हिंदू वोटरों में इस आम चर्चा से सपा-बसपा के हौंसले पस्त
बीजेपी विरोधी हिंदू वोटरों में इस आम चर्चा से सपा-बसपा के हौंसले पस्त
उत्तर प्रदेश में मुसलिम समुदाय के साथ-साथ बीजेपी विरोधी हिंदू वोटरों में चर्चा आम है कि केंद्र में बीजेपी और कांग्रेस के बीच सरकार बनाने का मुक़ाबला है। लिहाजा एसपी-बीएसपी गठबंधन को वोट देकर अपना वोट ख़राब करने से बेहतर है कि कांग्रेस को समर्थन दे दिया जाए। पश्चिम उत्तर प्रदेश के गाँवों-देहातों में यह चर्चा आम है। कांग्रेस आलाकमान तक यह फ़ीडबैक पहुँचा है कि कि प्रदेश का मुसलमान और बीजेपी विरोधी हिंदू इस बात को लेकर सशंकित है कि चुनाव के बाद बीएसपी एनडीए का समर्थन भी कर सकती है। लिहाजा बड़े पैमाने पर लोग कांग्रेस की सरकार की तरफ झुकाव दिखा रहे हैं। इस झुकाव को वोटों में बदलने के लिए कांग्रेस की तरफ़ से यह दिखाना ज़रूरी है कि उसे समाज के उस तबक़े की चिंता है जो मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनते हुए नहीं देखना चाहता। इस फ़ीडबैक के बाद कांग्रेस ने अपनी रणनीति बदली है। आने वाले दिनों में कुछ और सीटों पर भी कांग्रेस उम्मीदवार बदलकर चौंंका सकती है।
वही दूसरी ओर बीएसपी प्रमुख मायावती ने एक तरफ़ जहाँ लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने का एलान किया है, वहीं इशारों-इशारों में प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी भी पेश कर दी है। मायावती के लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने का एलान के बाद दलित समाज में बेचैनी दिखी तो मायावती ने फ़ौरन ट्वीट करके कहा कि दलित समाज घबराए नहीं। साल 1995 और 97 में जब वह मुख्यमंत्री बनी थींं तब भी उन्होंने विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ा था। प्रधानमंत्री बनने के लिए किसी सदन का सदस्य होना ज़रूरी नहीं है। प्रधानमंत्री बनने के बाद 6 महीने के भीतर लोकसभा या राज्यसभा का सदस्य बनना ज़रूरी है। मायावती के अलावा किसी और नेता ने प्रधानमंत्री पद के लिए इस तरह दावेदारी नहीं ठोकी है। हालाँकि मायावती के अलावा ममता बनर्जी और राहुल गाँधी भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं। लेकिन इनमें से कोई भी मायावती की तरह बेबाक तरीक़े से दावेदारी ठोकने की हिम्मत नहीं दिखा पाया।
वही दूसरी ओर उत्तर प्रदेश के चुनावी समर में कांग्रेस अब एसपी-बीएसपी गठबंधन से सीधे-सीधे दो-दो हाथ करने की रणनीति पर उतर आई है। अभी तक कांग्रेस, एसपी-बीएसपी गठबंधन के साथ कुछ सीटों पर गठबंधन, कुछ पर अप्रत्यक्ष तालमेल और कुछ सीटों पर दोस्ताना संघर्ष की संभावनाएँ तलाश रही थी। लेकिन बीएसपी प्रमुख मायावती के कांग्रेस पर लगातार हमलों की वजह से इन तमाम संभावनाओं पर पानी फिर गया। लिहाजा अब कांग्रेस ने रणनीति बदल कर सीधे मुसलिम वोटों पर दाँव खेलना शुरू कर दिया है। कांग्रेस के लोकसभा उम्मीदवारों की लिस्ट इसी ओर इशारा कर रही है। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश की दो लोकसभा सीटों पर उम्मीदवार बदले हैं। मुरादाबाद लोकसभा सीट पर उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष राज बब्बर की जगह हाल के वर्षों में मशहूर हुए शायर इमरान प्रतापगढ़ी को चुनाव मैदान में उतारा है। वहीं, बगल की बिजनौर लोकसभा सीट पर बीएसपी से निकाले जाने के बाद कांग्रेस में आए नसीमुद्दीन सिद्दीकी को चुनाव मैदान में उतारा गया है। कांग्रेस ने अपनी पहली लिस्ट में राज बब्बर को मुरादाबाद सीट से उम्मीदवार बनाया था। लेकिन वहाँ उनके पक्ष में माहौल बनता हुआ नहीं दिख रहा था। दरअसल, मुरादाबाद में 45% मुसलिम मतदाता हैं। लिहाजा यहाँ कांग्रेस की स्थानीय इकाई शुरू से ही किसी मजबूत मुसलिम उम्मीदवार को चुनाव लड़ाए जाने के हक़ में थी। ग़ौरतलब है कि 2009 में कांग्रेस