अकारण भविष्य नहीं देखना चाहिए & आशीर्वाद और श्राप दोनों व्यर्थ नहीं जाता; समय आने पर उसका परिणाम सामने आता है; श्राप से मुक्ति कैसे मिलेगी

# हिंदू पौराणिक कथाओं में, ज्योतिष माता सती से जुड़े श्राप को “शक्ति पीठ अभिशाप” के रूप में जाना जाता है। माता सती और उनके श्राप की कहानी भगवान शिव और उनकी पहली पत्नी सती की कथा पर आधारित है। पौराणिक कथाओं के अलग-अलग पुनर्कथनों में श्रापों और उनके प्रभावों का विवरण भिन्न हो सकता है। & सरस्वती ने ब्रह्मा जी को श्राप दिया था & कर्ण को धरती मां से क्या श्राप मिला था? & शबरी को क्या श्राप मिला था? & वृंदा ने भगवान विष्णु को श्राप दिया  & गाय को माता सीता ने श्राप क्यों दिया था? & वृक्ष को आशीर्वाद है उसका दर्शन पुण्य बढ़ाने वाला होगा & चंद्रमा को श्राप किसने दिया था और मुक्ति कैसे मिली थी? & नारद मुनि किसके श्राप के कारण दर दर भटकते रहते हैं और उन्हें श्राप क्यों दिया गया था? & करण को क्या श्राप मिला था? & रावण को किस अप्सरा से श्राप मिला था? & महाभारत में भीष्म पितामह को कौन सा श्राप लगा था?

 क्रोध जागृत हो गया और अपने आराध्य को ही श्राप दे डाला आशीर्वाद और श्राप दोनों व्यर्थ नहीं जाता है। समय आने पर उसका परिणाम सामने आ जाता है

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मान्यता है कि ज्योतिषविदों को पार्वती माता का श्राप है कि एस्ट्रोलॉजर के पास जाते ही कुछ शब्द ही सत्य साबित होगे, बाकी सिर्फ अनुमान होगा, यानी सिर्फ करीबन 15 मिनट ही वाणी सत्य होगी,
और इतनी देर तो ज्योतिष विद के पास जाने वाला मानव स्वय बोलता जाता है

एक दिन नारद जी कैलाश पर्वत पर पहुँचे तो सदा की तरह भगवान शिव के दर्शन हुए परन्तु माता सती नही दिखाई पड़ी, नारद जी ने माता के विषय में पुछा तो भगवान शिव जी ने कहा “नारद जी, आप तो ज्योतिष के ज्ञाता हो। बताओ अभी सती कहाँ है?

नारद जी ने ज्योतिषीय गणना की और कहा, “माँ अभी स्नान कर रही हैं। और इस समय उनके शरीर पर एक भी वस्त्र नहीं है।

आगमन पर माँ बोली –“नारद जी आपकी गणना बिल्कुल सही है। पर जो विद्या व्यक्ति के कपडे के भी पार देख ले वह अच्छी नहीं। इसलिए मैं इस विद्या को श्राप देती हूँ कि कभी भी कोई ज्योतिषी पूरा-पूरा नहीं देख पाएगा।“

बाद में देवी ने कहा: जो ज्योतिषी का इष्ट में पूरा विश्वास होगा। सच्चे हृदय से ज्योतिष को जानेगा। उसकी गणना सम्पूर्ण सत्य होगी। ज्योतिष गुरु मुखी विद्या है, गुरु से सीखने पर भविष्यवाणी पूर्ण रूप से सटीक होती है :

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तुलसी विवाह संपन्न कराते हैं, उनको वैवाहिक सुख मिलता है. देवोत्थान एकादशी पर केवल तुलसी विवाह ही नहीं होता है. इस व्रत के शुभ प्रभाव से शादी में आ रही सारी रुकावटें दूर होने लगती हैं और शुभ विवाह का योग जल्दी ही बन जाता है.

