राजस्थान- वसुंधरा राजे चुनावी परिदृश्य से ओझल सी
बीजेपी शासित राज्यों में वसुंधरा अकेली मुख्यमंत्री थीं जो दिल्ली के आगे झुकी नहीं. पार्टी नेतृत्व चुनावों का इंतज़ार कर रहा था. जैसे ही विधानसभा चुनावों में इनकी शिकस्त हुई, पार्टी ने राजे को साइड लाइन करना शुरू कर दिया.’ # राजे कई कारणों से केंद्रीय नेतृत्व से नाराज़ चल रही हैं इसीलिए इन चुनावों में वे न तो ज़्यादा दिलचस्पी दिखा रहीं और न ही सभाओं में ज़्यादा नज़र आ रही हैं.# उनके राजनीतिक विरोधियो को तवज्जो # प्रदेश में बंटे लोकसभा के कई टिकटों को लेकर नाराज़ हैं # शीर्ष नेतृत्व ने इस लोकसभा चुनावों में वसुंधरा की ज़्यादा सुनी नहीं हैं और टिकट वितरण में भी उनको इतना नहीं पूछा है #
#जयपुर में एक मई को जयपुर के मानसरोवर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली थी. एक बड़े मैदान में बनाए गए विशाल पांडाल में राजस्थान बीजेपी के लगभग सभी बड़े नेता मौज़ूद थे. यहां तक कि राज्यसभा सांसद भी, लेकिन इन बड़े चेहरों में प्रदेश भाजपा का सबसे बड़ा चेहरा मौजूद नहीं था. ये राजस्थान की 10 साल मुख्यमंत्री रहीं और भाजपा नेता वसुंधरा राजे थीं.
हालांकि पार्टी के लोगों का कहना है कि राजे उस दिन झुंझुनूं में रैली और सभाएं कर रही थीं, लेकिन यह बात राजनीतिक जानकारों के गले नहीं उतर रही कि प्रधानमंत्री की रैली हो और पूर्व मुख्यमंत्री उसमें शामिल ही न हों, ऐसा इसलिए क्योंकि वसुंधरा की सभाएं दिन में थीं और मोदी शाम को करीब 7:40 बजे जयपुर आए थे.
जानकारों का मानना है कि वसुंधरा राजे कई कारणों से केंद्रीय नेतृत्व से नाराज़ चल रही हैं इसीलिए इन चुनावों में वे न तो ज़्यादा दिलचस्पी दिखा रहीं और न ही सभाओं में ज़्यादा नज़र आ रही हैं.
वसुंधरा के नाराज़ होने के कयासों को मज़बूती इसीलिए भी मिलती है क्योंकि जिस दिन भाजपा ने तीन विधायकों वाली चार महीने पुरानी पार्टी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक दल और राजे के राजनीतिक विरोधी हनुमान बेनीवाल से गठबंधन किया तब राजे भाजपा दफ़्तर में हो रही संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी नहीं पहुंची थीं. उस समय राजे सिविल लाइंस स्थित बंगला नंबर 13 में ही थीं.
इस प्रेस कॉन्फ्रेंस को राजस्थान भाजपा के चुनाव इंचार्ज प्रकाश जावड़ेकर और हनुमान बेनीवाल संबोधित कर रहे थे. वसुंधरा का इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में न होना वहां काफ़ी चर्चा का विषय भी बना.
चर्चा तो यह भी बनी हुई है कि केंद्रीय नेतृत्व ने राजे की नाराज़गी को दूर करने की कोशिश भी नहीं की है और इसी के चलते वसुंधरा जान-बूझकर चुनावी परिदृश्य से ओझल सी हैं.
राजनीति में कयास और इशारे ही हक़ीक़त होते हैं, असल में जो दिख रहा होता है वह कई बार फ़साना भी साबित होता है. इस हक़ीक़त और फ़सानों के बीच एक सच यह भी है कि राजे प्रदेश में बंटे लोकसभा के कई टिकटों को लेकर नाराज़ हैं.
