लोकसभा चुनाव से ऐन पहले ये लोकलुभावन ब्रह्मास्त्र
सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण देना केंद्र सरकार के लिए नहीं होगा आसान #पा-बसपा ने यूपी में अपने चुनावी गठबंधन में कांग्रेस को रणनीति के तहत शामिल नहीं करने का फैसला किया है. उसके पीछे बड़ी वजह मानी जा रही है कि बीजेपी के सवर्ण तबके में बंटवारे के लिहाज से कांग्रेस और सपा-बसपा अलग-अलग चुनाव लड़ने जा रहे हैं ताकि सवर्णों का वोट बीजेपी और कांग्रेस में विभाजित हो जाए.
# HIGH LIGHT; असम में बीजेपी को लगा बड़ा झटका #
सुप्रीम कोर्ट इससे पहले भी कई बार आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के फैसलों पर रोक लगा चुका है. करीब दो महीने बाद लोकसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में सवर्णों को आरक्षण देने का फैसला बीजेपी के लिए गेम चेंजर साबित हो सकता है. हाल ही में संपन्न हुए मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार हुई थी. इस हार के पीछे सवर्णों की नाराजगी को अहम वजह बताया जा रहा है. पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बीजेपी+ को 80 में से 73 सीटें मिली थीं. इस बार बीजेपी को चुनौती देने के लिए समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने हाथ मिला लिया है. इसके बाद माना जा रहा था कि बीजेपी इस गठबंधन से निपटने के लिए कोई बड़ा कदम उठा सकती है. सवर्णों को आरक्षण देने के फैसले को सरकार का मास्टस्ट्रोक माना जा रहा है.
लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने सवर्णों को सरकारी नौकरी और उच्च शिक्षा में 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला लिया है. इस फैसले के अनुसार, हर धर्म की सवर्ण जातियों को आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा. हालांकि, सवर्ण जातियों के आरक्षण पर सरकार की डगर काफी मुश्किल से भरी नजर आ रही है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट इससे पहले भी कई बार आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के फैसलों पर रोक लगा चुका है. वहीं, इस स्थिति से बचने के लिए केंद्र सरकार मंगलवार (8 जनवरी) को संसद में संविधान संसोधन का प्रस्ताव लाएगी. पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल (ASG) अमरेन्द्र शरण ने कहा कि आर्थिक तौर पर आरक्षण दिए जाने की संविधान में व्यवस्था नहीं है. सिर्फ शैक्षणिक/सामाजिक आधार पर पिछड़ेपन को आधार बनाकर ही आरक्षण की व्यवस्था की गई थी. उन्होंने कहा कि सरकार के इस कदम से करीब 60 फीसदी आरक्षण हो जाएगा. ये सुप्रीम द्वारा तय (अधिकतम 50 फीसदी) आरक्षण की सीमा से ज्यादा है. लिहाजा, उसकी न्यायिक समीक्षा हो सकती है, सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले को सरकार के लिए वैध ठहराना मुश्किल होगा. अमरेन्द्र शरण ने बताया कि अगर सरकार इसके लिए संविधान में संसोधन कर कानून बना कर उसे संविधान की नौंवी अनुसूची में भी डालती है, तो भी 2007 में दिये गए सुप्रीमकोर्ट के नौ जजों के फैसले के मुताबिक यह फैसला न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ सकता है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूर्व में दिए गए इस फैसले के मुताबिक, इस अनुसूची में शामिल वो कानून भी न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ सकता है, अगर वो संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ हो. पूर्व ASG अमरेंद्र शरण के मुताबिक, समानता भी संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है, लिहाजा इसके हनन के आधार पर इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है. दरअसल, संविधान में आरक्षण का प्रावधान सामाजिक असमानता के आधार पर है. वहीं, मोदी सरकार का हालिया फैसला आर्थिक आधार पर सवर्णों को आरक्षण देने का है. संविधान के अनुसार, आय और संपत्ति के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता है. संविधान के अनुच्छेद 16(4) के अनुरूप आरक्षण का आधार केवल समाजिक असमानता ही हो सकती है. वर्तमान में पिछड़े वर्गों का कुल आरक्षण 49.5 फीसदी है. इसमें अनुसूचित जाति (एससी) को 15, अनुसूचित जनजाति (एसटी) 7.5 और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को 27 फीसदी आरक्षण मिलता है. वर्ष 1963 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आरक्षण की सीमा को आमतौर पर 50 फीसदी से ज्यादा नहीं बढ़ाया जा सकता है.
