जहां शिव ने समय बिताया था
आखिरकार केदारनाथ में जाकर बस गए “योग प्राचीन विज्ञान है” ऋग्वेद और उपनिषद् साहित्य में इसकी उत्पत्ति”हिरण्यगर्भ” से बताई गयी है। प्रस्तुति- चन्द्रशेखर जोशी – सम्पादक हिमालय गौरव उत्तराखण्ड- (www.himalayauk.org) Web & Print Media (publish at Derhadun & Haridwar) Mob. 9412932030 Mail; csjoshi_editor@yahoo.in
कान्तिसरोवर – कृपा का सरोवर
किंवदंती यह है कि शिव और पार्वती कांतिसरोवर के तट पर रहते थे, और केदार में बहुत से योगी रहते थे, जिनसे शिव और पार्वती मिलते-जुलते थे। कई साल पहले तक, मैं हर साल अकेले एक-दो महीने के लिए हिमालय पर चला जाता था। पहली बार 1994 में मैं कांति सरोवर गया। कांति सरोवर वही झील है,जो 2013 की बाढ़ के दौरान उमड़कर केदार तक आ गई।. आज इसे गांधी सरोवर कहा जाता है। यह असल में कांति सरोवर है। कांति का मतलब है कृपा, सरोवर का मतलब है झील। यह कृपा की झील है। यहां की प्राकृतिक सुंदरता अद्भुत थी। बिल्कुल निश्चल जल वाली यह झील, आस-पास कोई पेड़-पौधे नहीं और पूरी तरह शांत जल में बर्फ से लदी चोटियों का प्रतिबिंब। यह बहुत शानदार जगह थी।
हिंदू जीवनशैली , में कैलाश को शिव का वास कहा गया है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह नाचते हुए या बर्फ में छिपे हुए वहां बैठे हैं। इसका मतलब है कि उन्होंने अपना ज्ञान वहां भर दिया। जब आदियोगी ने पाया कि हर सप्तऋषि ने ज्ञान के एक-एक पहलू को ग्रहण कर लिया है और उन्हें कोई ऐसा इंसान नहीं मिला, जो सातों आयामों को ग्रहण कर सके, तो उन्होंने अपने ज्ञान को कैलाश पर्वत पर रख देने का फैसला किया। ताकि योग के सभी सात आयाम, जीवन की प्रक्रिया को जानने के सातों आयाम एक ही जगह पर और एक ही स्रोत में सुरक्षित रहें। कैलाश धरती का सबसे बड़ा रहस्यमय पुस्तकालय बन गया – एक जीवित पुस्तकालय, सिर्फ जानकारी ही नहीं, बल्कि जीवंत!
इस देश में, प्राचीन समय में मंदिर केवल भगवान शिव के बनाए जाते थे – और किसी के नहीं। सिर्फ लगभग पिछले 1000 सालों में अन्य मंदिर बनने लगे। शिव शब्द का अर्थ है – वो “जो नहीं है”। तो मंदिर उसके लिए बनाए जाते थे – “जो नहीं है”। “जो है” – वह भौतिक अभिव्यक्ति है। “जो नहीं है” वो भौतिकता से परे है। एक मंदिर एक छेद की तरह है, जिससे गुज़रकर आप उस स्थान पर पहुँचते हैं – “जो नहीं है”। इस देश में हज़ारों शिव मंदिर हैं, और ज्यादातर मंदिरों में कोई विशेष रूप स्थापित नहीं है। उनमें सिर्फ एक सांकेतिक रूप है, और वो रूप आम तौर पर एक लिंग है।
दक्षिण भारत में हम जिस जगह पर हैं, उसके बहुत पास रहस्यवाद का एक और भंडार है – वेल्लिंगिरी पर्वत।. इसे दक्षिण का कैलाश कहा जाता है। यह एक अद्भुत स्थान है। ज्ञान का सबसे बड़ा ढेर कैलाश है। मगर दक्षिण के बहुत से आध्यात्मिक गुरुओं और योगियों ने अपने ज्ञान को संचित करने के लिए वेल्लिंगिरी को चुना। एक विशाल पुस्तकालय के रूप में कैलाश की बराबरी किसी से नहीं हो सकती, मगर गुणों में वेल्लिंगिरी भी उतना ही गुणवान है।
