मध्य प्रदेश- सत्ता विरोधी लहर शांत हो पायेगी?

मध्य प्रदेश में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव बीजेपी और कांग्रेस ने ताल ठोंक दी है. मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव का चुनावी रण वैसे तो केवल दो प्रमुख पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी के बीच ही माना जा रहा है. लेकिन हाल ही में कुछ दिनों पहले ही समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और यूपी के पूर्व सीएम अखिलेश यादव ने मध्य प्रदेश के चुनावी समर में पार्टी को उतारने का फैसला लिया है. वहीं मध्यप्रदेश के चुनावी रण में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) भी अंदर खाने जनाधार बनाने में लगी हुई है. साथ ही बीएसपी का सीधे तौर पर कहना है कि वो मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव के दौरान किसी भी पार्टी से गठबंधन नहीं करेगी. हिमालयायूके न्‍यूज पोर्टल ब्‍यूरो

मध्य प्रदेश बसपा के प्रदेश अध्यक्ष नर्मदा प्रसाद अहिरवार ने कहा प्रदेश में बीएसपी 50 से 55 सीटें जीतेगी. हम प्रदेश की सभी 230 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेंगे. मायावती गठबंधन के बजाय चुनाव में पूरी तरह से उतरना चाहती हैं. ऐसी क्या ताकत है बीएसपी के पास जिसको लेकर वो इतने आत्मविश्वास से भरी है. राजनीतिक विश्लेषणों के मुताबिक मायावती का ज्यादातर वोटर गरीब और दबा-कुचला वर्ग है. इस वर्ग की एकता अलग होती है और उनका सबसे महत्वपूर्ण सरोकार सम्मान से जुड़ा होता है. इस सम्मान के लिए जो नेता खड़ा होता है उसका वो दिल से समर्थन करते हैं. मायावती उत्तर प्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री रहीं और इस दौरान उन्होंने बाकायदा दलितों के सम्मान की लड़ाई लड़ी. मायावती खुद दलित वर्ग से आती हैं ऐसे में उनका वोटर अपने सपने को मायावती के जरिए पूरा होता देखता है. यही वजह है मायावती का वोटर बाकायदा अपने नेता के प्रति वफादार है.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ उत्तर प्रदेश में बीएसपी का जनाधार है. बीएसपी को बनाने वाली कांशीराम हमेशा राष्ट्रीय स्तर की बात करते थे. उनका मानना था कि उनकी पार्टी देशभर के दलितों को जोड़ने का काम कर सकती है. पंजाब, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, बिहार, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा के साथ-साथ दक्षिण भारत में आंध्र प्रदेश और अब कर्नाटक में बीएसपी का अपना वोट बैंक है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मायावती अपने कोर वोट बैंक की वजह से ही अपनी शर्तों पर अड़ती हैं.

मध्यप्रदेश में 15.62 फीसदी दलित वोटर है जो कि सारी पार्टियों में बंटे हैं. मध्यप्रदेश विधानसभा की 230 सीटें हैं. सरकार बनाने के लिए 116 सीटों की जरूरत होती है. मायावती की बीएसपी की कोशिश है कि वो 50-55 सीटों पर जीत हासिल करे. अगर वो ऐसा करने में सफल हो गई तो कर्नाटक के फॉर्मूले के हिसाब से अगली सरकार बीएसपी की बनेगी.

कांग्रेस प्रदेश में किसानों और युवाओं को मुख्य केंद्र बनाकर अपना जनाधार बढ़ाने में लगी है. वहीं बीते 15 साल से राज्य में सत्ता चलाने वाला दल बीजेपी सत्ता विरोधी लहर को शांत करने के लिए नित नए लोक-लुभावन वादों की झड़ी लगा रहा है.

