भगवान श्री कृष्ण उवाच- 7 अनमोल वचन ;जीवन की बाधा दूर होगी
भगवान श्री कृष्ण द्वारा कही गई बातें मानव जाति के भविष्य का निवारण कर सकती है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि इसमें में कही गई बातों का हम कितना और कैसे पालन करते हैं ? गीता ज्ञान सार के साथ-साथ मनुष्य जाति की सफलता की एक कुंजी है। इसमें कही गई बातें अनमोल। भगवान श्री कृष्ण द्वारा कही गई सात ऐसे अनमोल वचन ;जिसे आत्मसात कर आप जीवन के किसी भी बाधा को दूर कर सकते हैं। इस लेख के माध्यम से हम सभी श्री कृष्ण द्वारा गीता में बताया जीवन में सफलता पाने का श्रोत की जानकारी को विस्तार से जानते है।
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पहली बात :- कोई परिपूर्ण नहीं है। जगत में प्रत्येक व्यक्ति में किसी न किसी प्रकार की निर्बलता अवश्य होती है। जैसे कोई बहुत तेजी से दौड़ नहीं पाता, तो कोई अधिक भार नहीं उठा पाता, कोई असाध्य रोग से पीड़ित रहता है, तो कोई पढ़े हुए पाठों को स्मरण में नहीं रख पाता।
ऐसे अनेक उदाहरण है:- आप ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जिसे सब कुछ प्राप्त हो और हम जीवन की उस एक निर्बलता को जीवन का केंद्र मानकर जीते हैं। जिस कारणवश सदा हृदय में दुःख और असंतोष रहता है।
निर्बलता मनुष्य को जन्म से अथवा संजोग से प्राप्त होती है। किंतु उस निर्बलता को मनुष्य का मन अपनी मर्यादा बना लेता है। किन्तु कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो अपने पुरुषार्थ और परिश्रम से उस निर्बलता को पराजित कर देते हैं। क्या भेद है उनमें और अन्य लोगों में यह आपने कभी विचार किया है ?
सरल सा उत्तर है जो व्यक्ति निर्बलता से पराजित नहीं होता जो पुरुषार्थ करने का साहस रखता है, हृदय में निर्बलता को पार कर देता है। अर्थात निर्बलता अवश्य ईश्वर देता है कि परन्तु मर्यादा मनुष्य का मन ही तय करता है।
दूसरी बात :- वर्तमान में रहना शुरू करे, भविष्य का दूसरा नाम है संघर्ष। हृदय में आज इच्छा होती है और यदि पूर्ण न हो पाती तो भविष्य की योजना बनाता है, भविष्य में इच्छा पूर्ण होगी ऐसी कल्पना रहती है। परन्तु जीवन ना तो भविष्य में है और ना अतीत में है। जीवन तो इस क्षण का नाम है अर्थात इस क्षण का अनुभव ही जीवन का अनुभव है।
पर हम यह जानते हुए भी इतना सा सत्य समझ नहीं पाते या तो हम बीते हुए समय के स्मरण हो घेर कर बैठे रहते हैं या फिर आने वाले समय के लिए हम योजनाएं बनाते रहते हैं और जीवन बीत जाता है। एक सत्य यदि हम हृदय में उतार ले कि हम न तो भविष्य देख सकते हैं ना ही भविष्य को निर्मित कर सकते हैं। हम तो केवल धैर्य और साहस के साथ भविष्य को आलिंगन दे सकते हैं, स्वागत कर सकते है भविष्य का। तो क्या जीवन का हर पल खुशी से नहीं भर पाएगा ?
