भारतीय राजनीति उथल-पुथल के दौर से गुजर रही
नये सपने बुनकर स्वतंत्रता को सार्थक दिशा दें
-ललित गर्ग –
पन्द्रह अगस्त हमारे राष्ट्र का गौरवशाली दिन है, इसी दिन स्वतंत्रता के बुनियादी पत्थर पर नव-निर्माण का सुनहला भविष्य लिखा गया था। इस लिखावट का हार्द था कि हमारा भारत एक ऐसा राष्ट्र होगा जहां न शोषक होगा, न कोई शोषित, न मालिक होगा, न कोई मजदूर, न अमीर होगा, न कोई गरीब। सबके लिए शिक्षा, रोजगार, चिकित्सा और उन्नति के समान और सही अवसर उपलब्ध होंगे। मगर कहां फलित हो पाया हमारी जागती आंखों से देखा गया स्वप्न? कहां सुरक्षित रह पाए जीवन-मूल्य? कहां अहसास हो सकी स्वतंत्रा चेतना की अस्मिता?
आजादी के 69 वर्ष बीत गए पर आज भी आम आदमी न सुखी बना, न समृद्ध। न सुरक्षित बना, न संरक्षित। न शिक्षित बना और न स्वावलम्बी। अर्जन के सारे सूत्र सीमित हाथों में सिमट कर रह गए। स्वार्थ की भूख परमार्थ की भावना को ही लील गई। हिंसा, आतंकवाद, जातिवाद, नक्सलवाद, क्षेत्रीयवाद तथा धर्म, भाषा और दलीय स्वार्थों के राजनीतिक विवादों ने आम नागरिक का जीना दुर्भर कर दिया।
हमारी समृद्ध सांस्कृतिक चेतना जैसे बन्दी बनकर रह गई। शाश्वत मूल्यों की मजबूत नींवें हिल गईं। राष्ट्रीयता प्रश्नचिह्न बनकर आदर्शों की दीवारों पर टंग गयी। आपसी सौहार्द, सहअस्तित्व, सहनशीलता और विश्वास के मानक बदल गए। घृणा, स्वार्थ, शोषण, अन्याय और मायावी मनोवृत्ति ने विकास की अनंत संभावनाओं को थाम लिया।
स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, लेकिन हम सात दशक की यात्रा के बाद भी इससे महरूम हैं। ऐसा लगता है जमीन आजाद हुई है, जमीर तो आज भी कहीं, किसी के पास गिरवी रखा हुआ है। गरीबी हो या महंगाई, बेरोजगारी हो या जन-सुविधाएं, महिलाओं की सुरक्षा का प्रश्न हो या राजनीतिक अपराधीकरण- चहुं ओर लोक जीवन में असंतोष है। लोकतंत्र घायल है। वह आतंक का रूप ले चुका है। हाल ही में मलेशिया एवं सिंगापुर की यात्रा से लौटने के बाद महसूस हुआ कि हमारे यहां की फिजां डरी-डरी एवं सहमी-सहमी है। महिलाओं पर हो रहे हमलों, अत्याचारों और बढ़ती बलात्कार की घटनाओं के लिये उनके पहनावें या देर रात तक बाहर घुमने को जिम्मेदार ठहराया जाता है, जबकि सिंगापुर एवं मलेशिया में महिलाओं के पहनावें एवं देर रात तक अकेले स्वच्छंद घूमने के बावजूद वहां महिलाएं सुरक्षित है और अपनी स्वतंत्र जीवन जीती है। हमारी दिक्कत है कि हम समस्या की जड़ को पकड़ना ही नहीं चाहते। केवल पत्तों को सींचने से समाधान नहीं होगा। ऐसा लगता है कि इन सब स्थितियों में जवाबदेही और कर्तव्यबोध तो दूर की बात है, हमारे सरकारी तंत्र में न्यूनतम मानवीय संवेदना भी बची हुई दिखायी नहीं देती। जिम्मेदारियों से पलायन की परम्परा दिनों दिन मजबूती से अपने पांव जमा रही है। चाहे प्राइवेट सैक्टर का मामला हो अथवा सरकारी कार्यालयों का-सर्वत्र एक ऐसी लहर चल पड़ी है कि व्यक्ति अपने से संबंधित कार्य की जिम्मेदारियाँ नहीं लेना चाहता। इसका परिणाम है कि सार्वजनिक सेवाओं में गिरावट आ रही है तथा दायित्व की प्रतिबद्धतायें घटती जा रही हैं। अनिश्चितताओं और संभावनाओं की यह कशमकश जीवनभर चलती रहती है। जन्म, पढ़ाई, करियर, प्यार, शादी कोई भी क्षेत्र हो। नई दिशा में कदम बढ़ाने से पहले कई सवाल खड़े होने लगते हैं। आखिर कब हमें स्वतंत्रता का वास्तविक स्वाद मिलेगा?
