उठो,नींद से अब जागो शेरों
उठो,नींद से अब जागो शेरों
घनश्याम भारतीय
जम्मू कश्मीर के उरी इलाके में सैन्य ठिकाने पर हुए भीषण आतंकी हमले ने जहां पाकिस्तान के दोगले चरित्र को एक बार फिर उजागर किया है वहीं करीब डेढ दर्जन जवानों की शहादत ने पूरे राष्ट्र को झकझोर कर रख दिया है। देश का प्रत्येक नागरिक इस घटना के बाद आत्मिक रूप से दुखी है। इसी के साथ प्रत्येक भारतीय नागरिक के अंतर्मन की पीडा आतंकियों के खिलाफ आक्रोश बनकर उबल रही है। ऐसे में देश की सत्ता और सुरक्षा के शीर्ष पर बैठे शेरों को अब गहरी नींद से जागने की आवश्यकता है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि अब संयम और सहनशीलता की सीमा ही समाप्त हो चुकी है।
२ जनवरी २०१६ को पठानकोट एयरबेस पर आतंकी हमले के साढे आठ माह के अंतराल पर १८ सितंबर २०१६ को जम्मू कश्मीर के उरी सैन्य ठिकाने पर हुए इस हमले के बाद पूरे देश से यह मांग उठी है कि इस घृणित कृत्य की साजिश से जुडा कोई भी बचने ना पाए। …और यह स्वाभाविक भी है। उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मांग पर गंभीर रुख अपनाते हुए जिस तरह उच्चस्तरीय बैठक की और उसके बाद जिस तीव्रता से १० आतंकियों को ढेर किया गया, और आतंकवाद विरोधी अभियान जारी है। वह निश्चित रूप से एक सराहनीय कदम है। सच पूछिए तो यह कदम और पहले उठना चाहिए था। उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी का वह बयान भी काफी मायने रखता है, जिसमें उन्होंने कहा है कि यह मामला अस्वीकार्य है। आतंकवाद कोई भी सहन नहीं कर सकता। वास्तव में भारत के संयम की अब तक बहुत परीक्षा हो चुकी है। अब और किसी भी परीक्षा में शामिल होने की आवश्यकता नहीं है। अब देश सहनशीलता और संयम की अब तक हुई परीक्षा का परिणाम चाहता है। वह परिणाम जिसमें कश्मीर के अंदर पाकिस्तान द्वारा पोषित आतंकी शिविर ही न दिखें। साथ ही इस हमले की पुनरावृत्ति की सोच रखने वालों की कई पीढयां भी इससे तौबा करें।
बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर का वह कथन आज फिर एक बार प्रासंगिक हो गया है, जिसमें उन्होंने कहा है कि ’सहनशीलता की सीमा समाप्त होने पर क्रांति का उदय होता है।‘ अब वास्तव में क्रांति की आवश्यकता है। यह क्रांति आतंकवाद और दहशतगर्दी के खिलाफ होनी चाहिए। चाहे वह पाकिस्तान हो अथवा कोई और… किसी को भी बक्शा नहीं जाना चाहिए। आखिर हम कब तक अपनी बर्बादी का दंश झेलते हुए अपनी ही तबाही का तमाशा देखते रहेंगे। कुर्बानी अपनी रक्षा में नहीं बल्कि दुष्टों का सर्वनाश करने में दी जानी चाहिए। इसके लिए सत्ता और सुरक्षा के शीर्ष पर बैठे उच्च पदासीन शेरों को पुरानी तंद्रा भंग कर नींद से जागना होगा। क्योंकि देश की सवा अरब की आबादी आज इन्हीं शेरों की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रही है। ऐसे में सरकार और सुरक्षा एजेंसियों के साथ-साथ आम नागरिकों की भी जिम्मेदारियां बढ गई हैं। आज आतंक की दरिया का पानी नाक से ऊपर हो चला है। ऐसे में स्वयं को बचाते हुए आतंकवाद के विरुद्ध आर-पार का निर्णय होना चाहिए। अब जुमलेबाजी से काम नहीं चलने वाला। अब हकीकत में कुछ करना होगा। यही नही आतंकवाद के पोषकों के साथ साथ उन विभीषणों के भी विरुद्ध ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता है जो भारत में रहकर भी आतंकवादियों को मासूम साबित करने में कोई कसर नहीं छोडते।
पूरी दुनिया जानती है कि सन १९६५ और सन १९७१ के युद्ध के परिणाम ने अराजकता के पोषक पाकिस्तान की कमर तोड दी थी। जिसके दशकों बाद तक उसकी दहशत उसके अंदर कायम रही। लेकिन अगले कुछ दिनों में उसके संरक्षण में आतंक के जहरीले नाग ने अपना फन उठाना शुरू कर दिया। जिसे समय रहते कुचलने के बजाय भारत ने हमेशा संयम और सहनशीलता का ही परिचय दिया। नतीजा यह हुआ कि आतंकवादियों ने रूबिया सईद और इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण करके दो चक्रों में पाकिस्तानी आतंकवादियों को भरतीय जेल से छुडा लिया। जिसके बाद भारत में आतंकवाद यू टर्न ले बैठा। नतीजा आज सबके सामने है।
