3 नाम स्मरण करने से शनि ग्रह पीड़ा नहीं देते हैं & बालक ने पूछा मेरे महान माता-पिता की अकाल मृत्यु और मेरा अनाथ जीवन का क्या कारण था नारद देव? उग्र तपस्या से उस बालक ने ब्रह्मांड को हिला दिया
आइए, आप बहुत रोचक धार्मिक प्रसंग सुनिए, जो आप और आपके परिवार का कल्याण करेगा: चंद्र शेखर जोशी उपासक & संस्थापक अध्यक्ष: मां पीतांबरा श्री बगलामुखी पीठ, स्थान बंजारा वाला देहरादून mob 9412932030
पिप्पलाद (piplad) ने पहले वरदान में मांगा की जन्म से 16 वर्ष की आयु तक किसी भी बच्चे की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा ताकि कोई भी बच्चा मेरी तरह अनाथ ना पैदा हो. #तीन ऐसे लोग हैं जिनका स्मरण करने से शनि ग्रह पीड़ा नहीं देते हैं # मुनि गाधि # कौशिक ऋषि # महामुनी पिप्पलाद @ बालक पूछता है कि मेरे पिता की अकाल मृत्यु , माता की मृत्यु और मेरा अनाथ जीवन का क्या कारण था नारद देव? @ तब नारद जी बताते हैं कि तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा थी @ तब बालक पूछता है कि मेरे ऊपर आई विपत्ति का क्या कारण था @ नारदजी कहते हैं यह भी शनिदेव की महादशा है. # उग्र तपस्या से उस बालक ने ब्रह्मांड को हिला दिया, झुका दिया: & महान ऋषि पिपलाद ने अपने तपो बल से शनि को जलाना शुरू किया तो ब्रह्मांड में त्राहि त्राहि मच गई और किन शर्तों पर शनि को बख्शा, #पिप्पलाद (piplad) ऋषि का स्मरण करने से शनि पीड़ा दूर हो जाती है. शास्त्रों और ग्रंथों में वर्णन है कि पिप्पलाद ने कर्मफल दाता शनि देव पर भी प्रहार कर दिया था # पिप्पलाद (piplad) ने पहले वरदान में मांगा की जन्म से 16 वर्ष की आयु तक किसी भी बच्चे की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा ताकि कोई भी बच्चा मेरी तरह अनाथ ना पैदा हो. # पिप्पलाद (piplad) ने दूसरे वरदान में कहा कि मुझ अनाथ को शरण पीपल के वृक्ष ने दी है अतः जो भी व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व पीपल के पेड़ पर जल चढ़ाएगा उस पर शनि की महादशा का असर नहीं होगा. # तब ब्रह्मा जी ने तथास्तु कहकर वरदान दिया. तब पिप्पलाद ने जलते हुए शनि को अपने ब्रह्म दंड से उनके पैरों तरफ आघात करके उन्हें मुक्त कर दिया जिससे शनि देव के पैर क्षतिग्रस्त हो गए और वह पहले जैसी गति से चलने लायक नहीं रहे और तब से ही शनि देव धीमे चलने लगे वे शनेश्वर कहलाते हैं और आग में जलने के कारण ही शनि काली छाया वाले रूप में हो गए. और शनि देव को एक पैर से लंगड़ा भी इसीलिए बताया जाता है
अभी महामुनि पिप्पलाद का वर्णन पढ़िए: चंद्र शेखर जोशी उपासक & संस्थापक अध्यक्ष बगुला मुखी पीठ देहरादून मो0 9412932030
पिप्पलाद उपनिषद्कालीन एक महान ऋषि एवं अथर्ववेद का सर्व प्रथम संकलकर्ता थे। पिप्पलाद का शब्दार्थ, ‘पीपल के फल खाकर जीनेवाला’ (पिप्पल+अद्) होता है।
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दधीचि मुनि शिव जी के सबसे बड़े भक्त थे और वह हमेशा शिवजी की आराधना करते रहते थे शिवजी अपने सबसे बड़े भक्त से मिलना चाहते थे शिवजी ने उनसे मिलने के लिए उनके पुत्र रूप में जन्म लिया था परंतु जन्म से पहले ही दधीचि मुनि की मृत्यु हो चुकी थी.
