देवों के देव महादेव- के दरबार में मोदी
केदारनाथ में महाप्रलय की लहरे नंदी जी को टस से मस न कर पायी; देवों के देव महादेव- के दरबार में मोदी की उपस्थिति- 3 मई 2017# मिथुन लगन में केदारनाथ धाम के कपाट खोले जाएंगे #उत्तराखण्ड देवभूमि # यहाँ त्रियुगी-नारायण नामक स्थान पर महादेव ने सती पार्वती से विवाह किया था।
मन्सार नामक स्थान पर सीता माता धरती में धरती में समाई थी। यह स्थान उत्तराखण्ड के पौडी जिले में है और यहाँ प्रतिवर्ष एक मेला भी लगता है# कमलेश्वर/सिद्धेश्वर मन्दिर श्रीनगर का सर्वाधिक पूजित मन्दिर है। कहा जाता है कि जब देवता असुरों से युद्ध में परास्त होने लगे तो भगवान विष्णु को भगवान शंकर से इसी स्थान पर सुदर्शन चक्र मिला था# सती अनसूइया ने उत्तराखण्ड में ही ब्रह्म, विष्णु, एवँ महेश को बालक बनाया था।डोईवाला भगवान दत्तात्रेय के २ शिष्यों की निवास भूमि है। यही नहीं, भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण ने भी यहीं प्रायश्चित किया था।
PHOTO; केदारनाथ में महाप्रलय की लहरे नंदी जी को टस से मस न कर पायी;
(www.himalayauk.org) Web & Print Media; CS JOSHI- EDITOR Dehradun;
धाम के कपाट आगामी तीन मई को सुबह 8 बजकर 50 मिनट पर आम दर्शनों के लिए खोल दिए जाएंगे। तीन मई को विधिविधान के साथ मिथुन लगन में धाम के कपाट खोले जाएंगे। उत्तराखंड में है दुनिया का सबसे ऊँचाई पर स्थित शिव मंदिर केदारनाथ मंदिर –
श्री बद्रीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के विशेष कार्याधिकारी वी.डी. सिंह ने बताया कि महाशिवरात्रि के पावन पर्व पर ऊखीमठ के ओंकारेश्वर मंदिर में केदारनाथ मंदिर के कपाट खोले जाने का विधिवत मुहूर्त निकाला गया। कपाट खुलने की तिथि घोषित करते वक्त पुरोहित भीमाशंकर, बीडी सिंह व अनिल शर्मा सहित अन्य लोग मौजूद रहे।
2013 में 16-17 जून को आई आपदा के वक्त जब पूरा उत्तराखंड तबाही का दंश झेल रहा था, तभी केदारनाथ धाम के कई चमत्कार भी हुए। जिसे देख लोग आश्चर्य में पड़ गए थे।
अप्रैल 24, 2015 को केदारनाथ में दर्शन करने के बाद राहुल गांधी ने कहा, मैं मंदिर में जाकर कुछ मांगता नहीं हूं, लेकिन यहां आकर मुझे शक्ति मिली है।
उत्तराखंड में गढ़वाल हिमालय में केदारनाथ धाम तीन मई को और बद्रीनाथ मंदिर छह मई को श्रद्धालुओं के लिये खुलेंगे. इससे पहले 28 मई को उच्च हिमालयी क्षेत्र में स्थित गंगोत्री और यमुनोत्री धाम के कपाट अक्षय तृतीया के पावन पर्व पर श्रद्धालुओं के दर्शन के लिये खोल दिये गये जिसके साथ ही सालाना चारधाम यात्रा का भी शुभारंभ हो गया.
उत्तरकाशी जिले में स्थित मां गंगा को समर्पित गंगोत्री मंदिर और मां यमुना को समर्पित यमुनोत्री धाम के कपाट अपराह्न 12.15 बजे वेदों के मंत्रोच्चार के बीच पारंपरिक धार्मिक अनुष्ठान के साथ श्रद्धालुओं के लिये खोले गये. मां गंगा की मूर्ति लेकर डोली आज प्रात: नौ बजे उनके मायके मुखबा से गंगोत्री पहुंची जहां पंडा-पुरोहित समाज ने उसका भव्य स्वागत किया. सेना के बैंड की सुंदर धुनों के बीच भारी जनसमूह की मौजूदगी में मां गंगा की मूर्ति का श्रंगार कर पंडा पुरोहितों ने पूजा अर्चना कर दोपहर बाद 12.15 बजे उन्हें गर्भगृह में स्थापित कर दिया.