हिंदू धर्मग्रन्थों के अनुसार, वृंदा नाम की एक कन्या थी. वृंदा का विवाह समुद्र मंथन से उत्पन्न हुए जलंधर नाम के राक्षस से कर दिया गया. वृंदा भगवान विष्णु की भक्त के साथ एक पतिव्रता स्त्री थी जिसके कारण उसका पति जलंधर और भी शक्तिशाली हो गया.

यहां तक कि देवों के देव महादेव भी जलंधर को पराजित नहीं कर पा रहे थे. भगवान शिव समेत देवताओं ने जलंधर का नाश करने के लिए भगवान विष्णु से प्रार्थनी की. भगवान विष्णु ने जलंधर का भेष धारण किया और पतिव्रता स्त्री वृंदा की पवित्रता नष्ट कर दी.

जब वृंदा की पवित्रता खत्म हो गई तो जालंधर की ताकत खत्म हो गई और भगवान शिव ने जालंधर को मार दिया. वृंदा को जब भगवान विष्णु की माया का पता चला तो वह क्रुद्ध हो गई और उन्हें भगवान विष्णु को काला पत्थर बनने (शालिग्राम पत्थर) श्राप दे दिया.

वृंदा ने भगवान विष्णु को श्राप दिया कि वह अपनी पत्नी से अलग हो जाएंगे. राम के अवतार में भगवान सीता माता से अलग होते हैं.

भगवान को पत्थर का होते देख सभी देवी-देवता में हाकाकार मच गया, फिर माता लक्ष्मी ने वृंदा से प्रार्थना की तब वृंदा ने जगत कल्याण के लिये अपना श्राप वापस ले लिया और खुद जलंधर के साथ सती हो गई.

फिर उनकी राख से एक पौधा निकला जिसे भगवान विष्णु ने तुलसी नाम दिया और खुद के एक रुप को पत्थर में समाहित करते हुए कहा कि आज से तुलसी के बिना मैं प्रसाद स्वीकार नहीं करुंगा. इस पत्थर को शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा. कार्तिक महीने में तुलसी जी का शालिग्राम के साथ विवाह भी किया जाता है.

जो लोग तुलसी विवाह संपन्न कराते हैं, उनको वैवाहिक सुख मिलता है. देवोत्थान एकादशी पर केवल तुलसी विवाह ही नहीं होता है. इस व्रत के शुभ प्रभाव से शादी में आ रही सारी रुकावटें दूर होने लगती हैं और शुभ विवाह का योग जल्दी ही बन जाता है.

श्रीमद्देवी भगवत पुराण के अनुसार एक बार भगवान शिव ने अपने तेज को समुद्र में फेंक दिया था। जिससे जलंधर की उत्पत्ति हुई थी कहा जाता है कि जलंधर के अंदर अद्भुत शक्तियां थी और उसकी शक्तियों का कारण उसकी पतिव्रता पत्नी वृंदा थी। वृंदा के पतिव्रता धर्म के कारण ही सभी देवी देवता जलंधर को पराजित नहीं कर पा रहे थे और इस प्रकार जलंधर को अपनी शक्तिशाली होने का अभिमान हो गया और वह वृंदा के पतिव्रता धर्म की नकारने करने लगा। जलंधर ने स्वंय को सर्वशक्तिमान साबित करने के लिए पहले इंद्र को परास्त किया।

उसके बाद जलंधर ने भगवान विष्णु को परास्त कर देवी लक्ष्मी को उनसे छीन लेने की योजना बनाई। इस कारण उसने बैकुंठ लोक पर आक्रमण कर दिया। लेकिन देवी लक्ष्मी ने जलंधर से कहा कि हम दोनों का जन्म जल से हुआ है। इस कारण से हम दोनों भाई बहन हैं। उनकी बातों ले जलंधर प्रभावित हुआ और वह वहां से चला गया। जलंधर को यह पता था कि ब्रह्मांड में अगर कोई शक्तिशाली है तो वो है देवों के देव महादेव और इसलिए उसने कैलाश पर आक्रमण करने की योजना बनाई और तब महादेव को उससे युद्ध करना पड़ा था।

