बीजेपी और मोजपा का फर्क- विरोधी -राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी – दुश्मन नहीं
लालकृष्ण आडवाणी ब्लॉग लिख कर बीजेपी और मोदी जनता पार्टी (मोजपा) का फर्क बता रहे हैं। मोजपा में महानेता की तनिक सी भी आलोचना ऐंटी नेशनल होने का पर्याय है, तो आडवाणी जी अपनी भारतीय जनता पार्टी याद कर रहे हैं जिसके विरोधी, विरोधी ही माने जाते थे, ऐंटी नेशनल नहीं। राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी माने जाते थे, दुश्मन नहीं। हालाँकि यह बात सौ फ़ीसदी सच नहीं है।
आडवाणीजी के जमाने में बीजेपी की राजनीति जो भी हो, लेकिन संगठन में व्यक्तिवाद सचमुच नहीं था। यह विडंबना भी याद रखने योग्य है कि भारत में अमेरिका जैसा प्रेसिडेंशियल सिस्टम हो, यह शिगूफ़ा भी आडवाणीजी ने ही छेड़ा था। इरादा यह था कि पार्टी के जनाधार में जो कमी है, उसे अटलजी का कल्ट (मत) बना कर भर लिया जाए। कोशिश की भी गयी लेकिन एक तो उन दिनों मीडिया का इतना भयानक विस्तार नहीं हुआ था, सो मीडियापा इतना ज़्यादा फैलाया नहीं जा सकता था; दूसरा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में इतनी रीढ़ बाक़ी थी कि वह बीजेपी को पूरी तरह व्यक्ति-निर्भर पार्टी न बनने दे।
इसमें आडवाणीजी केवल आपकी ही नहीं, आपके पूरे वैचारिक परिवार की भूमिका है। आज देश में जो तनाव का माहौल है, उसका आधार है रेशनल (तर्कसंगत) सोच का अभाव। किसी की बात का जबाव न देते बने तो उसे ऐंटी नेशनल कह कर किस्सा ख़त्म करो। यह बात रेशनल बातचीत की जगह आक्रामक भावनाओं को स्थापित करने की स्वाभाविक परिणति है। बबूल के पेड़ बोने के बाद आम खाने की उम्मीद तो ज़्यादती ही है ना।
इस लिहाज से भारतीय जनता पार्टी का मोदी जनता पार्टी में रूपांतरण स्वाभाविक है। ‘भावनाओं के सवाल’ को बवाल बनाने की कोशिश तो आडवाणीजी की पीढ़ी ने ही शुरू की थी। संविधान की भावना और क़ानूनी प्रक्रियाओं की धज्जियाँ उड़ाने का आरंभ तो आडवाणीजी और उनके समकालीनों ने ही किया था। हाँ, वे लोग इतना “साहस (या दुस्साहस)” नहीं जुटा पाए थे कि मर्यादा, प्रक्रिया को ही नहीं सामान्य शिष्टाचार को भी ठेंगा दिखा दें।
मोदी और शाह की विशेषता यही है कि इस जोड़ी को न तो पार्टी से मतलब है और न ही किसी विचार से…ये दोनों भयानक आत्ममोह से ग्रस्त हैं, और किसी भी तरह के मर्यादा-बोध से पूरी तरह मुक्त।
यह असल में आडवाणीजी की “सफलता” का ही प्रमाण है कि आज यह जुगलजोड़ी आडवाणीजी की पार्टी को जेब में रखे मनमानी करती घूम रही है। मजे की बात यह है कि आडवाणीजी के ब्लॉग पर सबसे पहले नरेंद्र् मोदी ने ही मुहर लगाई। वैसे भी मोदीजी तो चिढ़ाने की कला में माहिर हैं ही, कल्पना की जा सकती है कि आडवाणीजी के ब्लॉग पर टिप्पणी करते हुए वह हँस-हँस कर लोट-पोट हो रहे होंगे।