शिवजी के पिप्पलाद (piplad) का रूप लेकर आने से पहले ही दधीचि मुनि ने समाधि का रूप लेकर प्राण क्यों त्याग दिए थे.
एक बार दैत्यों ने वृत्रासुर की सहायता से इंद्र आदि समस्त देवताओं को पराजित कर दिया था. और सभी देवता शेषा दधीचि ऋषि के आश्रम में अपने शस्त्रों को फेंक देते हैं और अपनी हार स्वीकार कर लेते. इसके बाद इंद्र आदि देवता और देवर्षियों सब मिलकर वृत्रासुर के दुख से दुखी होकर श्री ब्रह्मा जी के शरण में पहुंचते हैं और ब्रह्मा जी को अपना दुख सुनाते हैं ब्रह्मा जी कहते हैं यह सब त्वष्टा के कारण हुआ है और त्वष्टा ने ही वृत्रासुर को उत्पन्न किया है ऐसा प्रश्न करो कि तुम वृत्रासुर का प्रहार कर सको उसके लिए मैं एक उपाय बताता हूं.
दधीचि नाम के एक महामुनि है जिन्होंने पूर्व काल में भगवान महादेव की आराधना करके अपनी हड्डियों को वज्र जैसा कठोर बना लिया है भगवान महादेव के वरदान से दधीचि मुनि की जो अस्थि है उससे एक अस्त्र बनाकर वृत्रासुर पर प्रहार किया जाए तो वह जरूर मर सकता है. इसीलिए आप उनके पास जाकर उनकी अस्थियों की याचना करो और वे अस्थि जरूर दे देंगे. और उन अस्थियों से वज्रदंड बनाओ उससे वृत्रासुर जरूर मरेगा. तब ब्रह्मा का वचन सुनकर देव गुरु बृहस्पति सभी देवता को साथ लेकर दधीचि मुनि के आश्रम में आए हैं और दधीचि मुनि को देव गुरु बृहस्पति आदि ने मस्तक नवाया है
दधीचि ऋषि विद्वानों में श्रेष्ठ थे. और वे लोग जिन्होंने अपने मन में यह भावना रखी है कि दधीचि मुनि हमें अपनी अस्थियां दान कर दे. वे तुरंत ही उनके अभिप्राय को समझ गए थे. इंद्र महाराज जो अपने स्वार्थ साधने में बहुत चतुर है उन्होंने मुनि को कहा की हे मुनि! आप महान शिव भक्त हैं दाता है शरणागत रक्षक है हम सब त्वष्टा के अपमानित किए हुए हैं हम चाहते हैं कि आप अपनी जो अस्थि है उसे हमें दे दे. उससे हम लोग वज्र का निर्माण करेंगे और उसके बाद देवद्रोही त्वष्टा के द्वारा उत्पन्न किया गया वृत्रासुर का मैं विनाश करूंगा.
फिर दधीचि मुनि ने यह सुना और समाधि का अनुभव करके परम ब्रह्मा का ध्यान लगाते हुए अपने प्राणों को परम ब्रह्म परमात्मा में विलीन कर दिया फिर देवताओं ने उन अस्थियों को लिया और इंद्र महाराज ने विश्वकर्मा को आज्ञा दी और विश्वकर्मा ने इंद्र की आज्ञा से उसमें से शस्त्र का निर्माण किया फिर शिवजी के तेज से उत्कर्ष को प्राप्त हुए इंद्र महाराज एरावत पर अपने वर्ज को लेकर बैठे थे. वृत्रासुर के साथ घमासान युद्ध होता है और अंत में वर्ज का प्रहार करने से वृत्रासुर के मस्तक को इंद्रदेव काट देते है. चारों ओर विजयोत्सव होने लगा इंद्र पर पुष्प वृष्टि होने लगती है.