लेकिन उसकी पत्नी वृंदा के तप के कारण भगवान शिव का हर प्रहार जलंधर पर निष्फल साबित हो रहा था। जलंधर ने अपनी माया से महादेव सहित सभी देवताओं को भ्रमित कर दिया था और वह स्वंय महादेव के रूप में कैलाश पर्वत पर पहुंच गया पर माता पार्वती उसको देखकर ही समझ गईं कि वह जलंधर है और वह महादेव के रूप में आया है। इस वजह से माता पार्वती अत्याधिक क्रोधित हो जाती हैं और जलंधर को मारने के लिए अपना अस्त्र उठा लेती हैं। जलंधर को यह पता था कि माता पार्वती शक्ति का ही स्वरूप है।

जलंधर सोचता है कि वह माता पार्वती को पराजित नहीं कर सकता है। इसलिए वह वहां से चला जाता है। इसके बाद देवी पार्वती इस पूरी घटना का वर्णन भगवान विष्णु से करती हैं। तब भगवान विष्णु ने बताया कि जलंधन की शक्ति का कारण उसकी पतिव्रता पत्नी वृंदा है। जो जलंधर के हर युद्ध से पहले तप करती है। जिसकी वजह से ही जलंधर को यह अद्भुत शक्तियां प्राप्त होती हैं। इसके बाद भगवान विष्णु ने योजना बनाकर देव वृंदा के पास पहुंच गए। वृंदा भगवान विष्णु को अपना पति समझकर उनके साथ पति के समान व्यवहार करने लगी।

इससे वृंदा का तप टूट गया और भगवान शिव ने जलंधर का वध कर दिया। तब देवी वृंदा ने भगवान विष्णु को श्राप दिया कि एक दिन वह भी अपनी पत्नी से बिछड़ जाएंगे और इसी कारण भगवान विष्णु राम अवतार में सीता हरण के कारण माता सीता से बिछड़ जाते हैं। भगवान विष्णु के द्वारा सतित्व भंग किए जाने पर देवी वृंदा ने आत्मदहन कर लिया था और देवी वृंदा के आत्मदह के बाद उस राख पर तुलसी का पौधा जन्मा। तुलसी का पौधा देवी वृंदा का ही स्वरूप है और तब से ही भगवान विष्णु की पूजा तुलसी जी के बिना अधूरी मानी जाती है।

गाय को माता सीता ने श्राप क्यों दिया था?

 श्री राम के चौदह सालों के बनवास के बाद वे जब गया आए ,अपने पिता का पिंडदान करने के लिए । तब पिंड दान की सामग्री लेने राम गए थे नगर की ओर । माता सीता उनकी प्रतीक्षा में वहीं फल्गु नदी के तीर पर ही बैठी रहीं । इस बीच पिंड दान का मुहूर्त हो गया । कथा के अनुसार माता सीता को वहां दशरथ की पुकार सुनाई दी ,वे मांग रहे थे । सीता मां ने उन्हें बताया कि श्री राम इसी के लिए नगर गए हैं ,आते ही होंगे । तब राजा दशरथ ने कहा कि “पुत्री तुम इस मुहूर्त में अगर बालुका का पिंड भी श्रद्धा से दोगी तो वो भी मेरे लिए इतना ही महत्त्व रखता है जितना कि जौ के आटे का पिंड । इसलिए हे पुत्री! विलंब न करो । इस मुहूर्त में ही पिंड दान करो “

माता ने ऐसा सुनते ही ,पिता की आज्ञा मान बालुका का पिंड उनके हाथ पर दिया । जिसको पा कर राजा दशरथ तृप्त हो कर गए । श्री राम मुहूर्त बीतने के बाद आए । माता ने उन्हें सब कुछ बताया । साथ ही ये भी कहा कि पिता बालुका पिंड से तृप्त हो कर गए हैं इसके साक्षी ये फल्गु नदी , पास में घास चरती ये गाय और यह पीपल का वृक्ष है पर वृक्ष को छोड़ , सब ने झूठ कहा कि हम कुछ नहीं जानते ।

माता को दुख हुआ उनके इस कृत्य से । उन्होंने गाय को श्राप दिया

” तुम पूजनीय हो , फिर भी तुमने जिस मुंह से झूठ कहा उसी मुंह से मैला खाओगी “

और इसी श्राप के कारण कभी कभी गाय ऐसा करती दिख जाती है ।

फल्गु को कहा “जाओ इस मिथ्या भाषण के कारण तुम दरिद्र हो जाओ !”