1990 में जब आडवाणीजी सोमनाथ से अपना टोयोटा रथ लेकर सारे देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और आक्रामकता का माहौल बनाने के लिए निकले थे, राजेन्द्र माथुर उन दिनों नवभारत टाइम्स के संपादक थे। माथुर ने आडवाणीजी की इस यात्रा पर एक फ़्रंटपेज, साइन्ड संपादकीय लिखा था, जिसका शीर्षक था, ‘ शेर की सवारी के ख़तरे’।
इस संपादकीय का आख़िरी वाक्य कुछ इस प्रकार था, ‘श्री लालकृष्ण आडवाणी को समझना चाहिए कि जिन शक्तियों का वे उन्मोचन कर रहे हैं, वे जल्दी ही स्वयं उनके भी वश के बाहर हो जाएँगी।’
उन दिनों का एक फ़ोटो सोशल मीडिया पर देखा जा सकता है। यात्रा-नायक अपने रथ के दरवाजे से जनता को संबोधित कर रहे हैं, और एक युवतर सहयोगी उनके लिए मेगाफ़ोन लिए खड़े हैं। रथयात्री आडवाणीजी के यह सहयोगी कौन हैं, और आज कहाँ विराजते हैं, यह अनुमान लगाने के लिए “बुद्धिजीवी” होना जरूरी नहीं है, बस अक्ल पर जरा जोर डालना ही पर्याप्त है। और, तब हो सकता है कि आपको भी लगे कि ऐसी “ शक्तियों का उन्मोचन” करने पर उतारू तब के आडवाणीजी ने काश राजेन्द्र माथुर की बात सुनी होती।
‘सबका साथ, सबका विकास’ एक बहुत सही नारा और उद्देश्य है। नारों और प्रचार द्वारा तालियाँ बजवाई जा सकती हैं और जयकारे लगवाये जा सकते हैं। किन्तु इसे जनजीवन और राजकाज या गवर्नेन्स में लागू किये बिना यह नारा धोखा और यह उद्देश्य एक छलावा बन जाता है। नोटबन्दी की असफलता का वाक़या हमने पेश किया है। काले धन के अकू़त जख़ीरे के मालिक, कम्पनियों और राज्य शक्ति के अधिपति हैं। दोनों ने मिलकर क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी और मिले-जुले तरीक़ों द्वारा क़ानून, नैतिकता और मानवीय मूल्यों को ताक़ पर रख दिया। इस तरह सरकारी सोच के ठीक उलट इस क़दम की भारी घातक चोट दैनिक नक़दी लेनदेन और छोटे असंगठित क्षेत्र में लगे आम आदमी पर ज़्यादा लगी। काले, राख रंगी ग्रे धन का बिरवा (छोटा पौधा) जम कर फलफूल रहा है। इसी तरह हाल ही में आर्थिक कामों में भागीदारी यानी रोज़गार के देशव्यापी आँकड़ों को देखें। बढ़ती राष्ट्रीय आय में बहुत भारी-भरकम पूंजी निवेश और आयातित माल की मात्रा और अनुपात बढ़ते जा रहे हैं। नतीजतन रोज़गार वृद्धि पर ग्रहण लग रहा है। उत्पादन और उपभोग दोनों में आदमी का हिस्सा घट रहा है। जीडीपी वृद्धि, विषमता वृद्धि का दूसरा नाम रह गया है। सबका साथ (यानी सबकी भागीदारी), सबका विकास (यानी आमतौर पर वंचित-उपेक्षित लोगों के लाभ के सटीक कामों का ज़्यादा व्यापक और गहरा असर) किन्हीं भी अर्थों में नहीं दिखता है। इनके विपरीत बाजार का चरित्र धन्ना सेठों, विशाल कम्पनियों, विदेशी पूंजी तथा शहरी सम्पन्न लोगों से वाहवाही बटोरने के सरकारी कामों