‘कर्नतेश्वर पर्वत’ में भगवान विष्णु का ‘कूर्म’ अवतार का जन्म स्थान; कूर्माचल में हो कूर्म मंदिर- कूर्माचल परिषद

काली नदी के जलागम क्षेत्र में ‘कर्नतेश्वर पर्वत’ को भगवान विष्णु ने ‘कूर्म’ अवतार का जन्म स्थान माना जाता है, इसी कारण ही ‘कुमाऊं’ को अपने दोनों नाम ‘कुमाऊं’ और ‘कूर्मांचल’ मिले हैं। लगभग 10वीं शताब्दी में स्थापित चंपावत की ऐतिहासिकता केवल यहीं तक सीमित नहीं, वरन यह भी सच है कि रामायण और महाभारत काल से भी चंपावत सीधे संबंधित रहा है। 

www.himalayauk.org (Leading Newsportal & Daily Newspaper) Publish at Dehradun & Haridwar ; CHANDRA SHEKHAR JOSHI- EDITOR;

चंपावत का नामकरण राजा अर्जुन देव की बेटी चंपावती के नाम पर हुआ है। यहां पर्यटन के लिहाज से कई मंदिर हैं, जिनमें क्रांतेश्वर महादेव मंदिर, बालेश्वर मंदिर, पूर्णागिरी मंदिर, ग्वाल देवता, आदित्य मंदिर, चौमू मंदिर और पाताल रुद्रेश्वर चंपावत के खास आकर्षण हैं। नागनाथ मंदिर कुमाऊं क्षेत्र के प्राचीन वास्तुशिल्प का बेहतरीन नमूना है। ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु का कूर्म अवतार यहीं हुआ था। प्रख्यात प्रकृतिविद् और शिकारी जिम कॉर्बेट ने जब यहां बाघों का शिकार किया तो इस जगह को प्रसिद्धी मिली।

कुमांऊँ शब्द की व्युत्पति के सम्बध में विभिन्न मत प्रचलित रहे हैं। भाषा की दृष्टि से यही उचित जान पड़ता है कि यह शब्द मूलतः संस्कृत में कूर्म है। चम्पावत के समीप २१९६ मीटर ऊँचा कान्तेश्वर पर्वत है जिसके सम्बध में मान्यता है कि भगवान विष्णु अपने द्वितीय अवतार (कूर्मावतार) में इस पर्वत पर तीन वर्ष तक रहे। तब से वह पर्वत कान्तेश्वर के स्थान पर कूर्म-अंचल (कूर्मांचल) नाम से जाना जाने लगा। इस पर्वत की आकृति भी कच्छप की पीठ जैसी जान पड़ती है। सम्भवतः इसी कारण इस क्षेत्र का नाम कूर्मांचल पड़ा होगा। पहले शायद कूर्म शब्द प्रयोग में आता होगा, क्योंकि कूर्म शब्द का प्रयोग स्थानीय भाषा में बहुतायत से मिलता है। कूर्म के स्थान पर कुमूँ शब्द निष्पन्न होने का एक कारण यह भी हो सकता है कि यहाँ की बोलियों में उकारान्तता अधिक पाई जाती है। कालान्तर में साहित्यिक ग्रन्थों, ताम्रपत्रों में कुमूँ के स्थान पर कुमऊ और उसके बाद कुमाऊँ शब्द स्वीकृत हुआ। संस्कृत ग्रन्थों में भी कूर्मांचल शब्द का प्रयोग मिलता है।

कूर्माचल परिषद देहरादून ने परिकल्‍पना की है कि कूर्माचल के प्रमुख द्वार- नगरो में भगवान कूर्म के मंदिर स्‍थापित हो- कूर्माचल परिषद के अध्‍यक्ष कमल रजवार कहते है कि भगवान विष्णु का कूर्म अवतार यहीं हुआ था। ऐसे में कूर्माचल परिषद के इस कार्य योजना से देश दुनिया में एक अच्‍छा संदेश जायेगा, वही महासचिव चन्‍द्रशेखर जोशी ने बताया कि भगवान विष्णु का कूर्म अवतार के मंदिर निर्माण से से कूर्माचल में देश विदेश के धार्मिक पर्यटको में एक अच्‍छा मैसेज जायेगा, इसके लिए जरूरी है कि इस महान भागीदारी कार्य में सहयोग करने के लिए दानवीर आगे आये और मो0 9412932030 पर सम्‍पर्क करें

