लोभ-लालच से आच्छादित मन
-गणि राजेन्द्र विजय -लालची एवं लोभी स्वयं को ही ठगता है
लोभ-लालच से आच्छादित मन, मृग-मरीचिका में भटकता रहता है एवं पर को ही नहीं स्वयं को ठगता है, धोखा देेने के चक्कर में स्वयं धोखा खाता है। दूसरों को छलने से स्वयं की आत्मा में छाले पड़ जाते हैं और वे रिसते रहते हैं, वे दन्त की रीस देते रहते हैं। जहाँ लालच एवं लोभ की वृत्ति ज्ञात होने पर स्वजन और मित्रों का स्नेह भंग हो जाता है, वहीं लालच की विसंगति खुलने से स्वयं को भी आत्म-ग्लानि के साथ लज्जित होना पड़ता है। लालची एवं लोभी व्यक्ति अपने कपट-व्यवहार को कितना ही छिपाये देर-सबेर प्रकट हो ही जाता है।
किसी महापुरुष के अनुसार किसी भी व्यक्ति की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता है,
परन्तु किसी लालची व्यक्ति के लालच को पूरा करना असंभव है। यह एक ऐसी इच्छा है जिसे पूरा करने के बाद भी इंसान कभी तृप्त नहीं होता। अपनी इच्छा पूर्ति ने लिए न जाने कैसे-कैसे पाप करता जाता है कि जिसका कोई हिसाब ही नहीं। किसी व्यक्ति के पास कोई वस्तु देखता है तो लालच में आ जाता है कि वह वस्तु हर हाल में मुझे चाहिए ही। विवेक शून्य हो जाता है, अपने रिश्तों की भी परवाह नहीं करता, अर्थात् सभी अनर्थों का मूल है यह लालच। लोभी व्यक्ति की स्थिति उस गधे के सामान है जो अपने पीठ पर धन को लादकर तो चलता है परन्तु, उसका उपभोग नहीं कर सकता न दूसरे ही कर सकते हैं।
आज का मानव बहुरूपिया बन गया है, उसका स्वभाव जटिलताओं का केन्द्र बन गया है। व्यापार की भाषा में, रिश्तेदारी-सम्बन्धों मंे और अतिथियों तथा अड़ोस-पड़ोस में बसने वालों के प्रति हर किसी के साथ और हर स्थान पर लोभ एवं लालच से पेश आता है। यहाँ तक कि भगवान के आगे भी वह अपनी लोभी बुद्धि का कमाल दिखाये बगैर बाज नहीं आता। अपने स्वार्थ एवं लोभ के लिये वह भगवान को भी ठगता है, उनसे भी सौदेबाजी करता है।
एक व्यक्ति देवी के मंदिर में जा मनौती मांग रहा था, निःसंतान था अतः उसने प्रार्थना की हे देवी! मुझे पुत्र की प्राप्ति हो जाये, मैं सोने की पोशाक चढ़ाऊंगा। कालान्तर मंे पुत्र की प्राप्ति हो गयी उसका लोभ-लालच प्रबल हुआ। उसने बच्चे का नाम ही ‘सोने लाल’ रख लिया। एक कपड़े का टुकड़ा ला ‘झवला’ सिलकर बच्चे को पहनाया फिर वहीं जाकर देवी को भेंट करते हुए कहा – देवी माँ वायदे के अनुसार ‘सोने की पोशाक दे रहा हूँ, बच्चे पर कृपा-दृष्टि रखना।’ यह मात्र एक दृष्टान्त है परन्तु आज व्यक्ति हर समय, हर क्षण लोभ-लालच में लिप्त है।
कहा जाता है सर्प टेढ़ा-मेढ़ा वक्रता में चलता है परन्तु अपनी ‘बाॅवी’ में वह सीधा जाता है परन्तु मानव अपनी वक्रता, कूटनीति कही नहीं छोड़ता वह मायाजाल बुनता ही रहता है। धर्मात्मा का नाटक कर दो नम्बर में अर्थार्जन करना अब सामान्य सी बात है। ऐसे ही व्यक्तियों को ‘बगुला भगत’ कहा गया है।
मायाचारी एवं लोभी बदल-बदल कर छल-कपट के व्यवहार से पाप कमाता है। वह अपनी कुटिलता, छल, कपट, धोखेबाजी से क्षणिक सफलता पा भी ले परन्तु अन्ततोगत्वा कष्ट ही उठाता है। ऐसे व्यक्ति शंकाशील रहने के कारण भयभीत रहते हैं। वैसे कहावत भी है -‘कोठ की हांड़ी बार-बार नहीं चढ़ती।’तथा ‘कच्ची हांड़ी चैराहे पर फूटती है।’
अर्थात् मायाचार, लोभ-लालच स्थायी सफलता नहीं दे सकते और जब चार
सौ बीसी का भंडा फूटता है तो अपयश की चिंगारी दूर-दूर तक तपन से झुलसाती है। यह कुटिलता लोक-परलोक दोनों मंे ही दुःखद है। मायायुक्त प्रपंच के कारण कुटिल हृदय वाला व्यक्ति इस लोक में अपयश को प्राप्त होता है एवं मर कर दुर्गति को प्राप्त करता है।
लोभी-लालचियों के लिये कहा गया है -प्राणियों को मायाचारी के कारण स्त्री व नपंुसक वेद, तिर्यंच गति एवं नीच-गोत्र में प्राप्त होने वाले अपमान को अनेक जन्मों मंे भोगना पड़ता है। इसीलिए कहा गया है-जो साधक मन में कुटिल विचार नहीं रखता, वचन से कुटिल बात नहीं कहता, शरीर से भी कुटिल चेष्टा नहीं करता तथा अपना दोष नहीं छिपाता, वही धर्म का पालक है। जितने ऋजु- सरल हम अपने जीवन में होते जायेंगे, उतने ही हम ईश्वरत्व के समीप होते जाएंगे। कोई भी व्यक्ति परमात्मा का भक्त तब तक नहीं हो सकता जब तक उसमें मायाचार एवं लालच का अंश भी विद्यमान है।