केंद्र सरकार ने लोकसभा चुनाव से ऐन पहले ये लोकलुभावन ब्रह्मास्त्र चलाया है. चुनाव से पहले सवर्णों की नाराजगी दूर करने के लिए आरक्षण का फैसला लेकर मोदी सरकार ने ये साबित कर दिया कि वो बड़े फैसलों का रिस्क उठाने की ताकत रखती है. इसी के साथ सरकार का ‘सबका साथ-सबका विकास’ का दावा भी मजबूत हो गया. तभी मोदी सरकार के इस फैसले को लोकसभा चुनाव के तहत ‘मास्टर-स्ट्रोक’ माना जा रहा है.
सवर्णों को आर्थिक रूप से आरक्षण की मांग पिछले 17 साल से सरकारों के पास लंबित थी. ये एक ऐसा मुद्दा था जिसे छू कर हाथ जलाने की हिम्मत भी किसी में नहीं थी. हालांकि, संविधान ने समाज में पिछड़े लोगों के लिए जातिगत आरक्षण की व्यवस्था की है. ये और बात है कि उस व्यवस्था का फायदा वो लोग भी उठा रहे हैं जो आर्थिक रूप से सशक्त और मजबूत हैं.
वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्व के सभी फैसलों में कहा है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाना समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन है. आइए नजर डालते हैं न्यायपालिका द्वारा पूर्व में दिए गए उन फैसलों पर जब उसने आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के फैसलों पर रोक लगाई….
केंद्र सरकार ने लोकसभा चुनाव से पहले मास्टरस्ट्रोक खेला है. मोदी सरकार ने फैसला लिया है कि वह सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण देगी. सोमवार को पीएम मोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट की हुई बैठक में सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण देने के फैसले पर मुहर लगाई गई. कैबिनेट ने फैसला लिया है कि यह आरक्षण आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को दिया जाएगा. आरक्षण का लाभ सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा में मिलेगा.
बताया जा रहा है कि आरक्षण का फॉर्मूला 50%+10 % का होगा. सूत्रों का कहना है कि लोकसभा में मंगलवार को मोदी सरकार आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को आरक्षण देने संबंधी बिल पेश कर सकती है. सूत्रों का यह भी कहना है कि सरकार संविधान में संशोधन के लिए बिल ला सकती है. इसके तहत आर्थिक आधार पर सभी धर्मों के सवर्णों को दिया जाएगा आरक्षण. इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन होगा. केंद्र सरकार के इस फैसले पर वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री ने कहा कि इसे कहते हैं 56 इंच का सीना.
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गुवाहाटी: असम गण परिषद (एजीपी) ने नागरिकता संशोधन विधेयक के मुद्दे पर सोमवार को असम की बीजेपी नीत सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया. एजीपी अध्यक्ष और मंत्री अतुल बोरा ने यह जानकारी दी. यह विधेयक बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के गैर मुस्लिमों को भारत की नागरिकता देने के लिए लाया गया है.
बोरा ने कहा कि एजीपी के एक प्रतिनिधिमंडल ने नयी दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह से मुलाकात की थी. इसके बाद यह निर्णय लिया गया.
गृहमंत्री से मुलाकात के बाद, नयी दिल्ली में बोरा ने कहा, ‘‘ हमने इस विधेयक को पारित नहीं कराने के लिए केंद्र को मनाने के लिए आज आखिरी कोशिश की. लेकिन सिंह ने हमसे स्पष्ट कहा कि यह लोकसभा में कल (मंगलवार) पारित कराया जाएगा. इसके बाद, गठबंधन में बने रहने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है.’’
इससे पहले यहां एजीपी के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत ने बयान दिया था कि अगर नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2016 लोकसभा में पारित होता है तो उनकी पार्टी सरकार से समर्थन वापस ले लेगी.
यह विधेयक नागरिकता कानून 1955 में संशोधन के लिए लाया गया है. यह विधेयक कानून बनने के बाद, अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्म के मानने वाले अल्पसंख्यक समुदायों को 12 साल के बजाय छह साल भारत में गुजारने पर और बिना उचित दस्तावेजों के भी भारतीय नागरिकता मिल सकेगी.
पूर्वोत्तर राज्यों में इस विधेयक के खिलाफ लोगों का बड़ा तबका प्रदर्शन कर रहा है. कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, माकपा समेत कुछ अन्य पार्टियां लगातार इस विधेयक का विरोध कर रही हैं. उनका दावा है कि धर्म के आधार पर नागरिकता नहीं दी जा सकती है और यह असंवैधानिक है.