अभिशप्त मगहर की राजनीतिक यात्रा का सीधा सा मतलब
कबीर की निर्वाण स्थली मगहर तब भी अभिशप्त थी और आज भी है, #कबीर जयंती के मौके पर मगहर से पार्टी के साथ जुड़ने की दावत # हिमालयायूके न्यूज पोर्टल ब्यूरो
मगहर को ‘नरक के प्रवेश द्वार’ के रूप में भी जाना जाता है। ऐसी धारणा है कि मगहर में जिसकी मृत्यु होती है, वह स्वर्ग नहीं जाता। संत कबीरदास इस अंधविश्वास को तोड़ने के लिए मगहर गए थे और वहीं समाधि ली थी। एक समय यह माना जाता था कि मगहर में मरने वाले व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता और उसका अगला जन्म गह्दे के रूप में होता है.
मगहर की राजनीतिक यात्रा का सीधा सा मतलब यह जाता है कि लेकिन मुस्लिम, यादव और दलित स्पष्ट तौर पर न सिर्फ बीजेपी से दूर हैं, बल्कि वे दूसरे खेमे से और मजबूती से चिपक गए हैं. इन प्रमुख जातियों को मिलाकर दूसरे खेमे का वोट 45 फीसदी से अधिक हो जाता है.
संत कबीरदास की 500वीं जयंती पर नरेंद्र मोदी गुरुवार 28 JUNE 2018 को मगहर में थे। वे कबीर की मजार पर पहुंचने वाले पहले प्रधानमंत्री बन गए। उन्होंने यहां एक रैली भी की। इसमें उन्होंने कबीर के फलसफों और दोहों का जिक्र करते हुए विपक्षी नेताओं पर निशाना साधा। मोदी ने कहा, ‘‘समाजवाद और बहुजन की बातें करने वाले सत्ता के लालची हैं। उत्तर प्रदेश में पहले जो सरकारें रहीं, उनकी अपने बंगलों में रुचि ज्यादा थी। उनका मन अपने आलीशान बंगलों में ही लगा रहता था। गरीबों के लिए मकान बनाने के मामले में वे हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहते थे।”
संत कबीर के नाम पर बीजेपी न सिर्फ अति-पिछड़ों, बल्कि गैर जाटव दलितों को भी अपने साथ लाने की कोशिश करेगी. यह कोशिश इसलिए ज्यादा भावनात्मक अपील पैदा कर सकती है, क्योंकि यूपी की राजनीति में इससे पहले किसी ने कबीरपंथ को सीधे वोटर समूह के तौर पर नहीं देखा. कबीरपंथियों का दायरा सिर्फ यूपी तक ही सीमित नहीं है, वे मध्य प्रदेश में भी हैं और हिंदी पट्टी के कई राज्यों में हैं. अगर बीजेपी ने उनकी जातियों की अस्मिता को दलित अस्मिता से काटकर कबीरपंथी अस्मिता से जोड़ लिया, तो यह उसके लिए बड़ी कामयाबी होगी.
सिद्धपीठ कबीर चौरा मठ, मूलगादी के पीठाधीश्वर संत विवेक दास ने कहा कि यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संत कबीर की जयंती मनानी ही थी तो उन्हें मगहर के स्थान पर वाराणसी आना चाहिए था. क्योंकि संत कबीर का प्राकट्य स्थल काशी के लहरतारा में है. संत विवेक दास का ये भी कहना है कि पीएम मोदी को ये भी जानना चाहिए कि संत कबीर दास ने अपने जीवन के अंतिम दिन मगहर में गुजारे थे और मोदी सरकार के कार्यकाल के भी एक वर्ष ही बचा है. इसलिए उन्हें कबीर याद आ रहे हैं, फिर भी वे पीएम के इस कदम का स्वागत करते हैं. महंत विवेक दास बताते हैं कि वाराणसी के कबीर चौरा स्थित सिद्धपीठ कबीर चौरा मठ, मूलगादी इसलिए विशेष स्थान रखता है क्योंकि इसी पावन स्थल पर संत कबीर दास जी ने अपने जीवन के 120 वर्ष गुजारे थे. इसके अलावा वाराणसी के लहरतारा में उनका प्राकट्य स्थान भी है जो इस अवसर पर विशेष महत्व रखता है.
काशी में मरने वाला मोक्ष पाएगा, मगहर में मरने वाला नर्क जाएगा. कबीर के काल में काशी के पंडे ये भ्रम फैलाया करते थे. इसी भ्रांति को चुनौती देने के लिए कबीर अपने जीवन के अंतिम समय में मगहर चले गए. और किंवदंतियों में अभिशप्त मगहर को इस अभिशाप से मुक्त किया. वाराणसी के कबीर मठ के महंत विवेक दास ने इस अवसर पर आमंत्रण नहीं मिलने पर नाराजगी जाहिर की है.
