प्रसिद्ध धर्मशास्त्री रामानुजाचार्य; 1000वें जन्मदिन
हिमालयायूके एक्सक्लूसिव आलेख-
रामानुजाचार्य (अंग्रेजी: Ramanuja जन्म: १०१७ – मृत्यु: ११३७) विशिष्टाद्वैत वेदान्त के प्रवर्तक थे। वह ऐसे वैष्णव सन्त थे जिनका भक्ति परम्परा पर बहुत गहरा प्रभाव रहा। वैष्णव आचार्यों में प्रमुख रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में ही रामानन्द हुए जिनके शिष्य कबीर और सूरदास थे। रामानुज ने वेदान्त दर्शन पर आधारित अपना नया दर्शन विशिष्ट अद्वैत वेदान्त लिखा था। रामानुजाचार्य ने वेदान्त के अलावा सातवीं-दसवीं शताब्दी के रहस्यवादी एवं भक्तिमार्गी आलवार सन्तों के भक्ति-दर्शन तथा दक्षिण के पंचरात्र परम्परा को अपने विचारों का आधार बनाया।
संघ प्रमुख मोहन भागवत 4 अक्टूबर को पटना पहुंचेगे। बुधवार को नीतीश कुमार भोजपुर में भारतीय प्रसिद्ध धर्मशास्त्री रामानुजाचार्य के 1000वें जन्मदिन के मौके पर संघ प्रमुख मोहन भागवत के साथ नजर आएंगे। मोहन भागवत बुधवार को आरा के चंदवा गांव के लिए रवाना होंगे जहां पर उन्हें रामानुज स्वामी महाराज की 1000वीं जयंती के कार्यक्रम में हिस्सा लेना है।
www.himalayauk.org (Leading Digital Newsportal & Print Media) publish at Dehradun & Haridwar; Report by; CHANDRA SHEKHAR JOSHI-
१०१७ ईसवी सन् में रामानुज का जन्म दक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रान्त में हुआ था। बचपन में उन्होंने कांची जाकर अपने गुरू यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा ली। रामानुजाचार्य आलवार सन्त यमुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। गुरु की इच्छानुसार रामानुज से तीन विशेष काम करने का संकल्प कराया गया था – ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबन्धम् की टीका लिखना। उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्याग कर श्रीरंगम् के यतिराज नामक संन्यासी से सन्यास की दीक्षा ली।
मैसूर के श्रीरंगम् से चलकर रामानुज शालिग्राम नामक स्थान पर रहने लगे। रामानुज ने उस क्षेत्र में बारह वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया। उसके बाद तो उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिये पूरे भारतवर्ष का ही भ्रमण किया। ११३७ ईसवी सन् में १२० वर्ष की आयु पाकर वे ब्रह्मलीन हुए।
उन्होंने यूँ तो कई ग्रन्थों की रचना की किन्तु ब्रह्मसूत्र के भाष्य पर लिखे उनके दो मूल ग्रन्थ सर्वाधिक लोकप्रिय हुए – श्रीभाष्यम् एवं वेदान्त संग्रहम्। रामानुजाचार्य के दर्शन में सत्ता या परमसत् के सम्बन्ध में तीन स्तर माने गये हैं – ब्रह्म अर्थात् ईश्वर, चित् अर्थात् आत्म तत्व और अचित् अर्थात् प्रकृति तत्व।
