तीनों प्रकार के तापों तथा अहंकार नाश करने वाले सच्चिदानंद भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार करते हैं- चंद्रशेखर जोशी; आलेख कुछ हटकर
सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः।। तीनों प्रकार के तापों का नाश करने वाले सच्चिदानंद भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार करते हैं— चंद्रशेखर
श्री कृष्ण जन्म की कहानी का भी गूढ़ अर्थ है। जब सत्ता का अहंकार बढ़ जाता है, तब श्री कृष्ण का जन्म होता है: Himalayauk Newsportal मे पढ़ना न भूले–सिर्फ मेरी कलम और गुरुजनो की वाणी : चंद्रशेखर
HIGH LIGHT# भगवान अपने भक्तों की हर परिस्थिति में रक्षा करते हैं और अहंकार करने वाले का मान तोड़ देते हैं। भगवान की भक्ति में अहंकार की कोई जगह नहीं होती। मनुष्य भी परमात्मा का ही प्रतिबिम्ब है, पर हम इस सत्य से अंजान अपने भौतिक अस्तित्व को ही सत्य मान लेते हैं। जो भी क्षमता, शक्ति या सामर्थ्य हमारे पास है ईश्वर का दिया हुआ है। पर हम इन सबको अपनी अर्जित की हुई सम्पदा समझते हैं, जिसके कारण हम में अहंकार का जन्म होता है। ‘अहंकार’ एक ऐसा रोग है जो मनुष्य से अनुचित व्यवहार अथवा दूसरों का अपमान करवाता है। ऐसा ही अहंकार एक बार श्री कृष्ण के प्रिय सुदर्शन(चक्र), गरुण तथा सत्यभामा को हो गया था
व्यक्ति को लगता है कि उसके प्रभाव, बल, बुद्धि से सब हो रहा है, लेकिन जीवन में ऐसा बहुत कुछ होता है जो प्रभु कृपा या गुरु कृपा से हो रहा है, पर हमारा अहंकार कृपा को मानने को तैयार नहीं होता, जिस कारण अहंकार बढ़ता जाता है।
अर्जुन का रथ भस्म हो गया ;; महाभारत युद्ध समाप्ति के बाद अर्जुन ने भगवान से कहा पहले आप उतरिए मैं बाद में उतरता हूं, इस पर भगवान बोले नहीं अर्जुन पहले तुम उतरो। भगवान के आदेशनुसार अर्जुन रथ से उतर गए, थोड़ी देर बाद श्रीकृष्ण भी रथ से उतर गए, तभी शेषनाग पाताल लोक चले गए। हनुमानजी भी तुरंत अंतर्ध्यान हो गए। रथ से उतारते ही श्रीकृष्ण अर्जुन को कुछ दूर ले गए। इतने में ही अर्जुन का रथ तेज अग्नि की लपटों से धूं-धूं कर जलने लगा। अर्जुन बड़े हैरान हुए और श्रीकृष्ण से पूछा, भगवान ये क्या हुआ! कृष्ण बोले- ‘हे अर्जुन- ये रथ तो भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य और कर्ण के दिव्यास्त्रों के वार से बहुत पहले ही जल गया था, क्योंकि पताका लिए हनुमानजी और मैं स्वयं रथ पर बैठा था, इसलिए यह रथ मेरे संकल्प से चल रहा था। अब जब कि तुम्हारा काम पूरा हो चुका है, तब मैंने उसे छोड़ दिया, इसलिए अब ये रथ भस्म हो गया।’
श्रीकृष्ण ने सबका अहंकार तोडा # श्री कृष्ण जी की लीला अपरम्पार # अभिमान भगवान का पहला आहार है # नारायण को अहंकार रहित मनुष्य प्रिय # श्री कृष्ण ने राधा का अहंकार तोड़ा# श्री कृष्ण ने तोड़ा सत्यभामा अहंकार # श्री कृष्ण लीला- हनुमान जी ने तोड़ा अर्जुन का अहंकार # गोवर्धन गिरधारी ने तोड़ा इंद्र का अहंकार #तीनों के घमंड चूर हो गए। श्रीकृष्ण यही चाहते थे। #कृष्ण ने तोड़ा कंस के यज्ञ का शिव धनुष #श्री कृष्ण ने दिया अर्जुन को इंद्रियों को वश में रखने का उपदेश #श्री कृष्ण ने अर्जुन को दिया कर्म योग का ज्ञान #अर्जुन का रथ महाभारत के बाद क्यों जल गया था?
