4 मार्च को महाशिवरात्रि; इस बार अद्भुत संयोग
महाशिवरात्रि (बोलचाल में शिवरात्रि) हिन्दुओं का एक प्रमुख त्यौहार है। यह भगवान शिव का प्रमुख पर्व है।
महाशिवरात्रि 4 मार्च 2019 को सायं 16:28 बजे से आरंभ होगा। दिलचस्प बात यह है कि इस दिन सोमवार पड़ रहा है। इसक अलावा महाशिवरात्रि का व्रत नक्षत्र के हिसाब से मगलवार, 5 मार्च 2019 को रखा जाएगा। इस बार महाशिवरात्रि पर अद्भुत संयोग बन रहा है और इस दिन व्रत रख कर शिव जी की अराधना करने से कई गुना ज्यादा पुण्य प्राप्त होगा। कहते हैं कि अगर शिवलिंग पर कुछ खास चीजें अर्पित की जाएं तो भगवान शिव से आसानी से मनचाहा वरदान पाया जा सकता है।
मार्च का पहले सप्ताह का आरंभ में ही
राहु और केतु का राशि परिवर्तन होने जा रहा है।
रुद्राभिषेक का अर्थ है भगवान रुद्र का अभिषेक अर्थात शिवलिंग पर रुद्र के मंत्रों के द्वारा अभिषेक करना। जीवन में कोई कष्ट हो या कोई मनोकामना हो तो सच्चे मन से रुद्राभिषेक कर के देखें निश्चित रूप से अभीष्ट लाभ की प्राप्ति होगी। रुद्राभिषेक ग्रह से संबंधित दोषों और रोगों से भी छुटकारा दिलाता है। शिवरात्रि, प्रदोष और सावन के सोमवार को यदि रुद्राभिषेक करेंगे तो जीवन में चमत्कारिक बदलाव महसूस करेंगे। बीमारी को नष्ट करने के लिए जल में इत्र मिला कर अभिषेक करें।
शहद का भगवान शिव से अभिषेक करने पर न सिर्फ धन की प्राप्ति होती है बल्कि सभी बीमारियां भी दूर हो जाती हैं। आरोग्य सुख के लिए इस अभिषेक को उत्तम माना गया है।
भवाय भवनाशाय महादेवाय धीमते ।
रुद्राय नीलकण्ठाय
शर्वाय शशिमौलिने ।।
उग्रायोग्राघ नाशाय
भीमाय भयहारिणे ।
ईशानाय नमस्तुभ्यं
पशूनां पतये नम: ।।
सोमवार, 4 मार्च को महाशिवरात्रि है। इस तिथि की शुरुआत श्रवण नक्षत्र से होगी और दिन का अंत धनिष्ठा नक्षत्र के साथ होगा। हर साल शिवरात्रि श्रवण नक्षत्र में मनाई जाती है। श्रवण नक्षत्र के स्वामी चंद्रदेव हैं। चंद्र भगवान शिव को विशेष प्रिय है। इसीलिए वे चंद्र को मस्तक पर धारण करते हैं। उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पं. मनीष शर्मा के अनुसार इस साल दोपहर के बाद धनिष्ठा नक्षत्र शुरू हो जाएगा, इसीलिए शिवरात्रि पर सुबह-सुबह पूजा करना ज्यादा शुभ रहेगा।
इस दिन मंगल स्वराशि रहेगा। चंद्र, शुक्र और केतु एक साथ मकर राशि में रहेंगे। शनि धनु राशि में रहेगा। ऐसा योग 29 साल पहले बना था, जब शनि धनु राशि में था और शिवरात्रि मनाई गई थी। शिवरात्रि पर बन रहे इन योगों में राशि अनुसार क्या करना चाहिए…
मेष- शिवरात्रि को कच्चा दूध एवं दही से शिवलिंग को स्नान कराएं एवं धतूरा अर्पण करें। कर्पूर से आरती करें।
वृषभ- शिवलिंग को ईख के रस से स्नान करवाकर मोगरे का इत्र लगाकर भोग लगाएं और आरती करें।
मिथुन- शिवरात्रि पर शिवलिंग अगर स्फटिक का हो तो श्रेष्ठ रहेगा। लाल गुलाल, कुमकुम, चंदन, इत्र से अभिषेक करें। आंकड़े के फूल अर्पित करें। मीठा भोग अर्पण कर आरती करें।
कर्क- शिवरात्रि पर अष्टगंध चंदन से अभिषेक करें। आटे से बनी रोटी का भोग लगाकर पूजा आरती करें।
सिंह- फलों के रस और शकर की चाशनी से अभिषेक करें। आंकड़े के फूल अर्पण कर मीठा भोग लगाएं।