वस्तुतः ये चित् अर्थात् आत्म तत्त्व तथा अचित् अर्थात् प्रकृति तत्त्व ब्रह्म या ईश्वर से पृथक नहीं है बल्कि ये विशिष्ट रूप से ब्रह्म के ही दो स्वरूप हैं एवं ब्रह्म या ईश्वर पर ही आधारित हैं। वस्तुत: यही रामनुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत का सिद्धान्त है।
जैसे शरीर एवं आत्मा पृथक नहीं हैं तथा आत्म के उद्देश्य की पूर्ति के लिये शरीर कार्य करता है उसी प्रकार ब्रह्म या ईश्वर से पृथक चित् एवं अचित् तत्त्व का कोई अस्तित्व नहीं हैं। वे ब्रह्म या ईश्वर का शरीर हैं तथा ब्रह्म या ईश्वर उनकी आत्मा सदृश्य हैं।
रामानुज के अनुसार भक्ति का अर्थ पूजा-पाठ या कीर्तन-भजन नहीं बल्कि ध्यान करना या ईश्वर की प्रार्थना करना है। सामाजिक परिप्रेक्ष्य से रामानुजाचार्य ने भक्ति को जाति एवं वर्ग से पृथक तथा सभी के लिये सम्भव माना है।
वेदों के निषेधाज्ञा पालन के नाम पर जब अल्पबुद्धि व्यक्तियों के प्रभाव में अन्धविश्वास पूर्ण कर्मकांड और निर्दयतापूर्वक पशु-हत्या हो रही थी और वेदों पर आधारित यथार्थ धर्म शिथिल पड़ने लगा था, तब एक समाज-सुधारक के रूप में इस धरातल पर बुद्ध प्रकट हुए ।
वैदिक साहित्य को पूर्णता से अस्वीकार करके उन्होंने तर्कसंगत नास्तिकतावाद विचारों एवं अहिंसा को जीवन का सर्श्रेष्ठ लक्ष्य बताया । कुछ ही समय बाद शंकराचार्य के दर्शन और सिद्धांतों ने बौद्ध विचारों को पराजित किया और सम्पूर्ण भारत में इसका विस्तार हुआ। शंकराचार्य द्वारा उपनिषदों और वैदिक साहित्य की प्रामाणिकता को पुनर्जीवित किया गया और बौद्ध मत के विरुद्ध, अस्त्र के रूप में प्रस्तुत किया गया । वेदों की व्याख्या में शंकराचार्य एक निष्कर्ष पर पहुंचे की जीवात्मा और परमात्मा एक ही हैं, और उन्होंने ‘अद्वैत-वेदांत’ मत स्थापित किया । उन्होंने प्रधानरूप से उन श्लोकों को महत्त्व दिया जिनसे बौद्ध मत के तर्कसंगत नास्तिकतावाद को खंडित किया जा सके, अंततोगत्वा शंकराचार्य की शिक्षाएं पूर्णरूपेण ईश्वरवाद का समर्थन नहीं करती थी, जिनका आगे चलकर अनावरण श्रील रामानुजाचार्य द्वारा होना निर्धारित था । वैष्णव मत की पुन: प्रतिष्ठा करने वालों में रामानुज या रामानुजाचार्य का महत्वपूर्ण स्थान है।
रामानुज का जन्म सन १०१७ ई. में हुआ था । ज्योतिषीय गणना के अनुसार तब सूर्य, कर्क राशि में स्थित था । एक राजपरिवार से सम्बंधित उनके माता-पिता का नाम कान्तिमती और आसुरीकेशव था । रामानुज का बाल्यकाल उनके जन्मस्थान, श्रीपेरुम्बुदुर में ही बीता । १६ वर्ष की आयु में उनका विवाह रक्षकम्बल से हुआ ।
पिता की मृत्यु के उपरांत रामानुजाचार्य कांची चले गए जहाँ उन्होंने यादव प्रकाश नामक गुरु से वेदाध्ययन प्रारंभ किया। यादव प्रकाश की वेदांत टिकाएं शंकर-भाष्य से प्रेरित थी और मायावादी विचारों का प्रतिपादन करती थी । श्री रामानुजाचार्य की बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि वे अपने गुरु की व्याख्या से भी अधिक विस्तृत व्याख्या कर दिया करते थे। रामानुज के गुरु