राजनीति परिदृश्य में आज सत्ता लोलुपता एवं पदलिप्सा
ललित गर्ग जी लिखते हैे कि समूची दुनिया के राजनीति परिदृश्य में सत्ता लोलुपता एवं पदलिप्सा व्याप्त है, प्रधानमंत्री तो क्या, कोई सांसद, विधायक एवं पार्षद भी स्वेच्छा से अपना पद-त्याग नहीं करता है। आज तक हमने दुनिया के किसी प्रधानमंत्री के बारे में यह नहीं सुना कि उसने स्वेच्छा से पद-त्याग किया Presents by www.himalayauk.org (Leading Digital Newsportal)
डॉ० शिबन कृष्ण रैणा लिखते हैं कि- प्रजावत्सल होने के साथ-साथ विद्याव्यसनी होना भी राजा के लिए परमावश्यक है। दरअसल, गद्दीदी पर बैठते ही आज का राजा इस उधेड़बुन में लग जाता है कि कहीं उसके नीचे से कोई उसकी जमीन खिसका न दे। इसीलिए उसका अधिकांश समय अपने को प्रतिष्ठापित या सुरक्षित करने में निकल जाता है और इसी वजह से साहित्य और साहित्यकार उसके लिए कोई बहुत ज्यादा मतलब या महत्त्व नहीं रखते। कौन नहीं जानता कि साहित्य समाज और संस्कृति का रक्षक होता है। बिना साहित्य के सभ्य समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती। जिस समाज का अपना साहित्य नहीं होता, वह समाज कभी भी विकास नहीं कर सकता और न ही किसी स्थान पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकता है। साहित्यकार का कार्य मात्र कलम चलाना नहीं है, बल्कि समाज के विकास में सक्रिय रूप से अपनी भूमिका का निर्वाह करना भी है। साहित्य के बिना राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति निर्जीव है।
साहित्यकार का दायित्व है कि वह ऐसे साहित्य का सृजन करे जो राष्ट्रीय एकता, समानता, विश्व-बंधुत्व और सद्भाव के साथ-साथ हाशिये के आदमी के जीवन को ऊपर उठाने में उसकी मदद करे। अपने लेखन द्वारा अच्छी सोच का प्रचार-प्रसार करे और मनुष्य की चित्त-वृत्तियों का परिष्कार कर उसे अच्छा इंसान बनने की प्रेरणा दे। जो काम भाषणों-व्याख्यानों से नहीं हो सकते, वे अच्छे लेखन से हो सकते हैं। सरकार की रीति-नीति का सम्यक खुलासा करने में एक निष्पक्ष और जागरूक लेखक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। ऐसी स्थिति में सरकार का कर्तव्य बनता है कि वह साहित्य-संस्कृति के प्रति उदासीन न होकर और उसे हाशिये पर न डाल कर इसके संरक्षण-संवर्धन लिए कुछ प्रभावशाली कार्य-योजनाएं बनाए।
जाॅन की ने रचा पद त्याग का नया अध्याय
– ललित गर्ग:-
न्यूजीलैंड के लोकप्रिय प्रधानमंत्री जॉन की ने अपने पद से इस्तीफा देकर दुनिया को चैंका दिया है। आठ वर्षों के कार्यकाल के बाद एकाएक अपने पद से मुक्त होने का चिन्तन ही आश्चर्यकारी होने के साथ-साथ राजनीति की एक ऐतिहासिक एवं विलक्षण घटना है। आज जबकि समूची दुनिया के राजनीति परिदृश्य में सत्ता लोलुपता एवं पदलिप्सा व्याप्त है, प्रधानमंत्री तो क्या, कोई सांसद, विधायक एवं पार्षद भी स्वेच्छा से अपना पद-त्याग नहीं करता है। आज तक हमने दुनिया के किसी प्रधानमंत्री के बारे में यह नहीं सुना कि उसने स्वेच्छा से पद-त्याग किया। सचमुच यह एक विरल घटना है, जो राजनीति के लिये सीख बनी है एवं इसने विश्व राजनीति का एक नया इतिहास गढ़ा है।
