कोरोना संक्रमण के दौरान अब तक सिर्फ देदून में 195 किलकारियां गूंजी

कोरोना संक्रमण के दौरान अब तक देदून में 195 किलकारियां गूंजी

देहरादून के राजकीय दून मेडिकल अस्पताल में मार्च से कोरोना का पहला मरीज आने से लेकर अब तक दून अस्पताल में 195 किलकारियां गूंज चुकी हैं। इनमें 34 शिशु ऐसे हैं जिनकी माताओं को कोरोना संदिग्ध के रूप में भर्ती किया गया था। दून अस्पताल में जिस दिन से कोरोना मरीज भर्ती होने शुरू हुए थे तभी से महिला विंग में पहुंचने वाली गर्भवतियों और नवजातों को जरूरी उपचार देने के साथ-साथ कोरोना संक्रमण से बचाना चुनौती थी। इसके लिए कॉलेज और अस्पताल प्रशासन ने महिला विंग के साथ तालमेल बैठाते हुए पुख्ता बंदोबस्त किए। इस बीच अस्पताल में नई उम्मीद के रूप में नवजात आंखें खोलते रहे। भले ही कुछ दिन बाद गर्भवतियों के इलाज और प्रसव की व्यवस्था राजकीय जिला गांधी शताब्दी अस्पताल और श्री महंत इन्दिरेश अस्पताल में की गई। फिर भी कोरोना, उसके लक्षण और पाबंद क्षेत्रों से आनी वाली गर्भवतियों का उपचार और प्रसव दून अस्पताल में ही कराए जा रहे हैं। ताकि उन्हें कोरोना मरीजों की तरह उपचार मिले और अन्य संक्रमण फैलने का खतरा न हो।

राजकीय दून मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. आशुतोष सयाना ने बताया कि प्रसव कराने और जच्चा-बच्चा को कोरोना संक्रमण से बचाने के लिए फूल प्रूफ रणनीति तैयार की है। इसमें सभी डॉक्टरों और स्टाफ का बड़ा योगदान रहा। अस्पताल में जब भी कोई नया बच्चा जन्म लेता है तो स्टाफ में जीवन को लेकर नई स्फूर्ति का संचार होता है।

-15 मार्च को दून अस्पताल में कोरोना का पहला मरीज भर्ती हुआ। 15 मार्च से 31 मार्च तक दून अस्पताल में 107 शिशुओं ने जन्म लिया।
-एक अप्रैल से 11 मई तक 54 शिशुओं ने दून अस्पताल के जनरल लेबर रूम में जन्म लिया।
-अस्पताल में पैदा होने वाले 34 शिशु ऐसे हैं, जिनकी माताओं को कोरोना संदिग्ध के रूप में भर्ती किया था। इन महिलाओं का प्रसव आइसोलेशन वार्ड में किया।
-34 में से एक महिला में कोरोना पॉजिटिव भी पाया गया था। अब जच्चा बच्चा स्वस्थ होकर अस्पताल से डिस्चार्ज किए जा चुके हैं।

वही सोशल मीडिया पर सक्रिय हर शख्स एक विशेषज्ञ की तरह परामर्श देने लगा है #फिरभी संयम नही रख पाये और अगली पीढ़ी तक ‘ट्रांसफर’ होगा असर # यूनिसेफ ने कहा है कि दुनियाभर में इस अवधि में कोविड-19 महामारी के साए में 11.6 करोड़ बच्चों का जन्म होगा। हिमालयायूके में पढिये विस्‍तार से- एक्‍सक्‍लूसिव आलेख- डॉ़ चंद्र त्रिखा का लेख