ने बहुत मनोयोग से शिष्य को शिक्षा दी। वेदांत का इनका ज्ञान थोड़े समय में ही इतना बढ़ गया कि इनके गुरु यादव प्रकाश के लिए इनके तर्कों से पार पाना कठिन हो गया। रामानुज की विद्वत्ता की ख्याति निरंतर बढ़ती गई। इनकी शिष्य-मंडली भी बढ़ने लगी। यहाँ तक कि इनके गुरु यादव प्रकाश भी इनके शिष्य बन गए। रामानुज द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत ‘विशिष्टाद्वैत’ कहलाता है। श्रीरामानुजाचार्य बड़े ही विद्वान, सदाचारी, धैर्यवान और उदार थे। चरित्रबल और भक्ति में तो ये अद्वितीय थे।
श्रीरामानुजाचार्य कांचीपुरम में रहते थे। वे वहां श्री वरदराज भगवान की पूजा करते थे। कांचीपुरम के दक्षिण-पश्चिम में ३०० किमी दूर कावेरी तट पर पवित्र स्थल श्रीरंगम (तिरुचिरापल्ली) है। श्रीरंगम के मठाधीश प्रसिद्ध आलवार संत श्रीयामुनाचार्य थे। जब श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु सन्निकट थी, तब उन्होंने अपने शिष्य के द्वारा श्रीरामानुजाचार्य को अपने पास बुलवाया, किन्तु इनके पहुँचने के पूर्व ही श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु हो गयी।
अश्रुपूरित नेत्रों और भावपूर्ण हृदय के साथ वहाँ पहुँचने पर रामानुज ने देखा कि श्रीयामुनाचार्य के दाहिने हाथ की तीन अंगुलियाँ मुड़ी हुई थीं। वहां पर उपस्थित सभी शिष्यों ने इस रहस्य को जानना चाहा । श्रीरामानुजाचार्य ने समझ लिया कि श्रीयामुनाचार्य इसके माध्यम से कुछ कहना चाहते हैं। उन्होंने उच्च स्वर में कहा, “मै अज्ञानमोहित जनों को नारायण के चरणकमलों की अमृतवर्षा और शरणागति में लगाकर सर्वदा निर्विशेषवाद से उनकी रक्षा करता रहूँगा”। उनके इतना कहते ही एक अंगुली खुलकर सीधी हो गयी।
रामानुज ने पुनः कहा, “मैं लोगों की रक्षा हेतु समस्त अर्थों का संग्रह कर मंगलमय परम तत्वज्ञान प्रतिपादक श्रीभाष्य की रचना करूंगा”। इतना कहते ही एक और अंगुली खुलकर सीधी हो गयी। रामानुज पुनः बोले, “जिन पराशर मुनि ने लोगों के प्रति दयावश जीव, ईश्वर, जगत, उनका स्वाभाव तथा उन्नति का उपाय स्पष्ट रूप से समझाते हुए विष्णु-पुराण की रचना की, उनके ऋण का शोधन करने के लिए मै किसी दक्ष एवं महान भक्त शिष्य को उनका नाम दूंगा।”
रामानुज के इतना कहते ही अंतिम अंगुली भी खुलकर सीधी हो गयी। यह देखकर सब लोग बड़े विस्मित हुए और इस बात में किसी को संदेह नहीं रहा कि यह युवक यथासमय आलवन्दार (श्रीयामुनाचार्य) का आसन ग्रहण करेगा। श्रीरामानुजाचार्य ने ‘ब्रह्मसूत्र’, ‘विष्णुसहस्त्रनाम’ और अलवन्दारों के ‘दिव्य प्रबन्धम्’ की टीका कर श्रीयामुनाचार्य को दिए गए तीन वचनों को पूरा किया।