दधीचि मुनि की पत्नी अपने प्राण क्यों त्याग देती है
दधीचि मुनि जी की पत्नी जब झोपड़ी में जाकर देखती है तो वे दधीचि जी का बिना अस्थियों का मृत्य देह देखकर बड़ा क्रोधित होती है और देवताओं को श्राप देकर चिता में समाहित हो कर पति लोक को प्राप्त करने के लिए उतावली हो जाती है जैसे ही वे अग्नि में प्रवेश करने जाती है तब आकाशवाणी होने लगती है और वहां देवता उपस्थित होते हैं देवता उनसे कहते हैं कि आप ऐसा ना करें आपके पेट में दधीचि मुनि जी की संतान है और मुनि के तेज के कारण आपको अभी चिता में प्रवेश नहीं करना चाहिए
फिर मुनि पत्नी ने यह बात स्वीकार की और जब उस पुत्र का जन्म हुआ तब मुनि पत्नी ने उस दिव्य स्वरूप धारी पुत्र को देखकर समझ लिया था कि यह रूद्र का अवतार है यह जान वह परमआनंद में मगन हो कर शीघ्र ही उसे नमस्कार कर स्तुति करने लगी है और रुद्र अवतार से कहती है हे परमेश्वर ! आप इस अश्वत पीपल के पेड़ के पास चिरकाल तक उपस्थित रहिए आप समस्त प्राणियों के लिए सुखदाता होइए और मुझे प्रेम पूर्वक पति लोग में जाने की आज्ञा दीजिए.
दधीचि मुनि और उनकी पत्नी के जाने के बाद पिप्पलाद (piplad) का क्या होता है
नारद जी मुनि जी से कहते हैं कि हे मूने दधीचि मुनि की साध्वी पत्नी ने पूर्व समाधि से पहले अपने पुत्र से अपने पति का ही अनुगमन किया और वह आनंद पूर्वक पति लोक में जाकर भगवान महादेव की सेवा में लग गई. फिर सभी देवता आमंत्रित होकर उस बच्चे के पास आते हैं तब प्रसन्न बुद्धि वाले ब्रह्मा जी ने रूद्र के अवतार वाला बच्चा जो भगवान महादेव का अवतार था और दधीचि मुनि का पुत्र था उसका नाम पिप्पलाद (piplad) रखा. पिप्पलाद (piplad) उसी अश्वत के नीचे लोको के हित की कामना में चिरकाल तक तपस्या करने लगे. पिप्पलाद (piplad) पीपल के पत्ते खाकर और पानी पीकर ही अपनी भूख प्यास मिटाते थे.
पिप्पलाद (piplad) का विवाह पदमा के साथ
जब पिप्पलाद (piplad) उसी अश्वत के नीचे लोको के हित की कामना से चिरकाल तक तपस्या में लीन हो गए थे काफी समय बीत जाने के बाद पिप्पलाद (piplad) ने राजा आरण्यता की पुत्री पदमा के साथ विवाह किया. पीपलाद को पदमा से 10 पुत्रों की प्राप्ति होती है जो अपने पिता की तरह ही महात्मा एवं उग्र तपस्या करने वाले होते हैं
पिप्पलाद (piplad) ने शनिदेव का अहंकार कैसे तोड़ा
जब दधीचि मुनि की पत्नी अपने पति का बलिदान सहन नहीं कर पाई और 3 वर्ष के बच्चे को पीपल के पेड़ के नीचे रखकर अग्नि में बैठ कर सती हो गई. तब पीपल के पेड़ के नीचे रखा बालक भूख प्यास से तड़पकर चिल्लाने लगा, जब कुछ खाने को नहीं मिला तब वह नीचे पड़े पीपल के पत्ते खाकर ही बड़ा हुआ. पीपल के पत्ते खाकर ही उसका जीवन सुरक्षित रहा. एक दिन वहां से नारद जी गुजरे, नारद जी ने पीपल के पेड़ के नीचे बैठे बालक से पूछा, तुम कौन हो तुम्हारे जनक कौन है तब बालक ने कहा यही तो मैं भी जानना चाहता हूं.
तब नारद जी ने ध्यानपूर्वक बालक को गौर से देखा और आश्चर्यचकित होकर कहां की हे बालक तुम महान मुनि दधीचि मुनि के पुत्र हो तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर देवताओं ने असुरों पर विजय पाई थी. नारद जी ने बताया की तुम्हारे पिता दधीचि मुनि की मृत्यु केवल 31 वर्ष में ही हो गई थी. बालक पूछता है कि मेरे पिता की अकाल मृत्यु का क्या कारण था तब नारद जी बताते हैं कि तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा थी तब बालक पूछता है कि मेरे ऊपर आई विपत्ति का क्या कारण था नारदजी कहते हैं यह भी शनिदेव की महादशा है.