आज राजनीतिज्ञांे की सोच, जीवनशैली, विचार और नीति इतनी पतनोन्मुखी बन गई है कि सत्ता हथियाने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। कुर्सी के लिए आज कहां कयामत नहीं टूटती? सत्ता का व्यामोह कौन-से गलत रास्ते नहीं चुनता? कौन-सा ईमान नहीं बिकता, आदर्श नहीं चरमराते, सिद्धांत सूली पर नहीं चढ़ते, जीवनमूल्य अपाहिज नहीं होते, रिश्तों के नाम नहीं बदलते? सत्ता के लिये जब इतना सबकुछ होता है तो प्राप्त सत्ता और पद को कौन स्वैच्छा से त्यागेगा? लेकिन जॉन की ने सफल एवं यशस्वी आठ साल के कार्यकाल के चलयमान दौर में पद पर रहते हुए उसे त्याग देने का निर्णय लेना न केवल साहसिक बल्कि एक नये अध्याय का श्रीगणेश है। जॉन की का यह कहना कि मैंने आज तक जितने भी फैसले किए हैं, यह उन सभी में से सबसे ज्यादा कठिन फैसला है।
न्यूजीलैंड सुदूर पूर्व का महत्वपूर्ण देश है लेकिन वह इतना प्रसिद्ध नहीं है कि दुनिया उसके प्रधानमंत्रियों को नाम से जाने। लेकिन जाॅन की के इस निर्णय के बाद न्यूजीलैंड को इस रूप में जानेगी कि कोई प्रधानमंत्री यहां हुआ जिसने स्वेच्छा से अपने पद का त्याग कर दिया। यह अकेली घटना इस देश को चर्चित करने के लिये पर्याप्त है।
प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च पद त्याग की इस घटना का कारण कोई राजनीति संकट नहीं है, और न ही कोई ऐसी त्रासद घटना है जिसके लिये प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़े। इसका कारण पारिवारिक कहा जा रहा है लेकिन साथ-ही-साथ जाॅन की ने कहा है कि वे हमेशा नए टैलेंट-प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के पक्ष में रहते हैं और उन्हें आगे आते देखना चाहते हैं ये भी एक वजह है इस्तीफे की। उन्होंने कहा कि पार्टी एवं देश दोनों का नेता होने का अनुभव शानदार रहा। अचानक इस इस्तीफे की घोषणा से पूरा न्यूजीलैंड सन्न रह गया। उनके विरोधी भी अचंभे में पड़ गए। उनके विरोधी भी उनकी तारीफ कर रहे हैं। कुछ यह भी कह रहे हैं कि वे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री पद से नहीं, पार्टी-नेता के पद से भी इस्तीफा दे दिया है। अब वे संसद के साधारण सदस्य के रुप में ही रहेंगे। जाॅन की की उम्र अभी सिर्फ 55 साल है और उन्हें इस बात का श्रेय है कि वैश्विक मंदी के कठिन दौर में से न्यूजीलैंड को बाहर निकाल लिया था। जाॅन के बारे में उनके बेटे का कहना है कि उनके पिता एक आदर्श पुरुष हैं। वे जुझारु होने के साथ-साथ तरक्की पसन्द नेता है। राजनीति उनके लिये एक मिशन है। किसी भी देश की तरक्की वहां के शासक की दूरदर्शिता एवं व्यापक सोच पर निर्भर करती है। राजनीति में नये लोगों एवं प्रतिभाओं को भी अपनी क्षमताएं दिखाने का अवसर मिलना ही चाहिए। जब एक ही चेहरा बार-बार सत्ता पर काबिज होता जायेगा तो नयापन कैसे आयेगा? कैसे नयी प्रतिभाएं अपने कौशल और योग्यता से देश को प्रभावित करेंगी? सारे विश्लेषणों से मुक्त होकर जाॅन की ने यह दिखा दिया कि उपाधियां और पद कैसे छूटती हैं। सचमुच! यह घोषणा इस सदी के उन राजनेताओं के लिए सबक है जिनके जीवन में चरित्र से भी ज्यादा कीमती पद, प्रतिष्ठा, प्रशंसा और पैसा है।