इस पर्वत को सेवन हिल्स यानि सात पहाड़ी के नाम से जाना जाता है, क्योंकि चढ़ाई में आपको सात उतार-चढ़ाव मिलते हैं, जिससे आपको महसूस होता है कि आप सात पहाड़ियों की चढ़ाई कर रहे हैं। आखिरी चोटी पर बहुत तेज हवाएं चलती हैं – यहां घास के अलावा कुछ नहीं उगता। यहां सिर्फ तीन विशाल चट्टानें हैं, जिन्होंने आपस में मिलकर एक छोटे सेलिंग के साथ छोटे मंदिर जैसा आकार बनाया है। यह बहुत ही शक्तिशाली जगह है।
इस पर्वत पर आने वाले योगी और सिद्ध पुरुष बिल्कुल अलग किस्म के थे – उग्र और प्रचण्ड लोग। यहां बहुत से महापुरुषों ने कदम रखे हैं, जिनसे देवताओं को भी ईर्ष्या होगी क्योंकि उन्होंने बहुत गरिमा और महानता के साथ जीवन बिताया। इन महापुरुषों ने अपना ज्ञान यहां छोड़ दिया, जिसे इस पर्वत ने आत्मसात कर लिया और वह ज्ञान कभी नष्ट नहीं हो सकता। यही वह पर्वत है, जहां मेरे गुरु के चरण पड़े थे, और जिसे मेरे गुरु ने अपना शरीर त्यागने के लिए चुना था। इसलिए यह सिर्फ एक पर्वत नहीं, हमारे लिए एक मंदिर है।
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बद्रीनाथ के बारे में एक कथा है। यह हिमालय में 10,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित एक शानदार जगह है, जहां शिव और पार्वती रहते थे। एक दिन नारायण यानी विष्णु के पास नारद गए और बोले, ‘आप मानवता के लिए एक खराब मिसाल हैं। आप हर समय शेषनाग के ऊपर लेटे रहते हैं। आपकी पत्नी लक्ष्मी हमेशा आपकी सेवा में लगी रहती हैं, और आपको लाड़ करती रहती हैं। इस ग्रह के अन्य प्राणियों के लिए आप अच्छी मिसाल नहीं बन पा रहे हैं। आपको सृष्टि के सभी जीवों के लिए कुछ अर्थपूर्ण कार्य करना चाहिए।’ इस आलोचना से बचने और साथ ही अपने उत्थान के लिए (भगवान को भी ऐसा करना पड़ता है) विष्णु तप और साधना करने के लिए सही स्थान की तलाश में नीचे हिमालय तक आए। वहां उन्हें मिला बद्रीनाथ, एक अच्छा-सा, छोटा-सा घर, जहां सब कुछ वैसा ही था जैसा उन्होंने सोचा था। साधना के लिए सबसे आदर्श जगह लगी उन्हें यह।फिर उन्हें एक घर दिखा। वह उस घर के अंदर गए। घुसते ही उन्हें पता चल गया कि यह तो शिव का निवास है और वह तो बड़े खतरनाक व्यक्ति हैं। अगर उन्हें गुस्सा आ गया तो वह आपका ही नहीं, खुद का भी गला काट सकते हैं। ये आदमी खतरनाक है। ऐसे में नारायण ने खुद को एक छोटे-से बच्चे के रूप में बदल लिया और घर के सामने बैठ गए। उस वक्त शिव और पार्वती बाहर कहीं टहलने गए थे। जब वे घर वापस लौटे तो उन्होंने देखा कि एक छोटा सा बच्चा जोर-जोर से रो रहा है।बच्चे को जोर जोर से रोते देख, पार्वती के भीतर मातृत्व जाग उठा और वे जाकर उस बच्चे को उठाना चाहती थीं। शिव ने पार्वती को रोकते हुए कहा, ‘इस बच्चे को मत छूना।’ पार्वती ने कहा, ‘कितने क्रूर हैं आप ! कैसी नासमझी की बात कर रहे हैं?
