कांग्रेस से बन नही पायी बडे बहुगुणा केे समय से
राहुल किसी की नहीं सुनते- इसकी साख खत्म हो चुकी है, राहुल गांधी का नेतृत्व लोगों को स्वीकार्य नहीं रीता बहुगुणा नेे कहा- वही बहुगुणाा परिवार कांग्रेस भक्त नही- हिमालयायूके ने 2012 में एक्सक्लूसिव आलेख प्रकाशित किया था#इंदिरा गांधी से टक्कर ली थी बडे बहुगुणा ने #इंदिरा गॉधी के छल से अपमानित होकर कांग्रेस को खत्म करने की प्रतिज्ञा ली #इलाहाबाद से चुनावी हार मिलने पर जब हेमवती नन्दन बहुगुणा को उत्तराखण्ड की जनता ने अपार स्नेह व सम्मान देकर इंदिरा गांधी के तमाम प्रलोभनों व तानाशाही का मुहतोड़ जवाब देते हुए गढ़वाल संसदीय उपचुनाव में विजय बनाया था#ऐसे विकट परिस्थितियों में उनके राजनैतिक जीवन की रक्षा करते हुए उनका पूरे देश की राजनीति में राष्ट्र का कद्दावर नेता के रूप में स्थापित किया
;Report by CS JOSHI Editor; www.himalayauk.org (UK Leading Digital Newsportal)
*******यूपी कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष और विधायक रीता बहुगुणा जोशी गुरुवार (20 अक्टूबर) को अपनी पुरानी पार्टी से इस्तीफा देकर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) में शामिल हो गईं। राहुल गांधी पर निशाना साधते हुए रीता बहुगुणा ने कहा कि सोनिया गांधी हमारी बातें सुनती थीं, लेकिन राहुल नहीं सुनते।उन्होंने कहा, ‘जब सारे विश्व ने इसको स्वीकार कर लिया कि हमने सर्जिकल स्ट्राइक किया है। मुझे यह कतई पसंद नहीं आया कि कांग्रेस या अन्य पार्टियां इस पर सवाल उठाएं। ‘खून की दलाली’ जैसे शब्द का उपयोग किया गया। उससे मैं काफी दुखी हो गई। 24 सालों तक कांग्रेस की सेवा की लेकिन मुझे लगता है कि इसकी साख खत्म हो चुकी है, राहुल गांधी का नेतृत्व लोगों को स्वीकार्य नहीं है।’
*उत्तराखण्ड कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष सूर्यकान्त धस्माना ने अपने एक आलेख में लिखा है कि आपातकाल के दौरान हेमवती नंदन बहुगुणा व इंदिरा गॉधी में सैद्वांतिक मतभेद हुए और वह कांग्रेस से अलग हो गये, चौधरी चरण सिंह के कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने, जिसमें बहुगुणा वित्त मंत्री बने, चन्द दिनों में इंदिरा गॉधी ने समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा दी, 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए, इंदिरा गॉधी ने हेमवती नंदन बहुगुणा को कांग्रेस में आने का निमंत्रण दिया तथा उनको प्रमुख महासचिव बनाया, 1980 में मध्यावधि चुनाव में बहुगुणा ने पूरी शक्ति के साथ चुनाव अभियान को संचालित किया, बहुगुणा गढवाल से लडे व जीते, इदिरा गॉधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद बहुगुणा को सरकार में नहीं लिया, जिस पर छह माह बाद मई 1980 में हेमवती नंदन बहुगुणा ने कांग्रेस पार्टी ही नहीं लोकसभा की सदस्यता से त्याग पत्र देदिया, इस तरह हेमवती नंदन बहुगुणा की राजनीतिक यात्रा में साफ देखा जा सकता है कि उन्हें इंदिरा गॉधी द्वारा किस तरह छला गया था, मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के पिताश्री ने इंदिरा गॉधी के छल से अपमानित होकर कांग्रेस को खत्म करने की प्रतिज्ञा ली थी तथा अपने पुत्र को दिलवायी थी, ऐसी चर्चा है,
