बुलंद नारों की बुलंद दास्तां ; सत्ता की नींव तक हिल जाती है
स्वतंत्रता संग्राम : बुलंद नारों की बुलंद दास्तां – ऐसी जुबां जो ललकार में बदल जाती है – हुंकार भर से क्रोध, आक्रोश, असंतोष, घृणा, निराशा से व्याप्त भावनाओं का सैलाब कुछ यूं उमड़ता है कि सत्ता की नींव तक हिल जाती है।
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*अर्चना महतो –
बजा बिगुल विद्रोह का, नारों ने भरी हुंकार
हिली हुकूमत अंग्रेजों की, जब चले शब्दों के बाण
जरूरी नहीं कि भावों को व्यक्त करने के लिए हमेशा शब्दों का इस्तेमाल किया जाए, लेकिन जब बात तीव्र और सशक्त अभिव्यक्ति की हो तो शब्द अनिवार्य बन जाते हैं। शब्द, भावों की शक्ति और जज्बातों की जुबां है। ऐसी जुबां जो कभी-कभी मात्र अभिव्यक्ति का साधन न रहकर ललकार में बदल जाती है, जिसकी हुंकार भर से क्रोध, आक्रोश, असंतोष, घृणा, निराशा से व्याप्त भावनाओं का सैलाब कुछ यूं उमड़ता है कि सत्ता की नींव तक हिल जाती है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी शब्दों की शक्ति का ऐसा ही दौर चला। नारों की शक्ल अख्तियार किए कुछ शब्दों ने जनांदोलन में ऐसी जान फूंकी कि ब्रिटिश हुक्मरानों के इरादे शिथिल पड़ गए। नारों की एक-एक गूंज ने ब्रिटिश सत्ता पर आघात किया, जिसका परिणाम आखिरकार अंग्रेजी शासन के खात्मे के रूप में सामने आया।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कुछ लोकप्रिय नारों की उत्पत्ति और उनका इतिहास कुछ इस तरह रहा-
1929 में क्रांतिकारी भगत सिंह ने सेंट्रल असेंबली, दिल्ली में धमाके के बाद जब “इंकलाब जिंदाबाद” का नारा दोहराया तो अवाम की जुबां पर उसके बाद बस यही नारा गूंजने लगा। दरअसल “इंकलाब जिंदाबाद” के असली जनक ‘हसरत मोहानी’ माने जाते हैं, जिन्होंने 1921 में इसकी रचना की थी। लेकिन भगत सिंह की जुबां से “इंकलाब जिंदाबाद” की गूंज के बाद जो लोकप्रियता इस नारे को मिली और जिस प्रकार इस नारे ने जनसाधारण में आजादी की अलख जगाई, उसका वर्णन इतिहास के पन्नों पर अमूल्य योगदान के तौर पर दर्ज है।
सेंट्रल असेंबली, दिल्ली में धमाके को जब मॉडर्न रिव्यू के संपादक श्री रामानंद चट्टोपाध्याय ने संपादकीय टिप्पणी में हिंसक और अराजकता का प्रतीक बताकर आलोचना की, तब 3 दिसंबर 1929 को अपने और साथी बटुकेश्वर दत्त की तरफ से भगत सिंह ने जो पत्र श्री चट्टोपाध्याय को भेजा, उसके एक अंश में “इंकलाब जिंदाबाद” की व्याख्या कुछ इस प्रकार से की-
“उदाहरण के लिए हम यतिन्द्रनाथ जिंदाबाद का नारा लगाते हैं, इससे हमारा तात्पर्य यह होता है उनके जीवन के महान आदर्शों तथा उस अथक उत्साह को सदा-सदा के लिए बनाए रखें, जिसने इस महानतम बलिदानी को उस आदर्श के लिए अकथनीय कष्ट झेलने एवं असीम बलिदान करने की प्रेरणा दी। यह नारा लगाने से हमारी यह लालसा प्रकट होती है कि हम भी अपने आदर्शों के लिए अचूक उत्साह को अपनाएं। यही वह भावना है, जिसकी हम प्रशंसा करते हैं। इस प्रकार हमें ‘इंकलाब’ शब्द का अर्थ भी कोरे शाब्दिक रूप में नहीं लगाना चाहिए। इस शब्द का उचित एवं अनुचित प्रयोग करने वाले लोगों के हितों के आधार पर इसके साथ विभिन्न अर्थ एवं विभिन्न विशेषताएं जोड़ी जाती हैं। क्रांतिकारी की दृष्टि में यह एक पवित्र वाक्य है।
‘वंदे मातरम्’ इन दो शब्दों की ताकत और अहमियत का जितना वर्णन किया जाए उतना कम है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इस नारे की लोकप्रियता का आलम कुछ इस कदर रहा कि एक समय ब्रिटिश सरकार को इस पर प्रतिबन्ध लगाने के बारे में सोचना पड़ा। लेकिन इसके बावजूद वंदे मातरम् ने जनमानस में जिस जनचेतना की लहर उत्पन्न की, उसे रोक पाना अंग्रेजों के लिए असंभव हो गया था।