उसके बाद पीपल के पत्ते खाने वाले बालक का नाम नारद जी ने पिप्पलाद (piplad) रखा. नारद जी के चले जाने के बाद बालक पिप्पलाद (piplad) ने नारद जी के बताए अनुसार ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया जब ब्रह्मा जी ने बालक पिप्पलाद (piplad) से कोई वर मांगने को कहा तब पिप्पलाद (piplad) ने अपनी दृष्टि मात्र से किसी भी वस्तु को जला देने की शक्ति मांगी. ब्रह्मा जी के वरदान मिल जाने पर बालक पिप्पलाद (piplad) ने शनि देव का आवाहन कर अपने सामने प्रस्तुत किया और अपने सामने पाकर आंखें खोल कर भस्म करना शुरू किया शनिदेव जलने लगे.
ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया सूर्य पुत्र शनि की रक्षा में सारे देव विफल हो गए सूर्य भी अपने पुत्र को अपनी आंखों के सामने जलता हुआ देखकर ब्रह्मा जी के पास अपने पुत्र को बचाने हेतु विनय करने लगा. तब ब्रह्माजी पिप्पलाद (piplad) के सम्मुख पधारे और शनि देव को छोड़ने की बात कहीं किंतु पिप्पलाद (piplad) नहीं माने तब ब्रह्मा जी ने इस वरदान के बदले कोई और दो वरदान मांगने की बात कही तब पिप्पलाद (piplad) ने खुश होकर दो वरदान मांगे,
1). पिप्पलाद (piplad) ने पहले वरदान में मांगा की जन्म से 16 वर्ष की आयु तक किसी भी बच्चे की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा ताकि कोई भी बच्चा मेरी तरह अनाथ ना पैदा हो.
2). पिप्पलाद (piplad) ने दूसरे वरदान में कहा कि मुझ अनाथ को शरण पीपल के वृक्ष ने दी है अतः जो भी व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व पीपल के पेड़ पर जल चढ़ाएगा उस पर शनि की महादशा का असर नहीं होगा.
तब ब्रह्मा जी ने तथास्तु कहकर वरदान दिया. तब पिप्पलाद (piplad) ने जलते हुए शनि को अपने ब्रह्म दंड से उनके पैरों तरफ आघात करके उन्हें मुक्त कर दिया जिससे शनि देव के पैर क्षतिग्रस्त हो गए और वह पहले जैसी गति से चलने लायक नहीं रहे और तब से ही शनि देव धीमे चलने लगे वे शनेश्वर कहलाते हैं और आग में जलने के कारण ही शनि काली छाया वाले रूप में हो गए. और शनि देव को एक पैर से लंगड़ा भी इसीलिए बताया जाता है
16 वर्ष की आयु तक पिप्पलाद (piplad) ने कराया शनि से मुक्त
सभी शनि ग्रह की पीड़ा के कारण दुखी थे तब उन कृपालु पिप्पलाद (piplad) ने जगत में वह पीड़ा जिसका निवारण करना सभी लोगों की शक्ति से बाहर ही था उस पीड़ा को देखकर पिप्पलाद (piplad) ने लोगों को वरदान दिया की जन्म से लेकर 16 वर्ष की आयु तक मनुष्य को और शिव भक्तों को शनि ग्रह की पीड़ा नहीं होगी और यदि शनि देव मेरे वचन का अनादर करके 16 वर्ष से कम आयु वाले व्यक्ति को यदि पीड़ा करना चाहेगा तो वह निसंदेह भस्म हो जाएगा.
शनि पीड़ा खत्म करने के 3 मुख्य उपाय
Yr. Contribution;
शिव पुराण मैं लिखा गया है कि तीन ऐसे लोग हैं जिनका स्मरण करने से शनि ग्रह पीड़ा नहीं देते हैं
मुनि गाधि कौशिक ऋषि महामुनी पिप्पलाद
पिप्पलाद (piplad) शनि मंत्र स्त्रोत
नमस्ते कोणसंस्थय पिंग्डलाय नमोस्तुते
नमस्ते बभ्रुरूपाय कृष्णाय च नमोस्तुते
नमस्ते रोद्रदेहाय नमस्ते चान्तकाय च
नमस्ते यमसंज्ञाय नमस्ते सौरये विभो
नमस्ते यमदसंज्ञाय शनेश्वर नमोस्तुते
प्रसांद कुरु देवेश दीनस्य प्रणतस्य च