उत्तराखण्ड में भाजपा का सोशल मीडिया प्रबन्धन असफल तथा नकारा
उत्तराखण्ड में सोशल मीडिया चुनाव प्रसार में भाजपा पानी की तरह पैसा बहाने के बावजूद पिछड गयी है, उत्तराखण्ड में भाजपा का चुनाव कैम्पेन संभाल रहे रणनीतिकार गूगल के मार्फत विज्ञापन विरतण को सोशल मीडिया कैम्पेनिंग मानने की भूल कर रहे हैं, यही कारण है कि भाजपा के बडे बडे महारथी भी कांग्रेस के अकेले योद्वा हरीश रावत के सामने भारी भरकम साबित नही हो पाये हैं, कुल मिलाकर अभी तक यह स्थिति है कि उत्तराखण्ड में भाजपा अभी तक टक्कर की स्थिति में तो जरूर है लेकिन पूर्ण बहुमत की स्थिति में अभी तक नही अा पायी है,
देखा जाये तो उत्तराखण्ड में भाजपा सोशल मीडिया के सफल प्रयोग में असफल साबित होती जा रही हैै,कारण भाजपा ने स्थानीय सोशल मीडिया को तो विश्वास में लिया ही नही, जिन सोशल मीडिया के एक्सपर्ट कलमकारों की खबर या स्टोरी वायरल होती है, भाजपा ने उत्तराखण्ड में उस ओर सोचा ही नही, कुल मिलाकर देखा जायेे तो उत्तराखण्ड में भाजपा का सोशल मीडिया मैनेजमेन्ट असफल साबित होता जा रहा है, इसका व्यापक प्रभाव पंजाब में भी पडा, और यूपी में पडता दिख रहा है, अभी परिणाम नही आया है परन्तु पंजाब में तथा यूपी में सोशल मीडिया ने भाजपा को सत्ता से बाहर दिखा दिया है,
वही असफल रणनीति से उत्तराखण्ड में भी भाजपा को नुकसान उठाना पड सकता है, देखा जाये तो असल में भाजपा उत्तराखण्ड में अभी पूर्ण बहुमत पाने की लडाई भी अभी पार नही कर पायी है, अगर कांग्रेस ने सोशल मीडिया का जम कर इस्तेमाल किया तो सुनामी में भाजपा उड सकती है- वही भाजपा ओवर कांफिडेस यानि अति विश्वास में दिखायी दे रही है कि हम तो सत्ता में आ ही रहे हैं, यह विश्वास उसे सत्ता से दूर भी खडा कर सकता हैै, कुल मिलाकर हिमालयायूके न्यूज पोर्टल जिसे गूगल ने अपने सर्च इंजन में टॉप वरियता दी है, तथा जो लीडिंग न्यूज पोर्टल है, जिसकी खबरो स्वत- ही फेसबुक, टविटर, whatsup groups तथा प्रमुख वेब साइर्टस तथा माेबाइल एप से खबरे प्रमुखता से तथा तत्काल प्रकाशित होती है, के अनुसार उत्तराखण्ड में भाजपा का सोशल मीडिया प्रबन्धन असफल तथा नकारा है, भाजपा का मीडिया प्रबन्धन देख रहे रणनीतिकार इस तरह का व्यवहार कर रहे हैं कि मानो वह सत्ता में आ गये हैं, अब उनको किसी सोशल मीडिया की जरूरत नही है, वही यह रणनीतिकार उत्तराखण्ड में लघु व मध्यम समाचार पत्रों के साथ ही उपेक्षा पूर्ण व्यवहार कर रहे हैं, इसका जबर्दस्त प्रतिक्रिया है, शायद इसका खामियाजा पंजाब की तरह उत्तराखण्ड में भी देखने को मिल सकता है, जहां वह पूर्ण बहुुमत में न आकर पूर्ण बहुमत से कुछ दूरी पर ही ठिठक कर रह जाये- वही हिमालयायूके न्यूज पोर्टल के चुनावी सर्वे के अनुसार उत्तर प्रदेश में भी भाजपा पूर्ण बहुमत से बहुत दूर दिख रही है, ज्ञात हो कि अनेक राज्यों के विधान सभा चुनावों मे हिमालयायूके न्यूज पोर्टल के चुनावी सर्वे सटीक साबित होते रहे हैं, भाजपा के पूर्व मीडिया प्रभारी रहे श्री अभिमन्यु जी इस तथ्य को स्वीकारते रहे हैं,
वही सोशल मीडिया के वर्चुअल कैंपेन का रियल दुनिया में विस्तार की संभावना कई रास्ते खोल रहे है सोशल मीडिया में आगे रहने से भी, उसके चुनाव जीतने का ज्यादा संभावना होगी? पंजाब विधानसभा चुनाव में यह साफ देखा जा रहा है कि सोशल मीडिया ने यह साफ दर्शा दिया है कि पंजाब में भाजपा-अकाली दल गठजोड साफ हो चुका है, कमोवेश यह परिणाम आना तय है, अगर 11 मार्च को यही परिणाम आया तो सोशल मीडिया की बादशाहत कायम होनी तय है,
राजनीतिक दल सोशल मीडिया पर प्रचार करने पर जो करोड़ों रुपए खर्च कर रहे हैं, फेसबुक, व्हाट्सएप्प, ट्विटर या यूट्यूब जैसे माध्यमों पर राजनीतिक दलों का जैसा जोर है, उसके पीछे जनसंचार की एक थ्योरी काम कर रही है. इसके मुताबिक, लोग जानकारी के लिए या विचारों के लिए सीधे जनसंचार के किसी स्रोत पर कम ही निर्भर रहते हैं.