कैसी विडम्बना है कि एक निर्वाचित मुख्यमंत्री अपने ही देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री पर हत्या करवा देने का आरोप लगाता है, निश्चित ही इस तरह का आरोप लोकतंत्र की अवमानना है। स्वतंत्रता के सात दशक के बाद भी हमारी राजनीतिक सोच का इतना घिनौना होना देश के राजनीतिक-परिदृश्य के लिये त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण है। कौन स्थापित करेगा एक आदर्श शासन व्यवस्था? कौन देगा इस लोकतंत्र को शुद्ध सांसे? जब शीर्ष नेतृत्व ही अपने स्वार्थों की फसल को धूप-छांव देने की तलाश में हैं। जब रास्ता बताने वाले रास्ता पूछ रहे हैं और रास्ता न जानने वाले नेतृत्व कर रहे हैं सब भटकाव की ही स्थितियां हैं।
बुद्ध, महावीर, गांधी हमारे आदर्शों की पराकाष्ठा हंै। पर विडम्बना देखिए कि हम उनके जैसा आचरण नहीं कर सकते- उनकी पूजा कर सकते हैं। उनके मार्ग को नहीं अपना सकते, उस पर भाषण दे सकते हैं। आज के तीव्रता से बदलते समय में, लगता है हम उन्हें तीव्रता से भुला रहे हैं, जबकि और तीव्रता से उन्हें सामने रखकर हमें अपनी व राष्ट्रीय जीवन प्रणाली की रचना करनी चाहिए।
राजनीति का वह युग बीत चुका जब राजनीतिज्ञ आदर्शों पर चलते थे। आज हम राजनीतिक दलों की विभीषिका और उसकी अतियों से ग्रस्त होकर राष्ट्र के मूल्यों को भूल गए हैं। भारतीय राजनीति उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। चारों ओर भ्रम और मायाजाल का वातावरण है। भ्रष्टाचार और घोटालों के शोर और किस्म-किस्म के आरोपों के बीच देश ने अपनी नैतिक एवं चारित्रिक गरिमा को खोया है। मुद्दों की जगह अभद्र टिप्पणियों ने ली है। व्यक्तिगत रूप से छींटाकशी की जा रही है। वर्तमान नैतिक संकट से उबरने के लिए भौतिकवाद या आतंकवाद की सिर्फ भत्र्सना करना ही काफी नहीं है बल्कि लोगों को उनकी भयानक तबाहियों से बचाने की जिम्मेदारी भी स्वीकारनी होगी।
सत्ता और स्वार्थ ने अपनी आकांक्षी योजनाओं को पूर्णता देने में नैतिक कायरता दिखाई है। इसकी वजह से लोगों में विश्वास इस कदर उठ गया कि चैराहे पर खड़े आदमी को सही रास्ता दिखाने वाला भी झूठा-सा लगता है। आंखें उस चेहरे पर सचाई की साक्षी ढूंढती हैं। देश के लोकतंत्र को हांकने वाले लोग इतने बदहवास होकर निर्लज्जतापूर्ण आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति करें, इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। केवल प्रधानमंत्री के प्रयत्नों से देश सशक्त नहीं होगा, हर व्यक्ति को, हर राजनीतिक दल को और जिम्मेदार नागरिक को प्रयत्नशील होना होगा।