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यह आशंका हवाई नहीं है। यूनिसेफ यानी संयुक्त राष्ट्र बाल कोष का दावा है कि मार्च में कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित किए जाने के बाद, मार्च से दिसंबर तक भारत में दो करोड़ से ज़्यादा बच्चे पैदा होने का अनुमान है। यूनिसेफ की चेतावनी है कि चूंकि इस अवधि में स्वास्थ्य-सेवा भी प्रभावित हैं, जिंदगियां तनाव में हैं और आशंका का माहौल है, ये गर्भवती महिलाएं भी प्रसव-काल में तनाव में ही रहेंगी, इसलिए स्वाभाविक है कि उनके गर्भस्थ शिशु भी इस माहौल से प्रभावित हों। मातृ दिवस यानी ‘मदर्स डे’ के अवसर पर तैयार की गई एक विशेष रिपोर्ट में यूनिसेफ ने कहा है कि दुनियाभर में इस अवधि में कोविड-19 महामारी के साए में 11.6 करोड़ बच्चों का जन्म होगा। कोरोना वायरस को 11 मार्च को वैश्विक महामारी घोषित किया गया था और बच्चों के जन्म-काल का यह आकलन 40 सप्ताह तक का है। भारत में 11 मार्च से 16 दिसंबर के बीच कुल 2.41 करोड़ बच्चों के जन्म की संभावना है। इसके बाद चीन में 1.35 करोड़, नाइजीरिया में 64 लाख, पाकिस्तान में 50 लाख और इंडोनेशिया में 40 लाख बच्चों के जन्म की संभावना है।

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यूनिसेफ ने आगाह किया है कि कोविड-19 पर नियंत्रण के लिए लागू कदमों की वजह से जीवन-रक्षक स्वास्थ्य सेवाएं जैसे बच्चे के जन्म के दौरान मिलने वाली चिकित्सा सेवा प्रभावित ही रहेगी। इसकी वजह से करोड़ों गर्भवती महिलाएं और बच्चे गंभीर खतरे का सामना कर रहे हैं। यूनिसेफ ने कहा कि यह विश्लेषण संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या संभाग के विश्व जनसंख्या अनुमान 2019 के आंकड़े के आधार पर है। यहां यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि गर्भावस्था में हर मां को नियमित चेक-अप भी कराना होता है और इस अवधि में अनेक प्रतिरोधक दवाएं व वैक्सीन भी लेने होते हैं।

ज़ाहिर है वर्तमान परिस्थिति में सरकारी अस्पतालों या डिस्पेंसरियों में यह व्यवस्था नहीं मिल सकती। समृद्ध परिवारों में भी निजी अस्पतालों की ओर आसानी से रुख नहीं हो पाता। वहां तक जाना और कोरोना-आतंक के माहौल में उचित जांच करवा पाना, फिर दवा लेना आदि काम इतने आसान नहीं हैं। अगली पीढ़ी के ये दो करोड़ बच्चे भयभीत व सहमी हुई माओं के गर्भ में पलेंगे और बाद में भी उन्हें अनेक तरह के परीक्षणों से गुजरना पड़ सकता है। इस समय सबका ध्यान कोरोना-बचाव पर केंद्रित है और यह सिलसिला अगस्त-सितंबर तक तो चलेगा ही,

विशेषज्ञों का मानना है कि वर्ष के अंत तक यही तौर तरीका घिसट सकता है। विशेषज्ञों का यह भी निष्कर्ष है कि जीवन की शैली तो पूरी तरह बदलेगी। यह बदलाव इसलिए भी जरूरी है क्योंकि लॉकडाउन या कर्फ्यू लंबे समय तक जारी रखे ही नहीं जा सकते। एक उदाहरण चंडीगढ़ की बापू धाम कॉलोनी का है। आबादी लगभग 60 हजार है। कोरोना से पहले कभी प्रशासन या नगर निगम ने उस इलाके की जिंदगी संवारने पर कोई ध्यान नहीं दिया। अब कमोबेश पूरी आबादी कंटेनमेंट में और लॉकडाउन में है। वहां भले और मेहनतकश लोग भी रहते हैं। अधिकांश आबादी काम के लिए बाहर जाती है। अब नहीं जा पाएगी। दरअसल, नीति निर्धारण का सिलसिला अब भी दिशाहीन है। सभी यह भी मानते हैं कि कर्फ्यू लॉकडाउन या पूरी आबादी के टेस्ट कोई उपाय नहीं हैं। तत्काल रूप से जीवनशैली बदलनी होगी। चंडीगढ़ सरीखे बापू धाम कमोबेश हर बड़े शहर में हैं। वहां हालात इससे भी बदत्तर हैं। समाधान एक ही है। यह मानकर चलना होगा कि फिलहाल लंबे समय तक कोरोना हमारी जिंदगी से खारिज होने वाला नहीं।