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने ‘वंदे मातरम्’ की रचना 7 नवंबर, 1876 को बंगाल के कांतल पाडा नामक गांव में की थी। वंदे मातरम् गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बांग्ला में थे। इस गीत का प्रकाशन 1882 में बंकिमचंद्र के उपन्यास ‘आनंद मठ” में अंतर्निहित गीत के रूप में हुआ था। बंगाल में चले आजादी के आंदोलन में विभिन्न रैलियों में जोश भरने के लिए यह गीत गाया जाने लगा। धीरे-धीरे यह गीत लोगों में बेहद लोकप्रिय हो गया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने पहली बार ‘वंदे मातरम्’ को बंगाली शैली में लय और संगीत के साथ 1896 में कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में गाया था। 14 अगस्त,1947 की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक की शुरुआत ‘वंदे मातरम्’ गीत के साथ ही हुई थी।
‘वंदे मातरम्’ नारे ने जनजागृति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ‘वंदे मातरम्’ न केवल अवाम की जुबां पर गूंजने वाला अत्यधिक लोकप्रिय नारा था, बल्कि उस दौर की कई पत्र-पत्रिकाओं,पुस्तकों सहित कई प्रकाशनों का शीर्षक भी बना। इसके व्यापक उदाहरण मौजूद हैं- लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, उसका नाम वंदे मातरम् रखा। सन् 1907 में मैडम भीकाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टुटगार्ट में तिरंगा फहराया तो उसके मध्य में ‘वंदे मातरम्’ ही लिखा हुआ था। आर्य प्रिन्टिंग प्रेस, लाहौर तथा भारतीय प्रेस, देहरादून से सन् 1929 में प्रकाशित काकोरी के शहीद पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की प्रतिबंधित पुस्तक ‘क्रांति गीतांजलि’ में पहला गीत ‘वंदे मातरम्’ था।
“स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है”
स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेताओं में से एक बाल गंगाधर तिलक का “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूँगा” का उद्घोष बेहद लोकप्रिय हुआ। आदर से लोग इन्हें “लोकमान्य” बुलाने लगे थे। उनके मतानुसार ‘स्वराज” भारतीयों का अधिकार है और ब्रिटिश सरकार को सत्ता भारतीयों को सौंप कर देश से चले जाना चाहिए। इसके लिए हक लड़कर भी लेना पड़े तो लिया जाएगा’। आजादी के महानायकों में से एक बाल गंगाधर तिलक ने संपूर्ण जीवन राष्ट्र की सेवा में अर्पण कर दिया। जनजागृति के लिए उन्होंने अपनी पत्रकारिता की प्रतिभा का अद्भुत उपयोग किया। उनके दो समाचारपत्रों ‘मराठा’ और ‘केसरी’ ने लोगों को आजादी के संघर्ष के लिए प्रेरित करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। तिलक ने अपने भाषणों और लेखों द्वारा जनता से आग्रह किया कि वह आत्मविश्वासी, स्वाभिमानी, निर्भय और निस्वार्थी बने। उन्होंने आम जनता में राष्ट्रवादी विचारों का प्रचार करने के लिए शिवाजी पर्व और गणेश उत्सव की शुरुआत की।
“अंग्रेजों भारत छोड़ो”
‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ मात्र एक नारा नहीं था, बल्कि एक आंदोलन था जिसका शंखनाद अहिंसा के प्रतीक महात्मा गांधी द्वारा किया गया था। क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद गांधी जी ने एक और बड़ा आंदोलन शुरू करने का निश्चय किया। इसको ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का नाम दिया गया और यहीं से शुरुआत हुई ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ नारे की। 9 अगस्त 1942 को आंदोलन की शुरुआत के साथ जब “अंग्रेजों भारत छोड़ो” के नारे लगने लगे तब अंग्रेजों के हौसले बिल्कुल पस्त हो गए।
हालांकि, अंग्रेजों ने इस आन्दोलन के खिलाफ कड़ा रुख इख्तियार किया और आंदोलन को दबाने के लिए दमनकारी नीतियों का प्रयोग किया, लेकिन वे लोगों के हौसले को दबाने में असफल रहे। द्वितीय विश्व युद्ध में उलझने के कारण इंग्लैंड की ताकत और सत्ता की पकड़ में आई कमी को भांपते हुए एक ही समय पर, महात्मा गांधी द्वारा ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ तथा सुभाष चंद्र बोस द्वारा ‘दिल्ली चलो’ नारे दिए गए थे, जिन्होंने अपने उद्देश्य की पूर्ति करते हुए अंग्रेजों की ताकत को कमजोर करने में उम्मीद के मुताबिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