और फल्गु गया में ही बहुत पूजनीय होने के बाद भी बहुत पतली ,सूखी सूखी सी बहती है ।

वृक्ष को आशीर्वाद है । उसका दर्शन पुण्य बढ़ाने वाला होगा । पितृ पक्ष में गया जाने वाले श्रद्धालु वृक्ष का दर्शन जरूर करते हैं

चंद्रमा को श्राप किसने दिया था और मुक्ति कैसे मिली थी?

अग्नि पुराण की कथा के अनुसार भगवान ब्रह्मा ने जब सृष्टि की रचना करने का विचार किया तो सबसे पहले उन्होंने मानस पुत्रों की रचना की। इन्हीं मानस पुत्रों में एक थे ऋषि अत्रि। अत्रि का विवाह हुआ महर्षि कर्दम की कन्या अनुसुइया से। देवी अनुसुईया के तीन पुत्र हुए जो दुर्वासा, दत्तात्रेय एवं सोम नाम से जाने गये। मान्यता है कि सोम चंद्र का ही एक नाम है।एक कथा के अनुसार दक्ष प्रजापति की सत्ताइस कन्याएं थीं। उन सभी का विवाह चंद्रदेव के साथ हुआ था। किंतु चंद्रमा का समस्त अनुराग व प्रेम उनमें से केवल रोहिणी के प्रति ही रहता था। उनके इस कृत्य से दक्ष प्रजापति की अन्य कन्याएं बहुत अप्रसन्न रहती थीं। उन्होंने अपनी यह व्यथा-कथा अपने पिता को सुनाई। दक्ष प्रजापति ने इसके लिए चंद्रदेव को अनेक प्रकार से समझाया।

किंतु रोहिणी के वशीभूत उनके हृदय पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अंततः दक्ष ने कुद्ध होकर उन्हें ‘क्षयरोग से ग्रस्त हो जाने का श्राप दे दिया। इस\श्राप के कारण चंद्रदेव तत्काल क्षयग्रस्त हो गए। उनके क्षयग्रस्त होते ही पृथ्वी पर सुधा-शीतलता वर्षण का उनका सारा कार्य रूक गया। चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। चंद्रमा भी बहुत दुखी और चिंतित थे।उनहुने देवराज इन्द्र से अपनी व्यथा कही

उनकी प्रार्थना सुनकर इंद्रादि देवता तथा वसिष्ठ आदि ऋषिगण उनके उद्धार के लिए ब्रह्माजी के पास गए। सारी बातों को सुनकर ब्रह्माजी ने कहा- ‘चंद्रमा अपने शाप-विमोचन के लिए अन्य देवों के साथ पवित्र प्रभासक्षेत्र में जाकर मृत्युंजय भगवान्‌ शिव की आराधना करें। उनकी कृपा से अवश्य ये रोगमक्त हो जाएंगे।

उनके कथनानुसार चंद्रदेव ने मृत्युंजय भगवान्‌ शिव की आराधना की उन्होंने घोर तपस्या करते हुए दस करोड़ बार मृत्युंजय मंत्र का जप किया। यह मंत्र से प्रसन्न होकर मृत्युंजय-भगवान शिव ने उन्हें अमरत्व का वर प्रदान किया। उन्होंने कहा- ‘चंद्रदेव! तुम शोक न करो। मेरे वर से तुम्हारा शाप-मोचन तो होगा ही, साथ ही साथ प्रजापति दक्ष के वचनों की रक्षा भी हो जाएगी।यह कहते हुए भगवान शिव ने प्रसन्न होकर चंद्रमा को अपने मस्तक पर धारण किया तब से एक नाम भगवान का नाम सोमेश्वर नाथ हुआ

