इन पर्वतों में अष्टकुल नाग करते है शिव की आराधना*
*राजेन्द्रपन्त’रमाकांत*
चिटगल,गंगोलीहाट(पिथौरागढ़)
त्रिपुरा देवी/सनीउडियार/हवनतोली/बेरीनाग/बागेश्वर।जनपद बागेश्वर का सनीउडियार आध्यात्म जगत में प्राचीन काल से ही काफी प्रसिद्ध है।कभी शाण्डिल ऋषि की तपस्या का केन्द्र रहा यह पावन क्षेत्रं आज आध्यात्मिक पहचान के लिए छटपटा रहा है।सनीउडियार का उडियार ही सनीउडियार की पहचान है।उडियार का तात्पर्य पर्वतीय भाषा में छोटी गुफा से है। शाडिल्य ऋषि की तपस्या का केन्द्र रही यह गुफा दुर्दशा का शिकार ही नही बल्कि गुमनाम है।कई स्थानीय वाशिदों को भी इस गुफा के बारे में जानकारी नही है।
बासपटान कांडा मोटर मार्ग में कमस्यार घाटी के अर्न्तगत सनीअडियार व हवनतोली क्षेत्रं प्राचीन समय में आध्यात्मिक विरासत की प्रमुख धरोहरे थी।मान्यता है,कि हवनतोली नामक स्थान पर महाप्रतापी नागों ने ऋषियों के साथ मिलकर विराट हवन का आयोजन किया था।तभी से यह स्थान हवनतोली के नाम से जगत में प्रसिद्व हुआ हवनतोली व सनीउडियार का जिक्र पुराणों में भी आता है।नागपुर नागभूमि के नाम से यह घाटी प्रसिद्व है।महर्षि व्यास जी ने भी इस रमणीक घाटी का जिक्र स्कंद पुराण में किया है।इसे शिव व शक्ति की वासभूमि के नाम से भी पुकारा जाता है।इसी पावन भूमि पर आस्तीक आदि ऋषियों ने नागों के साथ मिलकर वैभवशाली यज्ञ किया।इस महायज्ञ के बारे में पुराणों में विस्तार के साथ कथा आती है।जिसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है।नाग पर्वत व इस भूमि में निवास करने वाले नागों के मन में भगवान शिव की प्रेरणा से यह इच्छा जागृत हुई।कि इस क्षेत्रं बहुत विशाल यज्ञ का आयोजन करके ब्रह्मा जी के दर्शन किये जाएं।यज्ञ के आयोजन को लेकर नागप्रमुख मूल नारायण जी की अध्यक्षता में बैठक हुई।जिसमें फेनिल नाग सहित अनेक नागों ने भाग लिया फेनिल नाग के अनुरोध पर ब्रह्मणों व महर्षियों ने भद्रा का आवाहन कर यज्ञ आरम्भ किया।ऋषियों के आवाहन से जो भद्रा प्रकट हुई वह इस क्षेत्रं की पवित्र नदी है।इस नदी में स्नान का बड़ा ही महत्व है।पुराणों में कहा गया है।जो व्यक्ति श्रद्वा के साथ भद्रा नदी में स्नान करता है।वह ब्रह्म लोक का भागी बनता हैं।इस प्रकार नागों ने भद्रा की कृपा से यज्ञ सम्पन करके ब्रह्मा जी के दर्शन किए।जिस गोपीवन भूभाग में नागों ने यज्ञ किया उस गोपीवन का भी पुराणों में अद्भूत जिक्र आता है।गोपीवन में महादेव जी का प्राचीन मंदिर है।जो श्रद्वा व भक्ति का संगम है।पुराणों में बताया गया है,कि गोपेश्वर का पूजन करने से सारी पृथ्वी की इक्कीस बार परिक्रमां का फल प्राप्त होता है।
*त्रिः सप्तकृत्वा सकलां धरित्रीं प्रकम्य यद्याति महीतलै वै।।*