कन्या- धतूरा, भांग, आंकड़ें के फूल चढ़ाएं, बिल्व पत्रों पर रखकर नैवेद्य अर्पित करें। कर्पूर मिले हुए जल से अभिषेक कराएं।
तुला- फूलों के जल से शिवलिंग को स्नान कराएं। बिल्व, मोगरा, गुलाब, चावल, चंदन चढ़ाएं। आरती करें।
वृश्चिक- शुद्ध जल से स्नान शिवलिंग को कराएं। शहद, घी से स्नान कराने बाद पुन: जल से स्नान कराएं और पूजा कर आरती करें।
धनु- चावल से श्रृंगार करें, सूखे मेवे का भोग लगाएं। बिल्व पत्र, गुलाब आदि से श्रंगार कर पूजन पश्चात आरती करें।
मकर- गेहूं से शिवलिंग को ढंककर विधिवत पूजन करें। इसके बाद उस गेहूं को गरीबों में दान कर दें।
कुंभ- सफेद-काले तिलों को मिलाकर किसी ऐसे शिवलिंग पर चढ़ाएं जो एकांत में हो। जल चढ़ाकर शिवलिंग को दोनों हाथों से रगड़ें और आरती करें।
मीन– रात्रि में पीपल के नीचे बैठकर शिवलिंग का पूजा करें। ऊँ नम: शिवाय का पैंतीस बार उच्चारण कर बिल्व पत्र चढ़ाएं और आरती करें।
‘जिसमें सारा जगत शयन करता है, जो प्रलयकाल में सारे जगत को अपने अंदर लीन कर लेते हैं, वे ही ‘शिव’ हैं। शिवरात्रि का अर्थ है ‘वह रात्रि जिसका शिव के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है’ या भगवान शिव की अतिप्रिय रात्रि को ‘शिवरात्रि’ कहा गया है। भगवान शिव चतुर्दशी तिथि के स्वामी हैं। महाशिवरात्रि के समान शिवजी को प्रसन्न करने वाला अन्य कोई व्रत नहीं है। शिवरात्रि-व्रत में चार प्रहर में चार बार पूजा का विधान है। इस दिन उपवास, शिवाभिषेक, रात्रि भर जागरण और पंचाक्षर व रुद्रमन्त्रों का जप करना चाहिए। साधक का शिव के समीप वास ही उपवास है। पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और बुद्धि का निरोध (संयम) ही सच्ची शिव-पूजा’ या ‘शिवरात्रि-व्रत’ है। ऐसा माना जाता है कि प्रदोष काल में भगवान शिव कैलाश पर्वत के रजत भवन में डमरु बजाते हुए अत्यन्त आनन्दमग्न होकर जगत को आह्लादित करने के लिए नृत्य करते हैं । सभी देवता इस समय भगवान शंकर की पूजा व स्तुति के लिए कैलाश शिखर पर पधारते हैं । सरस्वतीजी वीणा बजाकर, इन्द्र वंशी धारणकर, ब्रह्मा ताल देकर, महालक्ष्मीजी गाना गाकर, भगवान विष्णु मृदंग बजाकर भगवान शिव की सेवा करते हैं । यक्ष, नाग, गंधर्व, सिद्ध, विद्याधर व अप्सराएं भी प्रदोष काल में भगवान शिव की स्तुति में लीन हो जाते हैं ।
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि का प्रारंभ इसी दिन से हुआ। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन सृष्टि का आरम्भ अग्निलिंग ( जो महादेव का विशालकाय स्वरूप है ) के उदय से हुआ। अधिक तर लोग यह मान्यता रखते है कि इसी दिन भगवान शिव का विवाह देवि पार्वति के साथ हुआ था। साल में होने वाली 12 शिवरात्रियों में से महाशिवरात्रि की सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। महाकालेश्वर मंदिर, (उज्जैन) सबसे सम्माननीय भगवान शिव का मंदिर है
भगवान शिव की आराधना में रुद्राष्टाध्यायी अत्यंत ही मूल्यवान है क्योंकि इसके बिना न तो रुद्राभिषेक संभव है और न ही रुद्री पाठ ही किया जा सकता है । रुद्राष्टाध्यायी के मन्त्रपाठ के साथ जल, दूध, पंचामृत, आमरस, गन्ने का रस, नारियल के जल व गंगाजल आदि से शिवलिंग का जो अभिषेक किया जाता है, उसे ‘रुद्राभिषेक’ कहते हैं । शिवपुराण के अनुसार पवित्र मन, वचन और कर्म द्वारा भगवान शूलपाणि का रुद्राष्टाध्यायी के मन्त्रों से अभिषेक करने से मनुष्य की समस्त कामनाओं की पूर्ति हो जाती है और मृत्यु के बाद वह परम गति को प्राप्त होता है ।