विश्वासपात्रों की कमी, स्वार्थपरक राजनीति तथा राजनीतिक स्थिति ने बहुगुणा को भीतर बाहर से तोड दिया था, उनका दम घुट रहा था, वे दुखी रहने लगे, वे अपने परिवारजनों व ईष्ट मित्रों को कहा करते थे; क्या राजनीति का इतना विक़त रूवरूप देखने के लिए मैंने संघर्ष किया, मैने सिद्वांतों के आधार पर इंदिरा गॉधी से संघर्ष किया, यही कारण है कि उन्होंने अकेले ही संघर्ष का मन बना लिया था- एकता चलो, एकचला चरो रे, को जीवन में तथा परिजनों को इसे अपनाने का संदेश दिया, दरअसल उनकी स्थिति राजनीति में बडी दुविधा पूर्ण हो चुकी थी, इंदिरा गॉधी से गंभीर मतभेद के कारण कांग्रेस छोडकर लोकदल में आये, वहा देवीलाल तथा शरद यादव ने भी उन पर गंभीर आरोप लगाने शुरू कर दिये, जिससे वह अंदर से टूट से गये थे,
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बिड़ला और सुंदर लाल बहुगुणा जी की पुरानी दोस्ती रही है। यदि हम 1974-75 के दौर में जांये ंतो सुंदरलाल बहुगुणा द्वारा हेमवतीनंदन बहुगुणा को चिपको आंदोलन का विरोधी और इंदिरा गांधी को चिपको आंदोलन का समर्थक बताये जाने के पीछे भी बिड़ला और सुदरलाल बहुगुणा की दोस्ती का ही कमाल रहा है।यूपी का मुख्यमंत्री रहते हुए हेमवतीनंदन ने तब इंदिरा गांधी का प्रत्याशी होने के बावजूद न केवल बिड़ला को राज्यसभा के चुनाव में हरवा दिया बल्कि बिड़ला और उनके साथ आए इंदिरा गांधी के पीए यशपाल कपूर का सामान सरकारी गेस्ट हाउस से निकला कर सड़क पर फिंकवा दिया। इंदिरा गांधी के हुक्म को न मानने वाले हेमवतीनंदन बहुगुणा ने जब चिपको आंदोलन के कारण 1000 मीटर से ऊपर स्थित पेड़ों को न काटने का आदेश जारी किया तो सुंदर लाल बहुगुणा जी ने इसका श्रेय तत्कालीन मुख्यमंत्री बहुगुणा को देने के बजाय इसका श्रेय इंदिरा गांधी को दिया जबकि सुंदरलाल जी जानते थे कि यदि हेमवतीनंदन नहीं चाहते तो इंदिरा गांधी भी उनसे अपना हुक्म नहीं मनवा सकती थी। पर हेमवती नंदन बहुगुणा के प्रति दूसरे बहुगुणा का यह रवैया क्या बिड़ला द्वारा प्रेरित था ? इसका निर्णय इतिहास करेगा। क्योंकि सुदरलाल जी ने भी अभी तक ऐसा कोई ऐतिहासिक तथ्य सामने नहीं रखा जिससे यह साबित किया जा सके कि हेमवतीनंदन चिपको आंदोलन के खिलाफ थे।