शिव बोले – “ये कोई अच्छा बच्चा नहीं है। ये खुद ही हमारे दरवाज़े के बाहर कैसे आ गया? आस-पास कोई भी नहीं है। बर्फ में माता-पिता के पैरों के निशान भी नहीं हैं। ये बच्चा है ही नहीं।”पार्वती ने कहा, ‘आप कुछ भी कहें, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे अंदर की मां बच्चे को इस तरह रोते नहीं देख सकती।’ और यह कहकर वे बच्चे को घर के अंदर ले गयीं। बच्चा पार्वती की गोद में आराम से था और शिव की तरफ बहुत ही खुश होकर देख रहा था। शिव इसका नतीजा जानते थे, लेकिन करें तो क्या करें? इसलिए उन्होंने कहा, ‘ठीक है, चलो देखते हैं क्या होता है।’
पार्वती ने बच्चे को खिला-पिला कर चुप किया और वहीं घर पर छोडक़र खुद शिव के साथ पास ही के गर्म पानी के कुंड में स्नान के लिए चली गईं। लौटकर आए तो देखा कि घर अंदर से बंद था। पार्वती हैरान थीं – “आखिर दरवाजा किसने बंद किया?” शिव बोले, ‘मैंने कहा था न, इस बच्चे को मत उठाना। तुम बच्चे को घर के अंदर लाईं और अब उसने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया है।’
पार्वती ने कहा, ‘अब हम क्या करें?’
शिव के पास दो विकल्प थे। एक, जो भी उनके सामने है, उसे जलाकर भस्म कर दें और दूसरा, वे वहां से चले जाएं और कोई और रास्ता ढूंढ लें। उन्होंने कहा, ‘चलो, कहीं और चलते हैं क्योंकि यह तुम्हारा प्यारा बच्चा है इसलिए मैं इसे छू भी नहीं सकता।’ इस तरह शिव अपना ही घर गंवा बैठे, और शिव-पार्वती एक तरह से ‘अवैध प्रवासी’ बन गए। वे रहने के लिए भटकते हुए सही जगह ढूंढने लगे और आखिरकार केदारनाथ में जाकर बस गए।
काशी – शाश्वत शहर
हजारों सालों से दुनिया भर के लोग काशी आते रहे हैं। गौतम ने अपना पहला उपदेश यहीं दिया। गौतम के आने के बाद चीनी लोग यहां आए। नालंदा विश्वविद्यालय, जिसे शिक्षा का एक महान संस्थान माना जाता है, वह काशी से गिरी ज्ञान की एक बूंद भर है। आपने जिन लोगों के बारे में सुना है, जैसे आर्यभट और ऐसे कई लोग, वे इसी इलाके के थे। ये सब इसी संस्कृति से उपजे थे, जो काशी में जीवंत थी।
योगियों ने जब ब्रह्मांड की इस प्रकृति को देखा कि वह किस तरह अपने भीतर से विकसित होती है और इसके विकसित होने की क्षमता असीमित है, तो वे अपनी खुद की सृष्टि बनाने को लालायित हो उठे। काशी को उन्होंने एक तरह के उपकरण के रूप में तैयार किया, जो स्थूल और सूक्ष्म को जोड़ता है। इस छोटे से इंसान में ब्रह्मांडीय प्रकृति के साथ एकाकार होने के आनंद, परमानंद और सुख को जानने की जबर्दस्त संभावना है। ज्यामितिय या बनावट के रूप से काशी इस चीज का सटीक उदाहरण है कि ब्रह्मांड और सूक्ष्म जगत किस तरह मिल सकते हैं। इस देश में ऐसे बहुत से उपकरण रहे हैं, मगर काशी जैसे शहर को बसाने के लिए एक जुनून, एक पागलपन की जरूरत होती है। उन लोगों ने हजारों साल पहले यह कर दिखाया। यहां 72,000 तीर्थस्थान थे। मानव शरीर में इतनी हीनाड़ियाँ होती हैं। यह पूरी प्रक्रिया ऐसी है मानो एक विशाल इंसानी शरीर एक बड़े ब्रह्मांडीय शरीर से संपर्क बना रहा हो। इसके कारण ही इस परंपरा की शुरुआत हुई कि अगर आप काशी जाते हैं, तो बस वही सब कुछ है। आप वहां जाने के बाद उस जगह को छोड़ना नहीं चाहते, क्योंकि जब एक बार आप ब्रह्मांडीय प्रकृति से जुड़ जाते हैं, तो फिर आप कहीं और क्यों जाना चाहेंगे?