कश्मीर शैव मत में इस त्यौहार को हर-रात्रि और बोलचाल में ‘हेराथ’ या ‘हेरथ’ भी जाता है। इस अवसर पर भगवान शिव का अभिषेक अनेकों प्रकार से किया जाता है। जलाभिषेक : जल से और दुग्धाभिषेक : दूध से। बहुत जल्दी सुबह-सुबह भगवान शिव के मंदिरों पर भक्तों, जवान और बूढ़ों का ताँता लग जाता है वे सभी पारंपरिक शिवलिंग पूजा करने के लिए आते हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं। भक्त सूर्योदय के समय पवित्र स्थानों पर स्नान करते हैं जैसे गंगा, या (खजुराहो के शिव सागर में) या किसी अन्य पवित्र जल स्रोत में। यह शुद्धि के अनुष्ठान हैं, जो सभी हिंदू त्योहारों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। पवित्र स्नान के बाद स्वच्छ वस्त्र पहने जाते हैं, भक्त शिवलिंग स्नान करने के लिए मंदिर में पानी का बर्तन ले जाते हैं महिलाओं और पुरुषों दोनों सूर्य, विष्णु और शिव की प्रार्थना करते हैं मंदिरों में घंटी और “शंकर जी की जय” ध्वनि गूंजती है। भक्त शिवलिंग की तीन या सात बार परिक्रमा करते हैं और फिर शिवलिंग पर पानी या दूध भी डालते हैं। महाशिवरात्रि को नेपाल में व विशेष रूप से पशुपति नाथ मंदिर में व्यापक रूप से मनाया जाता है। महाशिवरात्रि के अवसर पर काठमांडू के पशुपतिनाथ मन्दिर पर भक्तजनों की भीड़ लगती है। इस अवसर पर भारत समेत विश्व के विभिन्न स्थानों से जोगी, एवम् भक्तजन इस मन्दिर में आते हैं।
शिव जिनसे योग परंपरा की शुरुआत मानी जाती है को आदि (प्रथम) गुरु माना जाता है। परंपरा के अनुसार, इस रात को ग्रहों की स्थिति ऐसी होती है जिससे मानव प्रणाली में ऊर्जा की एक शक्तिशाली प्राकृतिक लहर बहती है। इसे भौतिक और आध्यात्मिक रूप से लाभकारी माना जाता है इसलिए इस रात जागरण की सलाह भी दी गयी है जिसमें शास्त्रीय संगीत और नृत्य के विभिन्न रूप में प्रशिक्षित विभिन्न क्षेत्रों से कलाकारों पूरी रात प्रदर्शन करते हैं। शिवरात्रि को महिलाओं के लिए विशेष रूप से शुभ माना जाता है। विवाहित महिलाएँ अपने पति के सुखी जीवन के लिए प्रार्थना करती हैं व अविवाहित महिलाएं भगवान शिव, जिन्हें आदर्श पति के रूप में माना जाता है जैसे पति के लिए प्रार्थना करती हैं।[
शिव पुराण के अनुसार, महाशिवरात्रि पूजा में छह वस्तुओं को अवश्य शामिल करना चाहिए:
शिव लिंग का पानी, दूध और शहद के साथ अभिषेक। बेर या बेल के पत्ते जो आत्मा की शुद्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं;
सिंदूर का पेस्ट स्नान के बाद शिव लिंग को लगाया जाता है। यह पुण्य का प्रतिनिधित्व करता है;
फल, जो दीर्घायु और इच्छाओं की संतुष्टि को दर्शाते हैं;
जलती धूप, धन, उपज (अनाज);
दीपक जो ज्ञान की प्राप्ति के लिए अनुकूल है;
और पान के पत्ते जो सांसारिक सुखों के साथ संतोष अंकन करते हैं।[5]
भगवान शिव की अन्य पारंपरिक पूजा
