कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर तथा हरीश रावत मात खा गये

उत्‍तराखण्‍ड में कांग्रेस की दयनीय  हालत पहली बार हुई है जबकि कांग्रेस जनता के पास खाली हाथ जा रही है,   कांग्रेस ने बेरोजगारी भत्ते कार्ड के वितरण व रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया को बडी उपलब्‍धि  के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की, परन्‍तु यहां भी मात खा गयी- हालत यह है कि कांग्रेस प्रत्‍याशियों के पास पार्टी डंडे झण्‍डे भी उपलब्‍ध नही करा पा रही है,  कांग्रेस अध्‍यक्षा सोनिया गॉधी  का इस विधान सभा चुनाव में कोई भी चुनावी दौरा न होने से कांग्रेस दोनों राज्‍यों में  हवा में है, यूपी में अखिलेश्‍ा के दम पर कुछ टिकी है परन्‍तु प्रशांत की रणनीति फेल हुई है, वही उत्‍तराखण्‍ड में मुख्‍यमंत्री हर तरह दौड रहे हैं, फिर बहुमत पाने का दावा कर रहे हैं, मीडिया उनसे पूछती है कि- अपने कार्यकाल की तीन प्रमुख उपलब्धियां बताइए तो उनका जवाब होता है कि  मैं राज्य का पहला सीएम हूं, जिसने उत्तराखंडियत की समन्वित सोच का रोड मैप बनाया। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि सभी छोटे-बड़े विभागों में सवा हजार के करीब नई शुरुआत (पॉलिसी डिसीजन) की। आपदा के निराशाजनक परिदृश्य से राज्य को उबारा। आज राज्य देश के फास्टेस्ट ग्रोइंग स्टेट में शामिल हो गया है। असहाय, गरीबों को सम्मानजनक पेंशन दी, जिससे 2014 में गरीबी की रेखा के नीचे 32 फीसदी लोग थे, आज 12 फीसदी लोग रह गए हैं।  मीडिया सवाल करती है- कि तीन ऐसे काम जो न कर पाने की कसक है। तो हरीश रावत जवाब देते हैं – नए जिले नहीं बना पाया। दूसरा मलाल यह कि मंडुए और पहाड़ी फलों से शराब बनाने की फैक्ट्री नहीं लगा पाया। मंडुए की स्कॉच अंग्रेजों को नहीं पिला पाया। तीसरा बिंदु है नहीं फिर भी कहता हूं कि चकबंदी को पहाड़ पर व्यावहारिक रूप में लागू नहीं कर पाया।

इस तरह साफ हो जाता है कि इन विधानसभा चुनावों में प्रशांत किशोर तथा हरीश रावत मात खा गये-

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प्रशांत की सलाह पर कांग्रेस उत्तर-प्रदेश में कभी खाट सभाएं करती रही तो कभी जातीय गोलबंदी. कुछ घिसे-पिटे नारे भी उछाले गये. जनता के पास कांग्रेस खाली हाथ जा रही थी और अकेले ही चुनाव लड़ने का हौसला भी बांध रही थी. जब बात नहीं बनी तो कांग्रेस को बिहार की तरह ही उत्तर प्रदेश में सपा की शरण में जाना पड़ा. अब यदि इस चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को सफलता मिलती भी है तो उसका श्रेय उस गठबंधन को मिलेगा न कि कांग्रेस को और न ही प्रशांत की रणनीति को. चुनाव के ठीक पहले एक प्रमुख संघ नेता मनमोहन वैद्य ने आरक्षण पर बयान देकर जाने-अनजाने सपा और बसपा को मजबूत ही किया है.
प्रशांत किशोर ने संयुक्त राष्ट्र के साथ अफ्रीका में स्वास्थ्य अधिकारी के रूप में काम किया था. यदि नेता ईमानदार हो तो किसी प्रशांत किशोर से बेहतर रणनीति वह खुद बना सकता है और अपनी ली गई भूमिका के प्रति भी ईमानदार भी हो सकता है. प्रशांत किशोर उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेसी राजनीति की गाड़ी को अपने बल पर दौड़ाने में अंततः विफल रहे हैं. उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस के लिए कुछ कर पाने में विफल प्रशांत अलग से आलोचना के पात्र बने हुए हैं. विफलता का कारण प्रशांत की राजनीतिक समझ का अभाव होना बताया जा रहा है. दरअसल, वे कांग्रेस की गाड़ी को मुद्दों के ईंधन के बिना ही चलाना चाहते थे.
प्रशांत किशोर बहुत पहले से ही राहुल गांधी के संपर्क में थे. रायबरेली में राहुल गांधी अस्पताल बनवाना चाह रहे थे और प्रशांत उनकी मदद कर रहे थे. तब भी कुछ कारगर सलाह वे राहुल जी को दे सकते थे. बाद में जब वे कांग्रेस के रणनीतिकार बने तब तक कांग्रेस के हाथ से केंद्र की गद्दी खिसक गई थी. राहुल गाधी ने दिसंबर में यह बयान दिया था कि नोटबंदी से देश के सिर्फ 50 बड़े धनवान परिवारों को लाभ मिला है. क्या राहुल गांधी ऐसा बयान प्रशांत किशोर की सलाह पर दे रहे थे?
यदि नहीं तो क्या ऐसे बेसिर-पैर के बयान देने से प्रशांत ने उन्हें क्यों नहीं रोका?
यदि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के इन कदमों को प्रशांत ने जाना और समझा होता तो कम से कम कांग्रेस शासित राज्यों में वे कुछ उसी तरह के काम करवाने की सलाह देते, लेकिन उल्टे उन राज्यों से इस बीच भी घोटालों की ही खबरें आती रहीं.
इससे पहले नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की चुनावी सफलता के पीछे उन नेताओं के लोकलुभावन मुद्दे और मजबूत दलीय गठबंधन थे.
करीब एक साल पहले बिहार सरकार ने प्रशांत को मुख्यमंत्री का सलाहकार नियुक्त किया था. इस पद के साथ कई सुविधाए जुड़ी हुई हैं, साथ ही वे बिहार विकास मिशन की शासी निकाय के सदस्य भी हैं.
इतना ही नहीं, बिहार 2025 विजन डाक्युमेंट तैयार करने के लिए जिस सिटिजन अलाएंस को राज्य सरकार से 9 करोड़ 31 लाख रुपए मिले हैं, वह संस्था भी प्रशांत से जुड़ी हुई बताई जा रही है.
खबर है कि न तो विजन डाक्युमेंट का अता-पता है और न ही परामर्शी और बिहार विकास मिशन के कामकाज में प्रशांत का महीनों से कोई योगदान है. बिहार के राजनीतिक और प्रशासनिक हलकों में प्रशांत किशोर के इस गैर जिम्मेदाराना व्यवहार की चर्चा है.
2014 में लोकसभा चुनाव के समय प्रशांत नरेंद्र मोदी के और 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के समय नीतीश कुमार के रणनीतिकार थे.

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