2200 सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में देने की तैयारी
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उत्तराखंड सरकार 2200 सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में देने की तैयारी कर चुकी है। सुनने में तो यहां तक आ रहा है कि दिल्ली के कुछ शिक्षा के व्यापारियों का सरकार पर लगातार दबाव बना हुआ है। इनके दबाव का असर ही हुआ कि बीस सरकारी स्कूलों के संचालन हेतु टेंडर भी निकाल दिए गए हैं। अजीम प्रेम जी फाउंडेशन ने दो जिले उत्तरकाशी और उधम सिंह नगर का ठेका भी ले लिया है। शुरुआती दौर में उत्तरकाशी जिले के मातली नामक स्थान पर उन्होंने तीस एकड़ जमीन भी खरीद ली है। सरकार के योग्य शिक्षा अधिकारियों एवं शिक्षकों को सरकारी मानदंड से दोगुना वेतन पर नियुक्ति की प्रक्रिया भी शुरू कर दी गई है। कुछ के साथ मोल-भाव चल रहा है। आने वाले कुछ सालों में हजारों विद्यालय निजी हाथों में चले जाएंगे। क्योंकि सरकार और विश्व बैंक ने मिल कर 1997 से ही सरकारी शिक्षा व्यवस्था को पूर्ण रूप से ध्वस्त करने का काम शुरू कर दिया था, जब सरकारी स्कूलों में विश्व बैंक के सहयोग से सर्व शिक्षा अभियान की शुरुआत हुई थी और मुकेश अंबानी इस अभियान के राष्ट्रीय सलाहकार बनाए गए थे।
व्यापारी देशों की एक घोषित नीति रही है। गरीब देशों के जिस किसी भी मुनाफे से जुड़े सरकारी प्रतिष्ठान पर उसकी नजर गड़ जाती है उसको हड़पने के लिए वे दो तरह की रणनीति अपनाते हैं, एक उस देश की सरकार को विश्व बैंक से कर्ज दिलाओ और अपने एजेंडे के आधार पर उस सेक्टर के कथित विकास के लिए सरकार के ऊपर दबाव बनाओ। दूसरा उस सेक्टर के कर्मचारियों और अधिकारियों को जो वेतन मिलता है उसमें अतिरिक्त आय जोड़कर उन्हें उनके मूल कामों से हटा कर अन्य कामों में लगा दो। उनकी कोशिश होती है कि उस प्रतिष्ठान के कर्मचारियों को भ्रष्ट करके या कोई अन्य कारणों से इतना बदनाम कर दो कि लोगों की ओर से खुद ही निजीकरण की मांग उठने लगे। अब उनके इस जाल में हमारे देश की सरकारी शिक्षा व्यवस्था पूर्ण रूप से फंस चुकी है और वे अपने स्वाभाविक चेहरे के साथ सामने भी आ गए हैं।
शिक्षक की छवि हमारे समाज में बेहद सम्मान वाली रही है। आज उसकी यह छवि खतरे में पड़ चुकी है। क्योंकि विश्व बैंक के दबाव के चलते सरकार शिक्षकों से गैर शैक्षणिक काम लेकर उनको खलनायक साबित करने में लगी है। पहले प्राथमिक विद्यालयों में सरकार द्वारा थोपे गए डीपीईपी एवं एसएसए के तहत अनुमानित दो दर्जन से अधिक कार्यक्रमों में जैसे विद्यालय स्तर पर सतत एवं व्यापक मूल्यांकन, ग्राम शिक्षा समिति एवं विद्यालय प्रबंधन समिति द्वारा मूल्यांकन के अलावा विद्यालय कोटिकरण, समेकित शिक्षा, कंप्यूटर एडेड लर्निंग प्रोग्राम, समर रीड कार्यक्रम, नींव, एनपीईजीएल, मिड डे मील, सेवारत अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम, सामुदायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम, निर्माण कार्य, टीएलएम प्रतियोगिता, सीआरजी, बीआरजी, डीआरजी