स्कंद पुराण के केदार खंड में चंपावत को कुर्मांचल कहा गया है, जहां भगवान विष्णु ने ‘कूर्म’ यानी कछुए का अवतार लिया था। इसी से यहां का नाम ‘कूर्मांचल’ पड़ा, जिसका अपभ्रंश बाद में ‘कुमाऊं’ हो गया। चंपावत का संबंध द्वापर युग में पांडवों यानी महाभारत काल से भी है। माना जाता है कि 14 वर्षों के निर्वासन काल के दौरान पांडव यहां आये थे। चंपावत को द्वापर युग में हिडिम्बा राक्षसी से पैदा हुए महाबली भीम के पुत्र घटोत्कच का निवास स्थान भी माना जाता है। यहां मौजूद ‘घटकू मंदिर’ को घटोत्कच से ही जोड़ा जाता है। चंपावत तथा इसके आस-पास बहुत से मंदिरों का निर्माण महाभारत काल में हुआ माना जाता है। यह स्थान ही कुमाऊं भर में सर्वाधिक पूजे जाने वाले न्यायकारी लोक देवता-ग्वेल, गोलू, गोरिल या गोरिया का जन्म स्थान है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार त्रेता युग में भगवान राम ने रावण के भाई कुम्भकर्ण को मारकर उसके सिर को यहीं कुर्मांचल में फेंका था। यहीं द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पौत्र का अपहरण करने वाले वाणासुर दैत्य का वध किया था। लोहाघाट से करीब सात किमी की दूरी पर स्थित ‘कर्णरायत’ नामक स्थान से लगभग डेढ़ किमी की पैदल दूरी पर समुद्र तल से 1859 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पुरातात्विक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण व प्रसिद्ध वाणासुर के किले को आज भी देखा जा सकता है। 

भगवान शिव को समर्पित बालेश्वर महादेव मंदिर का निर्माण चांद शासन ने करवाया था। रअसल यह मंदिरों का समूह है, जिसका निर्माण चंद वंश ने करवाया था। ये मंदिर हिंदू देवी बालेश्वर, रत्नेश्वर और चंपावती दुर्गा को समर्पित है। मंदिर के मंडप और छत पर की गई नक्काशी इसकी खूबसूरती में और भी ईजाफा कर देती

चंपावत से 6 किमी की दूरी पर स्थित क्रांतेश्वर महादेव मंदिर भगवान शिव को समर्पित है, जोकि समुद्र तल से 6000 मीटर की ऊंचाई पर बना है। भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर अपनी अनोखी वास्तुशिल्प के लिए जाना जाता है। मंदिर के आसपास बर्फ से ढके पहाड़ों को देखा जा सकता है। अपनी इच्छायों को पूरा करने के लिए भक्त भगवान भोलेनाथ को भक्त आशीर्वाद लेने के लिए भगवान कणदेव को दूध , दही और देशी घी का भोग लगाते हैं और अपनी मनोकामना पूर्ण होने की मन्नत मांगते हैं।

भारतीय वास्तुशिल्प के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध चंपावत में कुमाऊं में अंग्रेजों के राज्य से बहुत पहले काबिज और अपनी स्थापत्य कला के लिए मशहूर शहर के बीच स्थित कत्यूरी वंश के राजाओं द्वारा स्थापित तेरहवीं शताब्दी का बालेश्वर मंदिर तथा राजा का चबूतरा तत्कालीन शिल्प कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। 10वीं से 12वीं शताब्दी में निर्मित भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर का निर्माण चंद शासकों ने करवाया था। माना जाता है चंद राजाओं के पहले यहां के राजा गुमदेश पट्टी के रावत हुआ करते थे, जिन्होंने दौनाकोट का किला बनवाया था जिसे कोतवाली चबूतरा कहते है। वर्ष 757 ईसवी से सत्ता पर काबिज हुए चंद राजा सोमचंद के आगमन के बाद इस किले नष्ट कर राज बुंगा का किला बनवाया गया, जो वर्तमान में तहसील दफ्तर है। इसके अलावा नागनाथ मंदिर कुमाउनी स्थापत्य कला का अनुकरणीय उदाहरण है।