तीसरी बात :- कोई भी व्यक्ति ज्ञान कैसे प्राप्त करे ? ज्ञान प्राप्ति सदा ही समर्पण से होती है। यह हम सब जानते हैं किंतु समर्पण का वास्तविक महत्व क्या है ? क्या कभी विचार किया आपने ? मनुष्य का मन सदा ही ज्ञान प्राप्ति में अनेक बाधाओं को उत्पन्न करता है।
कभी किसी अन्य विद्यार्थी से ईर्ष्या हो जाती है, तो कभी पढ़े हुए पाठो पर संदेह होने लगता है और कभी गुरु द्वारा दिया गया दंड मन को अहंकार से भर देता है। आपको नहीं लगता है कि मन ना जाने कैसे-कैसे विचार मन को भटकाते हैं और मन के इसी अयोग्य स्थिति के कारण हम ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते।
मन कि योग्य स्थिति केवल समर्पण से ही प्राप्त होती है। समर्पण मनुष्य के अहंकार का नाश करता है, ईर्ष्या, महत्वाकांक्षा आदि को दूर करने से मन को शांति देता है और मन को एकाग्र करता है। वास्तव में ईश्वर की सृष्टि में ना तो ज्ञान की मर्यादा है ना ज्ञानियों की।
क्योंकि गुरु दत्तात्रेय ने तो स्वान से भी ज्ञान प्राप्त कर लिया था अर्थात विषय ब्रह्मा ज्ञान का हो या जीवन के ज्ञान का या गुरुकुल में प्राप्त होने वाली ज्ञान का। उसकी प्राप्ति के लिए गुरु से अधिक महत्व है उस गुरु के प्रति हमारा समर्पण।
चौथी बात :- धर्म संकट को जाने। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ऐसा क्षण अवश्य आता है। जब सारी आशायें,स्वपन ध्वस् हो जाते हैं। जीवन की सारी योजनाएं बिखर जाती है। एक और धर्म होता है और दूसरी ओर दुख, इसी को धर्मसंकट कहते हैं। जब धर्म का वाहन ही संकट हो और धर्म का त्याग ही दुख हो। विचार कीजिए ?
कभी किसी स्वजन के विरुद्ध सत्य बोलने का अवसर प्राप्त हो जाता है, तो कभी ठीक दरिद्रता के समय सरलता से चोरी करने का मार्ग प्राप्त हो जाता है। कभी किसी शक्तिशाली राजनेता या राजा के कर्मचारी का अधर्म प्रकट हो जाता है। सबके जीवन में ऐसी घटनाएं बनती ही रहती है। अधिकतर लोग ऐसे किसी क्षण को धर्मसंकट के रूप में जान नहीं पाते।
हमे किसी प्रकार के संघर्ष का अनुभव ही नहीं होता। सहजता से सुख की ओर खींचे चले जाते हैं, जैसे मक्खी गुड़ की ओर। वास्तव में धर्म संकट का शांति ईश्वर के निकट जाने का क्षण होता है। यदि हम संघर्षों से भयभीत ना हो और धर्म पर अडिग रहे।
तो ईश्वर का साक्षात्कार दूर नहीं । पवन से युद्ध करने वाला पत्ता भी यदि पेड़ से गिरता है तो भी आकाश कि ओर उड़ता है। पवन से झुकी हुई घास वही भूमि पर रह जाती है। समस्त धर्म संकट पर यदि हम संकट को ही डाल दें। तो सुख तो मिलता है, जीवन बढ़ता है। किंतु क्या आत्मा दरिद्र नहीं हो जाती ? क्या ईश्वर से अंत नही हो जाता ? स्वयं विचार कीजिए।
पांचवी बात :- रिश्तों में खटास का कारण ? दो व्यक्ति जब निकट आते हैं एक दूसरे के लिए सीमाए और मर्यादा निर्मित करने का प्रयत्न अवश्य करते हैं। अगर हम सारे सम्बन्धो को जोड़े तो देखेंगे। कि इन सारी संबंधों का आधार यही सीमाए है,
जो हम दूसरों के लिए निर्मित करते हैं। यदि अनजाने में भी कोई इन सीमाओं को तोड़ता है। उसी क्षण हमारा ह्रदय क्रोध से भर जाता है। इन सीमाओं का वास्तविक स्वरूप क्या है ? क्या हमने कभी विचार किया है ?