हमें अपने को और अपने लोगों को इसकी चपेट में आने से बचाना है। इसके लिए कुछ सूत्र विशेषज्ञों ने सुझाए हैं। इसमें सबसे पहले हाथ धोने के बारे में भी मिथ्या प्रचार बदलें। हर 10-15 मिनट बाद हाथ नहीं धोए जा सकते। इतना शुद्ध पानी कहां है कि हर नागरिक 15 या 20 लीटर पानी एक दिन में खर्च कर सके। इसका तौर तरीका सही व वैज्ञानिक ढंग से प्रचारित किया जाना चाहिए। मास्क, दस्ताने और प्रचलित सैनिटाइजर्स के विषय में अधिकृत रूप से मार्गदशन दिया जाना चाहिए। अब जो भी बिक रहा है, वही मनमाने व मुंहमांगे दामों पर पर खरीदा जा रहा है। सैर व योगाभ्यास के नए नियम भी तय हों। कितनी छूट व क्या तौर तरीका वाजिब है, यह विशेषज्ञ नए सिरे से तय करें। खाद्य पदार्थों की सफाई या सैनिटाइज़ेशन के बारे में भी आसान विकल्प प्रचारित किए जाएं।

अभी तक सोशल मीडिया पर सक्रिय हर शख्स एक विशेषज्ञ की तरह परामर्श देने लगा है। बेहतर होगा कि ऐसे ‘सेल्फ स्टाइल्ड’ स्वयंभू विशेषज्ञों पर भी थोड़ा अंकुश लगे। यह मानकर चलें कि हमें लंबे और अनिश्चित समय तक इस वायरस के साथ जीना है, इसलिए बेहतर है जीने का सलीका बदल लें। विशेषज्ञों को आगे लाएं। यभासंभव बदलाव लाएं। इसमें नामी-गिरामी चिकित्सकों के साथ-साथ मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र व समाजशास्त्र के विशेषज्ञों को भी जोड़ा जाए।

ढेरों ऐसी बातें हैं जिन पर तात्कालीक महत्वपूर्ण फैसले यह तय करेंगे कि जिंदगी कैसे चले। ट्रेन से कटकर मरे 16 मजदूरों की नियति, एक सामान्य रेल दुर्घटना नहीं है। इसका सीधा संबंध ‘कोरोना’ से उत्पन्न उन हालात से है जो लॉकडाउन से पैदा हुए। अपने परिवारों के साथ जीने की ललक में निकले इन लोगों को क्या मालूम था, घरों में क्षत-विक्षत शव ही पहुंचेंगे। कोरोना के अलावा लॉकडाउन ने भी 338 जाने ली हैं। इनमें 51 प्रवासी मजदूर थे और 80 लोगों ने अकेलेपन से घबरा कर आत्महत्या की थी। ये रुझान सुखद नहीं। वैकल्पिक समाधान तलाशिए। यही तार्किक हल रहता है। इस दुर्घटना से एक दिन पहले दुनिया ने सम्पूर्ण ‘चांद’ के दीदार किए थे और एक दिन बाद ही कितनी माएं अपने ‘चांद’ के दीदार भी नहीं कर पाईं।

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