गुजरात में राजनीतिक जमीन बचाना मुश्किल
गुजरात विधानसंभा के चुनाव# # मोदी के लिये एक चुनौती # गुजरात के चुनाव इतने आसान प्रतीत नहीं # भाजपा लगभग तीन दशक से सत्ता में # आदिवासी समुदाय की उपेक्षा के कारण उन्हें राजनीतिक जमीन बचाना मुश्किल #केन्द्र की भाजपा सरकार भी इसके लिए चिंतित # प्रधानमंत्री ने प्रति माह गुजरात की यात्रा का संकल्प # गुजरात के आदिवासी समाज के यक्ष प्रश्न
– ललित गर्ग –
गुजरात भारत का ऐसा एक महत्वपूर्ण एवं विकसित प्रदेश है, जहां पर आदिवासी जाति की बहुलता है। कुछ समय बाद यहां विधानसंभा के चुनाव होने हैं, ये चुनाव न केवल भारतीय जनता पार्टी बल्कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के लिये एक चुनौती है। हाल ही सम्पन्न विधानसभा चुनाव एवं दिल्ली के एमसीडी चुनावों में मोदी का परचम फहरा, उनका एकतरफा वर्चस्व कायम है। लेकिन गुजरात के चुनाव इतने आसान प्रतीत नहीं हो रहे हैं। इसके अनेक कारण हो सकते हंै, लेकिन इन चुनावों में वहां के आदिवासी समाज की महत्वपूर्ण भूमिका होगी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि भाजपा लगभग तीन दशक से सत्ता में है उस प्रांत में आदिवासी समुदाय की उपेक्षा के कारण उन्हें राजनीतिक जमीन बचाना मुश्किल होता दिख रहा है। यह न केवल प्रांत के मुख्यमंत्री श्री विजय रूपाणी व भाजपा अध्यक्ष श्री जीतू वाघानी के लिए चुनौती है बल्कि केन्द्र की भाजपा सरकार भी इसके लिए चिंतित है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए प्रधानमंत्री ने प्रति माह गुजरात की यात्रा का जो संकल्प व्यक्त किया है उससे जटिल होती समस्या को हल करने में सहायता मिल सकती है। समस्या जब बहुत चिंतनीय बन जाती हैं तो उसे बड़ी गंभीरता से मोड़ देना होता है। पर यदि उस मोड़ पर पुराने अनुभवी लोगों के जीये गये सत्यों की मुहर नहीं होगी तो सच्चे सिक्के भी झुठला दिये जाते हैं।
वैसे वर्षों से शोषित एवं पीड़ित रहे इस समाज के लिए परिस्थितियां आज अधिक कष्टप्रद और समस्यायें बहुत अधिक हैं। ये समस्यायें प्राकृतिक तो होती ही है साथ ही यह मानवजनित भी होती है। विडम्बनापूर्ण तो यह है कि समस्याएं राजनीतिक और धार्मिक होकर अपनी क्रूरता के पदचिन्ह स्थापित करती है। विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों की समस्या थोड़ी बहुत अलग हो सकती है किन्तु बहुत हद तक यह एक समान ही होती है।
गुजरात के आदिवासी समाज की एक बड़ी समस्या है अशिक्षा। वे आज भी पढ़ाई-लिखाई से वंचित है। आज हम इक्कीसवीं सदी में पहुंच गए हैं और चारों ओर पढ़ने-पढ़ाने का जोर है, शोर है। तब भी उसकी स्थिति में सुधार न होना घोर चिंता का विषय है। देश की प्रगति के लिये शिक्षा एक मौलिक भूमिका का निर्वाह करती है और यह किसी भी देश या समाज के लिये रीढ़ की हड्डी है और देश के प्रत्येक नागरिक का जन्मजात मौलिक अधिकार भी है। फिर आदिवासी समाज अपने इस मौलिक अधिकार से क्यों वंचित रहा? शिक्षा बिना यहां का आदिवासी समाज आज भी अंधेरे में हैं। आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा की जिस तरह की उन्नत स्थिति होनी चाहिए, वह नहीं हैं। उनके लिए परियोजनाएं हैं, लेकिन उनका लाभ बिचैलिए खा रहे हैं। आदिवासियों ने आजादी से पहले और बाद में भी देश की अपरिमित सेवा की है। इसके बदले उन्हें मिलता है विस्थापन, शोषण, बेदखली और उपेक्षा। समस्या का समाधान इस तरह से किया जा रहा है कि वे अपने अस्तित्व ही नहीं बचा पा रहे हैं।