इस किस्से का उल्लेख इसलिए करना पड़ रहा है कि देहरादून से प्रकाशित हिंदुस्तान ने हिमालय बचाओ के लिए जमीन आसमान एक किए रखा था। यह अनायास नहीं था। इस साल श्री सुंदरलाल बहुगुणा के हिमालय बचाओ आंदोलन को तीस साल पूरे हुए हैं। इस मौके पर बिड़ला और बहुगुणा की पुरानी दोस्ती के नाते बिड़ला के अखबार हिंदुस्तान ने श्री सुंदरलाल बहुगुणा के अभियान हिमालय बचाओ को गोद ले लिया। इसीलिए अखबार ने चिपको आंदोलन की दूसरी धारा के प्रतिनिधि और सुंदर लाल बहुगुणा के समांतर चलने वाले गांधीवादी चंडी प्रसाद भट्ट और उनके साथ जुड़े रहे पर्यावरणवादियों को अपने हिमालय बचाओं में भागीदार नहीं बनाया। हिंदुस्तान अखबार के पन्नों पर हिमालय बचाओ की चीख पुकार से अपुन को कोई समस्या नहीं है। क्योंकि आजकल का कारपोरेट मीडिया अपने जनविरोधी चेहरे को छिपाए रखने के लिए ऐसी शोशेबाजी करता रहता है। पब्लिक भी जानती है कि यह सोडे की बोतल का झाग या गरम दूध का उमाल है जो थोड़ी देर बाद खुद-बखुद बैठ जाएगा।
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सत्तर के दशक में हेमवती नंदन बहुगुणा जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो उस वक्त पूरा राज्य आंदोलनों की आग से झुलस रहा था। छात्र, कर्मचारी, शिक्षक प्रचंड आंदोलन चला रहे थे। स्वर्गीय बहुगुणा ने इन आंदोलनों को दबाने के लिए पुलिस का जरा भी इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि उन्होंने साफ निर्देश दिये कि जो भी आंदोलनकारी संगठन उनके समक्ष जुलूस लेकर आना चाहता है उसे बेरोक-टोक आने दिया जाए। रास्ते में कहीं भी पुलिस इंतजाम न किये जाएं। अधिकारियों ने उन्हें राय दी कि छात्रों के जुलूस में शरारती तत्व हो सकते हैं कम से कम उन्हें रोकने के लिए तो पुलिस व्यवस्था की जाए। इस पर उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि चाहे छात्र मेरी हत्या कर दें। लेकिन उनके जुलूस को रोकने के लिए कहीं भी पुलिस नहीं होनी चाहिए।
दरअसल बहुगुणा जननेता थे उन्हें अपने प्रदेश की जनता से कोई खौफ नहीं था। उनकी नीयत भी साफ थी कि आंदोलनकारियों की समस्याओं का हल निकालना चाहिए। उन्होंने अपने विवेक से आंदोलनकारी छात्रों, कर्मचारियों और शिक्षकों को संतुष्ट भी किया।
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इस अभियान ने बताया कि उत्तराखंड के बुद्धिजीवी पहाड़ के आम लोगों से किस हद तक कट चुके हैं। अपनी चिंता यही है। देहरादून में एकत्र हुआ यह कुलीन उत्तराखंड दरअसल अपना एजेंडा आम लोगों के उत्तराखंड पर थोप रहा है। दरअसल हिमालय बचाओ का पूरा अभियान नही अपने जन्म से कुलीन पर्यावरणवादियों का आंदोलन रहा है। सरकारी और कारपोरेट समर्थन इसके साथ पहले से ही रहा है। आज जब पहाड़ का आदमी आर्थिक सवालों पर लड़ने के लिए तैयार हो रहा है तब कारपोरेट मीडिया और पर्यावरणवादियों के गिरोह हिमालय बचाओ का एक कृत्रिम आंदोलन खड़ा कर रहे हैं। हिंदुस्तान द्वारा आयोजित सेमीनार में शामिल एक भी वक्ता ने यह सवाल नहीं किया कि हिमालय को किसके लिए बचाया जाना चाहिए? क्या टूरिस्टों के लिए? हिमालय की सुंदरता का अर्थ इस देश के कुलीन लोगों के लिए गरमियों में मात्र हिल स्टेशन बनाए रखने तक सीमित है? क्या हिमालय भारत या दुनिया के लिए बचाए रखा जाना चाहिए ताकि शेष देश और