मनुष्य को बाहर और भीतर अंगूर की तरह एक समान होना चाहिए। जो व्यक्ति खजूर की तरह ऊपर से मृदु और अन्दर से कठोर और छलयुक्त होते हैं वे पशुगति का बंध करते हैं। जो बात मन में है उसे ही वचन द्वारा प्रकट करना धर्म है और उससे विरुद्ध मायाचार है, अधम है। मनःस्थिति को ही व्यक्त करना परिणामों में शुभ है, किन्तु मन की बात छिपाकर बनावटी बात जिह्ना से कहना अशुभ परिणाम का संकेत है। जहाँ तक धर्म पथ पर चलने का निश्चय है वहाँ पवित्रता एवं ऋतुजा की ही प्रार्थना करनी चाहिए, कुटिलता की नहीं। यह सरलगति स्वर्ग और सिद्धालय तक पहुँचाने मंे समर्थ है।
शास्त्रों में कहा गया है कि – नारकीय जीवों में क्रोध की अधिकता होती है, इससे अधिक क्रोध अन्य किसी (गति) में नहीं होता। मान-कषाय मनुष्यों में सर्वाधिक होती है। तिर्यंच-गति के प्राणियों में मायाचारी अधिक होती है। इस तथ्य की पुष्टि अनेक दृष्टान्तों से होती है, कवियों ने, साहित्यकारों ने अपनी कविताओं-कथाओं में इस तथ्य को उजागर किया है। धर्म में प्रवेश करने हेतु इस मायाचार से मुक्त होना आवश्यक है। आचार्य वादिराज ने छत्रचूड़ामणि में लिखा है – संसार मंे रहे और यह कहे कि मैंने मायाचारी त्याग दी है – ऐसा कथन भी एक मायाचार है। प्रत्येक क्षेत्र में मायाचार है, कोई क्षेत्र इससे अछूता नहीं है। इस मायाचार ने ही संसार बढ़ा रखा है। इस मायाचार के छद्म रूपों को पहचानना अत्यन्त कठिन है।
धर्म का लक्षण है सरलता एवं ऋतुजा। ऋजुता, सरलता सर्वोत्तम है। जो सरल है, सहज है, उनका लक्षण बताया गया है कि जिसके मन-वचन और क्रिया तीनों एकरूप है, वह महात्मा है, संत है, साधु है। लक्षण सार्वभौम होता है। किसी जाति-विशेष, स्थान-विशेष, धर्म-विशेष अथवा देश-विदेश के लिए नहीं होता। जिस प्राणी में ये तीनों लक्षण हैं, ये तीनों गुण हैं, वह किसी भी देश, जाति, स्थान व धर्म का हो, वह महान है और जिसके मन में कुछ हो, वचन से कुछ अन्य कहे और क्रिया कुछ और ही करे, वह मायाचारी है।
हर व्यक्ति लालची एवं लोभी होता है। किसी को किसी का लालच तो किसी को और किसी का जैसे धन संपत्ति, सोना-चाँदी, तो किसी को मान-प्रतिष्ठा, सत्ता एवं शोहरत परन्तु जिस व्यक्ति का विवेक जाग्रत हो तो वह कभी इनके पीछे न भागे। परमात्मा के प्रति प्रेम और सांसारिक लोभ एक दूसरे के विपरीत हैं इसलिए, हमें यह प्रयास करना है कि हम इस लोभ की दिशा को बदल दें और इस लोभ लालच को सांसारिक चीजों से हटाकर, परमार्थ की ओर लगायें। स्वयं को मुसीबतों से बचाएं।
कहा भी गया है-उन्नतं मानसं मस्य, भाग्यं तस्य समुन्नतं अर्थात्- जिसका मन दृढ़ हो गया, सरल हो गया, उन्नत हो गया, श्रेष्ठ हो गया, उसका जीवन एवं भाग्य भी उन्नत व श्रेष्ठ हो गया। मनुष्य बाह्म-आकृति अथवा बाह्य-रूप से नहीं अपितु अंतरंग-प्रवृत्तियों से पहचाना जाता है, मनुष्यत्व के लिए स्वच्छ व निर्मल मन होना आवश्यक है। जिसका मन उन्नत एवं विशाल होगा, वही श्रेष्ठ होगा, आदरणीय व पूज्य होगा। इसलिए आचार्य मन को सरल-निर्मल रखने की बात कहते हैं।
निर्मल मन में ही धर्म श्रवण करने के भाव उत्पन्न होते हैं और उससे आत्म-चिंतन करने के भाव उत्पन्न होते हैं। मात्र क्षण भर के लिए ही सही, पर यह भाव अवश्य होते हैं कि मायाचार अवश्य छोड़ना चाहिए, मायाचारी त्याज्य है। जैसे श्मशान में शव का दाह-संस्कार देखते हुए वैराग्य भाव उत्पन्न होते हैं। किन्तु श्मशान परिधि से बाहर निकलते ही पुनः जगत् सारभूत लगने लगता हैं
हमें शास्त्रों की इस शिक्षा को अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि – ‘‘बीज रूप मंे भी यदि देशनालब्धि पड़ेगी, तो वह कभी न कभी अवश्य सफल होगी, काम आएगी।’’ अतः यदि सच्चे सुख की कामना है तो वह इस गुण के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। प्रस्तुतिः ललित गर्ग
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(ललित गर्ग)
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