श्रीरामानुचार्य गृहस्थ थे, किन्तु जब इन्होंने देखा कि गृहस्थी में रहकर अपने उद्देश्य को पूरा करना कठिन है, तब इन्होंने गृहस्थ आश्रम को त्याग दिया और श्रीरंगम जाकर संन्यास धर्म की दीक्षा ले ली। इनके गुरु श्रीयादव प्रकाश को अपनी पूर्व करनी पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ और वे भी संन्यास की दीक्षा लेकर श्रीरंगम चले आये और श्रीरामानुजाचार्य की सेवा में रहने लगे। आगे चलकर उन्होंने गोष्ठीपूर्ण से दीक्षा ली।
गोष्ठीपूर्ण एक परम धार्मिक विद्वान् थे। गोष्ठीपूर्ण दीक्षा लेने और मन्त्र प्राप्त करने के लिए श्रीरामानुजाचार्य उनके पास गए। गोष्ठी पूर्ण ने उनके आने का आशय जानकर कहा, “किसी अन्य दिन आओ तो देखा जायेगा।” निराश होकर रामानुज अपने निवास स्थान को लौट आये। श्रीरामानुज इसके बाद फिर गोष्ठिपूर्ण के चरणों में उपस्थित हुए, परन्तु उनका उद्देश्य सफल नहीं हुआ। इस प्रकार अट्ठारह बार लौटाए जाने के बाद गुरुदेव ने रामानुजाचार्य को अष्टाक्षर नारायण मंत्र (‘ऊँ नमः नारायणाय’) का उपदेश देकर समझाया- वत्स! यह परम पावन मंत्र जिसके कानों में पड़ जाता है, वह समस्त पापों से छूट जाता है। मरने पर वह भगवान नारायण के दिव्य वैकुंठधाम में जाता है। यह अत्यंत गुप्त मंत्र है, इसे किसी अयोग्य को मत सुनाना क्योंकि वह इसका आदर नहीं करेगा। गुरु का निर्देश था कि रामानुज उनका बताया हुआ मन्त्र किसी अन्य को न बताएं। किंतु जब रामानुज को ज्ञात हुआ कि मन्त्र के सुनने से लोगों को मुक्ति मिल जाती है तो वे मंदिर की छत पर चढ़कर सैकड़ों नर-नारियों के सामने चिल्ला-चिल्लाकर उस मन्त्र का उच्चारण करने लगे। यह देखकर क्रुद्ध गुरु ने इन्हें नरक जाने का शाप दिया। इस पर रामानुज ने उत्तर दिया— यदि मन्त्र सुनकर हज़ारों नर-नारियों की मुक्ति हो जाए तो मुझे नरक जाना भी स्वीकार है। रामानुज का जवाब सुनकर गुरु भी प्रसन्न हुए।
वृद्धावस्था में रामानुजाचार्य प्रतिदिन नदी पर स्नान करने जाया करते थे। वे जब स्नान करने जाते तो एक ब्राह्मण के कंधे का सहारा लेकर जाते और लौटते समय एक शूद्र के कंधे का सहारा लेते। वृद्धावस्था के कारण उन्हें किसी के सहारे की आवश्यकता है, यह बात तो सभी समझते थे किंतु आते समय ब्राह्मण का और लौटते समय शूद्र का सहारा सबकी समझ से परे था। उनसे इस विषय में प्रश्न करने का साहस भी किसी में न था। सभी आपस में चर्चा करते कि वृद्धावस्था में रामानुजाचार्य की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। नदी स्नान कर शुद्ध हो जाने के बाद अपवित्र शूद्र को छूने से स्नान का महत्व ही भला क्या रह जाता है? शूद्र का सहारा लेकर आएं और स्नान के बाद ब्राह्मण का सहारा लेकर जाएं तो भी बात समझ में आती है। एक दिन एक पंडित से रहा नहीं गया, उसने रामानुजाचार्य से पूछ ही लिया- प्रभु आप स्नान करने आते हैं तो ब्राह्मण का सहारा लेते हैं किंतु स्नान कर लौटते समय शूद्र आपको सहारा देता है। क्या यह नीति के विपरीत नहीं है? यह सुनकर आचार्य बोले- मैं तो शरीर और मन दोनों का स्नान करता हूं। ब्राह्मण का सहारा लेकर आता हूं और शरीर का स्नान करता हूं किंतु तब मन का स्नान नहीं होता क्योंकि उच्चता का भाव पानी से नहीं मिटता, वह तो स्नान कर शूद्र का सहारा लेने पर ही मिटता है। ऐसा करने से मेरा अहंकार धुल जाता है और सच्चे धर्म के पालन की अनुभूति होती है।