यज्ञ के बाद नागसमुदाय ने नागपुर में पन्द्रह साल तक कामधेनु की सेवा व तपस्या की नागों की सेवा से संतुष्ट होकर कामधेनु ने नागों से वर मागनें को कहा नागों ने वरदान स्वरुप अनेक गो कुल मांगे।गायों के कुलों को प्राप्त करके नागों ने उनके चरने के लिए गोपीवन को चुना और गायों को चराने एवं उनकी रक्षा का दायित्व नागकन्याओं को सौपा गया।नागकन्याओं ने गोपीवन में रहकर गाय चराने के साथ साथ शंकर का नियमित पूजन आरम्भ किया एक बार शिवलीला के प्रभाव से नागकन्यायें अर्थात् गोपियों की गायें ओझल हो गई गाये ढूढ़ते ढूढ़ते उन्हें इस क्षेंत्र में शाडिल्य ऋषि की गुफा के दर्शन हुए गुफा के प्रति गोपियों की जिज्ञासा बढ़ती गई।मूलनारायण की पुत्री ने नागकन्याओं सहित गुफा में प्रवेश का प्रयत्न किया लेकिन वे गुफा में प्रवेश करने में असफल हुई। तब उन्होंने शाण्डिल्य ऋषि का ध्यान करते हुए कहा यदि हमारी शिव भक्ति सच्ची है।तो हम गुफा को पार कर जाएं।इस तरह शिव कृपा से वे गुफा में प्रवेश पाकर प्रविष्ट हो गई उन्हें आशा थी कि यहां उन्हें शिव के दर्शन होगें निराश गोपिकाये गायों को ढूढते हुए दूसरे जगंल में पहुचीं जहां उन्होंने गायों के झुण्ड के बीच एक ज्योर्तिमय लिंग को देखा व उसकी स्तुति की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उस लिंग से प्रकट होकर गोपियों को दर्शन देकर कृतार्थ किया।इस तरह से शाण्डिल्य ऋषि की इस गुफा व गोपीश्वर को प्रकाश में लाने का श्रेय नागराज मूलनारायण की पुत्री को जाता है।शनीउडियार के नाम से प्रसिद्व यह गुफा वर्तमान में घोर उपेक्षा की बीन बजाते हुए गुमनामी के साये में गुम है।यही हाल गोपीश्वर महादेव का है।
सनातन धर्म के सजग प्रहरी शाण्डिल ऋषि कश्यपवंशी थे।भगवान श्रीरामचन्द्र जी के पूर्वज अंशुमान के पुत्र राजा दिलीप के ये पुरोहित थे केदारखण्ड़ के ६४वें अध्याय में नारदकृत शिव सहस्त्र नाम में भी शाण्डिल्य ऋषि का नाम आता है।
*शाण्डिल्यो ब्रह्यशौण्डाख्य: शारदो वैद्यजीवन*(श्लोक १२६)
शाण्डिल्य ऋषि की तपोभूमि सनीउडियार व हवनतोली,गोपीश्वर मंदिर के अलावा कमस्यार घाटी व नाग पर्वतों पर अनेक दुर्लभ मंदिर है।यदि इन्हें तीर्थाटन एंव पर्यटन से जोड़ा जाए तो ये आस्था व रोमाचं के प्रमुख केन्द्र बन सकते है।पवित्र नागपुर पर्वत में फेनिल नाग जी का मंदिर भी है।इनका पूजन करने से धन धान्य तथा सुख समृद्धि में बृद्धि होती है।इन्ही क्षेत्रों में कालीय नाग जी के पुत्र भद्रनाग जी का भी वास है।यही वह क्षेत्रं है।जहां नागराज माँ भद्रकाली का पूजन करते है।माँ भद्रवती देवी व भद्रनाग जी का पूजन करने से सर्प भय नही रहता है।भद्रा के दक्षिण की ओर कालीय नाग द्वारा माँ काली का पूजन किया जाता है।चटक,श्वेतक आदि नाम के कई नाग यहां अदृश्य रुप से वास करते है।पुराणों में दिशा निर्देश दिया गया है कि गोपीश्वर का पूजन करने के पश्चात् खर नामक महानाग का पूजन करना चाहिए
*हरं गोपीश्वरं पूज्य शिखरे मुनिसत्तमाः।खराख्यं हि महानागं पूजयेत् सुसमाहित।।(स्कंदपुराण मानसखण्ड अ०८२श्लो०२) *