ने मशहूर क्रिकेटर अज़हरुद्दीन को मुरादाबाद से उतारकर यह सीट जीती थी। स्थानीय कांग्रेसी नेता इसी तरह का कोई मशहूर नाम चाह रहे थे। हाल के वर्षों में अपनी जज़्बाती शायरी से मुसलमानों में बेहद लोकप्रिय हुए इमरान प्रतापगढ़ी कांग्रेस के टिकट पर किसी भी सीट से चुनाव लड़ने की इच्छा पहले ही जता चुके थे। समाजवादी पार्टी ने अभी मुरादाबाद से अपने उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है। दो बार चुनाव लड़ चुके एसटी हसन का नाम सबसे आगे चल रहा है। एसटी हसन का मुरादाबाद में पिछड़े मुसलमानों में विरोध दिखाई देता है। अखिलेश यादव ने यहाँ उम्मीदवार तय करने की ज़िम्मेदारी आज़म ख़ान को दी हुई है। मुरादाबाद लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ने के लिए आज़म ख़ान एसटी हसन के अलावा किसी और नाम पर विचार नहीं कर रहे हैं। लिहाजा इस बार भी हसन का टिकट तय माना जा रहा है। हालाँकि दो बार चुनाव लड़ कर वह पार्टी की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाए हैं। अब इमरान प्रतापगढ़ी के मैदान में आने के बाद समाजवादी पार्टी पर कोई और मजबूत उम्मीदवार उतारने का दबाव बढ़ गया है। समाजवादी पार्टी की स्थानीय इकाई की ओर से एसटी हसन के विरोध के चलते ही अब तक उनके नाम की घोषणा नहीं हुई है। अभी स्थानीय इकाई कोई मजबूत नाम ढूंढने की तलाश में जुटी है।
उत्तर प्रदेश में मुसलिम समुदाय के साथ-साथ बीजेपी विरोधी हिंदू वोटरों में चर्चा आम है कि केंद्र में बीजेपी और कांग्रेस के बीच सरकार बनाने का मुक़ाबला है। लिहाजा एसपी-बीएसपी गठबंधन को वोट देकर अपना वोट ख़राब करने से बेहतर है कि कांग्रेस को समर्थन दे दिया जाए। पश्चिम उत्तर प्रदेश के गाँवों-देहातों में यह चर्चा आम है।
मायावती ने दलित समाज को संदेश देने की कोशिश की है कि वे एकजुट होकर बीएसपी को ही वोट दें। पिछले 5 साल में मोदी सरकार के दौरान दलितों पर हुए अत्याचारों की वज़ह से मोदी सरकार के ख़िलाफ़ दलितों में बेहद ग़ुस्सा है। इसी ग़ुस्से को भुनाने की कोशिश मायावती कर रही हैं। मायावती चुनावों में चर्चा का अहम केंद्र बिंदु बन गई हैं। कांग्रेस के ख़िलाफ़ तीखे तेवर मायावती के संघर्ष के शुरुआती दिनों की याद दिला रहे हैं। वह दौर 1984-1989 का था। उस वक्त केंद्र और उत्तर प्रदेश की सत्ता कांग्रेस के हाथ में थी। मायावती एमपी बनने की कोशिश कर रही थींं। उस दौर में राजीव गाँधी प्रचंड बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बने थे। कांग्रेस 1984 के लोकसभा चुनाव में 415 सीटें जीती थीं। तब प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का जलवा आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जलवे से कहींं ज़्यादा था। तब लगता था कि कांग्रेस का यह सूर्य कभी अस्त ही नहीं होगा। ऐसे मुश्किल हालात में मायावती 5 साल में 4 लोकसभा चुनाव लड़कर लोकसभा पहुँची।
साल 1984 में बीएसपी के गठन के बाद हुए पहले लोकसभा चुनाव में ही मायावती ने लोकसभा पहुँचने की कोशिश शुरू कर दी थी। मायावती ने पहला चुनाव मुज़फ़्फ़रनगर की कैराना लोकसभा सीट से लड़ा था। पहले ही चुनाव में एक नयी नवेली पार्टी की उम्मीदवार के तौर पर मायावती 44,444 वोट पा गयी थींं। उस चुनाव में बीएसपी के टिकट पर लड़े तमाम उम्मीदवारों के मुक़ाबले मायावती को सबसे ज़्यादा वोट मिले थे। इसी चुनाव के बाद कांशीराम ने ठान लिया था कि उन्हें अपनी पार्टी में मायावती को ही आगे बढ़ाना है। इस चुनाव में कांग्रेस के चौधरी अख़्तर हसन जीते थे। वह कैराना की मौजूदा सांसद तबस्सुम हसन के ससुर थे।