दुनिया का पर्यावरण ठीक रहे और हिमालय के बाहर रहने वाले लोग चैन से रह सकें? मेरा ही नहीं मुझ जैसे कई लोग हैं जो मानते हैं कि हिमालय के नाम पर किया जाने वाला यह विलाप मानव विरोधी है और पहाड़ के लोगों के खिलाफ है। क्योंकि चिपको आंदोलन की तरह यह भी कुलीन पर्यावरणवादी आंदोलन है जो अपनी चिंता के केंद्र में मनुष्य को रखने का विरोधी है। जिन लोगों को चिपको में गौरा देवी की याद है वे जानते हैं कि गौरा देवी ने पेड़ों पर चिपकते हुए कहा था,‘‘ जंगल हमारे हैं इन पर हमारा हक है।’’ चिपको आंदोलन में शामिल कुलीन पर्यावरणवादियों ने जंगलों का समाजीकरण करने के बजाय उनका सरकारीकरण करवा दिया।हिमालय बचाओ अभियान भी अब हिमालय की नदियों, पहाड़ों का स्वामित्व जनता के सुपुर्द करने के बजाय उनका सरकारीेकरण करने की मंशा से प्रेरित है। यह चीख पुकार और मीडिया अभियान पहाड़ के संसाधनों के सरकारीकरण की मुहिम का हिस्सा है ताकि पहाड़ के लोग कभी अपनी बेहतरी के लिए अपने जल,जंगल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करना चाहें तो उन्हे पर्यावरण के नाम पर रोक दिया जाय।उ त्तरकाशी के ऊपरी इलाकों को इको सेंसेटिव जोन से लेकर गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने की सरकारी कवायद इसी से प्रेरित है।
हिमालय सियाचिन की तरह कोई हिम मरुस्थल नहीं है। यह निर्जन और उजाड़ नहीं है। यहां 50 लाख लोग रह रहे हैं और लगभग तीस लाख बाहर रह रहे लोगों के घर,जमीन-जायदाद उत्तराखंड के इस हिमालय में है। इस आबादी के बारे में सोचे बगैर हिमालय के बारे में नहीं सोचा जा सकता। इन्ही लोगों से हिमालय एक निर्जन भयावह पहाड़ से जीवंत और मानवीय पर्वत श्रृंखला बनती है। लेकिन हिमालय और उसके समाजों के बारे में हिमालय बचाओ आंदोलन का नजरिया तीस साल पुराना है। पुरातनपंथी और प्रगतिविरोधी। इसमें व्यक्ति की उन्नति का निषेध है। इसमें उपभोग के साधनों का निषेध है। यह हिमालय के समाजों तक आधुनिक साधनों को पहुचाए जाने का विरोधी विचार है। यह हिमालय के लोगों को 18 वीं सदी के उपभोग स्तर तक रखे जाने का हामी है। यह भले ही हिमालय को बचाने की बात करता हो पर यह अपने मूल में पहाड़ी लोगों के विरोध की विचारधारा है। इस विचारधारा ने पहले पहाड़ के लोगों से जंगल छीने अब यह उनसे जल और बाकी संसाधन छीनना चाहती है। तीस साल पहले काल में ठहरी हुई विचारधारा के उपकरण से हिमालय का उद्धार नहीं हो सकता। दुनिया इन तीस सालों में कहीं की कहीं पहुंच चुकी है। बीसवीं सदी के कई पपर्यावरणीय सवालों के जवाब अब 21 वीं सदी की सभ्यता के पास हैं। विज्ञान और टेक्नोलाजीमें आए इस जबरदस्त परिवर्तन की अनदेखी नहीं की जा सकती।