इन्हीं पर्वतों में विराजमान गोपालक नामक नाग की माहिमां भी पुराणों ने गायी है।यहां विराजमान काली का पूजन समस्त दुख व भय का नाश करने का अचूक अस्त्र बतलाया गया है।कांडा स्थित कालिका का दरबार काली भक्तों के लिए जगतमाता की ओर से अद्भूत सौगात है।अलग अलग नामों से पुकारे जाने वाले पर्वतों में कोटीश्वरी व शाकरीं देवी के भी दरवार है।इनका पूजन दुर्गतिनाशक कहा गया है।नाग पर्वतों पर विराजमान कालीय नाग के बड़े पुत्र फेनिल नाग का पूजन समस्त अमंगल को हरने वाला बताया गया है।त्रैलोक्यनाग की पूजा आरोग्यता को प्रदान करती है।वनछोर के शिखर पर विराजमान मूलनारायण नाग की आराधना दुर्लभ सिद्धियो को देने वाली कही जाती है।भगवान नागराज के प्रति स्थानीय लोगों में गहरी आस्था है।भगवान नारायण से वर पाकर इन्होने सदा के लिए उनका नाम अपने नाम के साथ जोड़ लिया।और अमरता को प्राप्त हुए।इनकी माता का नाम पुगंवी है।नारायणी नदी के किनारे इनका दरवार है।इन पर्वत प्रान्तों में शेषनाग जी भी पूजे जाते है।मूलनारायण के बायी ओर सर्वपापहारी त्रिपुरनाग का पूजन किया जाता है।इन्ही पर्वतों में कालीयनाग के नाती सूचूड़नाग भी पूजे जाते है।नागपर्वतों में विराजमान धौलीनाग,वासुकी नाग,वासुकीनाग की पुत्री वेलावती,इतावर्त,कर्कोटक,पुण्डरीकनाग, कुण्डलीनाग,गौरनाग,शतरुप महानाग,सुन्दरीनाग,हरिनाग,पिगंलनाग,मधुनाग,धनन्जय,सुराष्ट्र नामक नाग भी वरदायी देवता के रूप में पूज्यनीय है।ये नाग यहां सुनन्दा देवी की भी पूजा करते है।अन्ततः ये सभी नाग मिलकर के अपनी परमआराध्या माँ त्रिपुर सुन्दरी की पूजा करते है।इनका दरवार वेणीनाग के निकट गंगोलीहाट मार्ग पर है।नागराज मूलनारायण ने भगवती त्रिपुरादेवी की आराधना से दुर्लभ सिद्धियों को प्राप्त किया।तथा मूलनारायणी की कृपा प्राप्त की।
कहा जाता है।इन्हीं मूलनारायणी की कृपा से सुग्रीव को राम मिले व बाली द्वारा हड़पा राज्य प्राप्त हुआ।पत्नी ताराहरण से व्यथित वानरराज सुग्रीव ने हनुमान के साथ इन्ही क्षेत्रों में मूलनारायणी देवी की तपस्या की।इन्हीं के वरदान से भगवान श्री रामचन्द्र की सहायता से सुग्रीव ने बाली का बध व तारा की प्राप्ति की।इन्हीं नाग पर्वतों में नागों के आराध्य पुगींश्वर महादेव का मंदिर बेणीनाग के निकट विराजमान है।इनकी आराधना तीनों तापों का नाश करने वाली कही गई है।पुंगीश्वर महादेव जी के दर्शन वैद्यनाथ तथा महाकाल से दसगुना ज्यादा फलदायी माने गये है।
*पूगीश्वरेति विख्यातो देवदेवो महेश्वर*
नाग कन्यायें तथा नाग देवता यहां अमावस्या को खासतौर से शिवजी की पूजा करते है।तथा अन्य दिनो में देव,दानव,गंधर्व अदृश्य रुप से इनकी स्तुति करते है।पुराणों में वर्णन आता है।इस स्थान पर सत्युग में शिव विवाह के पश्चात् देवगणों ने पुंगीफल(सुपारी)से यहां शिव व शक्ति का पूजन किया तभी से यह स्थान पुंगीश्वर के नाम से जगत में प्रसिद्ध हुआ
कुल मिलाकर नागपर्वत व पर्वतों पर विराजमान नागमंदिर व शिव शक्ति पीठों की माहिमां अपरम्पार है।इस भूभाग में बहनें वाली नदियां भद्रा,सरस्वती गंगा,गुप्तसरस्वती,सुभद्रा,चन्द्रिका,सोमवती,मधुमती,शकटी,हीमगिरी,पृथा,भुजंगा,नारायणी,गौरी,जटागंगा,सुमेना, आदि नाम से पुकारी जाती है।
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