सरकारें अभी तक आदिवासियों को दबाने, हटाने और नष्ट करने का काम ही करती रही हैं। जरूरत है कि आदिवासी को उपयोगी माना जाए। सोचने की बात है कि वे पुराणों से भी पुराने हैं। सामाजिक और मानवीय मूल्य और पर्यावरण की चेतना से संपन्न ऐसे समुदाय हैं वे, जो समूची मानवता को मनुष्यता का पाठ पढ़ाने की क्षमता रखते हैं। सच यह है कि वे हंै, तो जंगल है, पहाड़ और नदियां है। हकीकत यह है कि उन्हें नष्ट करने से आज जंगल और पहाड़ बर्बाद हो रहे हैं। ऐसा इसलिए हुआ कि हमारी नीतियों में खोट है और दूरदृष्टि का अभाव है।
आदिवासी के उत्थान और उन्नयन में गणि राजेन्द्र विजयजी ने अपनी पूरी जिंदगी लगा दी है। इस वैश्वीकरण के युग में तो उन्हें और उनकी आदिवासी कल्याण की योजनाओं को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है। आखिर क्या वजह है कि किसान और आदिवासी लगातार हाशिए पर चले जा रहे हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं और आदिवासी विस्थापित हो रहे हैं। इस विकास को केवल खास आदमियों से प्रेम है। हमारी सरकारें चहुंमुखी विकास के लिए बड़ी-बड़ी परियोजनाएं ला रही हैं, मगर उन्हें यह ध्यान नहीं है कि इससे आदिवासियों का जो विनाश हुआ है, उसकी भरपाई कैसे होगी? सरकारों को विकास के लिए बड़े-बड़े बांध चाहिए। टिहरी, नर्मदा, गढ़वाल, हरसूद और मणिबेली में रहने वाले गांववासी और आदिवासी के विस्थापन से उन्हें किसी तरह का लेना-देना नहीं रहा। आदिवासियों को एक ही झटके में अपनी मूल जमीन से बेदखल कर देना कितना पीड़ादायी है? इसका अनुमान तब तक नहीं लगाया जा सकता जब तक आदिवासी की मूलभावना नहीं समझी जाएगी।
यह विडम्बनापूर्ण ही है कि जो प्रकृति के रक्षक हैं, उन्हें तबाह किया जा रहा है। जो प्रकृति को वास्तव में नष्ट कर रहे हैं उन्हें सभ्य बताया जा रहा है। जो कथितरूप से बड़े सोच वाले हैं, उनकी असलियत खुल चुकी है। असल बात यह है कि आदिवासी हैं तो प्रकृति है, जंगल है, जमीन है, जल है, पहाड़ है। जंगल के रक्षक वही है, वही हो सकते हैं। आदिवासियों की जिजीविषा ही है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद वे अपने अस्तित्व बचाए हुए है। छोटा और कमजोर समझकर जिन्हें नकार दिया गया है, वे संविधान द्वारा संरक्षित हैं, फिर भी सुरक्षित नहीं है। यह सत्ताधारियों की गलती ही कही जाएगी कि आदिवासी समाज समस्याओं से उबर नहीं पा रहा है। आदिवासी, जो कम से कम में गुजारा कर रहा है, उससे उसका पहाड़, जंगल और जमीन छीनने की जरूरत नहीं होनी चाहिए थी। आदिवासी सबसे अधिक पर्यावरण प्रेमी हैं। यह सिद्ध हो चुका है। वे स्वभावतः संतोषी, संयमी और दूसरों का कम से कम नुकसान करने वाले लोग हैं।