कैराना लोकसभा सीट पर मायावती की चुनाव लड़ने की क्षमता को देखते हुए कांशीराम ने बिजनौर का रुख़ किया। दरअसल, हुआ यह कि 1984 में बिजनौर से जीते गिरधारी लाल का चुनाव के कुछ दिनों बाद ही निधन हो गया। यहाँ उप-चुनाव होने थे। तब बिजनौर सुरक्षित सीट हुआ करती थी। 1984 में राम विलास पासवान बिहार की रोसड़ा लोकसभा सीट से चुनाव हार गए थे। तब लोकदल ने राम विलास पासवान को बिजनौर से चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया। कांग्रेस ने अपने दिग्गज नेता बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार को विदेश सेवा की नौकरी से इस्तीफ़ा दिला कर बिजनौर से मैदान में उतारा। इसी चुनाव में कांशीराम ने मायावती को भी मैदान में उतार दिया।
इस तरह आज देश के 3 बड़े दलित नेताओं की टक्कर की गवाह रही है बिजनौर लोकसभा सीट। इस उप-चुनाव में मीरा कुमार ने काँटे की टक्कर में राम विलास पासवान को हराया। मीरा कुमार को 1,28,000 वोट मिले तो राम विलास पासवान को 1,22,000 और मायावती को 61,504 वोट मिले थे।
1985 के उप-चुनाव के बाद बिजनौर लोकसभा सीट को कांशीराम ने बसपा की राजनीति की प्रयोगशाला बनाया। उन्होंने मायावती के साथ यहीं डेरा डाल दिया और तब तक डटे रहे जब तक मायावती लोकसभा नहीं पहुँच गईं। इस दौरान पूरे 5 साल तक मायावती और कांशीराम ने बिजनौर लोकसभा सीट के हर गाँव, हर शहर की गली-गली की ख़ाक छानी। बीएसपी की विचारधारा को जन-जन तक पहुँचाया। तैयारी मायावती को 1989 का लोकसभा चुनाव लड़ाने की थी। इस बीच 1987 में हरिद्वार की लोकसभा सीट खाली हो गई। हरिद्वार लोकसभा सीट भी सुरक्षित थी। कांशीराम ने मायावती को हरिद्वार से भी उप-चुनाव लड़ाया। इस चुनाव में मायावती ने 1,25,000 वोट हासिल करके साबित कर दिया कि कांशीराम का मिशन धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है। इस चुनाव के बाद बिजनौर में यह चर्चा आम थी कि लोकसभा का अगला चुनाव मायावती जीतेंंगी। हुआ भी यही।
साल 1989 में कांग्रेस के ख़िलाफ़ बने गठबंधन में जनता दल ने यह सीट सीपीएम के लिए छोड़ दी थी। सीपीएम ने यहाँ मास्टर रामस्वरूप को मैदान में उतारा था। इस चुनाव में मायावती ने बीजेपी के मंगल राम प्रेमी को 10,000 वोटों से हराकर लोकसभा में प्रवेश किया। लेकिन 1991 मे हुए अगले ही लोकसभा चुनाव में मायावती मंगलराम प्रेमी से क़रीब इतने ही वोटों से हार गयी थींं। बिजनौर से लोकसभा चुनाव हारने के बाद मायावती ने फिर बिजनौर का कभी रुख़ नहीं किया। मायावती के बिजनौर लोकसभा सीट को अलविदा कहने के बाद यहाँ बीएसपी का जनाधार लगातार कम होता गया फिर किसी भी लोकसभा चुनाव में बीएसपी मुख्य मुक़ाबले में नहीं आयी।
पिछले 3 महीने में यहाँ तीन उम्मीदवार बदले गए हैं। सपा-बसपा गठबंधन में बसपा के हिस्से में आने वाली इस सीट पर बीएसपी ने पहले सपा से बसपा में आयी रुचि वीरा को लोकसभा का प्रभारी बनाया था। लेकिन दलित समाज में उनके तीखे विरोध की वजह से उनका टिकट काट दिया गया। उनकी जगह चाँदपुर से दो बार विधायक रहे मुहम्मद इक़बाल को टिकट दिया गया। इक़बाल का भी पार्टी में विरोध हुआ। इन दोनों की लड़ाई में मलूक नागर ने बाज़ी मार ली है। नागर 2014 में भी बीएसपी के टिकट पर चुनाव लड़े थे। तब वो तीसरे नंबर पर आए थे।
बिजनौर लोकसभा सीट पर 25% दलित हैं और 40% मुसलमान। मुसलिम समाज गठबंधन की तरफ़ से किसी मुसलिम प्रत्याशी के उतारे जाने की उम्मीद कर रहा था। लेकिन मायावती ने मलूक नागर को ही फिर से टिकट देकर इस उम्मीद पर पानी फेर दिया है। गठबंधन से नाराज़ चल रहे मुसलिम समाज के कुछ ज़िम्मेदार लोगों ने एलान कर दिया है कि अगर उसका उम्मीदवार मुसलमान नहीं होगा तो गठबंधन को वोट नहीं दिया जाएगा। यह देखना दिलचस्प होगा मायावती को लोकसभा पहुँचाने वाली सीट पर उनके इस नए प्रयोग से क्या असर होगा। गठबंधन के चलते इस सीट पर जीत तय मानी जा रही थी। लेकिन बार-बार टिकट बदलने से गठबंधन की फ़ज़ीहत हुई है और सीट ख़तरे में पड़ गयी लगती है।
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