श्री कृष्ण के प्रिय सुदर्शन(चक्र), गरुण तथा सत्यभामा को अहंकार हो गया — तीनों का घमंड इस तरह तोडा
एक बार श्री कृष्ण के प्रिय सुदर्शन(चक्र), गरुण तथा सत्यभामा को अहंकार हो गया था तीनों का घमंड तोड़ने के लिए कृष्ण जी ने हनुमान जी का स्मरण किया और तत्काल हनुमान जी द्वारिका आ गए। हनुमान जी जानते थे कि श्रीकृष्ण ने क्यों बुलाया है, इसलिए सीधे राजदरबार न जाकर कुछ कौतुक करने के लिए उद्यान में चले गए। वहां पर वृक्षों में चढ़कर उत्पात मचा दिया, फल तोड़े कुछ खाये कुछ फेंक दिए। वृक्षों को भी उखाड़ फेंका और पूरा बाग वीरान बना दिया। हनुमान जी किसी अनिष्ट की इच्छा से नहीं आये थे वो तो केवल कृष्ण जी की सहायता कर रहे थे। और उन्ही की इच्छा से वाटिका को उजाड़ रहे थे। बात श्रीकृष्ण तक पहुंची, किसी वानर ने राजोद्यान को उजाड़ दिया है। श्रीकृष्ण ने गरुड़ को बुलाया और कहा, “जाओ, सेना ले जाओ और उस वानर को पकड़कर लाओ।” गरुड़ ने कहा, “प्रभु, एक मामूली वानर को पकड़ने के लिए सेना की क्या जरूरत है? मैं अकेला ही उसे मजा चखा दूंगा।” कृष्ण मन ही मन मुस्कुरा दिए,“जैसा तुम चाहो, लेकिन उसे रोको” गरुण वाटिका गए और हनुमान जी को ललकारा, “बाग क्यों उजाड़ रहे हो? फल क्यों तोड़ रहे हो? चलो, तुम्हें श्रीकृष्ण बुला रहे हैं।” हनुमान जी ने कहा, “मैं किसी कृष्ण को नहीं जानता। मैं तो श्रीराम का सेवक हूं। मैं केवल उनकी आज्ञा का पालन करता हूँ अन्य किसी की नहीं। ” गरुड़ क्रोधित होकर बोला, “तुम नहीं चलोगे तो मैं तुम्हें पकड़कर ले जाऊंगा।” हनुमान जी ने कोई उत्तर नहीं दिया, गरुड़ की अनदेखी कर वह फल तोड़ते रहे और कहा, “वानर का काम फल तोड़ना और फेंकना है, मैं अपने स्वभाव के अनुसार ही कर रहा हूं। मेरे काम में दखल न दो। क्यों झगड़ा मोल लेते हो, जाओ, मुझे आराम से फल खाने दो।” गरुड़ नहीं माना और हनुमान जी पर आक्रमण करने के लिए बढ़ा, तब हनुमान जी ने अपनी पूंछ बढ़ाई और गरुड़ को दबोच लिया। वह कभी अपनी पूंछ को ढीला कर देते और कभी कस देते। गरुण उठने का प्रयास करता रहा किन्तु अंत में थक कर हार गया। भगवान का वाहन जान हनुमान जी ने उस पर प्रहार नहीं किया। लेकिन उसे सबक सीखने के लिए पूंछ को एक झटका दिया और गरुड़ को दूर समुद्र में फेंक दिया। बड़ी मुश्किल से गरुड़ दरबार में पहुंचा, भगवान को बताया, वह कोई साधारण वानर नहीं है, मैं उसे पकड़कर नहीं ला सकता। भगवान मुस्करा दिए – सोचा गरुड़ का शक्ति का घमंड तो दूर हो गया, लेकिन अभी इसके वेग के घमंड को चूर करना है। श्रीकृष्ण ने कहा, “गरुड़, हनुमान श्रीराम जी का भक्त है, इसीलिए नहीं आया। यदि तुम कहते कि श्रीराम ने बुलाया है, तो फौरन भागे चले आते। हनुमान अब मलय पर्वत पर चले गए हैं। तुम तेजी से जाओ और उससे कहना, श्रीराम ने उन्हें बुलाया है। तुम तेज उड़ सकते