गांधी, शास्त्री, नेहरू, पटेल, लोहिया, अम्बेडकर एवं वाजपेयी के बाद राष्ट्रीय नेताओं के कद छोटे होते गये और परछाइयां बड़ी होती गईं। हमारी प्रणाली में तंत्र ज्यादा और लोक कम रह गया है। यह प्रणाली उतनी ही अच्छी हो सकती है, जितने कुशल चलाने वाले होते हैं। लेकिन कुशलता तो तथाकथित स्वार्थों की भेंट चढ़ गयी। लोकतंत्र श्रेष्ठ प्रणाली है। पर उसके संचालन में शुद्धता हो। लोक जीवन में लोकतंत्र प्रतिष्ठापित हो और लोकतंत्र में लोक मत को अधिमान मिले।
अधिकारों का दुरुपयोग नहीं हो, मतदाता स्तर पर भी और प्रशासक स्तर पर भी। लोक चेतना जागे। लोकतंत्र के दो मजबूत पैर न्यायपालिका और कार्यपालिका स्वतंत्र रहें। एक दूसरे को प्रभावित न करें। संविधान के अन्तर्गत बनी आचार संहिता मुखर हो, प्रभावी हो। केवल पूजा की चीज न हो। जन भावना लोकतंत्र की आत्मा होती है। लोक सुरक्षित रहेगा तभी तंत्र सुरक्षित रहेगा। लोक जीवन और लोकतंत्र की अस्मिता को गौरव मिले। इसी सन्देश में स्वतंत्रता की सार्थकता निहित है।
स्वतंत्रता दिवस का अवसर हमारे लिये नये सपने बुनने एवं और संकल्पबद्ध होने का अवसर है। इस अवसर पर हमें ऐसी व्यवस्था को नियोजित करने के लिये तैयार होना होगा जिसमें स्वतंत्र विचारों वाले जागरूक नागरिकों द्वारा हर सरकार के कामकाज का मूल्यांकन किया जाए। यह उन्हें अपनी चुनावी घोषणाओं या जीतने के बाद किए गए वायदों के प्रति उत्तरदायी बनाएगा। हमें ऐसे मंच तैयार करने चाहिए जो भारत के उन युवाओं, प्रफेशनल्स और ऊर्जावान नागरिकों को एक साथ लाएं और आपस मंे जुड़ने का अवसर दें, जो इस देश की तस्वीर बदलना तो चाहते हैं लेकिन ऐसा कर नहीं पाते क्योंकि उनके पास मंच नहीं है। भावी नेतृत्व को तैयार करने के लिए हमें उनकी ऊर्जा को सही चैनल देने की पहल करनी होगी। यही युवा, सक्रिय नागरिक और प्रफेशनल अपने पेशे, अपने तौर-तरीकों और नागरिकों मूल्यों की वजह से दूसरों के लिए रोल माॅडल की भूमिका निभायेंगे। यही लोग अगली पीढ़ी के लिए पथ-प्रदर्शक बन जायेंगे। हमें भारत के विशाल प्रांगण में हर कोने में ऐसे लोगों की तलाश करनी होगी। ऐसे लोगों की तलाश और उन्हें लोकतंत्र के प्रशिक्षण का समुचित प्रबंध होना जरूरी है। ऐसा करके हम स्वतंत्रता दिवस मनाने की सार्थकता को सिद्ध कर पायेंगे।
बुद्ध, महावीर और गांधी अब वापिस नहीं आ सकते। अब तो लोकतंत्र के समर्थकों को ही तुच्छ राजनीति और दलगत स्वार्थों से ऊपर उठना होगा। लोकतंत्र के पहरुओं को प्रशिक्षण देना होगा। चुप्पी या बीच की लाइन को छोड़कर मतदाता को मुखर होना होगा। अन्यथा हमारा लोकतंत्र ऐसे ही लहूलुहान होता रहेगा और जिस आदर्श स्थिति की हमें तलाश है वह न हमें मिलेगी, न हमारी पीढ़ी को।
प्रेषकः
(ललित गर्ग)
ई-253, सरस्वती कंुज अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
फोनः 22727486, 9811051133