इस समय सबसे बड़ा सवाल हिमालय बचाना नहीं है बल्कि हिमालय के बेटों और बेटियों को बचाना है। उदारीकरण के बाद उ त्तराखंड हिमालय में आबादी तेजी से कम हो रही है। राज्य बनने के बाद शिक्षा,स्वास्थ्य की गुणवत्ता और रोजगार में आई कमी से उत्तराखंड में मानव विस्थापन की दर तेजी से बढ़ी है। उपभोग की वस्तुओं की तादाद में क्रांतिकारी बदलाव आए हैं। उपभोग के स्तर और जीवन स्तर में आ रहे इन बदलावों से लोगों में आकांक्षाओं का विस्फोट हुआ है। उनकी अपेक्षायें बढ़ी हैं। लेकिन जिस तेजी से मैदान में शहरों और गांवों में उपभोग का पैटर्न बदला है उस तरह से पहाड़ में नहीं बदला है उल्टे वहां मानव विकास की गुणवत्ता घटी है। इसके कारण उत्तराखंड हिमालय इस समय इतिहास के सबसे बड़े विस्थापन की चपेट में है। यह स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर जीवन स्तर वाले हिमालयी राज्यों जम्मू-कश्मीर या हिमाचल प्रदेश में नहीं है। इसलिए मूल सवाल हिमालय बचाने का नहीं बल्कि उसके बेटे-बेटियों को बचाने का है। इन्हे बचाए बगैर हिमालय बचाने की बात करना मानव विरोधी विचार है। जो लोग इस अवधारणा का अभियान चला रहे हैं वे दरअसल बाहर से आए सैलानियों के लिए हिमालय बचाना चाहते हैं।
आज की सबसे बड़ी चुनौती हिमालय में रह रहे पहाड़ी लोगों को उपभोग के उस स्तर तक लाना है जिस स्तर पर देश के शहरी समाज पहंुच चुके हैं। यानी कि उन तक कार, फ्रिज, माइक्रोवेव, इंटरनेट समेत आधुनिक जीवन के उपभोग की वस्तुओं को पहुंचाना है। उनके बच्चों को दिल्ली के इलीट स्कूल-काॅलेजों की तरह शिक्षा प्रदान करना, उन तक बेहतरीन स्वास्थ्य सुविधाओं को पहंुचाना और पहाड़ और सुविधा संपन्न शहरों के बीच मौजूद भौगोलिक दूरी को न्यूनतम करना सबसे बड़ा काम है। जाहिर है कि इसके लिए पहाड़ के आदमी की क्रय क्षमता को इस सीमा तक बढ़ाना होगा कि वह इन सब वस्तुओं का उपभोग करते हुए अपनी आर्थिक सुरक्षा और आत्म निर्भरता बनाए रख सके। इसका रास्ता नवें दशक की सर्वोदयी उबड़-खाबड़ पगडंडियों से होकर नहीं जाता। पहाड़ के लोगों को इस वक्त गांधीजी के अपरिग्रह का पाठ पढ़ाना उनको आधुनिक जीवन के वरदानों से वंचित करना है। जब पूरे देश में उपभोक्ता समाज और बाजारीकरण का दौर है तब उत्तराखंड के पहाड़ी लोगों को 18 वीं सदी के भारत में रखने का सपना दरअसल सपना नहीं बल्कि साजिश है। हिमालय के संसाधनों के उपयोग के लिए हमें अपने हिमालय के उस पार स्थित चीन के हिमालय से सीखना होगा जिसने हिमालय के संसाधनों को खरबों डालरों की अर्थव्यवस्था में बदल दिया है। विकास के रास्ते पर चलते हुए किस तरह पर्यावरण की मरम्मत करते हुए लोगों को बेहतर जीवन दिया जा सकता है यह चीन से सीखा जाना चाहिए। लोगों को 18 वीं सदी के अंधेरे में रखकर हिमालय बचाने की बात करना एक साजिश है। यह उन कुलीन लोगों की साजिश है जो खुद तो आधुनिक जीवन के सारे सुखों का उपभोग कर रहे हैं और जब पहाड़ के लोगों तक ऐश्वर्य और सुख के इन साधनों को पहंुचाने की बात आती है तो कुलीन लोगों का हिमालय खतरे में पड़ जाता है। इसलिए हम कह रहे हैं कि हिमपुत्र बचेंगे तो हिमालय बचेगा। हिमपुत्रों को बचाए बगैर हिमालय को बचाने का कोई अर्थ नहीं है।