भगवान बोले कृष्णपक्ष में प्रतिदिन तुम्हारी एक-एक कला क्षीण होगी, किंतु पुनः शुक्ल पक्ष में उसी क्रम से तुम्हारी एक-एक कला बढ़ जाया करेगी। इस प्रकार प्रत्येक पूर्णिमा को तुम्हें पूर्ण चंद्रत्व प्राप्त होता रहेगा।’ चंद्रमा को मिलने वाले इस वरदान से सारे लोकों के प्राणी प्रसन्न हो उठे। सुधाकर चन्द्रदेव पुनः दसों दिशाओं में सुधा-वर्षण का कार्य पूर्ववत्‌ करने लगे।

शाप मुक्त होकर चंद्रदेव ने अन्य देवताओं के साथ मिलकर मृत्युंजय भगवान्‌ से प्रार्थना की कि आप माता पार्वतीजी के साथ सदा के लिए प्राणों के उद्धारार्थ यहाँ निवास करें। भगवान्‌ शिव उनकी इस बात को स्वीकार करते हुए सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के रूप मे विराजमान हुए {जो इतिहास मे भी सोमेश्वर नाथ मंदिर का नाम प्रसिद्ध हुआ जिसे बाहरी आक्रमणकारियों ने बहुत क्षति पहुचाई ]

नारद मुनि किसके श्राप के कारण दर दर भटकते रहते हैं और उन्हें श्राप क्यों दिया गया था?

नारद मुनि को दक्ष प्रजापति ने श्राप दिया था ।सृष्टि के सृजन के लिए दक्ष प्रजापति ने वीरण की पुत्री असिक्री से विवाह किया ।इसके बाद वीरण की पुत्री असिक्री से पाँच हजार पुत्रों को जन्म दिया। दक्षपुत्रों को नारद मुनि ने ज्ञान का अधिकारी समझ कर आत्म ज्ञान का उपदेश दे दिया । वे नारद की बातों से प्रभावित हो कर सृष्टि सृजन से पहले पृथ्वी की लम्बाई-चौडाई जाने के लिए दिशाओं कीओर चल दिए। आहार की कमी के कारण नष्ट होकर वे कभी वापस नही लौटे।

इन पुत्रों के नष्ट हो जाने पर भी सहस्त्र पुत्रों को जन्म दिया नारद जी उन्हें पुनः वही बात उन लोगो को कही वे भी अपने भाईयों की तरह उसी प्रकार उन्हीं दिशाओं की ओर निकल पड़े।पहले हर्यक्ष्वों व अब सर्हयक्ष्वयों के भी नष्ट हो जाने पर दक्ष ने नारद जी कोश्राप दिया।

कहा जाता है कि उस दिन से यदि भाई भाई को ढूँढने जाए वह भी ह नष्ट हो जाते।

अतः भाई को ढूँढने भाई को नहीं जाना चाहिए।

श्री हरिवंशपुराण में आप को ये विवरण में मिल जाएगा।

करण को क्या श्राप मिला था?

कुंतीपुत्र कर्ण जब युवा हुये तब उनकी पहचान सूतपुत्र कर्ण के रूप में हो चुकी थी। तत्समय सूतपुत्र होने के कारण कोई भी समर्थ गुरु शिक्षा देने कोई तैयार नहीं हुआ । तब उसने शस्त्र और शास्त्र के प्रणेता विष्णु अवतारी महर्षि परशुराम से शिक्षित होने का प्रण लिया । महाभारत के एक दृष्टांत के अनुसार महर्षि परशुराम तब तक एक प्रण कर चुके थे कि वह अब किसी ब्राह्मण युवा के अतिरिक्त किसी अन्य वर्ण के युवाओं को शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा नहीं देंगे ।