काशी के बारे में प्रचलित कहानियां सौ फीसदी इस सिद्धांत पर आधारित हैं कि शिव स्वयं यहां वास करते थे। यह उनका शीतकालीन निवास था। इस बारे में बहुत सी कहानियां हैं कि किस तरह उन्होंने एक के बाद एक लोगों को काशी भेजा, मगर वे लौट कर नहीं आए, क्योंकि यह शहर इतना सम्मोहक और शानदार था। मगर हो सकता है कि इस कहानी का मतलब यह हो कि उन्होंने लोगों को इस शहर का निर्माण करने भेजा, जिसमें उन लोगों को काफी समय लगा। शहर के निर्माण के बाद जब वह यहां आए तो उन्हें काशी इतनी पसंद आई कि उन्होंने यहीं रहने का फैसला कर लिया।
पिछली कुछ शताब्दियों में काशी को तीन बार पूरी तरह ढहा दिया गया था। उसका कितना हिस्सा आज जीवंत है, इस बारे में संदेह है मगर निश्चित रूप से कुछ हिस्सा आज भी जीवंत है, वह पूरी तरह नष्ट नहीं हुई है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम उस समय यहां नहीं थे, जब काशी अपने गौरव काल में थी। यह जरूर सबसे शानदार जगह रही होगी, क्योंकि इसने दुनिया भर से लोगों को अपनी ओर खींचा।
हम अतीत से बच कर आ गए, मगर सवाल यह है कि क्या हम भविष्य में भी बच पाएंगे? ‘हम’ से मेरा मतलब किसी खास धर्म से नहीं है। मैं धरती के उन लोगों की बात कर रहा हूं जो जीवन को उस रूप में देखना चाहते हैं, जैसा वह वास्तव में है, जो अपनी राय किसी और पर नहीं थोपना चाहते। दुनिया को किसी सिद्धांत, विचारधारा या सोच की जरूरत नहीं है। जरूरत इस बात की है कि मानव क्षमता हमारी इंद्रियों से परे जाकर उस चीज का बोध या अनुभव करने में समर्थ हो पाए, जिसे अभी हम ‘परे’ मान रहे हैं। किसी इंसान के ज्ञान प्राप्त करने का सिर्फ यही एक तरीका है। इसी तरह मानव चेतना का फैलाव हो सकता है। सिर्फ इसी तरह एक इंसान उन संकीर्ण विभाजनों से ऊपर उठ सकता है, जो इंसानी समाज में उभर आए हैं।
पतंजलि ने ईश्वर का विकल्प भी दिया है- ईश्वरप्रणिधनद्वा। लेकिन पतंजलि अद्भुत भाषा विज्ञानी
भी हैं। वे एक-एक शब्दकी परिभाषा भी करते हैं। जीवन के दु:ख, कर्म और
परिणाम से पृथक विशेष ईश्वर है-
“क्लेश कर्म विपाकाशयैरपरामृष्ट पुरुष विशेष ईश्वर:।”
“ईश्वर आस्था की कोई शर्त नहीं है। … जीवन के दु:ख, कर्म और परिणाम
से पृथक विशेष ईश्वर है-!!!” धर्म के सत्य, मनोविज्ञान और विज्ञान
का सुव्यवस्थित रूप है “योग”।
योग की धारणा ईश्वरके प्रति आप में भय उत्पन्न नहीं करती और जब
आप दुःखी होते हैं तो उसके कारण को समझकर उसके निदान की चर्चा
करती है। योग पूरी तरह आपके जीवन को स्वस्थ और शांतिपूर्ण बनाए
रखने का एक सरल मार्ग है।
योग ईश्वरवाद और अनिश्वर वाद की तार्किक बहस में नहीं पड़ता
वह इसे विकल्प ज्ञान मानता है, अर्थात मिथ्या ज्ञान। योग को ईश्वर
के होने या नहीं होने से कोई मतलब नहीं किंतु यदि किसी काल्पनिक
ईश्वर की प्रार्थना करने से मन और शरीर में शांति मिलती है तो इसमें
क्या बुराई है !!