हो, तुम्हारी गति बहुत है, उसे साथ ही ले आना।” गरुड़ वेग से उड़े, मलय पर्वत पर पहुंचे। हनुमान जी से क्षमा मांगी। कहा, श्रीराम ने आपको याद किया है, अभी आओ मेरे साथ, मैं तुम्हें अपनी पीठ पर बिठाकर कुछ ही क्षणों में द्वारिका ले जाऊंगा। तुम खुद चलोगे तो देर हो जाएगी। मेरी गति बहुत तीव्र है, तुम मुकाबला नहीं कर सकते। हनुमान जी मुस्कराए, भगवान की लीला समझ गए। कहा, “तुम जाओ, मैं तुम्हारे पीछे ही आ रहा हूं।” द्वारिका में श्रीकृष्ण राम रूप धारण कर तथा सत्यभामा को सीता बना सिंहासन पर बैठ गए, सुदर्शन चक्र को आदेश दिया “द्वार पर रहना, कोई भी मेरी अनुमति के बिना प्रवेश न कर पाए। ” श्रीकृष्ण समझते थे कि श्रीराम का संदेश सुनकर तो हनुमान जी एक पल भी रुक नहीं सकते। गरुड़ को तो हुनमान जी ने विदा कर दिया और स्वयं उससे भी तीव्र गति से उड़कर गरुड़ से पहले ही द्वारका पहुंच गए। दरबार के द्वार पर सुदर्शन ने उन्हें रोक कर कहा, “बिना आज्ञा अंदर जाने की मनाही है।” जब श्रीराम बुला रहे हों तो हनुमान जी विलंब सहन नहीं कर सकते, सुदर्शन को पकड़ा और मुंह में दबा लिया। अंदर गए, सिंहासन पर श्रीराम और सीता जी बैठे थे, हुनमान जी समझ गए, श्रीराम को प्रणाम किया और कहा, “प्रभु, आने में देर तो नहीं हुई?” साथ ही कहा, “प्रभु मां कहां है? आपके पास आज यह कौन दासी बैठी है? सत्यभामा ने ये सुना तो वे लज्जित हो गयी, क्योंकि वह समझती थी कि कृष्ण द्वारा पारिजात लाकर दिए जाने से वह सबसे सुंदर स्त्री बन गई है, सत्यभामा का घमंड चूर हो गया। उसी समय गरुड़ तेज गति से उड़ने के कारण हांफते हुए दरबार में पहुंचा, सांस फूल रही थी, थके हुए से लग रहे थे, और हनुमान जी को दरबार में देखकर तो वह चकित हो गए। मेरी गति से भी तेज गति से हनुमान जी दरबार में पहुंच गए? और लज्जा से पानी-पानी हो गए। गरुड़ के बल का और तेज गति से उड़ने का घमंड चूर हो गया। अब बारी थी सुदर्शन की श्री कृष्ण ने पूछा, “हनुमान ! तुम अंदर कैसे आ गए? किसी ने रोका नहीं?” “रोका था भगवन, सुदर्शन ने, मैंने सोचा आपके दर्शनों में विलंब होगा, इसलिए उनसे उलझा नहीं, उसे मैंने अपने मुंह में दबा लिया था।” और यह कहकर हनुमान जी ने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकालकर प्रभु के चरणों में डाल दिया। तीनों के घमंड चूर हो गए। श्रीकृष्ण यही चाहते थे। श्रीकृष्ण ने हनुमान जी को गले लगाया, हृदय से हृदय की बात हुई, और उन्हें विदा कर दिया।
भगवान श्रीकृष्ण स्वयं गीता में कहते हैं- कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः। ‘कोई विरला ही मुझे तत्त्व से जानता है।’
वसुदेव-देवकी के यहाँ श्रीकृष्ण का जन्म हुआ तभी से भगवान श्रीकृष्ण हैं, ऐसी बात नहीं है। ऋगवेद में श्रीकृष्ण का बयान आता है, सामवेद के छान्दोग्योपनिषद में श्रीकृष्ण का बयान मिलता है। योगवाशिष्ठ महारामायण में कागभुशुण्ड एवं वशिष्ठजी के संवाद से पता चलता है कि श्रीकृष्ण आठ बार आये, आठ बार श्रीकृष्ण का रूप उस सच्चिदानंद परमात्मा ने लिया।
