हिमालय की शक्तियां जागृत होने लगती हैं जब…..

हिमालय की शक्तियां जागृत होने लगती हैं जब; अदभूत,अलौकिक आलेख- 

हिमालय की दुर्गम पर्वत श्रंखलाओं में ऐसी ही सूक्ष्म शरीरधारी आत्माओं का निवास स्थान है जो अपने स्थूल शरीर को छोड़कर सूक्ष्म शरीर में विद्यमान हैं। सामान्यत: ये आत्माएं अपनी तप साधनाओं में लीन रहती हैं, परन्तु जब धरती पर पस्थितियां बहुत विषम होने लगती हैं, धरती पर निवास कर रहे महापुरुषों, सन्तों,वैज्ञानिकों, राजनीतिज्ञों, विचारकों के नियन्त्राण से बाहर होने लगती है तब ये आत्माएं धरती की समस्याओं को सुलझाने के लिए जागृत/क्रियाशील होने लगती हैं। ये आत्माएं उस समय धरती पर उभर रहे भयावह वातावरण को समाप्त करने के लिए संयुक्त प्रयास प्रारम्भ कर देती हैं। उनके इस स्वरूप को ही ऋषि संसद की संज्ञा दी जाती है। ये आत्माएं धरती की भीषण समस्याओं के निराकरण के लिए तरह-तरह की योजनाएं बनाना प्रारम्भ कर देती हैं। इन योजनाओं को क्रियान्वित (implement) करने के लिए इन्हें स्थूल शरीरधारी व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। अत: ये धरती पर उन मानवों से सम्पर्क करती हैं जो अच्छे हृदय के होते हैं जिनकी अपनी इच्छाएं, वासनाएं,लालसाएं कम होती हैं तथा मानव जाति के कल्याण के लिए जिनका हृदय द्रवित होता है।

हिमालय में देव ऋषियों का एक समूह है जो वस्त्र व भोजन से रहित है न तो उन्हें भोजन की आवश्यकता है न वस्त्रो की। ऋषि कर्इ प्रकार के होते हैं जैसे- राज, महर्षि, देवर्षि । राजा का मार्गदर्शन करने वालों को राज ऋषि कहा जाता है। महर्षि गुरुकुल चलाने वाले, साधना कराने वालों को कहा जाता है। ये राज ऋषि व महर्षि स्थूल देहधरी होते है। तीसरा वर्ग है- देवर्षियों का। यह सबसे अधिक आèयात्मिक शक्ति सम्पन्न ऋषियों का वर्ग है जो स्थूल शरीर के झंझट से परे व समाज से कटे रहकर हिमालय में रहते हैं।

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 यह है योग साधना- 

भारत पर अंग्रेजों के शासनकाल में (वर्ष 1939) आसाम-बर्मा की सीमा पर भारतीय कमाण्ड के भूतपूर्व सेनापति एल.पी. फैरेल व ब्रिटिश सेना के एक कर्नल हिमालय की दुर्गम पहाड़ियों में तैनात थे। वह अपनी दूरबीन से देखते हैं कि एक नंगा वृद्ध व्यक्ति आंखे बन्द किये बैठा है, उन्हें उस पर सन्देह हो जाता है सम्भवत: यह कोर्इ जासूस या षड्यन्त्रकारी हो, वो अपनी दूरबीर उस पर फोकस कर लेते हैं। थोड़ी देर में वो देखते है कि वह वृद्ध उठता है व नदी के किनारे जा पहुंचता है नदी में, कोर्इ लाश बहकर आ रही होती है वह वृद्ध उस लाश को रोकता है व उसको कठिनार्इ से खींचकर बाहर निकालता है एवं उस लाश के समीप बैठ जाता है वह अपने नाक को पकड़कर कुछ करता है। कुछ समय पश्चात् वह वृद्ध जमीन पर गिर जाता है, परन्तु वह लाश जीवित हो उठती है। यह दृश्य देखकर कर्नल विस्मय से भौचक्के रह जाते हैं। वे दौड़कर उस दृश्य के समीप पहुंचते हैं। वह व्यक्ति स्थिति भांप कर मुस्कराने लगता है। कर्नल उससे कहते हैं- पहली बार उन्हें अपने आप पर विश्वास नहीं हो पा रहा है, क्या यह सच्चार्इ है या उनका कोर्इ भ्रम हैं? वह व्यक्ति कर्नल को समझाता है कि वह योग साध्ना में लीन था उसकी साधना की पूर्णता में अभी समय लगना था, परन्तु शरीर साथ नहीं दे रहा था। यदि नया शरीर धारण करता तो बहुत समय लग जाता तथा संसार के सुखों में भटकने का भी भय रहता, अत: उसने जब देखा कि किसी पर्वतारोही की लाश बहती आ रही है तो उसने तुरन्त उस लाश का सदुपयोग करने की सोची। उसने वह वृद्ध शरीर छोड़ दिया। पर्वतारोही का युवा शरीर धारण कर लिया जिससे इस शरीर से आगे योग साधना कर सके।