योग एक ऐसा मार्ग है जो विज्ञान और धर्म के बीच से निकलता है
वह दोनों में ही संतुलन बनाकर चलता है। योग के लिए महत्वपूर्ण है मनुष्य और मोक्ष। मनुष्य को
शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रखना विज्ञान और मनोविज्ञान
का कार्य है और मनुष्य के लिए मोक्ष का मार्ग बताना धर्म का कार्य है किंतु योग यह दोनों ही कार्य अच्छे से करना जानता है इसलिए योग एक विज्ञान भी है और धर्म भी।
“चेतन संसार”
आत्मा व्यक्ति का ‘चेतन संसार’ है। योग इसी चेतन को परिशुध्द करने का विज्ञान है। भारतीय दर्शन में
ज्ञान-विज्ञान शब्दों का भी बहुत प्रयोग हुआ है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को योग सिध्दि के बाद की चेतना
का आकर्षण बताया, जिस व्यक्ति की आत्मा ज्ञान विज्ञान से तृप्त हो
गयी है और जो कूटस्थ (अपरिवर्तनशील) है, जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है उसके लिए मिट्टी
का ढेला, पत्थर या स्वर्णखण्ड एक जैसे हैं, उसे योगयुक्त कहा जाता है यहां योगयुक्त होने की शर्तों में
ज्ञान विज्ञान में तृप्ति, चेतना की अपरिवर्तनशील दशा और इन्द्रिय विषयों से मुक्ति ही है। ईश्वर आस्था
की कोई शर्त नहीं है।
*”भगवद्गीता”
भगवद् गीता (प्रभु के गीत), बड़े पैमाने पर विभिन्न तरीकों से
“योग”शब्द का उपयोग करता है। एक पूरा ‘छठा अध्याय पारंपरिक
‘योग’ का अभ्यास को समर्पित, ध्यान के सहित, करने के अलावा
इस मे योग के तीन प्रमुख प्रकार का परिचय किया जाता है !!
*’कर्म योग’>>कार्रवाई का योग।
इसमें व्यक्ति अपने स्थिति के उचित
और कर्तव्यों के अनुसार कर्मों का
श्रद्धापूर्वक निर्वाह करता है !
*’भक्ति योग’>>भगवत कीर्तन ! इसे
भावनात्मक आचरण वाले लोगों को
सुझाया जाता है !
*’ज्ञान योग’>>ज्ञानार्जन करना !