बारह ज्योतिर्लिंग (प्रकाश के लिंग) जो पूजा के लिए भगवान शिव के पवित्र धार्मिक स्थल और केंद्र हैं। वे स्वयम्भू के रूप में जाने जाते हैं, जिसका अर्थ है “स्वयं उत्पन्न”। बारह स्थानों पर बारह ज्योर्तिलिंग स्थापित हैं।
1. सोमनाथ यह शिवलिंग गुजरात के काठियावाड़ में स्थापित है।
2. श्री शैल मल्लिकार्जुन मद्रास में कृष्णा नदी के किनारे पर्वत पर स्थापित है श्री शैल मल्लिकार्जुन शिवलिंग।
3. महाकाल उज्जैन के अवंति नगर में स्थापित महाकालेश्वर शिवलिंग, जहां शिवजी ने दैत्यों का नाश किया था।
4. ॐकारेश्वर मध्यप्रदेश के धार्मिक स्थल ओंकारेश्वर में नर्मदा तट पर पर्वतराज विंध्य की कठोर तपस्या से खुश होकर वरदाने देने हुए यहां प्रकट हुए थे शिवजी। जहां ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित हो गया।
5. नागेश्वर गुजरात के द्वारकाधाम के निकट स्थापित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग।
6. बैजनाथ बिहार के बैद्यनाथ धाम में स्थापित शिवलिंग।
7. भीमाशंकर महाराष्ट्र की भीमा नदी के किनारे स्थापित भीमशंकर ज्योतिर्लिंग।
8. त्र्यंम्बकेश्वर नासिक (महाराष्ट्र) से 25 किलोमीटर दूर त्र्यंम्बकेश्वर में स्थापित ज्योतिर्लिंग।
9. घुमेश्वर महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एलोरा गुफा के समीप वेसल गांव में स्थापित घुमेश्वर ज्योतिर्लिंग।
10. केदारनाथ हिमालय का दुर्गम केदारनाथ ज्योतिर्लिंग। हरिद्वार से 150 पर मिल दूरी पर स्थित है।
11. काशी विश्वनाथ बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में स्थापित विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग।
12. रामेश्वरम् त्रिचनापल्ली (मद्रास) समुद्र तट पर भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग।
समुद्र
मंथन अमर अमृत का उत्पादन करने के लिए निश्चित थी, लेकिन इसके साथ ही कालकूट नामक विष भी पैदा हुआ था। कालकूट विष में ब्रह्मांड को नष्ट करने की क्षमता थी और इसलिए केवल भगवान शिव इसे नष्ट कर सकते थे। भगवान शिव ने कालकूट नामक विष को अपने कंठ में रख लिया था। जहर इतना शक्तिशाली था कि भगवान शिव बहुत दर्द से पीड़ित थे और उनका गला बहुत नीला हो गया था। इस कारण से भगवान शिव ‘नीलकंठ‘ के नाम से प्रसिद्ध हैं। उपचार के लिए, चिकित्सकों ने देवताओं को भगवान शिव को रात भर जागते रहने की सलाह दी। इस प्रकार, भगवान भगवान शिव के चिंतन में एक सतर्कता रखी। शिव का आनंद लेने और जागने के लिए, देवताओं ने अलग-अलग नृत्य और संगीत बजाने लगे। जैसे सुबह हुई, उनकी भक्ति से प्रसन्न भगवान शिव ने उन सभी को आशीर्वाद दिया। शिवरात्रि इस घटना का उत्सव है, जिससे शिव ने दुनिया को बचाया। तब से इस दिन, भक्त उपवास करते हैं, भगवान की महिमा गाते हैं और पूरी रात ध्यान करते हैं।
ईशान संहिता की कथा के अनुसार सृष्टिरचना के बाद भगवान ब्रह्मा एक बार घूमते हुए क्षीरसागर पहुंचे। उन्होंने वहां शेषनाग की शय्या पर भगवान नारायण को शान्त अधलेटे देखा। भूदेवी-श्रीदेवी उनकी चरणसेवा कर रहीं थी। गरुड़, नन्द-सुनन्द, पार्षद, गन्धर्व, किन्नर आदि हाथ जोड़े खड़े थे। यह देखकर ब्रह्माजी को आश्चर्य हुआ कि ‘मैं ही सबका पितामह हूँ; यह वैभव-मण्डित होकर यहां कौन सोया हुआ है?’