स्कन्द पुराण में हिमालय को पाँच भौगोलिक क्षेत्रों में विभक्त किया गया है:- अर्थात् हिमालय क्षेत्र में नेपाल, कुर्मांचल (कुमाऊँ), केदारखण्ड (गढ़वाल), जालन्धर (हिमाचल प्रदेश) और सुरम्य कश्मीर पाँच खण्ड है।

खण्डाः पंच हिमालयस्य कथिताः नैपालकूमाँचंलौ।
केदारोऽथ जालन्धरोऽथ रूचिर काश्मीर संज्ञोऽन्तिमः॥

पौराणिक ग्रन्थों में कुर्मांचल क्षेत्र मानसखण्ड के नाम से प्रसिद्व था। पौराणिक ग्रन्थों में उत्तरी हिमालय में सिद्ध गन्धर्व, यक्ष, किन्नर जातियों की सृष्टि और इस सृष्टि का राजा कुबेर बताया गया हैं। कुबेर की राजधानी अलकापुरी (बद्रीनाथ से ऊपर) बतायी जाती है। पुराणों के अनुसार राजा कुबेर के राज्य में आश्रम में ऋषि-मुनि तप व साधना करते थे। अंग्रेज़ इतिहासकारों के अनुसार हूण, शक, नाग, खस आदि जातियाँ भी हिमालय क्षेत्र में निवास करती थी। पौराणिक ग्रन्थों में केदार खण्ड व मानस खण्ड के नाम से इस क्षेत्र का व्यापक उल्लेख है। इस क्षेत्र को देवभूमि व तपोभूमि माना गया है।

मानस खण्ड का कुर्मांचल व कुमाऊँ नाम चन्द राजाओं के शासन काल में प्रचलित हुआ। कुर्मांचल पर चन्द राजाओं का शासन कत्यूरियों के बाद प्रारम्भ होकर सन् १७९० तक रहा। सन् १७९० में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमाऊँ पर आक्रमण कर कुमाऊँ राज्य को अपने आधीन कर लिया। गोरखाओं का कुमाऊँ पर सन् १७९० से १८१५ तक शासन रहा। सन् १८१५ में अंग्रेंजो से अन्तिम बार परास्त होने के उपरान्त गोरखा सेना नेपाल वापस चली गयी किन्तु अंग्रेजों ने कुमाऊँ का शासन चन्द राजाओं को न देकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन कर दिया। इस प्रकार कुमाऊँ पर अंग्रेजो का शासन १८१५ से आरम्भ हुआ।

भारतवर्ष के धुर उत्तर में स्थित हिमाच्छादित पर्वतमालाओं, सघन वनों और दक्षिण में तराई-भावर से आवेष्टित २८°४’३ से ३०°.४९’ उत्तरी अक्षांस और ७८°.४४’ से ८१°.४’ पूर्वी देशान्तर के बीच अवस्थित भू-भाग ‘कुमाऊँ’ कहलाता है। सं. १८५० ई. तक तराई-भावर क्षेत्र एक विषम वन था जहां जंगली जानवरों का राज था किन्तु उसके उपरान्त जब जंगलों की कटाई-छटाई की गई तो यहाँ की उर्वरक धरती ने कई पर्वतीय लोगों को आकर्षित किया, जिन्होंने गर्मी और सर्दी के मौसम में वहां खेती की और वर्षा के मौसम में वापस पर्वतों में चले गए। तराई-भाबर के अलावा अन्य पूर्ण क्षेत्र पर्वतीय है। यह हिमालय पर्वतमाला का एक मुख्य हिस्सा है तथा यहाँ ३० से अधिक पर्वत शिखर ५५०० मी. से ऊँचे हैं। यहाँ चीड़, देवदारु, भोज-वृक्ष, सरो, बाँझ इत्यादि पर्वतीय वृक्षों की बहुतायत है। यहाँ की मुख्य नदियाँ ोरी, काली, सरयू, कोसी, रामगंगा इत्यादि हैं। काली (शारदा) नदी भारत तथा नेपाल के मध्य प्राकृतिक सीमा है। कैलाश-मानसरोवर का मार्ग इसी नदी के साथ जाता है और लिपू लेख दर्रे से तिब्बत को जाता है। ऊंटाधुरा दर्रा जहां से जोहार लोग तिब्बत में व्यापार करने जाते हैं १७५०० फुट की ऊँचाई पर है। यहाँ विश्वविख्यात पिंडारी हिमनद् है जहां विदेशी सैलानी आते हैं। यहाँ की धरती प्रायः चूना-पत्थर, बलुआ-पत्थर, स्लेट, सीसा, ग्रेनाइट से भरी है। यहाँ लौह, ताम्र, सीसा, खड़िया, अदह इत्यादि की खानें हैं। तराई-भाबर के अलावा संपूर्ण कुमाऊँ का मौसम सुहावना होता है। बाहरी हिमालय श्रंखला में मानसून में भीतरी हिमालय से दुगुनी से भी अधिक वर्षा होती है, लगभग १००० मी.मी. से २००० मी.मी. तक। शरद ऋतु में पर्वत शिखरों में प्रायः हिमपात तो होता ही है, कुछ एक वर्षों में तो पूरे पर्वत क्षेत्र में भी हो जाता है। शीत, विशेषतः उपत्यका में तीव्र होती है।