कार्यशालाएं, सृजन प्रतियोगिता और हर ब्लॉक में कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालय में अध्यापकों की अनिवार्य भागीदारी के चलते वे अधिकांश समय स्कूलों से अनुपस्थित ही रहते हैं। जहां अध्यापकों को ग्रीष्म एवं शीत कालीन अवकाशों तक में उक्त प्रशिक्षणों को पूरा करना होता है वहीं कक्षा आठ तक के अधिकांश बच्चों को हिंदी तक की पुस्तकें पढऩी नहीं आ रही हैं। जिसका जनता और सरकार द्वारा सीधा दोष शिक्षकों के सर ही मढ़ा जाता है। उक्त प्रशिक्षण के बारे में बात करेंगे तो पता चलेगा की बच्चों के चहुंमुखी विकास के नाम से शिक्षक स्कूल से गायब हैं। इसका परिणाम यह है कि खुद विश्व बैंक सारे विश्व में बदनाम करता फिर रहा है कि भारत के सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले नब्बे प्रतिशत बच्चे किसी काम के नहीं रहते हैं। जिससे अध्यापकों की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
सर्व शिक्षा अभियान का कार्यक्रम जब शुरू हुआ और उस दौर में शिक्षक जब प्रशिक्षण के नाम से बाहर जाने लगे तो लोगों को लगा कि शायद उनके बच्चों के भविष्य को लेकर सरकार सच में कुछ गंभीर हो गई है। अध्यापकों को भी लगा कि उनको अच्छा एक्सपोजर मिलेगा तो वे बच्चों के लिए कुछ ठोस कर पाएंगे। लेकिन किसी को यह पता नहीं था कि जो शिक्षक प्रशिक्षण के नाम पर स्कूलों से बाहर जा रहा है उसके जिम्मे ढेर सारे गैर शैक्षणिक काम लगा दिए जाएंगे। इन कथित प्रशिक्षणों के नाम पर सरकार और विश्व बैंक ने कई प्रयोगों का सिलसिला सरकारी स्कूलों में शुरू क्या किया उसके दुष्परिणाम अध्यापकों और आम लोगों के बीच एक अविश्वास की दीवार खड़ी हो गई है के रूप में आमने आ रहे हैं। जो नवाचारी प्रयोग स्कूलों में चलाए जा रहे हैं उससे समाज को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। कई एनजीओ के नए आईडिया की प्रयोगशाला भी सरकारी स्कूल ही बन रहे हैं। अगर यह कह जाय कि सरकारी स्कूलों को विश्व बैंक ने नवाचारी प्रयोग की मात्र प्रयोगशाला बनाकर रख दिया है तो ज्यादा ठीक रहेगा। हमारी सरकारी शिक्षा व्यवस्था को चौपट करने के बाद विश्व बैंक से समय-समय पर जो रिपोर्ट आती है उसे सब जानते ही हैं। आज हालात यह है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का माहौल पूर्णरूप से अनुपस्थित है। सरकारी शिक्षण संस्थाओं से लोगों का विश्वास उठ चुका है। इसका सीधा फायदा उन संस्थाओं को हो रहा है जो शिक्षा को या तो व्यापार का केंद्र बनाना चाहते हैं या अपने सिद्धांतों के आधार पर हांकना चाहते हैं। उसी का परिणाम है कि गांव के थोड़े बहुत जागरूक लोगों ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से निकालकर निजी स्कूलों में दाखिला दिला दिया है। आज शिक्षा के प्रति घोर लापरवाह या विकल्पहीन लोगों के बच्चे ही सरकारी स्कूल में पढऩे के लिए मजबूर हैं।