ब्रह्माजी ने भगवान नारायण को जगाते हुए कहा–’तुम कौन हो, देखो जगत का पितामह आया है।’ इस पर भगवान नारायण ने कहा–’जगत मुझमें स्थित है, तुम मेरे नाभिकमल से पैदा हुए हो, तुम मेरे पुत्र हो।’ दोनों में स्रष्टा और स्वामी का विवाद बढ़ने लगा। ब्रह्माजी ने ‘पाशुपत’ और भगवान नारायण ने ‘महेश्वर’ नामक अस्त्र उठा लिए। सृष्टि में प्रलय की आशंका हो गयी। देवतागण कैलास पर भगवान शिव की शरण में गए। अन्तर्यामी शिव सब समझ गए और देवताओं को आश्वस्त किया कि मैं इन दोनों का युद्ध शान्त करुंगा। ऐसा कहकर भगवान शंकर दोनों के मध्य में अनादि-अनन्त ज्योतिर्मयलिंग के रूप में प्रकट हो गए। महेश्वर और पाशुपत अस्त्र उसी ज्योतिर्लिंग में लीन हो गए। यह लिंग निराकार ब्रह्म का प्रतीक है।
भगवान विष्णु और ब्रह्माजी ने उस लिंग की पूजा की। यह लिंग फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को प्रकट हुआ तभी से आज तक लिंगपूजा चली आ रही है। ब्रह्मा एवं विष्णुजी ने शंकरजी से कहा–जब हम दोनों लिंग के आदि-अन्त का पता न लगा सके तो आगे मानव आपकी पूजा कैसे करेगा? इस पर भगवान शिव द्वादशज्योतिर्लिंगों में बंट गए।
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भगवान शंकर संहार और तमोगुण के देवता हैं। दिन सृष्टि का और रात्रि प्रलय व संहार का द्योतक है। रात्रि के आते ही प्रकाश का, मनुष्य की दैनिक गतिविधियों का और निद्रा द्वारा मनुष्य की चेतनता का संहार हो जाता है। जिस प्रकार प्रलयकाल में भगवान शिव सबको अपने में लीन कर लेते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण विश्व अचेतन होकर रात्रि की आनन्ददायी गोद में समा जाता है। इसलिए भगवान शंकर की आराधना न केवल इस महारात्रि में वरन् सदैव प्रदोष (रात्रि के आरम्भ होने) के समय में की जाती है। रात्रि के समय भूत, प्रेत, पिशाच और स्वयं शिवजी भ्रमण करते हैं, अत: उस समय इनका पूजन करने से मनुष्य के पाप दूर हो जाते हैं। रात्रिप्रिय शिव से भेंट करने का समय रात्रि के अलावा और कौन-सा हो सकता है? अत: शिवजी की अतिप्रिय रात्रि को ‘शिवरात्रि’ कहा गया है।
ब्रह्माण्ड में सृष्टि और प्रलय का क्रम चलता रहता है। शास्त्रों में दिन और रात्रि को नित्य-सृष्टि और नित्य-प्रलय कहा है। दिन में हमारा मन, प्राण और इन्द्रियां विषयानन्द में ही मग्न रहती हैं। रात्रि में विषयों को छोड़कर आत्मा शिव की ओर प्रवृत्त होती हैं। हमारा मन दिन में प्रकाश की ओर, सृष्टि की ओर जाता है और रात्रि में अन्धकार की ओर, लय की ओर लौटता है। इसी से दिन सृष्टि का और रात्रि प्रलय का द्योतक है। इसलिए रात्रि ही परमात्मा शिव से आत्मसाक्षात्कार करने का अनुकूल समय है।
कृष्णपक्ष ही क्यों?
मन के देवता चन्द्र माने जाते हैं। शुक्लपक्ष में चन्द्रमा सबल और कृष्णपक्ष में क्षीण होते हैं। कृष्णपक्ष में चन्द्रमा के क्षीण होने से मनुष्य के अंत:करण में तामसी शक्तियां प्रबल हो जाती हैं। इन्हीं तामसी शक्तियों को आध्यात्मिक भाषा में भूत-प्रेतादि कहते हैं। भगवान शिव को भूत-प्रेतादि का नियन्त्रक देवता माना गया हैं। अत: कृष्णपक्ष की चन्द्रविहीन रात्रि को जब ये शक्तियां अपना प्रभाव दिखाने लगती हैं, तब इनके उपशमन के लिए भगवान शिव की उपासना का विधान है।
फाल्गुनमास ही क्यों?