श्रीकृष्ण का जन्म अलौकिक है। माता-पिता हथकड़ियों के साथ जेल में बंद हैं। चारों ओर विपत्तियों के बादल मंडरा रहे हैं और उन विपत्तियों के बीच भी श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए अवतार ले रहे हैं। मानो यह संदेश दे रहे हों कि भले ही चारों ओर विपत्तियों ने घेर रखा हो किन्तु तुम एक ऐसे हो जिस पर विपत्तियों का असर हो नहीं सकता।
यमुना में बाढ़ आई हुई है। श्रीकृष्ण को उस पार ले जाना है और वसुदेव घबरा रहे हैं किन्तु श्रीकृष्ण मुस्कुरा रहे हैं। कथा कहती है कि श्रीकृष्ण ने अपना पैर पानी को छुआया और यमुना की बाढ़ का पानी उतर गया।
जब अहंकार बढ़ जाता है तब शरीर एक जेल की तरह हो जाता है कंस के द्वारा देवकी और वासुदेव को कारावास में डालना इस बात का सूचक है कि जब अहंकार बढ जाता है तब शरीर एक जेल की तरह हो जाता है। जब श्री कृष्ण का जन्म हुआ था, जेल के पहरेदार सो गये थे। यहाँ पहरेदार वह इन्द्रियाँ है जो अहंकार की रक्षा कर रही हैं क्योंकि जब वह जागता है तो बहिर्मुखी हो जाता है। तब हमारे भीतर आंतरिक आनंद का उदय होता है।
जिस समय समाज में खिंचाव, तनाव व विषयों के भोग का आकर्षण जीव को अपनी महिमा से गिराते हैं, उस समय प्रेमाभक्ति का दान करने वाले तथा जीवन में कदम कदम पर आनंद बिखेरने वाले श्रीकृष्ण का अवतार होता है। श्रीकृष्ण का जन्मदिवस या अवतार ग्रहण करने का पावन दिवस ही जन्माष्टमी कहलाता है। श्रीमद् भागवत में भी आता है कि दुष्ट राक्षस जब राजाओं के रूप में पैदा होने लगे, प्रजा का शोषण करने लगे, भोगवासना-विषयवासना से ग्रस्त होकर दूसरों का शोषण करके भी इन्द्रिय-सुख और अहंकार के पोषण में जब उन राक्षसों का चित्त रम गया, तब उन आसुरी प्रकृति के अमानुषों को हटाने के लिए तथा सात्त्विक भक्तों को आनंद देने के लिए भगवान का अवतार हुआ।
एक राजा अपनी पूरी प्रजा के लिए ज़िम्मेदार होता है। वह ताज के रूप में इन जिम्मेदारियों का बोझ अपने सिर पर धारण करता है। लेकिन श्री कृष्ण अपनी सभी जिम्मेदारी बड़ी सहजता से पूरी करते हैं – एक खेल की तरह। जैसे किसी माँ को अपने बच्चों की देखभाल कभी बोझ नहीं लगती। श्री कृष्ण को भी अपनी जिम्मेदारियां बोझ नहीं लगतीं हैं और वे विविध रंगों भरी इन जिम्मेदारियों को बड़ी सहजता से एक मोरपंख (जो कि अत्यंत हल्का भी होता है) के रूप में अपने मुकुट पर धारण किये हुए हैं।