राजनीतिक पार्टियों के नारों एवं संवैधानिक स्थितियों के बावजूद आदिवासीे तिल-तिल मरने को मजबूर हैं। उनकी गरीबी और अशिक्षा जाने का नाम नहीं ले रही है। आरक्षण के बावजूद शिक्षा के प्रकाश से सबसे अधिक दूर यही वर्ग ठहरता है। जब कभी विकास की बात आती है तो आदिवासी से उसका घर, जमीन और जंगल बेखौफ छीन लिया जाता है। दूसरों के हित के लिए बनने वाले बांध में अगर कोई डूबता है तो वह आदिवासी और इस देश का गरीब मूक किसान ही है। हजारों वर्षों से जंगलों और पहाड़ी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों को हमेशा से दबाया और कुचला जाता रहा है जिससे उनकी जिन्दगी अभावग्रस्त ही रही है। इनका खुले मैदान के निवासियों और तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले लोगों से न के बराबर ही संपर्क रहा है। केंद्र सरकार आदिवासियों के नाम पर हर साल हजारों करोड़ रुपए का प्रावधान बजट में करती है। इसके बाद भी 7 दशक में उनकी आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं आया है। स्वास्थ्य सुविधाएं, पीने का साफ पानी आदि मूलभूत सुविधाओं के लिए वे आज भी तरस रहे हैं। समस्या अलग-अलग क्षेत्रों में रह रहे आदिवासियों की भिन्न-भिन्न हो सकती है। वैसे सामान्यतः ऐसा होता नहीं है क्योंकि आदिवासी समाज की अपनी एक पहचान है जिसमें उनके रहन-सहन, आचार-विचार, कला-संस्कृति, बोली आदि एक जैसे ही होते हैं।
आदिवासी समाज की कई समस्यायें हैं जो उनके अस्तित्व और उनकी पहचान के लिए खतरनाक है। आज बड़े ही सूक्ष्म तरीके से इनकी पहचान मिटाने की राजनीतिक साजिश चल रही है। दशकीय जनगणना में छोटानागपुर में आदिवासी लोहरा को लोहार लिखकर, बड़ाइक को बढ़ई लिखकर गैर आदिवासी बना दिया गया है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज भी विमुक्त, भटकी बंजारा जातियों की जनगणना नहीं की जाती है। तर्क यह दिया जाता है कि वे सदैव एक स्थान पर नहीं रहते। इतना ही नहीं हजारों आदिवासी महानगरों या अन्य जगहों पर रोजगार के लिए बरसों से आते-जाते हैं पर उनका आंकड़ा भी जनगणना में शामिल नहीं किया जाता है, न ही उनके राशन कार्ड बनते हैं और न ही वे कहीं के वोटर होते हैं। अर्थात इन्हें भारतीय नागरिकता से भी वंचित रखा जाता है। आदिवासियों की जमीन तो छीनी ही गई उनके जंगल के अधिकार भी छिन गए। अब गैर आदिवासी लोगों के बसने के कारण उनकी भाषा भी छिन रही है क्योंकि उनकी भाषा समझने वाला अब कोई नहीं है। जिन लोगों की भाषा छिन जाती है उनकी संस्कृति भी नहीं बच पाती। उनके नृत्य को अन्य लोगों द्वारा अजीब नजरों से देखे जाते हैं इसलिए वे भी सीमित होते जा रहे हैं। जहां उनका ‘सरना’ नहीं है वहां उन पर नए-नए भगवान थोपे जा रहे हैं। उनकी संस्कृति या तो हड़पी जा रही है या मिटाई जा रही है। हर धर्म अपना-अपना भगवान उन्हें थमाने को आतुर है। हिन्दू विरोधी उन्हें हिन्दू नहीं मानते तो हिंदुत्ववादी लोग उन्हें मूलधारा यानी हिंदुत्व की विकृतियों और संकीर्णताओं से जोड़ने पर तुले हैं और उनको रोजी-रोटी के मुद्दे से ध्यान हटा कर अलगाव की ओर धकेला जा रहा है। एक समाज और संस्कृति को बचाने के लिए जरूरत सिर्फ सार्थक प्रयत्न की है। गुजरात के आगामी विधानसभा चुनाव आदिवासी समाज के लिए एक ऐसा संदेश हो जो उनके जीवन मूल्यों को सुरक्षा दे और नये निर्माण का दायित्व ओढ़े।
(ललित गर्ग)
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