
नवम्बर, १९३४ में गोविन्द बल्लभ पंत रुहेलखण्ड-कुमाऊं क्षेत्र से केन्द्रीय विधान सभा के लिए निर्विरोध चुन लिये गये।
साम्प्रदायिकता की निन्दा करते हुए पंत जी का कहना था कि ऐसे दंगे हमें अपने लक्ष्य से मीलों दूर फेंक देते हैं। हिन्दू और मुसलमान एक जाति के हैं। उनकी नसों में एक ही खून दौड रहा है। धर्मान्धता हमारे उद्देश्य में भारी अटकाव है।