इस कहानी में देवकी शरीर की प्रतीक हैं और वासुदेव जीवन शक्ति अर्थात प्राण के। जब शरीर प्राण धारण करता है, तो आनंद अर्थात श्री कृष्ण का जन्म होता है। लेकिन अहंकार (कंस) आनंद को खत्म करने का प्रयास करता है। यहाँ देवकी का भाई कंस यह दर्शाता है कि शरीर के साथ-साथ अहंकार का भी अस्तित्व होता है। एक प्रसन्न एवं आनंदचित्त व्यक्ति कभी किसी के लिए समस्याएँ नहीं खड़ी करता है, परन्तु भावनात्मक रूप से दुखी व्यक्ति अक्सर दूसरों को दुखी करते हैं, या उनकी राह में अवरोध पैदा करते हैं। जिस व्यक्ति को लगता है कि उसके साथ अन्याय हुआ है, वह अपने अहंकार के कारण दूसरों के साथ भी अन्यायपूर्ण व्यवहार करता है।
अहंकार का सबसे बड़ा शत्रु आनंद है। जहाँ आनंद और प्रेम है वहाँ अहंकार टिक नहीं सकता, उसे झुकना ही पड़ता है। समाज में एक बहुत ही उच्च स्थान पर विराजमान व्यक्ति को भी अपने छोटे बच्चे के सामने झुकना पड़ जाता है। जब बच्चा बीमार हो, तो कितना भी मजबूत व्यक्ति हो, वह थोडा असहाय महसूस करने ही लगता है। प्रेम, सादगी और आनंद के साथ सामना होने पर अहंकार स्वतः ही आसानी से ओझल होने लगता है । श्री कृष्ण आनंद के प्रतीक हैं, सादगी के सार हैं और प्रेम के स्रोत हैं।
श्री कृष्ण माखनचोर के रूप में भी जाने जाते हैं। दूध पोषण का सार है और दूध का एक परिष्कृत रूप दही है। जब दही का मंथन होता है, तो मक्खन बनता है और ऊपर तैरता है। यह भारी नहीं बल्कि हल्का और पौष्टिक भी होता है। जब हमारी बुद्धि का मंथन होता है, तब यह मक्खन की तरह हो जाती है। तब मन में ज्ञान का उदय होता है, और व्यक्ति अपने स्व में स्थापित हो जाता है। दुनिया में रहकर भी वह अलिप्त रहता है, उसका मन दुनिया की बातों से / व्यवहार से निराश नहीं होता। माखनचोरी श्री कृष्ण प्रेम की महिमा के चित्रण का प्रतीक है। श्री कृष्ण का आकर्षण और कौशल इतना है कि वह सबसे संयमशील व्यक्ति का भी मन चुरा लेते हैं।
श्री कृष्ण हम सबके भीतर एक आकर्षक और आनंदमय धारा हैं। जब मन में कोई बेचैनी, चिंता या इच्छा न हो तब ही हम गहरा विश्राम पा सकते हैं और गहरे विश्राम में ही श्री कृष्ण का जन्म होता है। यह समाज में खुशी की एक लहर लाने का समय है – यही जन्माष्टमी का संदेश है। गंभीरता के साथ आनंदपूर्ण बनें।
एक बार यशोदा माँ से किसी ने फरियाद की कि कृष्ण ने मिट्टी खाई है। यशोदा पूछती हैं- ‘बोल तूने मिट्टी खाई ?” श्रीकृष्ण कहते हैं- “नहीं माँ ! नहीं खाई।” यशोदाः “तू झूठ बोल रहा है। मुख खोलकर बता।” श्रीकृष्ण ने मुख खोलकर बताया तो यशोदा माँ को उसमें त्रिभुवन के दर्शन हो गये और वह चकित हो गई। श्रीकृष्ण ने अपनी माया समेट ली तो फिर यशोदा अपने मातृभाव में आ गई।
एक बार ब्रह्माजी ने श्रीकृष्ण की परीक्षा लेनी चाही। इसके लिए ब्रह्माजी ने सभी बछड़ों और ग्वालों को एक वर्ष के लिए छुपा दिया। श्रीकृष्ण स्वयं उन गायों के बछड़े और ग्वालों के रूप में सभी जगह उपस्थित रहे। तब जाकर ब्रह्माजी को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने श्रीकृष्ण के असली स्वरुप को पहचाना।