टिकट बंटवारे में राजे की अनदेखी को उनकी नाराज़गी का एक कारण बताया जा रहा है. वहीं, उनके राजनीतिक विरोधी माने जाने वाले जोधपुर में गजेंद्र सिंह शेखावत, राजसमंद सीट से उम्मीदवार जयपुर पूर्व राजघराने की दीया कुमारी और हनुमान बेनीवाल से गठबंधन को भी राजे की नाराज़गी से जोड़कर देखा जा रहा है.
इससे पहले भी विधानसभा चुनावों से ठीक पहले केंद्रीय नेतृत्व ने किरोड़ी लाल मीणा को वसुंधरा की नाराज़गी के बाद भी भाजपा में शामिल किया था.
चूंकि गजेंद्र सिंह शेखावत की राजस्थान में एंट्री को वसुंधरा राजस्थान में अपने एकाधिकार के लिए ख़तरा मानती हैं. इसे समझने के लिए पिछले साल राजस्थान भाजपा के लिए प्रदेश अध्यक्ष चुनने में हुई देरी को लेते हैं.
2018 में भाजपा को अजमेर और अलवर की लोकसभा और मांडलगढ़ विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनावों में हार का सामना करना पड़ा था. इसके बाद शीर्ष नेतृत्व ने वसुंधरा के ख़ास और तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी से इस्तीफ़ा ले लिया.
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने जोधपुर सांसद और केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए चुन लिया था लेकिन वसुंधरा ने वीटो लगा दिया. इस तरह राजस्थान भाजपा 70 से ज़्यादा दिन तक बिना प्रदेश अध्यक्ष के ही रही.
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि वसुंधरा ने शेखावत का विरोध इसीलिए किया क्योंकि प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा होने लगी थी कि अब वसुंधरा युग ख़त्म हुआ और आगे राजस्थान की कमान शेखावत ही संभालेंगे, लेकिन अपनी बात मनवाने के लिए जानी जाने वाली राजे ने सभी के मंसूबों पर पानी फेर दिया.
इतना ही नहीं कहा जाता है कि उस समय प्रदेश संगठन से जुड़े करीब दो दर्जन कद्दावर मंत्रियों और नेताओं ने राजे की रज़ामंदी से अपना डेरा दिल्ली में डाल दिया था. इन सभी ने दलील दी कि राजस्थान के राजनीतिक और जातिगत समीकरणों को देखते हुए पार्टी प्रदेशाध्यक्ष पद के लिए शेखावत का चयन ठीक नहीं है. लोकसभा चुनाव में पार्टी ने शेखावत को फिर से टिकट दिया है और कहा जा रहा है कि वसुंधरा इससे ख़ुद को असुरक्षित महसूस कर रही हैं.
इसके अलावा राजसमंद से जयपुर के पूर्व राजघराने की दीया कुमारी को टिकट दिए जाने को लेकर भी राजे नाराज़ बताई जा रही हैं. साल 2016 में अगस्त महीने में जयपुर के पूर्व राजघराने के होटल राजमहल पैलेस की 13 बीघा ज़मीन को सुबह-सुबह सैकड़ों पुलिस और जयपुर विकास प्राधिकरण की टीम ने सील लगाकर क़ब्ज़े में ले लिया.
तब सवाई माधोपुर से विधायक और राजघराने की सदस्य दीया कुमारी ने कोर्ट के कागज़ दिखाकर कार्रवाई को रोकने की मांग की लेकिन अधिकारियों ने दीया की नहीं सुनी. कहा जाता है कि इसके बाद से पूर्व राजघराने और वसुंधरा के संबंध ख़राब हो गए.
हालांकि दीया ने विधानसभा चुनावों के वक्त कहा था, ‘वसुंधरा से संबंध कुछ अधिकारियों की वजह से ख़राब हुए थे लेकिन अब सब ठीक है.’ लेकिन शायद ऐसा नहीं है. दीया को राजसमंद से उम्मीदवार बनाए जाने से राजे अभी भी नाराज़ बताई जा रही हैं.
