विरोधियों की चाल को पहले से भांप लेते हैं मोदी
यूपी में 275 सीटें ; मोदी #मोदी अपने पूरे शबाब पर-पार्टी और विरोधी दोनो नतमस्तक# मोदी को विरोधियों को संभलने का वक्त नहीं देते # सरकार बजट सत्र में राजनीतिक पार्टियों के फंडिंग से जुड़ा एक बिल भी संसद में ला सकती है पिछले दो दशकों से कई भारतीय नेताओं ने एंटी-इनकंबेंसी (सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ लहर) फैक्टर में भी वापसी की है. उड़ीसा में नवीन पटनायक, बिहार में नीतीश कुमार, मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी जैसे मुख्यमंत्री इसकी मिसाल हैं. इन लोगों ने मुख्यमंत्री के तौर पर अपने राज्य को तेज रफ्तार विकास दी है.
आर्थिक मोर्चे पर अच्छे प्रदर्शन के बूते इन्हें सत्ता विरोधी लहर में भी जीतने में मदद मिली. इससे यह तर्क बनता है कि जो नेता अार्थिक मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन करने में नाकाम साबित होते हैं, उन्हें जनता नकार देती है. माना जाता है कि वोटर जिन नेताओं को गद्दी सौंपते हैं, वो चाहते हैं कि उनकी उनकी जिंदगियों में आर्थिक तौर पर खुशहाली लाएं.
Execlusive Report: CS JOSHI- EDITOR ; (www.himalayauk.org) Leading Web & Print Media
आने वाले विधानसभा चुनाव का नतीजा चाहे जो आए. फिलहाल मोदी अपने पूरे शबाब पर हैं. उनके आगे पार्टी और विरोधी दोनो नतमस्तक हैं.
मोदी किसी शतरंज के खिलाड़ी की तरह तरह अपने विरोधियों के चाल को पहले से भांप लेते हैं. इसके बाद वो अपनी रणनीति तैयार करते हैं. उनकी इस खूबी के साथ जनता से संवाद करने की काबिलियत और उसकी नब्ज पर पकड़ सोने पर सुहागा का काम करती है. इन सब खूबियों के कारण मोदी को विरोधियों को संभलने का वक्त नहीं देते. जबकि खुद वक्त से आगे चलते हैं. मसलन नोटबंदी. मोदी के जोखिम लेने की इस आदत को आलोचकों ने औद्योगिक विकास, बैंकों पर कर्ज का बोझ, आर्थिक विकास के आंकड़े देकर गलत साबित करने की कोशिश कर रहे हैं. दुनिया की छठी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति और सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने को लेकर मीडिया ने मोदी की जमकर खिंचाई भी की.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 6-7 जनवरी को नई दिल्ली में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उत्तर प्रदेश चुनावों में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलने का दावा किया है। रेडिफ की खबर के अनुसार, बंद दरवाजों के पीछे हुई बैठक में मोदी ने भाजपा सहयोगियों से कहा कि यूपी विधानसभा चुनाव में पार्टी कम से कम 275 सीटें जीतेंगी। यूपी में कुल 403 विधानसभा सीटें हैं। पूर्व भाजपा अध्यक्षों, मुख्यमंत्रियों और करीब 350 पार्टी सदस्यों के साथ बैठक में पीएम ने कहा कि यूपी के लोगों ने खुले दिल से उनके नोटबंदी के फैसले का समर्थन किया है, जो कि चुनाव में वोटों के रूप में फलीभूत होगा। सूत्रों के अनुसार, मोदी ने यह साफ कर दिया कि खुद वह यूपी में बीजेपी के जारी प्रचार की निगरानी कर रहे हैं और इस संबंध में किसी की दखलअंदाजी बर्दाश्त नहीं करेंगे। मोदी ने यह भी कहा कि उन्हें पता है कि पार्टी के लिए सबसे अच्छा क्या है।
मोदी विराधेियों को फिर एक बडी पटकनी देने जा रहे हैं, उन्होंने कहा,’पार्टी चलाने के लिए हमारे पास पैसा कहां से आ रहा है यह जानने का हक जनता को है. देश में पारदर्शिता के पक्ष में माहौल बना है. राजनीतिक पार्टियों को अपने विवेक से इसका फायदा उठाना चाहिए. सभी दलों को अपनी कार्यशैली में और पारदर्शिता लानी चाहिए.’ सरकार बजट सत्र में राजनीतिक पार्टियों के फंडिंग से जुड़ा एक बिल भी संसद में ला सकती है. इसके पहले मोदी इस पर चर्चा के लिए सभी राजनीतिक दलों की एक बैठक बुला सकते हैं.
ममता बनर्जी जैसे नेता अभियान चलाकर बीजेपी में फूट डालने की कोशिश कर रहे थे. ममता मोदी को हटाकर पार्टी के पितामह लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने की मांग कर रही थी. ममता बनर्जी जैसे विपक्षी नेताओं को लगता था कि इससे बीजेपी में मोदी विरोधी धड़ा सक्रिय हो जाएगा. यह मोदी को पार्टी के अंदर कमजोर करने की चाल थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
पिछले दो दशकों से कई भारतीय नेताओं ने एंटी-इनकंबेंसी (सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ लहर) फैक्टर में भी वापसी की है. उड़ीसा में नवीन पटनायक, बिहार में नीतीश कुमार, मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी जैसे मुख्यमंत्री इसकी मिसाल हैं. इन लोगों ने मुख्यमंत्री के तौर पर अपने राज्य को तेज रफ्तार विकास दी है.