आज प्रश्न नयी दुनिया निर्मित करने का ही नहीं, उस तंत्र का है जहां विषमताएं फन फैल रही हैं, अहं का चादर लंबी होती जा रही है, पारस्परिकता के सूत्र दफन हो रहे हैं। ऐसे परिवेश में प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च पद का त्याग निश्चित रूप से सर्वोच्च राष्ट्रीयता की तलाश में किए गए प्रस्थान का प्रमाण-पत्र है। अन्यथा सत्ता से छूटते ही व्यक्ति अकेला, असहाय, कमजोर, निराश हो जाता है। उसका चरित्र विवादों से घिर जाता है।
जाॅन की ने सत्ता छोड़ी, सत्य के द्वारा खुल गए। राष्ट्र के कल्याण में स्वयं को सौंपा, राष्ट्रीयता जीवंत हो उठी। आखिर इसी पल की मानवता को प्रतीक्षा थी कि कोई महापुरुष आए। राजनीति को नयी दिशा एवं नयी दृष्टि दे। सह-अस्तित्व का भाव जगाए। सबमें करुणा बांटे। सबको कल्याण का रास्ता दिखलाए। राजनीति के उज्ज्वल भविष्य का अभिनंदन करे।
सत्ता से जुड़ना और सत्ता से मुक्त होना-दोनों की प्रतिक्रिया आदमी के मन पर होती है। कहीं अहं जागता है, कहीं जीवन-मूल्यों की सुरक्षा के प्रति लापरवाही होती है। बिना दायित्व कौन किसकी चिंता करे, कौन किसके लिए जीये? पर न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री जाॅन की कि निष्ठा और नीति सबसे हटकर है। यहां पद मुख्य नहीं है, राष्ट्र मुख्य है और अपने राष्ट्र का विकास, समृद्धि और संरक्षण का दायित्व भी महत्वपूर्ण है। इसलिए जाॅन की ने प्रधानमंत्री जैसे पद से मुक्त होकर दुनिया के समक्ष एक नायाब और अविरल उदाहरण प्रस्तुत किया है। सचमुच! उनके इस पद त्याग से कोई खतरा नहीं हो सकता, इससे उनका दूरदर्शी चिंतन, पुरुषार्थी संकल्प, संयोजना, गतिशील उद्देश्य दिखाई देता है।
जाॅन की ने अपनी विविध परीक्षणों के बाद ही प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च पद के त्याग के नतीजे पर पहुंचे होंगे। सच तो यह है कि उनका पदत्याग कोई हंसी खेल नहीं। वटवृक्ष की छांह का सुखद आनंद पा लेने के बाद कोई भी साधारण वृक्ष के नीचे बैठे कैसे विश्राम और सुख पा सकता है?
जाॅन की के इस निर्णय ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मुझे सहसा आचार्य तुलसी के आचार्य पद विसर्जन की घटना याद आ गयी, जिसका मैं स्वयं साक्षी था। 18 फरवरी, 1994 की सुजानगढ की उस घटना में आचार्य तुलसी ने एक नया इतिहास रचा था। जाॅन की के पद विसर्जन की घटना भी जैन दर्शन एवं धर्म से प्रेरित ही लगती है। क्योंकि जैन धर्म में ही ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं कि कोई अरबपति जैन सेठ अचानक मुनि बन जाए, या कोई आम्रपाली-जैसी नगरवधू साध्वी बन जाए। भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसे कई उदाहरण अवश्य मिलते हैं। सम्राट अशोक हो या सिद्धार्थ का राजपाट छोड़कर संन्यासी बन जाना। स्वतंत्रता के बाद लालबहादूर शास्त्री एवं लोहिया ने भी पद से ज्यादा महत्व राष्ट्रीयता को दिया। जाॅन की के इस्तीफे ने जो सवाल उछाला है, वह यह है कि अपनी खुशी से बड़ी चीज है राष्ट्र के लिये त्याग करने की भावना?
प्रेषकः
(ललित गर्ग)
ई-253, सरस्वती कंुज अपार्टमेंट
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फोनः 22727486, 9811051133
तथा
’शिबन कृष्ण रैणा, अलवर
DR.S.K.RAINA
(डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)
Member,Hindi Salahkar Samiti,Ministry of Law & Justice
(Govt. of India)
SENIOR FELLOW,MINISTRY OF CULTURE
(GOVT.OF INDIA)
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