ब्रह्माण्ड में प्रलय के बाद सृष्टि और सृष्टि के बाद प्रलय होता है। इसी तरह रात्रि के बाद दिन और दिन के पश्चात् रात्रि होती है। इसी तरह वर्षचक्र भी चलता है। क्षय होते हुए वर्ष के अंतिम मास फाल्गुन के बाद नए वर्षचक्र का आरम्भ होता है। ज्योतिष के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी में चन्द्रमा सूर्य के समीप होता है। अत: उस समय में जीवरूपी चन्द्र का शिवरूपी सूर्य के साथ योग होता है। अत: फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी को शिव-पूजा करने से जीव को इष्ट की प्राप्ति होती है। इस तिथि पर जो कोई भी भगवान शिव की उपासना करता है, चाहें वह किसी भी वर्ण का क्यों न हो, वे उसे भुक्ति-मुक्ति प्रदान करते हैं।
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एक बार पार्वती जी ने भगवान शिवशंकर से पूछा, ‘ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्युलोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?’ उत्तर में शिवजी ने पार्वती को ‘शिवरात्रि’ के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- ‘एक बार चित्रभानु नामक एक शिकारी था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।’
शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो विल्वपत्रों से ढका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।
पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुंची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, ‘मैं गर्भिणी हूं। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी, तब मार लेना।’ शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई।
कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, ‘हे पारधी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।’ शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, ‘हे पारधी!’ मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊंगी। इस समय मुझे मत मारो।
शिकारी हंसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे। उत्तर में मृगी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान मांग रही हूं। हे पारधी! मेरा विश्वास कर, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं।
मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में बेल-वृक्षपर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृगविनीत स्वर में बोला, हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा।
मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, ‘मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं।’ उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गया। भगवान शिव की अनुकंपा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।
थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया। देवलोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहे थे। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प-वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए’।
रुद्राष्टाध्यायी के आठ अध्याय
प्रथम अध्याय
रुद्राष्टाध्यायी का प्रथम अध्याय ‘शिवसंकल्प सूक्त’ कहा जाता है । इसमें साधक का मन शुभ विचार वाला हो, ऐसी प्रार्थना की गयी है । यह अध्याय गणेशजी का माना जाता है । इस अध्याय का पहला मन्त्र श्रीगणेश का प्रसिद्ध मन्त्र है—‘गणानां त्वा गणपति हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति हवामहे निधिनां त्वा निधिपति हवामहे । वसो मम ।।’
द्वितीय अध्याय
रुद्राष्टाध्यायी का द्वितीय अध्याय भगवान विष्णु का माना जाता है । इसमें १६ मन्त्र ‘पुरुष सूक्त’ के हैं जिसके देवता विराट् पुरुष हैं । सभी देवताओं का षोडशोपचार पूजन पुरुष सूक्त के मन्त्रों से ही किया जाता है । इसी अध्याय में लक्ष्मीजी के मन्त्र भी दिए गए हैं ।
तृतीय अध्याय