पहले प्राथमिक विद्यालय स्थर पर डीपीइपी, जूनियर स्तर पर सर्व शिक्षा अभियान और अब हाई स्कूल और इंटर मीडिएट स्तर पर राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (रमसा) शुरू कर दिया गया है। इसके पीछे के खेल को आप इस तरह भी देख सकते हैं। ये सब कार्यक्रम एक समयबद्ध कार्यक्रम (एसएसए पहले 2010 और अब इसे बढ़ा कर 2017 कर दिया गया है। रमसा 2011 से शुरू कर दिया गया है। ) के तहत संचालित हो रहे हैं। इसका उद्देश्य शत-प्रतिशत नामांकन धारण एवं ठहराव, 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को कक्षा 8 तक गुणवत्ता परक शिक्षा पूरी करने के साथ विद्यालय प्रबंधन में समुदाय की सक्रिय भागीदारी से सामाजिक भेदभाव दूर करना आदि था। अब रमसा शुरू हुआ तो उसके अंतर्गत कई प्रोजेक्ट एवं प्रयोगशालाओं में प्रयोग के कार्यक्रम तय हैं। इसके लिए शिक्षा विभाग में अलग से विज्ञान कांग्रेस का गठन कर कई शिक्षक इस प्रोग्राम के तहत संबद्ध कर दिए गए हैं। वे अध्यापक विज्ञान कांग्रेस के नाम से स्कूलों से बाहर हो गए हैं।
उत्तराखंड राज्य में सर्व शिक्षा अभियान के अंतर्गत प्राथमिक विद्यालयों के संचालन हेतु राजकीय प्राथमिक विद्यालय में 40 बच्चों पर 1 अध्यापक की नियुक्ति की व्यवस्था की गई थी। उच्च प्राथमिक विद्यालय में संचालन हेतु 100 से कम छात्र सं. पर 3 अध्यापकों की नियुक्ति की व्यवस्था थी। राज्य का अधिकांश हिस्सा पहाड़ी होने के कारण सबसे अधिक प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालय दुर्गम एवं अति दुर्गम क्षेत्रों में स्थित है। राज्य में कुल राजकीय प्राथमिक विद्यालयों की संख्या 12684 है। इनमें 17 प्रतिशत विद्यालयों में एकल अध्यापकीय शिक्षण व्यवस्था है। इस प्रकार से राज्य में लगभग 4599 राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालयों में 116 में से एकल अध्यापकीय शिक्षण व्यवस्था है।
अब सवाल उठना लाजमी है कि सर्व शिक्षा अभियान के तहत विद्यालयों में प्रतिदिन कई नवाचारी प्रयोग किए जा रहे हैं तो एक अध्यापक द्वारा संचालित प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालयों में गुणवत्ता परख शिक्षा का लक्ष्य कैसे पूरा हो सकता है? अध्यापकों की गैर शैक्षणिक कार्यों की सूची इतनी लंबी है कि उसे शिक्षा से जानबूझ कर विमुख करने का षड्यंत्र साफ दिखाई देता है। वह दिन भर मध्याह्न भोजन योजना, अध्यापक डायरी, एसएसए परियोजना से संबंधित अनेकों सूचनाओं के निर्माण के साथ सूचनाओं का संकलन, विश्लेषण एवं विद्यालय में चलने वाले निर्माण के कार्यक्रम में बुरी तरह से उलझा रहता है। प्रारंभिक शिक्षा से जुड़े इन अध्यापकों को सर्व शिक्षा अभियान के सेवारत प्रशिक्षणों, अभिमुखीकरण कार्यशालाओं व अन्य नवाचारी कार्यक्रमों के शिविरों एवं बैठकों में प्रतिभाग हेतु बुलाया जाता है। ऐसी स्थिति में एकल विद्यालय वाले स्कूल तो बंद ही हो जाते हैं। यह सब तो शिक्षा के विकास के नाम पर चलने वाला खेल है जो आम जनता की समझ से बाहर होने के कारण शिक्षक बेचारा उनकी नजरों की भी किरकिरी बना हुआ है। इन कार्यक्रमों के अतिरिक्त सरकार द्वारा