“करो या मरो”
‘करो या मरो’ का नारा भी गांधी जी द्वारा ही दिया गया था, जो भारत छोड़ो आंदोलन के क्रम का ही एक हिस्सा था। 1942 में ‘बॉम्बे में अखिल भारतीय कांग्रेस की बैठक को संबोधित करते हुए ‘करो या मरो’ की बात कही थी। उन्होंने कहा था – “एक मंत्र है, छोटा सा मंत्र, जो मैं आपको देता हूं। उसे आप अपने हृद्य में अंकित कर सकते हैं और प्रत्येक सांस द्वारा व्यक्त कर सकते हैं। यह मंत्र है: ‘करो या मरो’। या तो हम भारत को आजाद कराएंगे या इस प्रयास में अपनी जान दे देंगे, अपनी गुलामी का स्थायित्व देखने के लिए हम जिंदा नहीं रहेंगे।” यहीं से ‘करो या मरो’ वो नारा बना जिसने जनता में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी जला दी।
“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा”
‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ मात्र एक नारा नहीं था, बल्कि एक आंदोलन था जिसका शंखनाद अहिंसा के प्रतीक महात्मा गांधी द्वारा किया गया था। क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद गांधी जी ने एक और बड़ा आंदोलन शुरू करने का निश्चय किया। इसको ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का नाम दिया गया और यहीं से शुरुआत हुई ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ नारे की। 9 अगस्त 1942 को आंदोलन की शुरुआत के साथ जब “अंग्रेजों भारत छोड़ो” के नारे लगने लगे तब अंग्रेजों के हौसले बिल्कुल पस्त हो गए।
हालांकि, अंग्रेजों ने इस आन्दोलन के खिलाफ कड़ा रुख इख्तियार किया और आंदोलन को दबाने के लिए दमनकारी नीतियों का प्रयोग किया, लेकिन वे लोगों के हौसले को दबाने में असफल रहे। द्वितीय विश्व युद्ध में उलझने के कारण इंग्लैंड की ताकत और सत्ता की पकड़ में आई कमी को भांपते हुए एक ही समय पर, महात्मा गांधी द्वारा ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ तथा सुभाष चंद्र बोस द्वारा ‘दिल्ली चलो’ नारे दिए गए थे, जिन्होंने अपने उद्देश्य की पूर्ति करते हुए अंग्रेजों की ताकत को कमजोर करने में उम्मीद के मुताबिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
“करो या मरो”
‘करो या मरो’ का नारा भी गांधी जी द्वारा ही दिया गया था, जो भारत छोड़ो आंदोलन के क्रम का ही एक हिस्सा था। 1942 में ‘बॉम्बे में अखिल भारतीय कांग्रेस की बैठक को संबोधित करते हुए ‘करो या मरो’ की बात कही थी। उन्होंने कहा था – “एक मंत्र है, छोटा सा मंत्र, जो मैं आपको देता हूं। उसे आप अपने हृद्य में अंकित कर सकते हैं और प्रत्येक सांस द्वारा व्यक्त कर सकते हैं। यह मंत्र है: ‘करो या मरो’। या तो हम भारत को आजाद कराएंगे या इस प्रयास में अपनी जान दे देंगे, अपनी गुलामी का स्थायित्व देखने के लिए हम जिंदा नहीं रहेंगे।” यहीं से ‘करो या मरो’ वो नारा बना जिसने जनता में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी जला दी।
“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा”
स्वतंत्रता संग्राम के आखिरी दौर में जब मुल्क अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ मजबूती से खड़ा था और स्वतंत्रता सेनानी अंग्रेजों को धूल-चटाने में जुटे थे, तब आजादी के एक और महानायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भी 21 अक्टूबर 1943 को आज़ाद हिंद फौज के गठन के साथ ही ब्रिटिश राज के खात्मे की पूरी तैयारी कर ली थी।
4 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद फौज के साथ बर्मा पहुंचने पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज के सैनिकों को संबोधित करते हुए ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा दिया। इस नारे से ऐसी जनजागृति हुई कि लोगों का हुजूम आजादी के महासंघर्ष में कूद पड़ा।