कुमांऊँ क्षेेत्र में कई उपभाषाऐंं बोली जाती हैं। कुछ मुख्य स्थानीय भाषाऐं इस प्रकार हैं:- अल्मोड़िया कुमांऊँनी काली कुमांऊँ की कुमांऊँनी सोर इलाके की कुमांऊँनी पाली पछांऊॅं की कुमांऊँनी दानपुर की कुमांऊँनी जोहार (भोटिया) भाषा गोरखाली डोट्याली थारू  बोक्षा भावर की उपभाषाएं जौनसारी

ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार केदार खण्ड कई गढ़ों (किले) में विभक्त था। इन गढ़ों के अलग-अलग राजा थे जिनका अपना-अपना आधिपत्य क्षेत्र था। इतिहासकारों के अनुसार पँवार वंश के राजा ने इन गढ़ों को अपने अधीन कर एकीकृत गढ़वाल राज्य की स्थापना की और श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया। केदार खण्ड का गढ़वाल नाम तभी प्रचलित हुआ। सन् १८०३ में नेपाल की गोरखा सेना ने गढ़वाल राज्य पर आक्रमण कर अपने अधीन कर लिया। यह आक्रमण लोकजन में गोरखाली के नाम से प्रसिद्ध है। महाराजा गढ़वाल ने नेपाल की गोरखा सेना के अधिपत्य से राज्य को मुक्त कराने के लिए अंग्रेजों से सहायता मांगी। अंग्रेज़ सेना ने नेपाल की गोरखा सेना को देहरादून के समीप सन् १८१५ में अन्तिम रूप से परास्त कर दिया। किन्तु गढ़वाल के तत्कालीन महाराजा द्वारा युद्ध व्यय की निर्धारित धनराशि का भुगतान करने में असमर्थता व्यक्त करने के कारण अंग्रेजों ने सम्पूर्ण गढ़वाल राज्य राजा गढ़वाल को न सौंप कर अलकनन्दा-मन्दाकिनी के पूर्व का भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में सम्मिलित कर गढ़वाल के महाराजा को केवल टिहरी जिले (वर्तमान उत्तरकाशी सहित) का भू-भाग वापस किया। गढ़वाल के तत्कालीन महाराजा सुदर्शन शाह ने २८ दिसम्बर १८१५ को  टिहरी नाम के स्थान पर जो भागीरथी और भिलंगना नदियों के संगम पर छोटा-सा गाँव था, अपनी राजधानी स्थापित की।कुछ वर्षों के उपरान्त उनके उत्तराधिकारी महाराजा नरेन्द्र शाह ने ओड़ाथली नामक स्थान पर नरेन्द्रनगर नाम से दूसरी राजधानी स्थापित की। सन् १८१५ से देहरादून व पौड़ी गढ़वाल (वर्तमान चमोली जिला और रुद्रप्रयाग जिले का अगस्त्यमुनि व ऊखीमठ विकास खण्ड सहित) अंग्रेजों के अधीन व टिहरी गढ़वाल महाराजा टिहरी के अधीन हुआ।

भारतीय गणतन्त्र में टिहरी राज्य का विलय अगस्त १९४९ में हुआ और टिहरी को तत्कालीन संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) का एक जिला घोषित किया गया। १९६२ के भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि में सीमान्त क्षेत्रों के विकास की दृष्टि से सन् १९६० में तीन सीमान्त जिले उत्तरकाशी, चमोली व पिथौरागढ़ का गठन किया गया। एक नये राज्य के रूप में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के फलस्वरुप (उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, २०००) उत्तराखण्ड की स्थापना ९ नवम्बर २००० को हुई। 

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