मध्यप्रदेश में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं. जाहिर है राज्य में सीधा मुकाबला 15 साल से सत्ताधारी बीजेपी और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के बीच है. पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 44.88 फीसदी और कांग्रेस को 36.38 फीसदी वोट मिले थे. वहीं, बहुजन समाज पार्टी के पास 6.29 फीसदी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के पास एक फीसदी वोट था. ऊपर से देखने पर इन दोनों पार्टियों का वोट बहुत कम नजर आता है. इसीलिए पिछले तीन विधानसभा चुनाव लगातार हारने के बावजूद कांग्रेस ने बसपा से गठबंधन नहीं किया. लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों को गौर से देखें, तो बसपा, जीजीपी और अन्य ने 80 से अधिक सीटों पर 10,000 से ज्यादा वोट हासिल किए. इतने वोट हार-जीत तय करने के लिए बहुत होते हैं.
इसीलिए इस चुनाव में मामला अलग है. बसपा अब तक चुप्पी साधे हुए है और कांग्रेस के नेता बार-बार दोहरा रहे हैं कि बसपा के साथ कांग्रेस का गठबंधन तय है. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ और प्रदेश की चुनाव प्रचार समिति के मुखिया ज्योतिरादित्य सिंधिया इस आशय के सकारात्मक बयान देते रहे हैं. उधर, बसपा की तरफ से अब तक एक भी सकारात्मक बयान नहीं आया है. सूत्रों की मानें तो बसपा इस बार तगड़ी सौदेबाजी के मूड में है. तो सवाल यह है कि 6 फीसदी वोट वाली पार्टी कैसे बातचीत की शर्तें तय कर रही है?
इसका राज इस बात में छिपा है कि बसपा और जीजीपी का वोट बैंक देखने में भले ही छोटा हो, लेकिन यह पूरे प्रदेश में बिखरा न होकर, खास जिलों और इलाकों में केंद्रित है. ऐसे में उन इलाकों में ये पार्टियां हार-जीत का फैसला करने में सक्षम हैं.
अगर मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनावी नक्शे पर बीएसपी को गौर से देखें तो यह उत्तर प्रदेशसे सटे जिलों में खासा असर रखती है. अगर जिलों के हिसाब से देखें तो मुरैना, भिंड, ग्वालियर, दतिया, शिवपुरी, अशोकनगर, सागर, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सतना, रीवा, सीधी और सिंगरौली 14 जिलों में बीएसपी का खास असर है. यानी एक तिहाई मध्यप्रदेश में बीएसपी की पकड़ है.
विधानसभा चुनाव 2013 में 62 विधानसभा सीटें ऐसी रहीं, जहां बीएसपी के प्रत्याशी ने 10,000 से ज्यादा वोट हासिल किए. इन 62 में से 17 सीटें ऐसी हैं जहां बीएसपी को 30,000 से ज्यादा वोट मिले हैं. बहुत सी सीटें ऐसी भी हैं जहां बीएसपी प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे.
10 सीटों पर जीजीपी को 10,000 से अधिक वोट
दूसरी तरफ गोंडवाना गणतंत्र पार्टी है. जिसका वैसे राज्य की राजनीति में खास असर नहीं है. लेकिन जब बात अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटें यानी आदिवासी बहुल सीटों की आती है, तो यहां जीजीपी ताकतवर दिखाई देती है. पिछले विधानसभा चुनाव में जीजीपी ने ब्योहारी, जयसिंहनगर, जैतपुर, पुष्पराजगढ़, शाहपुरा, डिंडोरी, बिछिया, निवास, केवलारी और लखनादौन सीटों पर 10,000 से ज्यादा वोट हासिल किए.
10 सीटों पर छोटी पार्टियों-निर्दलीय का ऐसा ही प्रदर्शन
पिछले विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश के चंबल और बुंदेलखंड इलाके में बसपा के पुराने नेता फूल सिंह बरैया की पार्टी और आदिवासी इलाकों में अन्य छोटी आदिवासी पार्टियों और निर्दलीयों ने भी अपनी ताकत दिखाई थी.
बहुजन समाज पार्टी राज्य की अस्सी से अधिक सीटों पर अपना असर रखती है. वहीं समाजवादी पार्टी का भी अपना वोट बैंक है. बीएसपी जहां अनुसूचित जाति वर्ग को अपना वोट बैंक मानती है वहीं समाजवादी पार्टी यादव और अन्य पिछड़ा वर्ग के वोटरों पर फोकस करती है.
गठबंधन कांग्रेस की मजबूरी
कांग्रेस की मजबूरी यह है कि बसपा का दलित वोटर और जीजीपी का आदिवासी वोटर पारंपरिक रूप से कांग्रेस के वोटर रहे हैं. ऐसे में अलग लड़कर ये पार्टियां जो वोट हासिल करती हैं, उसका बड़ा हिस्सा कांग्रेस की थैली से निकलता है. ऐसे में कांग्रेस चाहती है कि अगर गठबंधन हो जाए तो उसे 15 साल की सत्ताविरोधी लहर से थकी बीजेपी को हराना आसान हो सकता है. जाहिर है कि बीजेपी भी चाह रही होगी कि यह गठबंधन न हों. बीजेपी का कहना है कि कांग्रेस के साथ जो भी पार्टी गई उसकी हालत खराब हो जाती है. बीएसपी इसीलिए कांग्रेस से दूरी बनाना चाहती है. दोनों बड़े खिलाड़ियों की यही रस्साकशी तीसरे दलों को और ज्यादा मोलभाव करने की ताकत दे रही है. कमलनाथ ने कहा कि बीजेपी विरोधियों पर कांग्रेस की नजर है. साल 2014 में बीजेपी मात्र 31% वोट से सत्ता में आई थी.

कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान बीएसपी के चुनाव मैदान में होने से होता है. कांग्रेस के इस परंपरागत वोटर को तोड़ने की कोशिशें कांशीराम के जमाने से चल रही हैं. यही वजह थी कि इस बार कांग्रेस गठबंधन पर विचार कर रही थी लेकिन बीएसपी ने कांग्रेस की कोशिशों पर पानी फेर दिया.

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