कौन सी लाईलाज बीमारी श्रीकृष्ण के इस धाम में दूर होती है
इस बार श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 2018 3 सितंबर 2018 को है. हिंदू शास्त्रों के अनुसार इस साल श्रीकृष्ण की 5245वीं जयंती है. इस दिवस को श्रीकृष्ण के प्राकट्य दिवस के तौर पर मनाते हैं. इस दिन श्रद्धालु दिन भर व्रत रखते हैं और रात 12 बजे भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के बाद भोग लगाकर ही अपना व्रत खोलते हैं. श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 2018 का शुभ मुहूर्त: अष्टमी तिथि- 2 सितंबर 2018 को शाम 20:47 बजे के बाद अष्टमी तिथी शुरू होगी. 3 सितंबर 2018 को शाम 19:19 बजे तक रहेगी. निश्चित पूजा समय – 23:58 से 24:44 बजे तक. अर्थात् 45 मिनट तक पूजा का निशित मुहूर्त है.
भगवान विष्णु के अवतार भगवान श्रीकृष्ण की हिंदू रीति-रिवाजों में धूमधाम से पूजा की जाती है. इस दिन मधुरा, वृंदावन की धूम ही कुछ ओर होती है. मधुरा के प्रेम मंदिर में यशोदा के लल्ला को दर्शन करने भक्त दूर दूर से पहुंचते हैं. हिंदू धर्म में वैष्णव लोग इस दिन व्रत रखते हैं अष्ठमी की रात 12 बजे भगवान का श्रीकृष्ण का संकेतिक रूप से जन्म होने पर व्रत का परायण करते हैं. श्रीकृष्ण को धनिया व धनिया के बने खास प्रसाद का भोग लगाकर इस दिन अपना व्रत खोलते हैं.
HIGH LIGHT; #कृष्ण भगवान जी के अद्वितीय- कृष्ण का नागराजा स्वरूप अवतार वही जन्म पत्रिका में अगर काल सर्प का योग है तो यहां आये- कुष्ठ रोग निवारण हेतु श्रीक़ष्ण के इस मंदिर में आये- उत्तरकाशी सीमा पर सेम नागराज जी का एक मंदिर
#लाईलाज बीमारी कृष्ण के नागराजा स्वरूप का दर्शन/पूजा अर्चना से सही होती है# वासुदेव श्रीकृष्ण का भी धाम है उत्ततराखण्ड में# किस जगह उत्तराखण्ड में प्रकट हुए थे भगवान श्रीकृष्ण# क्या वरदान दिया था उस गांव #एक विशेष बीमारी – जो लाईलाज है- उस बीमारी के सामने विज्ञान आज भी फेल है– भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दिये गये वरदान से यहां सही होती हे- यहां के जल से स्नान करने पर लोगों को कुष्ठ रोग से मु्क्ति मिलती है. श्रीकृष्ण उत्तराखंड में ब्राह्मण के वेश में पहुंचे थे. देवभूमि उत्तराखण्ड को यूं ही नही कहा जाता- चन्द्रशेखर जोशी सम्पादक की एक्सक्लूसिव प्रस्तुति-
Special High Light; भगवान कृष्ण कालिया नाग को यमुना से निकल जाने का आदेश देते हैं. कालिया नाग ने पूछा की आखिर वह कहां जाएं जहां वह शांति से रह सके और उनके विष का दुष्प्रभाव भी न हो उस वक्त भगवान कृष्ण ने उन्हें उत्तराखंड के रमोलीगढ़ में जाने का आदेश दिया था. तब कालिया नाग भगवान को एक बार वहीं आकार उन्हें दर्शन देने की विनती करते हैं और कृष्ण उन्हें भरोसा देते हैं की वह एक बार जरूर उसे दर्शन देने उत्तराखंड आएंगे. इसी भरोसे को रखने के लिए द्वापर में श्रीकृष्ण उत्तराखंड में ब्राह्मण के वेश में पहुंचे थे. ज्ञात हो कि पिथौरागढ जनपद के डीडीहाट तहसील अन्तर्गत सुदूरवर्ती क्षेत्र में विशाल चाेेेटी पर कालीनाग का अनोखा स्थान है वही दूसरी चोटी पर धुमरीनाग जी का स्थान है- तो तीसरी चोटी में सुनहरी नाग जी का मंदिर है,जिसकेे पुजारी वशिष्ठ गोत्र जोशी ब्राहमण होते है, – इनके चमत्कार के बारे में विस्तार से पुन- जो आज भी विज्ञान युग में हैरतअंगेज है- चन्द्रशेखर जोशी- की कलम से-
उत्तराखंड राज्य में भी एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ भगवान श्रीकृष्ण जी को एक अद्वितीय रूप में पूजा जाता है, डांडा नागराजा के रूप में। उत्तराखंड में सेमनगरज मंदिर को पांचवा धाम माना गया है. पुराणों में इस बात का जिक्र किया गया है की द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण द्वारिका छोड़ उत्तराखंड के रमोलागढ़ी में आकार यहां मंदिर में मूर्ति रूप में स्थापित हो गए थे. कालिया नाग को दर्शन देने की अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए उन्हें ऐसा करना पड़ा था.
