ऋषिकेश में ब्रह्मलीन हो समाधि ले ली- शीलनाथ बाबा
जो भी पवित्र होकर बाबा के यहाँ आकर स-सम्मान झुका है, समझो उसकी नैया पार हो गई। संसार के हर कार्य में उसकी जीत ही होगी। बाबा अपने भक्तों को हथेली पर रखते हैं। पूरा देवास बाबा के चरणों में झुकता है। जनश्रुति है कि बाबा उक्त बावड़ी की गुफा में जाकर गायब हो जाते थे और फिर सीधे हरिद्वार में स्नान कर पुन: उस गुफा में प्रकट हो जाते थे। कई बार शहर के प्रतिष्ठित लोगों ने उन्हें हरिद्वार में स्नान करते देखा भी है, जबकि यह उनका रोज का नियम था। जब बाबा धूना रमाते थे तो उनके आसपास शेर-चीते और जंगल के अन्य जानवर आकर बैठ जाते थे। उनके साथ एक शेर रहता था जिसे वे रोज भोजन खिलाते थे। बाबा ने उक्त शेर के लिए पिंजरा बनाया था। वे एक सीढ़ी द्वारा पिंजरे में उतरकर शेर को भोजन खिलाते थे।
भारत के चौरासी सिद्धों की परम्परा में से एक थे गुरु गोरखनाथ, जिनका नेपाल से घनिष्ठ संबंध रहा है। नेपाल नरेश महेंद्रदेव उनके शिष्य हो गए थे। उस काल में नेपाल के एक समूचे क्षेत्र को ‘गोरखा राज्य’ इसलिए कहा जाता था कि गोरखनाथ वहाँ डेरा डाले हुए थे। वहीं की जनता आगे चलकर ‘गोरखा जाति’ की कहलाई। यहीं से गोरखनाथ के हजारों शिष्यों ने विश्वभर में घूम-घूमकर धूना स्थान निर्मित किए। इन्हीं शिष्यों से नाथों की अनेकानेक शाखाएँ हो गईं। नौनाथ की परम्परा में कई सिद्ध पुरुष हुए, जिनका स्थान असम, अरुणाचल से अफगानिस्तान के हिंदू कुश पर्वत तक फैल गया। मान्यता अनुसार जहाँ-जहाँ नौनाथों की धूनी जली, वहाँ-वहाँ योगपीठ स्थापित हुए, जिनमें से एक पंजाब के हिसार में सुल्तानपुर ग्राम में भी था। यहाँ के पीठाधिपति इलायचीनाथ महाराज थे, जिनके शिष्यों-प्रशिष्यों की शाखाएँ पंजाब, कश्मीर, सिंध, क्वेटा, काबुल, कांधार, चमन, महाराष्ट्र और मालवा आदि क्षेत्रों में फैल गई थीं। इसी योगपीठ से बाबा शीलनाथ ने दीक्षा ग्रहण की थी।
शीलनाथ बाबा जयपुर के क्षत्रिय घराने से थे। 1839 में दीक्षा प्राप्ति के बाद बाबा ने उत्तराखंड के जंगलों में कठिन तप किया। इसके बाद उन्होंने देश-देशांतरों के निर्जन स्थानों पर भ्रमण किया। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, रूस, चीन, तिब्बत और कैलाश मानसरोवर होते हुए वे पुन: भारत पधारे। इस दौरान उनके साथ अनेक घटनाएँ घटीं।
काबुल की पहाड़ी पर जब वे धूना रमाए थे, तब अफगानियों ने उन पर हमला कर दिया था, लेकिन उनके धूने से उठने मात्र पर अनेक अफगानी उलट-पुलट होकर एक-दूसरे की तलवार से घायल हो गए। तब बाबा उठकर काबुल के जंगलों में चले गए और वहाँ धूना रमाया। काबुलवासी उनके इस चमत्कार से भयभीत हो गए और उन्होंने उनसे क्षमायाचना की। इस तरह के बाबा के कई किस्से हैं।
1900 में वे उज्जैन क्षेत्र में पधारे, जहाँ उन्होंने भर्तृहरी की गुफा में ध्यान रमाया। उज्जैन के बाद कुछ दिन इंदौर में रहे तथा पुन: उज्जैन में आ गए। उज्जैन से ही उनकी प्रसिद्धि पूरे मालव राज्य में फैल गई थी। उस समय मालवा प्रांत के सरसूबा मि. ऑनेस्ट सपत्नीक बाबा के शिष्य बन गए थे। जब देवास में पांती-2 के श्रीमंत महाराज सरकार, केसीएसआई राजसिंहासन पर विराजमान थे। वे भी उज्जैन में बाबा के सत्संग में जाया करते थे।
एक बार उज्जैन के सिंहस्थ में गुर्जरों ने सभी संतों को कंबल बाँटे। चूँकि बाबा नागा अवस्था में रहते थे, बावजूद इसके उन्हें भी कंबल बाँटने की गलती गुर्जर कर बैठे। बाबा ने भी कंबल को चिमटे से पकड़कर अपने जलते धूने में डाल दिया। गुर्जरों ने इसे अपना अपमान समझा। तब बाबा ने धूने में चिमटा घुमाया और राख में से कंबल निकालकर गुर्जरों के हाथ में थमा दिया।
जब वे तराना में धूनी रमाए थे, उस समय देवास की पांती-1 के जज साहेब बलवंतराव बापूजी बिड़वई उन्हें देवास ले आए, जहाँ रानीबाग में उनके धूने की व्यवस्था कर दी। तब मल्हारराव भी उनके दर्शन के लिए आया करते थे। बाद में मल्हारराव ने मल्हार क्षेत्र में उनके धूने और आसन की पक्की व्यवस्था कर उनसे यहाँ रहने का आग्रह किया। यहाँ बाबा 1901 से 1921 तक रहे। तत्पश्चात अंतर प्रेरणा से ऋषिकेश में जाकर वहाँ चैत्र कृष्ण 14 गुरुवार संवत 1977 और सन 921 ई. के दिन 5.55 के समय ब्रह्मलीन हो उन्होंने समाधि ले ली।
इंदौर से 35 किलोमिटर दूर देवास से बस या ट्रेन के द्वारा पहुँचा जा सकता है,