तृतीय अध्याय के देवता इन्द्र हैं । इस अध्याय को ‘अप्रतिरथ सूक्त’ कहा जाता है । इसके मन्त्रों के द्वारा इन्द्र की उपासना करने से शत्रुओं और प्रतिद्वन्द्वियों का नाश होता है ।
चौथा अध्याय
चौथा अध्याय ‘मैत्र सूक्त’ के नाम से जाना जाता है । इसके मन्त्रों में भगवान मित्र अर्थात् सूर्य का सुन्दर वर्णन व स्तुति की गयी है ।
पांचवा अध्याय
रुद्राष्टाध्यायी का प्रधान अध्याय पांचवा है । इसमें ६६ मन्त्र हैं । इसको ‘शतरुद्रिय’, ‘रुद्राध्याय’ या ‘रुद्रसूक्त’ कहते हैं ।
शतरुद्रिय यजुर्वेद का वह अंश है, जिसमें रुद्र के सौ या उससे अधिक नाम आए हैं और उनके द्वारा रुद्रदेव की स्तुति की गयी है । रुद्राध्याय के आरम्भ में भगवान रुद्र के बहुत से नाम ‘नमो नम:’ शब्दों से बारम्बार दुहराये जाने के कारण इस भाग का नाम ‘नमकम्’ पड़ा । इसका प्रथम मन्त्र ही कितना सुन्दर है—
ॐ
नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नम: ।
बाहुभ्यामुत
ते नम: ।।
अर्थ—‘हे रुद्रदेव ! आपके क्रोध को हमारा नमस्कार है । आपके बाणों को हमारा नमस्कार है एवं आपके बाहुओं को हमारा नमस्कार है ।’
इस मन्त्र में दुष्टों के नाश के लिए रुद्र के क्रोध, बाणों और बाहुओं को नमस्कार किया गया है ।
शतरुद्रिय की महिमा
शतरुद्रिय की महिमा को इसी बात से जाना जा सकता है कि एक बार याज्ञवल्क्य ऋषि से शिष्यों ने पूछा—‘किसके जप से अमृत तत्त्व (अमरता) की प्राप्ति होती है ?’ ऋषि ने उत्तर दिया—‘शतरुद्रिय के जप से ।’
रुद्राध्याय में वर्णित भगवान रुद्र के सभी नामों में अमृतत्व प्रदान करने की सामर्थ्य है, इसके पाठ से मनुष्य स्वयं रोगों व पापों से मुक्त होकर मृत्युंजय (अमर) हो जाता है ।
केवल रुद्राध्याय के पाठ से ही वेदपाठ के समान फल की प्राप्ति होती है ।
भगवान रुद्र की शतरुद्रीय उपासना से दु:खों का सब प्रकार से नाश हो जाता है । दु:खों का सर्वथा नाश ही मोक्ष कहलाता है ।
छठा अध्याय
रुद्राष्टाध्यायी के छठे अध्याय को ‘महच्छिर’ कहा जाता है । इसी अध्याय में ‘महामृत्युंजय मन्त्र का उल्लेख है—
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् । उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुत: ।।
अर्थ—इस मन्त्र में भगवान त्र्यम्बक शिवजी से प्रार्थना है कि जिस प्रकार ककड़ी का पका फल वृन्त (डाल) से मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार हमें आप जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त करें । हम आपका यजन करते हैं ।
सातवां अध्याय
सातवें अध्याय को ‘जटा’ कहा जाता है । इस अध्याय के कुछ मन्त्र अन्त्येष्टि-संस्कार में प्रयोग किए जाते हैं ।
आठवां अध्याय
आठवे अध्याय को ‘चमकाध्याय’ कहा जाता है । इसमें २९ मन्त्र हैं । भगवान रुद्र से अपनी मनचाही वस्तुओं की प्रार्थना ‘च मे च मे’ अर्थात् ‘यह भी मुझे, यह भी मुझे’ शब्दों की पुनरावृत्ति के साथ की गयी है इसलिए इसका नाम ‘चमकम्’ पड़ा । रुद्राष्टाध्यायी के अंत में शान्त्याध्याय के २४ मन्त्रों में विभिन्न देवताओं से शान्ति की प्रार्थना की गयी है तथा स्वस्ति-प्रार्थनामंत्राध्याय में १२ मन्त्रों में स्वस्ति (मंगल, कल्याण, सुख) प्रार्थना की गयी है ।
रुद्री, लघुरुद्र, महारुद्र और अतिरुद्र अनुष्ठान
रुद्राष्टाध्यायी के पांचवें अध्याय रुद्राध्याय की ११ आवृति (एकादश आवर्तन) और शेष अध्याय की एक आवृति के साथ अभिषेक से एक ‘रुद्री’ होती है इसे ‘एकादशिनी’ भी कहते हैं ।
एकादश (११) रुद्री से लघुरुद्र, ११ लघुरुद्र से महारुद्र और ११ महारुद्र (अर्थात् रुद्राध्याय पाठ के १२१ जप) से अतिरुद्र का अनुष्ठान होता है ।
रुद्री, लघुरुद्र, महारुद्र और अतिरुद्र से भगवान शिव का अभिषेक, पाठ व होम किया जाता है ।
‘लघुरुद्र’ से शिवलिंग का अभिषेक करने वाला साधक मुक्ति प्राप्त करता है ।
‘महारुद्र’ के पाठ, जप व होम से दरिद्र व्यक्ति भी भाग्यवान बन जाता है ।
‘अतिरुद्र’ पाठ व जप की कोई तुलना नहीं है । इससे ब्रह्महत्या जैसे पाप भी दूर हो जाते हैं ।