इस मंदिर में श्री कृष्ण की नागराज के रूप में पूजा अर्चना की जाती है, यहां के एक पुजारी ने इस बात का दावा किया है यहां के जल से स्नान करने पर लोगों को कुष्ठ रोग से मु्क्ति मिलती है.
आप भगवान श्री कृष्ण को कई नामों से जानते हैं, नन्द के लाल,गोपियों के कन्हैया, मुरली मुरारी आदि। हिन्दू धर्म में उनकी भक्तों की भी संख्या खूब है। खास कर कि मथुरा और द्वारका उन्हीं के नाम से जाना जाने वाला स्थान है जहाँ आप भगवान श्रीकृष्ण के कई मंदिर एक साथ देखेंगे। यहाँ के निवासियों के लिए भगवान श्रीकृष्ण जी उनके सबसे प्रमुख देवता हैं। पौड़ी जिले में स्थित डांडा नागराजा मंदिर अपनी अद्वितीय कथाओं और मान्यताओं के लिए भक्तगणों के साथ-साथ पर्यटकों के बीच भी प्रसिद्द है। बनेलस्युहं पट्टी में स्थित यह मंदिर पौड़ी से लगभग 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण जी के इस अद्वितीय अवतार नागराजा की बहुत मान्यता है। पूरे पौड़ी जिले और गढ़वाल क्षेत्र में कृष्ण जी का यह मंदिर आस्था का प्रमुख केंद्र है। गढ़वाल क्षेत्र में भगवान कृष्ण जी के अवतारों में से एक नागराजा, देवशक्ति की सबसे ज़्यादा मान्यता है। वैसे तो देव नागराजा का मुख्य धाम उत्तरकाशी के सेममुखेम में है पर कहा जाता है कि सेममुखेम और यह मंदिर दोनों एक समान ही हैं। मंदिर की स्थापना लगभग 140 साल पहले हुई थी।
पौराणिक कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण को यह जगह खूब भा गई थी, जिससे उन्होंने यहाँ नाग का रूप धारण करके लेट-लेट कर यहाँ की परिक्रमा की ,तभी से मंदिर का नाम डांडा नागराजा पड़ गया। नाग और साँपों को महाभारत में महर्षि कश्यप और दक्ष प्रजाति पूरी कद्रू का संतान बताया गया था। मध्य हिमालय में नागराजा, लौकिक देवता के रूप में पुराकाल से ही परिचित हैं।
कृष्ण बाल रूप में यमुना किनारे अपने दोस्तों के साथ खेल रहे थे, इस दौरान उनकी गेंद यमुना के जल में गिर गई जिसे लेने के लिए बालक कृष्ण यमुना में कूद गए. काफी समय तक वह जब बाहर नहीं आए तो उनके दोस्त डर कर नंद बाबा को इस बात की सूचना के लिए दौड़े क्योंकि यमुना का जल उस समय कालिया नाग के विष के प्रभाव से विषैला हो चुका था.नंद बाबा पूरे गोकुल गांव के साथ यमुना के किनारे एकत्र हो गए लेकिन किसी को भी कृष्ण के जीवित होने की उम्मीद नहीं थी पर कुछ देर बाद अपनी गेंद के साथ कालिया नाग के फन पर नृत्य करते हुए कृष्ण यमुना से बाहर निकाल आए. जिसके बाद गोकुल वासी सभी लोगों ने श्रीकृष्ण की जय जय कार की थी. जैसे ही कृष्ण यमुना के जल में उतरे उनका सामना कालिया नाग कि पत्नी से हुआ जो उन्हें साधारण बालक समझकर उन्हें विष से बचने की हिदायत देते हुए वापस