संत कबीर दास के 620वें प्राकट्य दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज मगहर पहुंचे हैं. यहां कबीर की समाधि स्थल पर पीएम मोदी ने मजार पर चादर चढ़ाई. पीएम के दौरे से एक दिन पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मगहर पहुंचे थे. योगी कबीर की मजार पर पहुंचे. वहां संरक्षक ने उन्हें टोपी पहनाने की कोशिश की, तो योगी ने मुस्कुराते हुए उनका हाथ पकड़ लिया और इशारे में मना कर दिया. बाद में उन्हें टोपी हाथ में लेने को कहा तो उन्होंने उससे भी इनकार कर दिया.
यूपी के संतकबीरनगर के मगहर में संत कबीर दास के 620वें प्राकट्य उत्सव के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कबीर के संदेश को आत्मसात करने का संदेश दिया. साथ में वाराणसी सहित चार शहरों के कबीर स्थलों को कबीर सर्किट के रूप में विकसित करने की घोषणा भी की.
ऐतिहासिक और पौराणिक मान्यताओं के अनुसार गंगा किनारे बसी काशी में अपने शरीर का त्याग करने वले को मोक्ष की प्राप्ति होती है. लेकिन संत कबीर ने इसे चुनौती देते हुए प्रण किया था कि वे नरक माने जाने वाले आमी नदी के किनारे बसे मगहर में जाकर अपने शरीर का त्याग करेंगे. हालांकि मगहर को नरक और अभिशप्त माने जाने के पीछे कोई एक ठोस कारण नहीं है, लेकिन जानकार इसकी व्याख्या अपने-अपने शोध के आधार पर करते हैं. कबीर का पूरा जीवन काशी और मगहर के बीच बीता और यही इन दोनों जगहों के बीच एक अटूट रिश्ता जोड़ता है.
इसके अलावा मगहर से होकर बहने वाली आमी भी घाघरा से होते हुए गंगा में जाकर मिलती है, जो कबीर के जीवन में काशी और मगहर को जोड़ने वाली दूसरी कड़ी है. एक तरफ जहां काशी में गंगा अपनी दुर्दशा पर रो रही है तो वहीं आज आमी भी प्रदूषण के चलते अपने अस्तित्व को खोने के कगार पर है.
मगहर के लोगों को इस बात का भी कष्ट है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संत कबीर के जीवन के हर पहलू की चर्चा तो की लेकिन वे आमी को भूल गए, जिसके किनारे कबीर ने निर्वाण प्राप्त किया था. वाराणसी से लगभग 200 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मगहर संत कबीर के निर्वाण स्थली के रूप में जाना जाता है.
वाराणसी स्थित संत कबीर मूल गादी कबीरचौरा मठ के महंत विवेक दास बताते हैं कि मगहर को नरक माने जाने का कारण भगवान बुद्ध से जुड़ा है. उन्होंने बताया कि भगवन बुद्ध ने राजपाट त्यागने के बाद मगहर के पास आकर अपने केश त्यागे थे. इसके चलते इस जगह की महत्ता बढ़ने लगी. तब की ब्राह्मणवादी व्यवस्था के लम्बरदारों ने कहना शुरू कर दिया कि मगहर नरक का द्वारा है और जो यहां शरीर त्यागेगा, उसे मोक्ष नहीं मिलेगा. इसी को चुनौती देते हुए कबीर अपने जीवन के अंतिम समय में मगहर जाकर बस गए और वहीं निर्वाण प्राप्त किया.
कबीर ने भी इसे एक दोहे के जरिए चुनौती दी, “क्या काशी, क्या ऊसर मगहर, जो पै राम बस मोरा. जो कबीर काशी मरे, रामहीं कौन निहोरा… और मगहर चले गए.
मगहर के बारे में बताते हुए प्रोफेसर सिंह कहते हैं कि मगहर ‘मार्ग-हर’ का अपभ्रंश है. उस समय इस इलाके से होकर बौद्ध धर्म के अनुयायी जब भगवन बुद्ध के जीवन से जुड़े स्थानों की तीर्थयात्रा के लिए निकलते थे तो उन्हें इसी जगह पर डाकू और लुटेरे लूट लेते थे. इसके लिए वे हत्या करने से भी गुरेज न करते थे. इसके चलते मगहर बदनाम हो गया था.
मगहर में संत कबीर की समाधि को छूकर बहाने वाली आमी नदी के बारे में भी बहुत से किस्से हैं . इस बारे में आमी बचाओ मंच के अगुवा विश्व विजय सिंह बताते हैं कि नदियां सर्पाकार रास्ता बनाते हुए चलती हैं. लेकिन यहां समाधि स्थल को छूकर आमी के बहने के पीछे संत कबीर की ही महिमा मानी जाती है.