श्रीरामानुजाचार्य ने भक्तिमार्ग का प्रचार करने के लिये सम्पूर्ण भारत की यात्रा की। इन्होंने भक्तिमार्ग के समर्थन में गीता और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा। वेदान्त सूत्रों पर इनका भाष्य श्रीभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। इनके द्वारा चलाये गये सम्प्रदाय का नाम भी श्रीसम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय की आद्यप्रवर्तिका श्रीमहालक्ष्मी जी मानी जाती हैं। श्रीरामानुजाचार्य ने देश भर में भ्रमण करके लाखों लोगों को भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया। यात्रा के दौरान अनेक स्थानों पर आचार्य रामानुज ने कई जीर्ण-शीर्ण हो चुके पुराने मंदिरों का भी पुनर्निमाण कराया। इन मंदिरों में प्रमुख रुप से श्रीरंगम्, तिरुनारायणपुरम् और तिरुपति मंदिर प्रसिद्ध हैं। इनके सिद्धान्त के अनुसार भगवान विष्णु ही पुरुषोत्तम हैं। वे ही प्रत्येक शरीर में साक्षी रूप से विद्यमान हैं। भगवान नारायण ही सत हैं, उनकी शक्ति महा लक्ष्मी चित हैं और यह जगत उनके आनन्द का विलास है। भगवान श्रीलक्ष्मीनारायण इस जगत के माता-पिता हैं और सभी जीव उनकी संतान हैं।
श्री रामानुजाचार्य १२० वर्ष की आयु तक श्रीरंगम में रहे । वृद्धावस्था में उन्होंने भगवान् श्री रंगनाथ जी से देहत्याग की अनुमति लेकर अपने शिष्यों के समक्ष अपने देहावसान के इच्छा की घोषणा कर दी । शिष्यों के बीच घोर संताप फ़ैल गया और सभी उनके चरण कमल पकड़कर अपने इस निर्णय का परित्याग करने की याचना करने लगे।
इसके तीन दिन पश्चात श्री रामानुजाचार्य शिष्यों को अपने अंतिम निर्देश देकर इस भौतिक जगत से वैकुण्ठ को प्रस्थान कर गए ।
— श्री रामानुजाचार्य के अपने शिष्यों को दिए गए अन्तिम निर्देश : —
१) सदैव ऐसे भक्तों का संग करो जिनका चित्त भगवान् के श्री चरणों में लगा हो और अपने गुरु के समान उनकी सेवा करो ।
२) सदैव वेदादि शास्त्रों एवं महान वैष्णवों के शब्दों में पूर्ण विश्वास रखो ।
३) काम, क्रोध एवं लोभ जैसे शत्रुओं से सदैव सावधान रहो, अपनी इंद्रियों के दास न बनो ।
४) भगवान् श्री नारायण की पूजा करो और हरिनाम को एकमात्र आश्रय समझकर उसमे आनंद अनुभव करो ।
५) भगवान् के भक्तों की निष्ठापूर्वक सेवा करो क्योंकि परम भक्तों की सेवा से सर्वोच्च कृपा का लाभ अवश्य और अतिशीघ्र मिलता है ।
HIMALAYA GAURAV UTTRAKHAND (www.himalayauk.org) Leading Digital Newsportal)
Availble in: FB, Twitter, whatsup Groups & e-edition & All social Media; CS JOSH- EDITOR, MOB. 9412932030, Mail; himalayauk@gmail.com