कपाट खुलने के मौके पर पूर्व मुख्यमंत्री व हरिद्वार के सांसद डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक और गंगोत्री विधायक गोपाल रावत भी मौजूद थे. वहीं, यमोनोत्री धाम के कपाट भी तीर्थ यात्रियों के लिए खोल दिए गए. इस मौके पर प्रदेश के पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज, यमुनोत्री विधायक केदार सिंह रावत के अलावा सैंकड़ो तीर्थ यात्रियों ने भी मां यमुना की भोगमूर्ति के दर्शन किये.
यात्रा के शुरू होने के अवसर पर महाराज ने कहा कि उत्तराखंड के सभी धाम गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और बदरीनाथ व हेमकुंड साहिब हमारे धर्म, संस्कृति व मान्यता से जुड़े है जिनमें देश-विदेश के असंख्य श्रद्धालुओं की आस्था है. उन्होंने कहा कि आपदा के बाद इन धामों को लेकर हमारे सामने चुनौतियां आयी जिसके कारण यात्रा सुगम नहीं हो पायी. इस चुनौती को अब सरकार ने पूर्ण कर लिया है.
###उत्तराखण्ड को देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है। इसका कारण है पौराणिक काल में इस क्षेत्र में हुए विभिन्न देवी-देवताओं द्वारा लिए अवतार। यहाँ त्रियुगी-नारायण नामक स्थान पर महादेव ने सती पार्वती से विवाह किया था।
मन्सार नामक स्थान पर सीता माता धरती में धरती में समाई थी। यह स्थान उत्तराखण्ड के पौडी जिले में है और यहाँ प्रतिवर्ष एक मेला भी लगता है।
कमलेश्वर/सिद्धेश्वर मन्दिर श्रीनगर का सर्वाधिक पूजित मन्दिर है। कहा जाता है कि जब देवता असुरों से युद्ध में परास्त होने लगे तो भगवान विष्णु को भगवान शंकर से इसी स्थान पर सुदर्शन चक्र मिला था। सती अनसूइया ने उत्तराखण्ड में ही ब्रह्म, विष्णु, एवँ महेश को बालक बनाया था।डोईवाला भगवान दत्तात्रेय के २ शिष्यों की निवास भूमि है। यही नहीं, भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण ने भी यहीं प्रायश्चित किया था।पौराणिक ग्रन्थों में कुर्मांचल क्षेत्र मानसखण्ड के नाम से प्रसिद्व था। पौराणिक ग्रन्थों में उत्तरी हिमालय में सिद्ध गन्धर्व, यक्ष, किन्नर जातियों की सृष्टि और इस सृष्टि का राजा कुबेर बताया गया हैं। कुबेर की राजधानी अलकापुरी (बद्रीनाथ से ऊपर) बतायी जाती है। पुराणों के अनुसार राजा कुबेर के राज्य में आश्रम में ऋषि-मुनि तप व साधना करते थे। अंग्रेज़ इतिहासकारों के अनुसार हूण, शक, नाग, खस आदि जातियाँ भी हिमालय क्षेत्र में निवास करती थी। पौराणिक ग्रन्थों में केदार खण्ड व मानस खण्ड के नाम से इस क्षेत्र का व्यापक उल्लेख है। इस क्षेत्र को देवभूमि व तपोभूमि माना गया है।
मानस खण्ड का कुर्मांचल व कुमाऊँ नाम चन्द राजाओं के शासन काल में प्रचलित हुआ। कुर्मांचल पर चन्द राजाओं का शासन कत्यूरियों के बाद प्रारम्भ होकर सन् १७९० तक रहा। सन् १७९० में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमाऊँ पर आक्रमण कर कुमाऊँ राज्य को अपने आधीन कर लिया। गोरखाओं का कुमाऊँ पर सन् १७९० से १८१५ तक शासन रहा। सन् १८१५ में अंग्रेंजो से अन्तिम बार परास्त होने के उपरान्त गोरखा सेना नेपाल वापस चली गयी किन्तु अंग्रेजों ने कुमाऊँ का शासन चन्द राजाओं को न देकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन कर दिया। इस प्रकार कुमाऊँ पर अंग्रेजो का शासन १८१५ से आरम्भ हुआ।
ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार केदार खण्ड कई गढ़ों (किले) में विभक्त था। इन गढ़ों के अलग-अलग राजा थे जिनका अपना-अपना आधिपत्य क्षेत्र था। इतिहासकारों के अनुसार पँवार वंश के राजा ने इन गढ़ों को अपने अधीन कर एकीकृत गढ़वाल राज्य की स्थापना की और श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया। केदार खण्ड का गढ़वाल नाम तभी प्रचलित हुआ। सन् १८०३ में नेपाल की गोरखा सेना ने गढ़वाल राज्य पर आक्रमण कर अपने अधीन कर लिया। यह आक्रमण लोकजन में गोरखाली के नाम से प्रसिद्ध है। महाराजा गढ़वाल ने नेपाल की गोरखा सेना के अधिपत्य से राज्य को मुक्त कराने के लिए अंग्रेजों से सहायता मांगी। अंग्रेज़ सेना ने नेपाल की गोरखा सेना को देहरादून के समीप सन् १८१५ में अन्तिम रूप से परास्त कर दिया। किन्तु गढ़वाल के तत्कालीन महाराजा द्वारा युद्ध व्यय की निर्धारित धनराशि का भुगतान करने में असमर्थता व्यक्त करने के कारण अंग्रेजों ने सम्पूर्ण गढ़वाल राज्य राजा गढ़वाल को न सौंप कर अलकनन्दा-मन्दाकिनी के पूर्व का भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में सम्मिलित कर गढ़वाल के महाराजा को केवल टिहरी जिले (वर्तमान उत्तरकाशी सहित) का भू-भाग वापस किया। गढ़वाल के तत्कालीन महाराजा सुदर्शन शाह ने २८ दिसम्बर १८१५ को टिहरी नाम के स्थान पर जो भागीरथी और भिलंगना नदियों के संगम पर छोटा-सा गाँव था, अपनी राजधानी स्थापित की। कुछ वर्षों के उपरान्त उनके उत्तराधिकारी महाराजा नरेन्द्र शाह ने ओड़ाथली नामक स्थान पर नरेन्द्रनगर नाम से दूसरी राजधानी स्थापित की। सन् १८१५ से देहरादून व पौड़ी गढ़वाल (वर्तमान चमोली जिला और रुद्रप्रयाग जिले का अगस्त्यमुनि व ऊखीमठ विकास खण्ड सहित) अंग्रेजों के अधीन व टिहरी गढ़वाल महाराजा टिहरी के अधीन हुआ।
भारतीय गणतन्त्र में टिहरी राज्य का विलय अगस्त १९४९ में हुआ और टिहरी को तत्कालीन संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) का एक जिला घोषित किया गया। १९६२ के भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि में सीमान्त क्षेत्रों के विकास की दृष्टि से सन् १९६० में तीन सीमान्त जिले उत्तरकाशी, चमोली व पिथौरागढ़ का गठन किया गया। एक नये राज्य के रूप में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के फलस्वरुप (उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, २०००) उत्तराखण्ड की स्थापना ९ नवम्बर २००० को हुई। अत: इस दिन को उत्तराखण्ड में स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है।
सन् १९६९ तक देहरादून को छोड़कर उत्तराखण्ड के सभी जिले कुमाऊँ मण्डल के अधीन थे। सन् १९६९ में गढ़वाल मण्डल की स्थापना की गयी जिसका मुख्यालय पौड़ी बनाया गया। सन् १९७५ में देहरादून जिले को जो मेरठ प्रमण्डल में सम्मिलित था, गढ़वाल मण्डल में सम्मिलित कर लिया गया। इससे गढ़वाल मण्डल में जिलों की संख्या पाँच हो गयी। कुमाऊँ मण्डल में नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, तीन जिले सम्मिलित थे। सन् १९९४ में उधमसिंह नगर और सन् १९९७ में रुद्रप्रयाग, चम्पावत व बागेश्वर जिलों का गठन होने पर उत्तराखण्ड राज्य गठन से पूर्व गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डलों में छः-छः जिले सम्मिलित थे। उत्तराखण्ड राज्य में हरिद्वार जनपद के सम्मिलित किये जाने के पश्चात गढ़वाल मण्डल में सात और कुमाऊँ मण्डल में छः जिले सम्मिलित हैं। १ जनवरी २००७ से राज्य का नाम “उत्तरांचल” से बदलकर “उत्तराखण्ड” कर दिया गया है।
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