कर्नल ने उससे आग्रह किया कि वह यह विद्या उसे भी सिखाए तो उसने स्पष्ट इन्कार कर दिया कि यह आसान कार्य नहीं है। इसमें लम्बे समय तक इन्द्रियों को वश में रखते हुए ध्यान साधना के कड़े अभ्यास करने पड़ते हैं जिसके लिए विशेष मनोभूमि की आवश्यकता होती है। वह कर्नल को कहता है कि भारत के योगियों के लिए यह बहुत सामान्य बात है। ऐसे अनेक योगी उसे हिमालय की गुफाओं में मिल जाएंगे जो जन्म-मृत्यु के अधीन नहीं हैं। वह कर्नल भारत की इस महान विद्या के प्रति नतमस्तक हो उठता है। इंग्लैण्ड वापिस जाकर एक पत्राकार वार्ता बुलवाता है व इस घटना का वर्णन उसमें करता है। उस पत्राकार वार्ता में पाल ब्रण्टन नामक एक ऐसे पत्राकार आए थे जो भारतीय संस्कृति में रुचि रखते थे। पाल ब्रण्टन भारत के इन रहस्यों को जानने के लिए भारत भ्रमण की योजना बनाते हैं व भ्रमण के अनुभवों को एक पुस्तक में संकलित किया जिसका नाम हैं- ‘गुप्त भारत की खोज’।

योगानन्द परमहंस दिव्य योग संस्था द्वारा विदेशों में भारत की योग विद्याओं का प्रचार कर रहे थे। जब उन्हें उनके गुरु का शरीर छोड़ने का निर्देश आता है तो वह अमेरिका में भारतीय राजदूत व अन्य अनेक प्रबुद्ध व्यक्तियों (चिकित्सकों, वैज्ञानिकों) को एक गोष्ठी (भोज) में बुलाते हैं। उनके शरीर का परीक्षण किया जाता है व उन्हें पूर्ण स्वस्थ घोषित किया जाता है। अब वह अपने शरीर से अपने प्राणों को निकाल देते हैं व उनका शरीर मृत अवस्था में आ जाता है। इससे पूर्व वह बताकर जाते हैं कि उनका मृत शरीर 20 दिन तक नहीं सड़ेगा। वह मृत्यु के पश्चात् भी उससे सम्पर्क बनाकर रखेंगे व उसको ऊर्जा देते रहेंगे। 20 दिन तक उनका शरीर गुलाब के ताजे फूल की तरह दमकता रहा उसमें न तो चिकित्सकों द्वारा जीवन के लक्षण पाए गए न ही कोर्इ सड़न आयी। 20 दिन पश्चात् ही उनमें विघटन होना प्रारम्भ हुआ व उसका अन्तिम संस्कार किया गया।

इसके अलावा भी ऐसी बहुत-सी घटनाएं देखने-सुनने पढ़ने को मिल जाएंगी जो यह सिद्ध करती हैं कि मृत्यु के उपरान्त सब कुछ समाप्त नहीं हो जाता, अपितु किसी न किसी रूप में अस्तित्व बचा रहता है। इसे योग की भाषा में सूक्ष्म शरीर कहा जाता है मृत्यु के उपरान्त आत्मा सूक्ष्म शरीर में निवास करती है। सामान्यत: यह सूक्ष्म शरीर अल्प विकसित होता है व अधिक कुछ कर पाने में असमर्थ होता है। योगी लोग अपने जीवित रहते इस सूक्ष्म शरीर को विकसित कर लेते हैं जिससे यह बहुत कुछ कर पाने में समर्थ हो जाता है।

हिमालय की दुर्गम पर्वत श्रंखलाओं में ऐसी ही सूक्ष्म शरीरधारी आत्माओं का निवास स्थान है जो अपने स्थूल शरीर को छोड़कर सूक्ष्म शरीर में विद्यमान हैं। सामान्यत: ये आत्माएं अपनी तप साधनाओं में लीन रहती हैं, परन्तु जब धरती पर पस्थितियां बहुत विषम होने लगती हैं, धरती पर निवास कर रहे महापुरुषों, सन्तों,वैज्ञानिकों, राजनीतिज्ञों, विचारकों के नियन्त्रण से बाहर होने लगती है तब ये आत्माएं धरती की समस्याओं को सुलझाने के लिए जागृत/क्रियाशील होने लगती हैं। ये आत्माएं उस समय धरती पर उभर रहे भयावह वातावरण को समाप्त करने के लिए संयुक्त प्रयास प्रारम्भ कर देती हैं। उनके इस स्वरूप को ही ऋषि संसद की संज्ञा दी जाती है। ये आत्माएं धरती की भीषण समस्याओं के निराकरण के लिए तरह-तरह की योजनाएं बनाना प्रारम्भ कर देती हैं। इन योजनाओं को क्रियान्वित (implement) करने के लिए इन्हें स्थूल शरीरधारी व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। अत: ये धरती पर उन मानवों से सम्पर्क करती हैं जो अच्छे हृदय के होते हैं जिनकी अपनी इच्छाएं, वासनाएं,लालसाएं कम होती हैं तथा मानव जाति के कल्याण के लिए जिनका हृदय द्रवित होता है।