नेताजी के संबोधन के वो आखिरी प्रभावशाली शब्द कुछ ऐसे थे–
“स्वतंत्रता के युद्ध में मेरे साथियों! आज मैं आपसे एक चीज मांगता हूं, सबसे ऊपर मैं आपसे खून मांगता हूं। यह खून ही उस खून का बदला लेगा, जो शत्रु ने बहाया है। खून से ही आजादी की कीमत चुकाई जा सकती है। तुम मुझे खून दो मैं तुम से आजादी का वादा करता हूं।”
“जय हिंद”
‘जय हिंद’ का नारा भी नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने सन् 1941 में दिया था, वैसे तो इस नारे का प्रयोग सर्वप्रथम क्रांतिकारी चेम्बाकरमण पिल्लई द्वारा किया गया था, लेकिन सुभाष चंद्र बोस द्वारा आजाद हिंद फौज के लिए युद्ध घोष के तौर पर प्रयोग हुए इस नारे ने अधिक लोकप्रियता प्राप्त की। देशप्रेम की भावना से सराबोर होने के कारण ‘जय हिंद’ नारा अवाम में बेहद प्रचलित हुआ।
सन् 1933 में जब चेम्बाकरमण पिल्लई को आस्ट्रिया की राजधानी वियना में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ, तब उन्होंने “जय हिन्द” कह कर नेताजी का अभिवादन किया था। अभिवादन स्वरूप कहे गए इन दो शब्दों से नेताजी बेहद प्रभावित हुए थे। बाद में यही शब्द आजाद हिन्द फौज के युद्ध घोष के रूप में जाने गए।
आजाद हिंद फौज के सैनिकों में देशप्रेम की भावना भरने और आजादी की लौ जगाने के लिए ‘जय हिंद’ का प्रयोग हुआ था, लेकिन सैनिकों के साथ-साथ जनता के बीच भी यह नारा बेहद लोकप्रिय हुआ।
“दिल्ली चलो”
1942 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ही आजाद हिंद फौज को “दिल्ली चलो” का आह्वान करते हुए यह नारा दिया था। सन् 1942 में आजाद हिंद फौज के मुखर नेता होते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने महसूस किया कि इंग्लैंड द्वितीय विश्व युद्ध में उलझता जा रहा है, तब उस समय यह नारा देकर उन्होंने फौज का मार्गदर्शन किया।
सुभाष चन्द्र बोस मानते थे कि अंग्रेज खुद भारत को आजाद नहीं करेंगे, इसलिए अंग्रेजों से लड़कर ही आजादी पाई जा सकती है। इसी लक्ष्य के साथ उन्होंने आजाद हिंद फौज का नेतृत्व किया और ब्रिटिश सत्ता पर धावा बोलने के इरादे से ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया।
“साइमन कमीशन वापस जाओ”
लाला लाजपत राय द्वारा ‘साइमन वापस जाओ’ का नारा सन् 1928 में दिया गया था। दरअसल, इस नारे की उत्पत्ति 8 नवंबर, 1927 को घोषित साइमन कमीशन के गठन का परिणाम था। 1927 में भारत में संवैधानिक सुधारों के अध्ययन के लिए सात ब्रिटिश सांसदों के समूह वाले साइमन कमीशन का गठन किया गया था। कमीशन को इस बात की जांच करनी थी कि क्या भारत इस लायक हो गया है कि यहां लोगों को संवैधानिक अधिकार दिए जाए। लेकिन कमीशन में केवल ब्रिटेन की संसद के मनोनीत सात सदस्यों को ही शामिल किया गया और यही जनता के बीच आक्रोश का प्रमुख कारण बना।
कांग्रेस के 1927 के मद्रास अधिवेशन में ‘साइमन कमीशन’ के पूर्ण बहिष्कार का निर्णय लिया गया। इस कमीशन से भारतीयों के आत्मसम्मान को बेहद ठेस पहुंची थी। इसलिए जब फरवरी 1928 में आयोग के सदस्य बंबई पहुंचे तो उनके खिलाफ अभूतपूर्व हड़ताल का आयोजन किया गया। विरोध में काले झंडे दिखाए गए और ‘साइमन वापस जाओ’ का नारा लगाकर आक्रोश जताया गया।
इसी विरोध के दौरान पुलिस की लाठियों से जख्मी होने के कारण लाला लाजपत राय शहीद हो गए। लेकिन अंतिम समय तक अंग्रेजों को ललकारते हुए उन्होंने कहा “‘मेरे सिर पर लाठी का एक-एक प्रहार, अंग्रेजी शासन के ताबूत की कील साबित होगा।”
ये मात्र कुछ ऐसे नारे हैं, जिन्होंने लोकप्रियता की बुलंदी को छूते हुए जनमानस के रग-रग में देशप्रेम की धारा प्रवाहित की। हालांकि, इसके अलावा भी कई और ऐसे नारे थे, जिनके योगदान को कम नहीं आंका जा सकता। कभी गीत, कभी गजल तो कभी कथन के तौर पर उभरे इन नारों ने शब्दरूपी बाणों की तरह प्रहार किया, जिससे ब्रिटिश हुकूमत छलनी और सत्ता जमींदोज हो गई।
(लेखिका पत्र सूचना कार्यालय, नई दिल्ली में सूचना सहायक के पद पर कार्यरत हैं।)