कहा जाता है कि जब सन1515 में संत कबीर मगहर पहुंचे तो यहां भयंकर अकाल पड़ा था. यहां के लोगों ने जब उनसे गुजारिश की तो उन्होंने तप किया और जमकर बारिश हुई. इसके बाद लोगों ने संत कबीर से कहा कि यह स्थायी समाधान नहीं है और इलाके में सूखे की समस्या लगातार बनी रहेगी. इस पर संत कबीर ने आमी नदी का आह्वान किया और उनके कुटी स्थल से काफी दूर बह रही आमी ने अपना रास्ता बदला दिया और कुटी के बगल से बहने लगी. विश्व विजय सिंह पिछले एक दशक से आमी के अस्तित्व को बचाने की लडाई लड़ रहे हैं. वे प्रधानमंत्री के मगहर आगमन से खुश तो हैं लेकिन उनके आमी का जिक्र न करने से निराश भी हैं. वे कहते हैं कि चार जिलों से होकर बहने वाली आमी नदी के संरक्षण के लिए नेशन ग्रीन ट्रिब्यूनल भी कई बार आदेश दे चुका है लेकिन अभी तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है.
PHOTO CAPTION; The Prime Minister, Shri Narendra Modi offers floral tributes at Samadhi of the great saint and poet, Kabir, at Maghar, in Sant Kabir Nagar district of Uttar Pradesh on June 28, 2018.
इस सांस्कृतिक पहचान के अलावा मगहर की यह पहचान भी है कि वह पूर्वी उत्तर प्रदेश के घनघोर गरीबी वाले इलाके में पड़ता है, जहां बड़ी संख्या में कबीरपंथी रहते हैं. आधुनिक राजनैतिक भाषा में कहें तो कबीरपंथ के ज्यादातर अनुयायी अति-पिछड़ा वर्ग और दलित समुदाय की जातियों से आते हैं. यह पारंपरिक रूप से कांग्रेस के वोटर हुआ करते थे, लेकिन कोई ढाई दशक से ये बहुजन समाज पार्टी के ज्यादा करीब पहुंच गए हैं. आज कबीर जयंती के मौके पर मगहर पहुंच कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न सिर्फ महान क्रांतिकारी और प्रगतिशील संत को श्रद्धांजलि दी, बल्कि एक नए किस्म के वोटर को पार्टी के साथ जुड़ने की दावत दी. यह दावत कितनी महत्वपूर्ण है, इसे विधानसभा और लोकसभा में यूपी की पार्टियों को मिले वोटों से समझें. प्रचंड मोदी लहर में 2014 में यूपी में बीजेपी को 42 फीसदी वोट मिले और 2017 में विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी ने सूबे में 39 फीसदी वोट हासिल किए. यानी बीजेपी के लिए जो वोटर मोदी ने 2014 में कमाया था, वह वोटर कमोबेश पार्टी के साथ बना हुआ है. किसी भी पार्टी के लिए यह बहुत बड़ी कामयाबी है.
मोदी के विरोध में बसपा, सपा और कांग्रेस को मिला वोट भी 2014 और 2017 में तकरीबन एक सा रहा. अगर सामाजिक ढांचे के हिसाब से देखें तो अगड़ा, पिछड़ा और अति-पिछड़ों की बड़ी संख्या मोदी के पीछे लामबंद हुई. ये जो अति-पिछड़े बीजेपी के साथ आए, उसका श्रेय मोदी और अमित शाह की रणनीति को जाता है. इनमें से बहुत से वोटर बसपा और सपा से टूटकर भाजपा की तरफ आए और अब तक बने हुए हैं. नाई, कुशवाहा, दर्जी, कुम्हार, लुहार, निषाद जैसी कई अति पिछड़ी जातियां विशुद्ध रूप से पीएम मोदी के नाम पर बीजेपी से जुड़ीं और अब तक साथ हैं.
लेकिन मुस्लिम, यादव और दलित स्पष्ट तौर पर न सिर्फ बीजेपी से दूर हैं, बल्कि वे दूसरे खेमे से और मजबूती से चिपक गए हैं. इन प्रमुख जातियों को मिलाकर दूसरे खेमे का वोट 45 फीसदी से अधिक हो जाता है.
इस जबरदस्त खेमेबंदी को रोकने के दो ही उपाय हैं, पहला- महागठबंधन होने ही न दिया जाए और दूसरा कि उस पाले के चार से पांच फीसद वोट किसी तरह अपनी तरफ कर लिए जाएं. संत कबीर को याद करने के बहाने पीएम मोदी ने उसी चार-पांच फीसदी वोटर को रिझाने की मुहिम शुरू की है, जो पार्टी को विनिंग मार्जिन दे सकता है. इस मुहिम में पीएम मोदी को खुद इसलिए कूदना पड़ा, क्योंकि गोरखपुर जैसी बीजेपी की गढ़ सीट पर सपा ने अपना निषाद प्रत्याशी जिता लिया. निषादों ने लोकसभा और विधानसभा में बीजेपी को वोट किया था. लेकिन ये उपचुनाव वोट में दरार दिखा गया.
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