लौटने के लिए कहती है, किंतु वह बिना गेंद लिए वापस आने को तैयार नहीं होते. उनकी इस बात की जानकारी वह अपने पति कालिया नाग को देती है. क्रुद्ध होकर फुंकार मारते हुए कालिया नाग बाहर आते है और श्री कृष्ण से युद्ध करते हैं और अंत में कृष्ण के हाथों परास्त होते हैं जिसके बाद भगवान कृष्ण कालिया नाग को यमुना से निकल जाने का आदेश देते हैं. कालिया नाग ने पूछा की आखिर वह कहां जाएं जहां वह शांति से रह सके और उनके विष का दुसप्रभाव भी न हो उस वक्त भगवान कृष्ण ने उन्हें उत्तराखंड के रमोलीगढ़ में जाने का आदेश दिया था. तब कालिया नाग भगवान को एक बार वहीं आकार उन्हें दर्शन देने की विनती करते हैं और कृष्ण उन्हें भरोसा देते हैं की वह एक बार जरूर उसे दर्शन देने उत्तराखंड आएंगे. इसी भरोसे को रखने के लिए द्वापर में श्रीकृष्ण उत्तराखंड में ब्राह्मण के वेश में पहुंचे थे.
ऐसी मान्यता है की प्रकटेश्वर मंदिर के पास बहने वाले जल से त्वचा के सभी रोग दूर होते हैं, खासकर कुष्ट रोग दूर होने के दावा किया जाता है. मंदिर के पुजारी की माने तो कुंडली में काल सर्प योग का निवारण भी यहां नाग की पुजा से दूर हो जाता है. राहू और केतू गृह के बीच सभी गृह पड़ने से ऐसे स्थिति आती है तब इंसान को जी तोड़ मेहनत के बाद भी फल नहीं मिलता है और इंसान परेशान रहता है.
सावन, शिव और सर्प, तीनों ही सनातनी परंपरा की महत्वपूर्ण कडि़या हैं देवभूमि में तो सदियों से नागपूजा की परंपरा चली आ रही है। यहां नागराज शिव का हार ही नहीं, सृष्टि का आधार यानी भगवान श्रीकृष्ण का प्रतिरूप भी है।
मान्यता के अनुसार 140 साल पहले लसेरा में गुमाल जाति के पास एक दुधारू गाय थी जो डांडा में स्थित एक पत्थर को हर रोज़ अपने दूध से निलहाती थी जिसकी वजह से घर के लोगों को उसका दूध नहीं मिल पाता था इसलिए गुस्से में आकर गाय के मालिक ने गाय के ऊपर कुल्हाड़ी से वार किया। जिसका वार गाय को कुछ नहीं कर पाया और सीधा जाकर उस पत्थर पर लगा, जिसकी वजह से वह पत्थर दो भागों में टूट गया और इसका एक भाग आज भी डांडा नागराजा में मौजूद है। इस क्रूर घटना के बाद गुमाल जाती पूरी तरह से समाप्त हो गई।
अप्रैल के महीने में बैशाखी के अगले दिन 13 और 14 तारीख को भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। मंदिर की भव्यता इस मेले के दौरान देखने लायक होती है। इस भव्यता के दर्शन करने दूर-दूर से हज़ारों की संख्या में भक्तों का हुजूम उमड़ता है। इस मेले के दौरान हर साल मंदिर के पुजारी बदलते हैं। लोग नागराजा देवता को ध्वज और घंटी अर्पित करते हैं। महिलाएं शोभायात्रा निकाल इस मंदिर में पहुँचती हैं।
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