का असर शहरों, महंगे माल से अटे-पटे शाॅपिंग मॉलों तथा भव्य अट्टालिकाओं के रूप में त्रासद ग़ैर-बराबरी, ग़रीबी और अभावों की कहानी कहता है। इसे बेहतर हालात वाले लोगों की ज़्यादा बेहतरी और बदतर हालात में जिन्दा रहने को मज़बूर लोगों की पीठ पर ज़्यादा बोझ बढ़ाने के रूप में भी देखा जा सकता है। इस तरह की नीतियों, निर्णयों का एक ताज़ा और शर्मसार करने वाला नमूना अरबों-रूपयों के निवेश द्वारा संचालित हवाई-यात्रा कम्पनी जेट-एयरवेज को दिवालियेपन से बचाने के लिये सरकारी बैंकों द्वारा इस कम्पनी के गहरे गड्ढे में जनता का और ज़्यादा धन लगाने का सरकारी फरमान है। इसी तरह देश की एक सबसे बड़ी वित्तीय कम्पनी को भी आम जन के धन से बचाने की मुहिम चल रही है।
कुल मिलाकर बिना पुराने कर्ज का एक भी पैसा चुकाये नये विशाल कर्ज की इस एयर कम्पनी को दी गई ‘भेंट’ हज़ारों करोड़ का अंक छू रही है। यह कोई अकेली कहानी नहीं है। यह राज्य और उसकी नीतियों की जानबूझ कर चुनी गई राह का दुष्परिणाम है। याद कीजिये किस तरह 1991 में विशाल देसी-परदेशी कम्पनियों और पश्चिम के धनी देशों द्वारा भारत पर लादी गयी कर्जदारी के बोझ तले दबी भारतीय अर्थ-व्यवस्था को संसार भर की मोटी पूंजी का अभयारण्य (उनको अक़ूत मुनाफ़े का शिकार करने की आज़ादी देने वाला इलाक़ा) बना दिया गया था। हवाई जहाज से संबंधित निजी कम्पनियों को भारत के आकाश पर छा जाने की आज़ादी का निमंत्रण दे दिया गया था।
दूसरी ओर, चाहे गाँव-कस्बों में बसों की भीड़ बदस्तूर बढ़ती रहे, लोग बसों का इंतजार करते रहें और बस चालक और सवारियों को ठूंस-ठूंस कर, छतों पर बैठाकर बस चलायें। असुरक्षित और कष्टप्रद अपर्याप्त परिवहन सेवा दें। ऐसी ग्रामीण और शहरी बस सेवा को ज़रूरत के मुताबिक़, बढ़ाने के लिये ठीक और पर्याप्त व्यवस्था नहीं की गयी। संसाधनों का अभाव और घाटे का रोना रोया गया। किन्तु धनी-मनी लोगों को हवाई-यात्रा की सुख-सुविधा बदस्तूर जारी रहे, इस हेतु अरबों रूपये का निवेश होता रहा, यह कोशिश हुई कि एयर इंडिया में हज़ारों करोड़ रूपये फूंकने के बाद भी लाखों का वेतन पाने वालों को पगार नियमित मिलती रहे। दूसरी ओर चाहे करोड़ों युवक-युवतियाँ पहले रोज़गार तक की प्रतीक्षा में, असमय बुढ़ापे की ओर बढ़ते रहें।
मौसम की मार और बाज़ार की नादिरशाही तथा सरकारी नीतियों के नकारेपन के कारण उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में लाखों किसान निराश-हताश होकर अपने जीवन की डोर अपने ही हाथों काट चुके हैं। उनके बचाव और विकास की बात तो दूर, उनकी इज्जत और जिन्दगी बचाने की कोशिशें मात्र थोथे वादे भर रह गये। अब आप ही सोचें, क्या ऐसा ही होता है “सबका साथ, सबका विकास”?
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