सबकुछ योगमाया के प्रभाव से हुआ
श्री कृष्ण के जन्म के समय योगमाया द्वारा जेल के सभी संतरियों को गहरी नींद में सुला दिया गया। इसके बाद बंदीगृह का दरवाजा अपने आप ही खुल गया। उस वक्त भारी बारिश हो रही थी। वसुदेवजी ने नन्हें कृष्ण को एक टोकरी में रखा और उसी भारी बारिश में टोकरी को लेकर वह जेल से बाहर निकल गए। वसुदेवजी मथुरा से नंदगांव पहुंच गए लेकिन उन्हें इस घटना का ध्यान नहीं था। श्री कृष्ण के जन्म के समय भीषण बारिश हो रही थी। ऐसे में यमुना नदी उफान पर थी। इस स्थिति को देखते हुए श्री कृष्ण के पिता वसुदेव जी कन्हैया को टोकरी में लेकर यमुना नदी में प्रवेश कर गए और तभी चमत्कार हुआ। यमुना के जल ने कन्हैया के चरण छुए और फिर उसका जल दो हिस्सों में बंट गया और इस पार से उस पार रास्ता बन गया। उसी रास्ते से वसुदेवजी गोकुल पहुंचे। वसुदेव कान्हा को यमुना के उस पार गोकुल में अपने मित्र नंदगोप के यहां ले गए। वहां नंद की पत्नी यशोदाजी ने भी एक कन्या को जन्म दिया था। यहां वसुदेव श्री कृष्ण को यशोदा के पास सुलाकर उस कन्या को अपने साथ वापस ले आए।
कथा के अनुसार, नंदरायजी के यहां जब कन्या का जन्म हुआ तभी उन्हें पता चल गया था कि वसुदेवजी कृष्ण को लेकर आ रहे हैं। तो वह अपने दरवाजे पर खड़े होकर उनका इंतजार करने लगे। फिर जैसे ही वसुदेवजी आए उन्होंने अपने घर जन्मी कन्या को गोद में लेकर वसुदेवजी को दे दिया। हालांकि कहा जाता है कि इस घटना के बाद नंदराय और वसुदेव दोनों ही यह सबकुछ भूल गए थे। यह सबकुछ योगमाया के प्रभाव से हुआ था।
इसके बाद वसुदेवजी नंदबाबा के घर जन्मीं कन्या यानी कि योगमाया को लेकर चुपचाप मथुरा के जेल में वापस लौट गए। बाद में जब कंस को देवकी की आठवीं संतान के जन्म का समाचार मिला तो वह कारागार में पहुंचा। उसने उस नवजात कन्या को पत्थर पर पटककर जैसे ही मारना चाहा, वह कन्या अचानक कंस के हाथों से छूटकर आकाश में पहुंच गई और उसने अपना दिव्य स्वरूप प्रदर्शित कर कंस वध की भविष्यवाणी की। इसके बाद वह भगवती विन्ध्याचल पर्वत पर वापस लौट गईं और विंध्याचल देवी के रूप में आज भी उनकी पूजा-आराधना की जाती है।
अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ और सर्व को खाने के लिए आया हूँ। (गीता अध्याय 11 का श्लोक नं. 32) यह मेरा वास्तविक रूप है, इसको तेरे अतिरिक्त न तो कोई पहले देख सका तथा न कोई आगे देख सकता है अर्थात् वेदों में वर्णित यज्ञ-जप-तप तथा ओ3म् नाम आदि की विधि से मेरे इस वास्तविक स्वरूप के दर्शन नहीं हो सकते। (गीता अध्याय 11 श्लोक नं 48)
By Chandra Shekhar Joshi Editor; www.himalayauk.org (Leading Newsportal & Print Media, publish at Dehradun & Haridwar Mob. 9412932030 Mail; himalayauk@gmail.com
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