“महर्षि पतञ्जलि” योगसूत्र में
पूर्ण “वैज्ञानिकता” है। उन्होंने
“योग” को ‘चित्त की वृत्तियों के
निरोध’ (योगः चित्त वृत्ति निरोधः)
के रूप में परिभाषित किया है।
“महर्षि पतञ्जलि” के दर्शन में एक
पूर्ण धर्म के सारे तत्त्व मौजूद हैं।
उनकी विचार धाराओं में,
क्रियाओं में पूर्ण “वैज्ञानिकता” है।
एक अद्भुत् सामंजस्य, समाधान
और तादातम्य है, जो हर कसौटी
पर खरा उतरता है। ऊँच-नीच,
धनी-निर्धन, श्रेष्ठ-निकृष्ट का भेदभाव
किए बिना ही, विश्व के मानव मात्र
के लिए, उन्होंने अपना ज्ञान बड़े ही
निस्पृह भाव से सौंप दिया है और
स्वयं बीच में से हट गए हैं।
अष्टांग योग आठ अलग-अलग
चरणों वाला मार्ग नहीं समझना
चाहिए। यह आठ आयामों वाला
मार्ग है जिसमें आठों आयामों का
अभ्यास एक साथ किया जाता है।
उन्होंने ‘योगसूत्र’ नाम से योगसूत्रों
का एक संकलन किया है, जिसमें
उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक,
मानसिक और आत्मिक शुद्धि के
लिए आठ अंगों वाले योग का एक
मार्ग विस्तार से बताया है।
योग के ये आठ अंग हैं :
*१>>”यम” (पाँच सामाजिक नैतिकता)
१.अहिंसा- शब्दों से, विचारों से और
कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना !
२.सत्य- विचारों में सत्यता, परम-सत्य
में स्थित रहना !
३.अस्तेय- चोर-प्रवृति का न होना !
४.ब्रह्मचर्य- दो अर्थ हैं-
चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना !
सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम
बरतना !
५.अपरिग्रह- आवश्यकता से अधिक
संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की
इच्छा नहीं करना
*२>>”नियम” (पाँच व्यक्तिगत नैतिकता)
१.शौच- शरीर और मन की शुद्धि !
२.संतोष- संतुष्ट और प्रसन्न रहना !
३.तप- स्वयं से अनुशाषित रहना !
४.स्वाध्याय- आत्मचिंतन करना !
५.ईश्वर प्रणिधान- ईश्वर के प्रति
पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा !
*३>”आसन” योगासनों द्वारा शरीरिक
नियंत्रण योगासन बहुत सारे हैं। जैसे-
चक्रासन, भुजङ्गासन, धनुरासन,
गर्भासन, गरुडासन, गोमुखासन,
हलासन, मकरासन, मत्स्यासन,
पद्मासन,पश्चिमोत्तानासन, सिंहासन
सर्वाङ्गासिद्धासन, शीर्षासन ,
सुखासन, ताडासन, उड्डीयानबन्ध,
वज्रासन, पवनमुक्तासन,
कटिपिण्डमर्दनासन, अर्धमत्स्येन्द्रासन,
योगमुद्रासन, गोरक्षासन या भद्रासन ,
मयूरासन, सुप्तवज्रासन, शवासन इत्यादि।
*४>”प्राणायाम” श्वास-लेने सम्बन्धी
खास तकनीकों द्वारा प्राण पर
नियंत्रण करना !
भ्रष्टिका प्राणायाम, कपालभाति,
बाह्य प्राणायाम, अनुलोम-विलोम,
भ्रामरी, उद्गीथ प्राणायाम इत्यादि।
*५>”प्रत्याहार” इन्द्रियों को अंतर्मुखी
करना ! योग मार्ग का साधक जब
यम (मन के संयम),
नियम (शारीरिक संयम) रखकर
एक आसन में स्थिर बैठकर अपने
वायु रूप प्राण पर नियंत्रण सीखता
है, तब उसके विवेक को ढंकने वाले
अज्ञान का अंत होता है। तब जाकर
मन प्रत्याहार और धारणा के लिए
तैयार होता है। चेतना , शरीर और
मन से ऊपर उठकर अपने स्वरूप
में रुक जाने की स्थिति है प्रत्याहार !
‘प्रत्याहार’ का अर्थ है- एक ओर
आहरण यानि खींचना !