19 नवम्बर, 1926 को एक कमरे में बन्द हो गए व आजीवन 1950 तक उस कमरे में बन्द रहे।

महर्षि अरविन्द के जीवन की घटना है। अरविन्द विदेश से शिक्षा प्राप्त कर लौटे तो मातृभूमि की दुर्दशा देख उनका हृदय रो दिया। वे आर्इ.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके थे। यह ब्रिटिश गर्वनमेन्ट के समय सबसे उच्चतम परीक्षा (high cadre exam) मानी जाती थी। उसकी एक औपचारिकता के रूप में घुड़सवारी की परीक्षा अन्त में देनी होती थी। वे भारत आकर इतने दु:खी हुए कि वापिस जाकर घुड़सवारी की परीक्षा भी नहीं दी। उन्होंने भारत में रहकर मातृभूमि की सेवा का मन बना लिया था। अब उन्होंने दो कार्य प्रारम्भ किये। एक तो यहां की संस्कृति का अèययन करना प्रारम्भ किया दूसरे यहां पर स्वतन्त्रता आंदोलनों में रुचि लेना। दोनों में ही उनकी रुचि बढ़ती चली गयी। एक ओर वो योग साधनाओं में प्रगति करने लगे दूसरी ओर स्वतन्त्रता आन्दोलनों की कमान सम्भालने लगे।

सन् 1908 में उनको एक वर्ष का अज्ञात कारावास हुआ। जेल में रहकर वह बहुत दु:खी थे अपने कारावास के कारण नहीं, अपितु भारत मां की दुर्दशा से। वह भगवान् से प्रार्थना करते थे- ‘‘हे प्रभु! इस राष्ट्र की इससे अधिक दयनीय दशा और क्या हो सकती है, समाज जाति-पॉंति, भेदभाव के लिए तो आपस में लड़ने-मरने को तैयार है, परन्तु अंग्रेजों से मुकाबला करने के नाम से सब भयभीत हो जाते हैं। अंग्रेजों के शोषण से भारत दिनोंदिन कंगाल, दरिद्र व वर्गों में बंटता चला जा रहा है आपका तो वायदा है प्रभु जब-जब भारत मां को अज्ञानता,असुरता, अधर्म त्रास देता है। आप उसकी पीड़ा निवारण के लिए अवश्य आते हैं। हे प्रभु! अब तो पाप का घड़ा भर चुका है। आप क्यों नहीं जागते प्रभु! महर्षि अरविन्द की करुण पुकार हिमालय के ऋषियों के कानों में पहुंचती है व ऋषि आत्माएं उनकी काल कोठरी में आना प्रारम्भ कर देती हैं। वे अरविन्द को कहती हैं – ‘‘क्या तुम इस राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए अपना जीवन अर्पित कर सकते हो?’’ अरविन्द के सकारात्मक उत्तर से ऋषि कहते है कि इस राष्ट्र का अंग्रेजों से उद्दार साधना के बल पर होगा। ऋषियों के कहे अनुसार स्वतन्त्रता आन्दोलन में अरविन्द अपनी भूमिका बदल देते हैं। सीधे स्वतन्त्रता आन्दोलन में न कूदकर पर्दे के पीछे से वातावरण गर्म करने का काम सम्भालते हैं। जेल से छूटकर उनके साथियों को लगता था कि अरविन्द पुन: पूरी शक्ति से स्वतन्त्रता आन्दोलन की कमान सम्भालेंगे, परन्तु उन्होंने अपने बिछुड़े साथियों को एकत्र कर उत्तारपाड़ा नामक स्थान पर सम्बोधित कर भगवान द्वारा दी गर्इ नयी भूमिका के बारे में समझाया। यह वातावरण गर्म करने का चक्कर अधिकांश की समझ से बाहर था। अरविन्द उसके तुरन्त पश्चात् पाण्डिचेरी की ओर प्रस्थान कर गए व ऋषियों के निर्देशानुसार सूक्ष्म को गर्म करने का अभ्यास करने लगे। जब वह इस कला में प्रवीण हो गए तो 19 नवम्बर, 1926 को एक कमरे में बन्द हो गए व आजीवन 1950 तक उस कमरे में बन्द रहे।