प्रदेश के कुछ वरिष्ठ पत्रकारों की मानें तो शीर्ष नेतृत्व ने इस लोकसभा चुनावों में वसुंधरा की ज़्यादा सुनी नहीं हैं और टिकट वितरण में भी उनको इतना नहीं पूछा है. हालांकि राजे अपने बेटे दुष्यंत और कुछ और सीटों पर अपनी पसंद के उम्मीदवारों को टिकट दिलवाने में कामयाब हुईं. साथ ही दौसा से अपने विरोधी किरोड़ी लाल मीणा की पत्नी गोलमा का टिकट कटवाने में भी सफल हुई हैं, लेकिन दीया कुमारी, गजेंद्र सिंह शेखावत और हनुमान बेनीवाल को टिकट दिए जाने से वह ख़ासी नाराज़ हैं.
वसुंधरा के इस तरह चुनावी चर्चा से दूर हो जाने की एक वजह यह भी है कि जयपुर ग्रामीण लोकसभा क्षेत्र के प्रत्याशी राज्यवर्धन सिंह राठौड़ राजस्थान के सांसद होते हुए भी वसुंधरा के पक्ष के नहीं हैं.
पार्टी में राजस्थान के नेता भी यह बात जानते हैं कि राठौड़ प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह के काफी करीबी हैं. यह बात राजनीतिक गलियारों में काफी चलती आई है कि बीते पांच साल में राठौड़ जयपुर ग्रामीण सीट से सांसद होते हुए भी वसुंधरा के इतने नज़दीक नहीं गए हैं जितने बाकी सांसद हैं.
यह बात दूसरी है कि जब राजस्थान में ‘मोदी तुझ से बैर नहीं, वसुंधरा तेरी ख़ैर नहीं’ के नारे लग रहे थे तब एक चर्चा यह भी चली थी कि अब शाह और मोदी की जोड़ी युवाओं में राज्यवर्धन का क्रेज़ देखते हुए उन्हें सीएम कैंडिडेट बना सकती है.
एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ‘राजे हों या इतने ऊंचे ओहदे पर पहुंचा हुआ कोई और नेता. वह अपने स्तर पर आते दूसरे नेताओं से असुरक्षित महसूस करता है. राजे भी उसी असुरक्षित भावना से ग्रसित हैं और इसी भावना के चलते अशोक गहलोत को भी अपनी जगह खोने का डर है. इसीलिए कांग्रेस के चुनाव जीतने के बाद गहलोत ने सीएम बनने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया था. ठीक इसी तरह गजेंद्र सिंह शेखावत को प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनाने को लेकर राजे ने भी सारे पैंतरे आज़मा लिए थे.’
वहीं, प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ कहते हैं, ‘केंद्रीय नेतृत्व और राजे में लंबे समय तक खींचतान चली और बीजेपी शासित राज्यों में वसुंधरा अकेली मुख्यमंत्री थीं जो दिल्ली के आगे झुकी नहीं. पार्टी नेतृत्व चुनावों का इंतज़ार कर रहा था. जैसे ही विधानसभा चुनावों में इनकी शिकस्त हुई, पार्टी ने राजे को साइड लाइन करना शुरू कर दिया.’
खैर, राजनीति में नेताओं के इशारे भी भविष्य दिखाते हैं. हालांकि भविष्य तो कोई नहीं जानता, लेकिन वर्तमान तो यही दिखा रहा है कि वसुंधरा उन्हीं जगहों पर प्रचार के लिए जा रही हैं जहां उनकी पसंद के उम्मीदवार हैं या जिन्हें उनके कहने पर टिकट दिया गया है. हालांकि राजे को प्रचार के लिए जोधपुर भी भेजा गया था ताकि पार्टी यह दिखा सके कि गजेंद्र सिंह शेखावत और वसुंधरा राजे में सब ठीक चल रहा है.
सााभार माधव शर्मा