“स्वामी विवेकानंद” ने प्रत्याहार
की साधनाका सरल मार्ग बताया है।
वे कहते हैं मन को संयत करने
के लिए- कुछ समय चुपचाप बैठें
और मन को उसके अनुसार
चलने दें। मन में विचारों की हलचल
होगी , बुरी भावनाएं प्रकट होंगी।
सोए संस्कार जाग्रत होंगे।
उनसे विचलित न होकर उन्हें
देखते रहें। धैर्यपूर्वक अपना अभ्यास
करते रहें। धीरे-धीरे मन के विकार
कम होंगे और एक दिनमन स्थिर
हो जाएगा तथा उसका इंद्रियों से
संबंध टूट जाएगा।
*६>”धारणा” (एकाग्रचित्त होना धारणा)
धारणा का अर्थ होता है संभालना ,
थामना या सहारा देना। अर्थात- किसी
स्थान (मन के भीतर या बाहर) विशेष
पर चित्त को स्थिर करने का नाम
धारणा है। स्थिर हुए चित्त को एक
‘स्थान’ पर रोक लेना ही धारणा है।
धारणा में चित्त को स्थिर होने के लिए
एक स्थान दिया जाता है।
योगी मुख्यत- हृदय के बीच में ,
मस्तिष्क में और सुषुम्ना नाड़ी के
विभिन्न चक्रों पर मन की धारणा
करता है। धारणा धैर्य की स्थिति है।
“स्वामीविवेकानंद” इसकी उपमा
प्रचलित किंवदंतीसे देते हैं।
सीप स्वाति नक्षत्र के जल की बूंद
धारण कर गहरे समुद्र में चली
जाती है,और परिणामस्वरूप
मोती बनता है।
धारणा सिद्ध होने पर योगी के
कई लक्षण प्रकट होने लगते हैं —
१.देह स्वस्थ होती है।
२.गले का स्वर मधुर होता है।
३.योगी की हिंसा भावना नष्ट हो
जाती है।
४.योगी को मानसिक शांति और
विवेक प्राप्त होता है।
५.आध्यात्मिक अनुभूतियां जैसे
प्रकाश दिखता , घंटे की ध्वनि सुनाई
देना आरंभ होता है , इत्यादि।
*७>”ध्यान” (निरंतर ध्यान)
धारणा की निरंतरता ही ध्यान है।
ध्यान की उपमा तेल की धारा से
की गई है। जब वृत्ति समान रूप से
अविच्छिन्न प्रवाहित हो यानि बीच में
कोई दूसरी वृत्ति ना आए उस स्थिति
को ध्यान कहते हैं।
चित्त (वस्तु विषयक ज्ञान) निरंतर
रूप से प्रवाहित होते रहने पर उसे
ध्यान कहते हैं। ध्यान एक लंबी
साधना पद्धति की चरम अनुभूति
का अंग है। यह मन की सूक्ष्म
स्थिति है , जहां जाग्रति पूर्वक एक
वृत्ति को प्रवाह में रहना होता ह
*८>”समाधि” (आत्मा से जुड़ना)
यह चेतना का वह स्तर है, जहां
मनुष्य पूर्ण मुक्ति का अनुभव
करता है। ध्यान की सिद्धि होना
ही समाधि है। सर्वत्र चेतनता का
पूर्ण बोध समाधि बन जाती है।
वह ध्यान ही समाधि है जब उसमें
ध्येय अर्थ मात्र से भाषित होता है और
ध्यान का स्वरूप शून्य जैसा हो जाता है।
यानि ध्याता (योगी), ध्यान (प्रक्रिया)
तथा ध्येय (ध्यान का लक्ष्य) इन तीनों में
एकता-सी होती है। समाधि अनुभूति
की अवस्था है। वह शब्द, विचार व
दर्शन सबसे परे है।
“स्वामी विवेकानंद” स्पष्ट करते हैं-
जब कोई गहरी नींद में सोया रहता है,
तब वह ज्ञान या चेतन की निम्न भूमि
में चला जाता है। नींद से उठने पर वह
पहले जैसे ही रहता है। उसमें कोई
परिवर्तन नहीं होता। किंतु जब मनुष्य