एक उदाहरण श्रीराम शर्मा आचार्य जी का है। सन् 1926 में जब वो मात्र 15 वर्ष की आयु में अपनी पूजा की कोठरी में गायत्री जप कर रहे थे तो हिमालय की एक ऋषि आत्मा उनके कमरे में आकर कहती है-‘‘पूर्व जन्मों से मैं तुम्हारा गुरु रहा हूं बचपन समाप्त होते ही तुम्हें मार्ग-दर्शन देने आया हूं। इस जन्म में तुम्हें बहुत महत्त्वपूर्ण काम करने हैं।’’ यह कहकर वह भावी जीवन की रूपरेखा बताकर चले जाते हैं। श्रीराम शर्मा आचार्य जी आजीवन (1911 से 1990तक) उन्हीं के निर्देशानुसार युग परिवर्तन की ऋषियों की योजना में संलग्न हो गए।

इसी प्रकार कभी-कभी योगानन्द परमहंस जी के पास भी हिमालय की एक ऋषि आत्मा आती थी उनको वो महावतार बाबा पुकारते थे। ऐसी बहुत सी घटनाएं हैं, तात्पर्य यह है कि हिमालय में देव ऋषियों का एक समूह है जो वस्त्र व भोजन से रहित है न तो उन्हें भोजन की आवश्यकता है न वस्त्रो की। ऋषि कर्इ प्रकार के होते हैं जैसे- राज, महर्षि, देवर्षि । राजा का मार्गदर्शन करने वालों को राज ऋषि कहा जाता है। महर्षि गुरुकुल चलाने वाले, साधना कराने वालों को कहा जाता है। ये राज ऋषि व महर्षि स्थूल देहधरी होते है। तीसरा वर्ग है- देवर्षियों का। यह सबसे अधिक आèयात्मिक शक्ति सम्पन्न ऋषियों का वर्ग है जो स्थूल शरीर के झंझट से परे व समाज से कटे रहकर हिमालय में रहते हैं। कुम्भ के अवसर पर यही देव ऋषियों का समूह हिमालय से उतर कर समाज के बीच आया करता था। इन्हीं को नागा साधु कहा जाता था व प्रथम स्नान यही करते थे। जल में इनके स्नान से व वातावरण में इनकी उपस्थिति से आध्‍यात्मिक ऊर्जा छा जाती थी। इसका कुम्भ में आए लोगों को बहुत आध्‍यात्मिक लाभ होता था, परन्तु आजकल देवर्षि भी नकली हैं। ये नकली साधु अपनी नसें आदि तोड़कर जनता को मूर्ख बनाते हैं। असली ऋषि हिमालय से नहीं आते, क्योंकि उनके आने की कोर्इ सार्थकता नहीं है। कुम्भ में आयी जनता भी अधिकांश कौतूहल के लिए आती है। ऐसे लोग न के बराबर ही पहुंचते हैं जो ऋषियों की आध्‍यात्मिक क्षमता को ग्रहण कर सकने अथवा उसका सदुपयोग कर सकें। समय बदलने के साथ-साथ सब कुछ बदल गया।

परमहंस योगानन्द (5 जनवरी 1893 – 7 मार्च 1952), बीसवीं सदी के एक आध्यात्मिक गुरू, योगी और संत थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को क्रिया योग उपदेश दिया तथा पूरे विश्व में उसका प्रचार तथा प्रसार किया। योगानंद के अनुसार क्रिया योग ईश्वर से साक्षात्कार की एक प्रभावी विधि है, जिसके पालन से अपने जीवन को संवारा और ईश्वर की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है। योगानन्द प्रथम भारतीय गुरु थे जिन्होने अपने जीवन के कार्य को पश्चिम में किया। योगानन्द ने १९२० में अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। संपूर्ण अमेरिका में उन्होंने अनेक यात्रायें की। उन्होंने अपना जीवन व्याख्यान देने, लेखन तथा निरन्तर विश्व व्यापी कार्य को दिशा देने में लगाया। उनकी उत्कृष्ट आध्यात्मिक कृति योगी कथामृत (An Autobiography of a Yogi) की लाखों प्रतिया बिकीं और सर्वदा बिकने वाली आध्यात्मिक आत्मकथा रही हँ। परमहंस योगानन्द का जन्म मुकुन्दलाल घोष के रूप में ५ जनवरी १८९३, को गोरखपुर, उत्तरप्रदेश में हुआ।

जो भी व्यक्ति इन दिनों राष्ट्र के लिए, मानवता के लिए अपने आपको सच्चे हृदय से समर्पित करेगा, अगले दिनों वही विवेकानन्द, दयानन्द की भांति चमकता नजर आएगा। महर्षि अरविन्द इस अवसर को भागवत् मुहूर्त की संज्ञा देते हैं।

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