 ऐसी विषम परिस्थिति में कर्ण ब्राह्मण युवा के नकली भेष में परशुरामजी के पास जाकर शिक्षा ग्रहण करने लगा । इस दौरान उसने गुरु जी की बहुत ही सेवा की और गुरूजी ने भी उसे बहुत ही दुर्लभ शिक्षाओं से प्रशिक्षित किया ।कहा जाता है कि इसी मध्य एकदिन परशुराम जी दोपहर के समय जमीन पर कर्ण की गोद में सिर रखकर विश्राम कर रहे थे; तभी एक विषैला कीड़ा रेंगते हुए कर्ण की जंघा के नीचे घुसने लगा । उस कीट के काटने से कर्ण की जंघा से रक्त बहने लगा । अपने गुरु महर्षि परशुराम जी के विश्राम में व्यवधान न हो यह सोचकर वह उस असहनीय दर्द को सहता रहा ; गर्म रक्त ने बहते बहते जब महर्षि परशुराम के गाल को स्पर्श किया तो वह चौंक कर उठ बैठे ।… तब उन्होंने उससे वास्तविक परिचय पूछा और कहा कि इस स्थिति में इतनी सहनशीलता किसी क्षत्रिय युवा के अतिरिक्त किसी अन्य वर्ण में नहीं हो सकती। … कर्ण के झूठ से कुपित महर्षि परशुराम ने समस्त शिक्षाओं के लोप हो जाने का श्राप दिया। तब कर्ण ने माफी मांगते हुए अपनी वास्तविक स्थिति बताई और शाप से मुक्त करने के लिए अनुनय-विनय की । कहा जाता है कि ऋषि कभी भी अपने दिये शाप को चाहकर भी पूरी तरह से मुक्त कर सकता।

तब महर्षि परशुराम ने शाप को आंशिक रूप मे समेटते हुऐ कहा कि “जिस दिन तुम्हें अपनी शिक्षाओं की सर्वाधिक आवश्यकता होगी उस दिन तुम अपनी शिक्षा भूल जाओगे। यही कर्ण को अभिशाप था जिसके कारण ही उसकी महाभारत युद्ध में पराजय हुई थी ।

एक बार कर्ण कहीं जा रहा था, तब रास्ते में उसे एक कन्या मिली जो अपने घडे़ से घी के बिखर जाने के कारण रो रही थी। जब कर्ण ने उसके सन्त्रास का कारण जानना चाहा तो उसने बताया कि उसे भय है कि उसकी सौतेली माँ उसकी इस असावधानी पर रुष्ट होंगी। कृपालु कर्ण ने तब उससे कहा कि बह उसे नया घी लाकर देगा। तब कन्या ने आग्रह किया कि उसे वही मिट्टी में मिला हुआ घी ही चाहिए और उसने नया घी लेने से मना कर दिया। तब कन्या पर दया करते हुए कर्ण ने घी युक्त मिट्टी को अपनी मुठ्ठी में लिया और निचोड़ने लगा ताकि मिट्टी से घी निचुड़कर घड़े में गिर जाए। इस प्रक्रिया के दौरान उसने अपने हाथ से एक महिला की पीड़ायुक्त ध्वनि सुनी। जब उसने अपनी मुठ्ठी खोली तो धरती माता को पाया। पीड़ा से क्रोधित धरती माता ने कर्ण की आलोचना की और कहा कि उसने एक बच्ची के घी के लिए उन्हें इतनी पीड़ा दी। और तब धरती माता ने कर्ण को श्राप दिया कि एक दिन उसके जीवन के किसी निर्णायक युद्ध में वह भी उसके रथ के पहिए को वैसे ही पकड़ लेंगी जैसे उसने उन्हें अपनी मुठ्ठी में पकड़ा है, जिससे वह उस युद्ध में अपने शत्रु के सामने असुरक्षित हो जाएगा।

रावण को किस अप्सरा से श्राप मिला था?

रावण ने अप्सरा रंभा को देखा जो उसके सौतेले भाई कुबेर की वधू थी। रावण रंभा को देखकर कामातुर हो गया और उसके साथ बल प्रयोग कर सतीत्व भंग कर डाला। जब यह बात नलकुबेर को पता चली तो उसने रावण को शाप दिया कि यदि वह किसी भी स्त्री की इच्छा के बिना उसे स्पर्श करेगा तो उसके सिर के सौ टुकड़े हो जाएंगे

 लंकापति रावण ने बहुत सारे युद्ध लड़े रावण के अंत का कारण भगवान श्री राम की शक्ति तो थी ही. लेकिन साथ ही रावण की गलतियों की वजह से मिले श्राप भी उनके सर्वनाश का कारण बना.