आतंकवाद आज वैश्विक समस्या बन गया है। जिससे दुनिया के तमाम देश त्रस्त हैं। खुद पाकिस्तान भी इस से अछूता नहीं है। वह तो सर्वाधिक पीडित है। उसके यहां आए दिन आतंकी वारदातें सामने आ रही हैं। आतंकवादियों के सामने वहां की जनता और खुद पाक सरकार असहाय बनी हुई है। जिस पाकिस्तान को सांप पालने का शौक है उसे उसके भयंकर विष का शिकार तो होना ही पडेगा। इसके विपरीत अमनपसंद भारत की जनता और यहां की सरकार सदा प्रेम और सद्भाव की पक्षधर रही है। दूसरी तरफ अहिंसा परमो धर्मः के सिद्धांत पर चलने वाले भारत के सब्र का बांध जब भी टूटा है, महाभारत भी हुआ है। पाकिस्तान शायद इसे भूल रहा है।
दूसरी तरफ भौगोलिक दृष्टिकोण से भारत की सीमाएं ऐसे उद्दंड देशों से सटी हैं जो लगातार अशांति को बढावा देते आ रहे हैं। सभी की कुदृष्टि भारत की ओर किसी न किसी रूप में लगी है। कोई सीमा रेखा पार कर घुसपैठ कर रहा है तो कोई दहशतगर्द भेजकर माहौल बिगाडने की कोशिश कर रहा है। यह जाहिर है कि आतंकवादी किसी भी तरह के अनुबंधों और समझौतों को नहीं मानते। खून खराबा करना और दहशत फैलाना उनका कर्म धर्म सब है। उनके साथ किसी भी तरह की नरमी नहीं दिखाई जानी चाहिए।
अब पाकिस्तान को ही ले, जो अपने जन्म से लेकर अब तक उद्दंड बना हुआ है। बटवारे के बाद से अब तक भारत पाक के बीच मधुर संबंध स्थापित करने को लेकर हुए सारे प्रयास निरर्थक साबित हुए हैं। भारत में पाकिस्तानी आतंकवाद उसी का प्रतिफल है। चाहे वह १९६५ का हमला हो अथवा १९७१ का युद्ध, या फिर कारगिल युद्ध। सब में उसका दोगला चरित्र ही उजागर हुआ है। हम बराबर बात करते हैं और वह बात-बात पर घात करता है। पठानकोट हमले के बाद उरी हमला इसका ताजा उदाहरण है। इसके अलावा अन्य हमलो में भी पाकिस्तानी चाल ही सामने आई है।
पिछले दो दशक में हमलों और खून खराबे का दंश झेलते आए भारत के सामने भी आतंकवाद बडी चुनौती के रूप में उभरा है। १२ मार्च १९९३ का मुंबई सीरियल ब्लास्ट १३ सितंबर २००१ को भारतीय संसद पर हमला २४ सितंबर २००२ को गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हमला २९ सितंबर २००५ को दिल्ली में सीरियल ब्लास्ट ११ जुलाई २००६ को मुंबई ट्रेन धमाका हुआ। जिसमें देश को भारी जन धन हानि उठानी पडी है। फिर सन २००८ में लगातार तीन मामले सामने आए। जिसमें १३ मई को जयपुर ब्लास्ट ३० अक्टूबर को असम धमाका और २६ नवंबर को मुंबई हमले में तमाम जाने गई। इन सभी हमलो में किसी न किसी रूप में पाकिस्तान का ही हाथ सामने आया। और अब उरी सैन्य ठिकाने पर हुआ हमला मानवता और एकता के माथे पर कलंक का टीका है। कहा जा सकता है कि पाकिस्तान में ऐसे आतंकी संगठन है जिन्हे दोनों देशों के बीच शांति का प्रयास बिल्कुल पसंद नहीं है। इन संगठनों और पाकिस्तानी सरकार में मतभेद शांति के रास्ते में रोडा बनते हुए आतंकवाद को बढावा दे रहा है। जो समूची मानवता के लिए खतरा है।
सबसे बडी बात यह है कि पिछले वर्श देश में कथित असहिष्णुता के नाम पर आसमान सिर पर उठाने वाले लोग आज चुप बैठे हैं। एक व्यक्ति की मौत पर पुरस्कार लौटाने वालों का जमीर आज १८ जवानों की शहादत पर मौन क्यों है? उनका साहस आयातित आतंकवाद पर शांत क्यों है? यह अपने आप में एक बडा सवाल है। दूसरी तरफ पाकिस्तान के अंदर आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने वाले संगठनों पर पाक कार्रवाई तो करता है परंतु जो पाकिस्तानी संगठन भारत में आतंक फैलाते हैं उन के विरुद्ध कार्रवाई नहीं करना चाहता। उल्टे कष्मीर में आतंकिया का फंड बढाता जा रहा है। ऐसे में भारत सरकार को खुद अपनी आतंकवाद विरोधी रणनीति की समीक्षा करते हुए सन् १९६५ और १९७१ की भांति मुह तोड जबाब देना चाहिए।
घनष्याम भारतीय
स्वतन्त्र पत्रकार/स्तम्भकार
ग्रा व पो-दुलहूपुर अम्बेडकरनगर उ०प्र