आर्थिक मोर्चे पर अच्छे प्रदर्शन के बूते इन्हें सत्ता विरोधी लहर में भी जीतने में मदद मिली. इससे यह तर्क बनता है कि जो नेता अार्थिक मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन करने में नाकाम साबित होते हैं, उन्हें जनता नकार देती है. माना जाता है कि वोटर जिन नेताओं को गद्दी सौंपते हैं, वो चाहते हैं कि उनकी उनकी जिंदगियों में आर्थिक तौर पर खुशहाली लाएं.
बीजेपी कार्यकारिणी के बाद मोदी पार्टी के सबसे बड़े और निर्विवाद नेता की तरह उभरे हैं. पार्टी के अंदर थोड़ा मनमुटाव हो सकता है. लेकिन कार्यकारिणी में जो प्रस्ताव पारित किए गए वो मोदी के ही मनमाफिक हैं. इन प्रस्तावों को पार्टी फोरम में रखने वाले और कोई नहीं बल्कि अरुण जेटली थे. जिन्हें ममता बनर्जी आडवाणी के बाद मोदी का दूसरा विकल्प बता रहीं थी.
बीजेपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के बैठक से दो बातें साफ निकल कर आईं. पहली यह कि नरेंद्र मोदी अपने समकक्षों से हमेशा एक कदम आगे रहते हैं. दूसरी, पार्टी पर उनका एकछत्र राज कायम है.
भारत की अधिकतर पार्टियों के नेता अपना डर बनाकर राज करते हैं. लेकिन मोदी के साथ ऐसा नहीं है. ऐसा भी नहीं कि बीजेपी अंदरुनी कलह की शिकार नहीं. लेकिन पार्टी के बड़े नेता और कार्यकर्ता मोदी से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते.
राजनीति में संदेश सही ढंग से लक्ष्य तक पहुंचाने में मोदी का कोई मुकाबला नहीं है. वो अपने समकालीन विरोधियों से बहुत आगे हैं. मोदी भावनाओं में बहकर या तुनक में आकर फैसले नहीं लेते. उनके हर कदम के पीछे नफा-नुकसान के गुणा भाग के साथ-साथ उसका चुनावी परिणाम का आंकलन भी होता है.
बाजार की लगभग सारी नकदी सरकार के खजाने में वापस आ गई. इससे कालेधन को खत्म करने के सरकारी दावे को जरुर झटका लगा है. हालांकि अभी इस वापस जमा हुई नकदी के आंकड़े आधिकारिक नहीं है. इन आंकड़ों पर सवाल किया जा रहा है. मोदी विरोधियों ने जनता को हुई असुविधा और बेरोजगारी बढ़ने को लेकर आंदोलन भी किया. जो सफल नहीं रहा.
विपक्ष के असफल आंदोलन की वजह पता लगाना इतना मुश्किल नहीं है. लोगों के मन में यह बात घर कर गई है कि नोटबंदी का असर जो भी हो, मंशा नेक है. जितनी तकलीफ हो रही है उनके मन में यह भावना और मजबूत हो रही है. मोदी के कट्टर आलोचक भी इस बात को मानेंगे कि नोटबंदी की बहस ‘अच्छे काम के लिए तकलीफ झेलने’ पर आकर सिमट गई है.
नोटबंदी की सबसे ज्यादा मार गरीब और पिछड़ों पर पड़ने का दावा किया जा रहा है. इसके बावजूद मोदी पर इनका भरोसा डिगा नहीं. गरीबों मन में अमीरों के लिए नफरत और गुस्सा सामने आया. वो इस बात पर खुश हैं कि अमीरों की तिजोरियों में जमा पैसा बाहर आ गया. ऐसे में मोदी ने खुद को रॉबिनहुड की तरह पेश कर दिया. ऐसा जोखिम केवल मोदी ही उठा सकते हैं.
इस जोखिम का फायदा मोदी को मिलेगा. विपक्ष को भी इस बात को एहसास है. तभी तो ममता बनर्जी ने मोदी के विरोध में माहौल बनाने के लिए जमीम आसमान एक कर दिया. लेकिन वो अभी तक तो सफल नहीं हो पाईं हैं.
इस बीच मोदी ने अपने ऊपर हमलावर विपक्ष के खिलाफ एक नई चाल चल दी है. उन्हें मालूम है कि अमीरों के खिलाफ गुस्से की तरह नेताओं के लिए भी लोगों के मन में कोई प्रेमभाव नही है. लोग नेताओं को अमूमन भ्रष्ट ही मानते हैं. राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता लाने की मोदी की अपील के पीछे इसी भावना को भुनाना है.
मोदी के आलोचकों ने नोटबंदी के मंसूबों पर सवाल उठाया था. उनका तर्क था कि अगर मोदी कालेधन और भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए वाकई गंभीर हैं तो राजनीतिक दलों की फंडिंग का कानून बदलें. यह कानून 20,000 रुपए तक के चंदे का हिसाब न देने की छूट देता है.
कार्निज एंडॉउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के शोधकर्ता मिलन वैष्णव ने अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस में छपे अपने लेख में यह सवाल उठाया. मिलन ने लिखा,’ जनता के अलग कानून और नियम बनाने वाले राजनेताओं के लिए अलग कानून है. इससे सरकार मंशा पर जाहिर है. सरकार के पास राजनीति की गदंगी साफ करने की कोई ठोस योजना नहीं है.’ इस लेख में मिलन वैष्णव ने सरकार को कालधन और भ्रष्टाचार मिटाने के कई सुझाव दिए. राजनीति में भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए मिलन ने सलाह दी कि पार्टियों के पास एक पैसे भी नकद आते हैं तो उसका हिसाब लिया जाना चाहिए. अभी 20,000 से ज्यादा नकद जमा का ही हिसाब पार्टियां देती है. मिलन ने इस तरह की सीमा हटाने का सुझाव दिया.