समाधिस्थ होता है तो समाधि प्राप्त
करने के पहले यदि वह महामूर्ख
रहा हो, अज्ञानी रहा हो तो समाधि
से वह महाज्ञानी होकर
व्युत्थित होता है।
“योग योगा”
योग योगा नहीं है। शारीरिक व्यायाम
या एक्सरसाइज भी नहीं है। यह
सम्पूर्ण व्यक्तित्व की इकाई ऊर्जा को
सम्पूर्ण प्रकृति/विराट की ऊर्जा से
जोड़ने का अद्भुत भारतीय विज्ञान है।
कृष्ण योग पध्दति भीy समझाते हैं
और योग की प्राचीन परम्परा को
दोहराते हैं-
स्वच्छ स्थान हो, स्थान ऊंचा या
नीचा न हो। उस पर कुशा (घास),
मृगचर्म या कपड़े को बिछाकर,
उस पर बैठकरर मन एकाग्र करे-
तत्रेकाग्रं मन:।
फिर चित्त और इन्द्रियों को संयम में
रखते हुए सम्पूर्ण ऊर्जा को चेतना
शुध्दि के लिए लगाना चाहिए !!
“पात्रता”
कृष्ण कहते हैं, योग से युक्त व्यक्ति
मन को वश में रखता है वह शान्ति
और मुक्ति प्राप्त करता है। यही
शान्ति और मुक्ति मेरे भीतर स्थित है।
श्री कृष्ण योगसिध्द हैं, योगारूढ़ हैं।
योगेश्वर हैं। वे परममुक्ति को उपलब्ध
हो चुके हैं। यह उपलब्धि निस्संदेह
बड़ी है लेकिन यह सिर्फ उनका ही
विशेषाधिकार नहीं है। यह केवल
उनका ही विशेषाधिकार होती तो वे
अर्जुन को इसी योग विद्या का
आकर्षण,उपयोग, विधान व मंत्रसूत्र
न समझाते। योग का मार्ग सबके
लिए है, सहज प्राप्य है लेकिन कई
पात्रताएं व अपात्रताएं भी हैं।
“कृष्ण”ने कहा कि यह योग उनके
लिए नहीं है जो बहुत खाते हैं, यह
उनके लिए भी नहीं है जो बिल्कुल
भूखे रहते हैं। यह उनके लिए भी
नहीं है जो बहुत सोते हैं और यह
उनके लिए भी नहीं है जो बहुत
जागते हैं।
फिर किनके लिए है?
“कृष्ण” ने बताया कि –
‘युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु’
जिसका आहार-विहार संयमित है,
जिसकी चेष्टाएं संयम में हैं और जिसका
स्वप्न- बोध नियमित है, उसके जीवन में
योग का अनुशासन आता है। सारे दु:ख
समाप्त हो जाते हैं। गीता कार ने ‘युक्त
स्वप्नावबधस्य’ शब्द प्रयोग किया है।
स्वप्न आकांक्षाएं हैं और बोध परिपूर्ण
सजगता है। यहआकांक्षाओं की
समाप्ति की संज्ञा है !!!
**योग का सर्वमान्य सिद्धान्त
यही है कि बौद्धिक चेतना पर
नियन्त्रण स्थापित करके अचेतन
को दबाने से रोकना और सहायता
के रूप में नियुक्त करना। इन प्रयोगों
को यदि व्यवस्थित और वैज्ञानिक ढंग
से किया जा सके तो निःसंदेह मनुष्य
साधारण न रह कर असाधारण ही बन
सकता है।
“क्लेश कर्म विपाकाशयैरपरामृष्ट
पुरुष विशेष ईश्वर:।”
“ईश्वर आस्था की कोई शर्त नहीं है।
… जीवन के दु:ख, कर्म और परिणाम
से पृथक विशेष ईश्वर है-!!!”
“सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु
निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु।
मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥
ॐ शांति: ! शांति: !! शांति: !!!