सीमाओं के द्वारा हम दूसरे व्यक्ति को निर्णय करने की अनुमति नहीं देते हैं। अपना निर्णय उस व्यक्ति पर थोपते हैं अर्थात किसी की स्वतंत्रता को अस्वीकार करते हैं और जब किसी कि स्वतंत्रता को अस्वीकार किया जाता है। तो उसका ह्रदय दुख से ही भर जाता है।
और जब वह इन सीमाओं को तोड़ता है तो हमारा हृदय क्रोध से भर जाता है। क्या ऐसा नहीं होता? और यदि एक दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान किया जाए, तो किसी मर्यादाओ या सीमाओं की आवश्यकता ही नहीं होगी। अर्थात जिस प्रकार स्वीकार्य किसी संबंध का देह है, क्या वैसे ही स्वतंत्रता किसी संबंध की आत्मा नहीं ?
छठी बात :- सत्य की परिभाषा ? सबके जीवन में ऐसा प्रसंग अवश्य आता है कि सत्य कहने का निश्चय होता है। किन्तु मुख से निकल नही पाता भय के कारण। भय हमारे मन को घेर लेता है। किसी के बारे में बात करना या फिर स्वयं से कोई भूल हो जाए। उसके बारे में बोलना। क्या यह सत्य है ? नहीं। यह तो केवल एक तथ्य है अर्थात जैसा हुआ था। वैसा केवल बोल देना सामान्य सी बात है। किन्तु कभी – कभी उस तथ्य को बोलते हुए भी भय लगता है।
कदाचित किसी दूसरे की भावनाओं का विचार आता है। मन में दूसरे को दुख होगा। यह भय भी रोकता है हमें। क्या हमने कभी विचार किया है। जब भय रहते हुए भी कोई तथ्य बोलता है तो वह सत्य कहलाता है। वास्तव में सत्य कुछ और नहीं निर्भयता का दूसरा नाम है। और निर्भय होने का कोई समय नहीं होता। क्योंकि निर्भयता आत्मा का स्वभाव है अर्थात प्रत्येक क्षण का सत्य बोलने का क्षण नहीं होता।
सातवी बात :- टॉपर कैसे बने ? श्रेष्ठता का क्या अर्थ है? श्रेष्ठता का अर्थ है दूसरों से अधिक ज्ञान प्राप्त करना अर्थात मूल्य इस बात का नहीं कि स्वयं कितना ज्ञान प्राप्त किया। मूल्य इस बात का है कि प्राप्त किया हुआ ज्ञान अन्य लोगों से कितना अधिक है ? अर्थात श्रेष्ठता की इच्छा ज्ञान प्राप्ति को भी एक एस्पर्धा बना देती है। और स्पर्धा में विजयंती कब होती है ?
कुछ समय के लिए तो श्रेष्ठ बना जा सकता है। किंतु सदा के लिए कोई श्रेष्ठ नहीं रह पाता। फिर असंतोष, पीड़ा और संघर्ष जन्म लेता है। किंतु यदि श्रेष्ठ बनने की बजाय उत्तम बनने का प्रयत्न करें तो क्या होगा ? उत्तम का अर्थ है कि जितना ज्ञान प्राप्त करने योग्य है वह सब प्राप्त करना। उत्तम के मार्ग पर किसी अन्य से स्पर्धा नहीं होती।
स्वम अपने आप से स्पर्धा होती है। अर्थात उत्तम ज्ञान प्राप्त के प्रयत्न से देर- सवेर सारा ज्ञान प्राप्त हो जाता है। बिना प्रयत्न के वह श्रेष्ठ बन जाता है। किन्तु जो श्रेष्ठ बनाने का प्रयत्न करता है, वह श्रेष्ठ बने या नहीं बने। उत्तम कभी नहीं बन पाता।
श्री कृष्ण द्वारा गीता में बताया जीवन में सफलता पाने का श्रोत की जानकारी आपको अच्छी लगी हो. और आप सब लोग भी इनसे प्रेरणा लेकर अपने जीवन में अच्छे काम करेंगे। श्री कृष्ण द्वारा गीता में बताया जीवन में सफलता पाने का श्रोत की जानकारी पसंद आयी हो तो इस लिंक को शेयर करें ।
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