1 – राजा अरण्य का श्राप

भगवान राम के वंश में एक अरण्य नाम के परम प्रतापी राजा थे. कहते हैं रावण जब विश्वविजयी बनने का सपना लिए निकले, तो रावण का युद्ध राजा अरण्य से हुआ. जिसमें अरण्य की मृत्यु हो गई. लेकिन मरने से पहले राजा अरण्य ने रावण को श्राप दे दिया कि “एक दिन तुम्हारी मृत्यु मेरे ही वंश के एक युवक के हाथों होगी”.

2 – नंदी का श्राप

कहते हैं एक बार रावण भगवान शिव से कैलाश पर मिलने गए थे. वहां रावण ने नंदी को बंदर वाला मुख बताकर उन की हंसी उड़ाई. इस पर नंदी ने गुस्से में आकर रावण को श्राप दे दिया कि “बंदरों के कारण ही तेरा सर्वनाश होगा”.

3 – माया का श्राप

रावण की पत्नी की बड़ी बहन थी माया. कहते हैं रावण एक बार माया के यहां गया, और माया को अपनी बातों में फंसा लिया. जिससे क्रोधित होकर माया के पति शंभर ने रावण को बंदी बना लिया. उसी समय राजा दशरथ ने शंभर पर आक्रमण कर दिया. उस युद्ध में शंभर की मृत्यु हो गई. जिसके बाद माया सती होने लगी, तो रावण ने माया से कहा कि तुम मेरे साथ चलो. इस पर माया ने क्रोधित होकर रावण से कहा कि “तुमने वासनायुक्त मेरा सतीत्व भंग करने का प्रयास किया है, इसलिए मैं तुम्हें श्राप देती हूं कि तुम भी स्त्री की वासना के कारण मारे जाओगे”.

4 – एक तपस्विनी का श्राप

एक बार रावण अपने पुष्पक विमान से कहीं जा रहा था. तभी रास्ते में उसे एक सुंदर स्त्री तपस्या करती हुई दिखी. स्त्री को देख रावण काफी मोहित हो गया. और उसके साथ जबरदस्ती करते हुए, स्त्री को अपने साथ चलने की बात कही. दरअसल वो सुंदर स्त्री भगवान विष्णु को अपने पति रुप में पाने के लिए तपस्या कर रही थी. रावण के कुकृत्य से गुस्साए स्त्री ने रावण को श्राप दे दिया, कि “एक दिन स्त्री के कारण ही तेरी मृत्यु होगी”.

5 – शुर्पणखा का श्राप

कहते हैं रावण जब विश्वयुद्ध पर निकला, तो रावण की बहन शूर्पणखा के पति विद्युतजीव्ह के साथ रावण का युद्ध हुआ. उस युद्ध में विद्युतजीव्ह की मृत्यु हो गई. तब शूर्पणखा ने मन ही मन रावण को श्राप दिया था, “मेरे ही कारण तेरा सर्वनाश होगा।

विजय प्राप्त करने से उपजे अहंकार को नारद जी भगवान के सामने छिपा नहीं पाए

भगवान शंकर के मना करने के बावजूद भी काम पर विजय प्राप्त करने से उपजे अहंकार को नारद जी भगवान के सामने छिपा नहीं पाए और इसी अहंकार के विशाल वृक्ष को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए भगवान ने अपनी माया का प्रभाव डाला । ब्रह्मचर्य पीछे छूट गया, साधना वासना की आराधक हो गई। जैसे भी हो ,विवाह करना है राजकुमारी से । “जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा”॥ यहाँ उपासना की जगह वासना ने लिया है। राजकुमारी तो मिलीं नहीं, वासना की पूर्ति न होने पर क्रोध जागृत हो गया और अपने आराध्य को ही श्राप दे डाला।

“बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा।।
श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि” ॥ यहाँ तक कि शंकर जी के दोनों गण ” होहु निशाचर जाई तुम ,कपटी पापी दौउ” भी बच नहीं पाए। रामचरितमानस /बालकांड/दोहा/133 के आगे ।।

अहल्या (गौतमी)—

“गौतम नारी श्राप बस, उपल देह धरि धीर।

चरन कमल रज चाहती, कृपा करहु रघुबीर॥ ‘रामचरितमानस /बालकांड’ दोहा/२१०

हे धीर शिरोमणि रघुबीर ! गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या श्रापवश पत्थर की देह धारण कर आपके चरणकमल की धूलि चाहती है। अत: आप अहल्या का उद्धार कीजिए, तार दीजिए। भगवान के चरण-रज के प्रसाद मात्र से दस हजार वर्ष तक शिलावत जीवन व्यतीत करने वाली अहल्या श्राप से मुक्त होकर अपने पति ऋषिवर गौतम के पास चली जाती हैं।

“तदागच्छ महातेज आश्रमं पुण्यकर्मण:।

तारयैनां महाभागामहल्यां देवरूपिणीम्”॥वाल्मीकि रामायण/ बालकांड/1.49.11। आज प्रभु श्रीराम की कृपा से ऋषि पत्नी अहल्या तर गईं हैं।

“वासना विवेक का हरण कर लेती है।”

शकुंतला

“विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा तपोधनं वेत्सि न मामुपस्थितम् ।
स्मरिष्यति त्वां न स बोधितोऽपि सन् कथां प्रमत्तः प्रथमं कृतामिव “॥अभिज्ञानशाकुन्तलम्/चतुर्थोऽङ्कः/1

अपने पति दुष्यंत की याद में खोई हुई शकुंतला ऋषि दुर्वासा के आगमन के विषय में जान नहीं पाई हैं । अत: उन्होंने क्रोध में आकर शकुंतला को शाप दे दिया है। यहाँ कर्म का परिणाम प्रकट नहीं हो रहा है, यह शाप है और है भी तो थोड़े समय के लिए। “न मे वचनमन्यथाभवितुमर्हति । किंतु अभिज्ञानाभरण-दर्शनेन शापो निवर्तिष्यते” मेरा वचन असत्य नहीं होगा लेकिन आभरण (अंगूठी) के देखने मात्र से मेरे शाप का निवारण हो जाएगा।

संत और भगवंत का आशीर्वाद और श्राप दोनों व्यर्थ नहीं जाता है।

मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥ यहाँ नारद जी भगवान से कहते हैं कि मेरा श्राप झूठा हो जाए।

श्राप अनुग्रह करहु कृपाला । बोले नारद दीनदयाला ॥ यहाँ शंकर जी के गण नारद जी से श्राप के क्षमा हेतु प्रार्थना करते हैं।

“होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा ॥

जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई ॥

शंभु गिरा पुनि मृषा न होई । शिव सर्बग्य जान सब कोई” ॥

कागभुशुण्डि को श्राप

 कागभुशुण्डि को श्राप उनके पूर्व जन्म में भगवान शिव ने दिया था जब उन्होंने शिव मंदिर में अपने गुरु का निरादर किया था। तब उनके गुरु ने भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु शिव रूद्राष्टकम से भगवान शिव को प्रसन्न किया था ताकि भगवान शिव श्राप के प्रभाव को कम कर दें। इसका वर्णन तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस के उत्तरकांड में आता है।

महाभारत में भीष्म पितामह को कौन सा श्राप लगा था?

हाभारत के आदि पर्व के अनुसार, एक बार पृथु आदि वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत पर घूम कर रहे थे। वहां वशिष्ठ ऋषि का आश्रम भी था। वहां नंदिनी नाम की गाय भी थी। द्यौ नामक वसु ने अन्य वसुओं के साथ मिलकर अपनी पत्नी के लिए उस गाय का हरण कर लिया। जब महर्षि वशिष्ठ को पता चला तो उन्होंने क्रोधित होकर सभी वसुओं को मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। वही वसु मनुष्य योनि में भीष्म पितामह के रूप में थे।

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