त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव, विधान सभा एवं लोक सभा चुनाव से पहले निर्वाचन सूची निर्माण के लिए अध्यापकों को स्कूल से हटाया जाता है, उसके बाद पुनर्निरीक्षण की जिम्मेदारी के बाद चुनाव संपन्न कराने की जिम्मेदारी भी अध्यापकों के सर ही आ पड़ती है। इस पूरी प्रक्रिया में अध्यापक कई महीनों उलझा रहता है। सवाल उठता है कि वह जब वापस स्कूल में पहुंचता है, स्कूल पाठ्यक्रम को कैसे पूरा करता होगा? सरकारी स्कूल में पढऩे वाले बच्चों का भविष्य कैसा होगा…? इन सबके गैर शिक्षण संपादन के बावजूद भी अध्यापकों को कुछ समय मूल्यांकन की प्रक्रिया से भी गुजरना पड़ता है। जो कई स्तरीय होती है।
अध्यापकों को स्कूलों से कितना समय बाहर रखा जाता है उक्त चार्ट से कुछ तस्वीर साफ हो जाएगी।
इस चार्ट में जो कुछ भी दिन अध्यापक स्कूल में दे रहा है इसमें एक तो उनकी किसी प्रकार की छुट्टियों को नहीं जोड़ा गया है और दूसरे गांव के वे कार्यक्रम जो स्कूलों में आयोजित किए जाते हैं और विभागीय कार्यक्रमों में जैसे हिंदी सप्ताह, वृक्षारोपण सप्ताह, विज्ञान दिवस, साक्षरता रैलियां, पर्यावरण रैलियां, पल्स पोलियो के खिलाफ रैलियां, एड्स के खिलाफ जन जागरण रैलियां, इको क्लब के कार्यक्रम, स्काउट एवं गाईड कैंप, हाल में शुरू हुआ राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (रमसा) के कार्यक्रम, विभिन्न जयन्तियों पर होने वाले आयोजन, राष्ट्रीय पर्वों के कार्यक्रम के साथ हर माह करोड़ों का वारा-न्यारा करने वाले एनजीओ के हर दिन उगने वाले नए वैचारिक प्रयोग इस चार्ट में शामिल नहीं किए गए हैं।
अतीत में कई लोग सवाल उठाते आ रहे थे कि जब अध्यापक स्कूल में ही नहीं है तो उक्त प्रयोग क्यों और किसके लिए किए जा रहे है? उसका परिणाम अब आना शुरू हो गया हैं। उत्तराखंड सरकार 2200 स्कूलों को निजी हाथों में देने की प्रक्रिया शुरू कर चुकी है और इन स्कूलों के पक्ष में बोलने वाला कोई आम आदमी नहीं है। कुछ शिक्षक संगठन विरोध में उतरे तो एक तरफ चतुर सरकार ने उन्हें दो साल का समय देकर स्कूलों में छात्र संख्या बढ़ाने के लिए कह दिया है। दूसरी तरफ 20 सरकारी स्कूलों के संचालन हेतु टेंडर आमंत्रित कर दिए हैं। सरकार जानती है कि शिक्षक संगठनों का जो टारगेट समुदाय है उस समुदाय के बच्चों के लिए आरटीआई के तहत निजी स्कूलों में पच्चीस प्रतिशत मुफ्त शिक्षा का प्रावधान कर दिया गया है। वैसे भी शिक्षक संगठनों की विश्वसनीयता इतनी संदिग्ध कर दी गई है कि आम आदमी अब इन पर विश्वास करने को कतई तैयार नहीं दिखता। वह अपने बच्चों का भविष्य स्कूलों के निजीकरण में ही देख रहा है। वह इतना त्रस्त है कि अपने बच्चों के भविष्य को लेकर उसे फिलहाल अपनी लूट की कोई चिंता नहीं है। जो कि बेहद चिंताजनक है। अगर व्यापक स्तर पर सरकारी शिक्षा संस्थानों के निजीकरण के खिलाफ अभियान नहीं चलाया गया तो कल शिक्षा के नाम पर शहरों से आगे गांवों में भी लूट का एक बड़ा बाजार खड़ा हो जाएगा
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