लोग अपनी जानकारी समाज के ही किसी और व्यक्ति से लेते हैं. वह व्यक्ति ओपिनियन लीडर होता है, जिसकी बात सुनी और कई बार मानी जाती है. इसे टू स्टेप थ्योरी कहते हैं. सीधे मीडिया ने कुछ कहा या दिखाया और लोगों ने उसे मान लिया, यह कम ही होता है.
दरअसल राजनीतिक दल जब सोशल मीडिया पर प्रचार करने पर इतना जोर दे रहे होते हैं, तब उनका मकसद इन ओपिनियन लीडर्स तक पहुंचना होता है.
भारत जैसे देश में यह माना जा सकता है कि जिस आदमी की सोशल मीडिया तक पहुंच है, उसे आर्थिक और सामाजिक तौर पर एक दर्जा हासिल है. किसी व्यक्ति के सोशल मीडिया तक पहुंच का मतलब है कि उसके पास मोबाइल फोन या कंप्यूटर और इंटरनेट होगा.
इसके अलावा उसे इंग्लिश भाषा की न्यूनतम जानकारी जरूर होगी. ऐसा आदमी अपने समाज, बिरादरी में ओपिनियन लीडर होगा, इसकी संभावना बहुत ज्यादा है. इसलिए भारत में जब एक राजनीतिक दल सोशल मीडिया के जरिए 16.5 करोड़ लोगों तक पहुंचने का इरादा रखता है, तब उसकी नजर उन बाकी लोगों पर भी होती है, जो खुद सोशल मीडिया से जुड़े नहीं हैं, लेकिन हो सकता है कि वे ऐसे लोगों से प्रभावित होते हों.
भारत में क्या वह समय आ चुका है, जब कहा जाएगा कि यहां के चुनाव भी इंटरनेट पर लड़े जाते हैं? 2008 का अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव वह पहला चुनाव था, जिसके बारे में कहा गया था कि इसे सोशल मीडिया पर लड़ा गया. इस साल 2 फरवरी को सोशल मीडिया के सबसे बड़े खिलाड़ी फेसबुक ने अपनी चौथी तिमाही के नतीजे जारी किए.
इसमें आमदनी और मुनाफे के हिसाब के साथ यह भी बताया कि किस देश में फेसबुक के कितने यूजर हैं और उसमें बढ़ोतरी की रफ्तार कितनी है. चुनाव प्रचार में सबसे ज्यादा इस्तेमाल फेसबुक का होता है
ओबामा की ट्विटर और फेसबुक की टीम ने वोटरों तक उनका एजेंडा ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इससे पहले के अमेरिकी चुनावों के बारे में कहा जाता था कि वे टेलीविजन पर लड़े जाते थे. चुनाव के नतीजे कई बार कैंडिडेट्स के बीच टीवी बहस में उनकी परफॉर्मेंस से तय हो जाते थे. लेकिन अब यह बदल चुका है.
मास कम्युनिकेशन यानी जनसंचार की दृष्टि से 2008 का साल अमेरिका के लिए एक प्रस्थान बिंदु रहा, जिसके बाद वहां सब कुछ वैसा नहीं रहा, जैसा पहले था.
इस बात पर मुहर लगाते हुए बराक ओबामा की ह्वाइट हाउस में हुई पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में पहली बार एक ब्लॉगर को बुलाया गया. अब यह एक आम चलन है.
उसी साल कोलंबिया जर्नलिज्म रिव्यू में द बिगर टेंट नाम का एक पेपर छपा था, जिसमें कहा गया है कि पत्रकारिता अब बदल चुकी है और दुनिया अब लाखों पत्रकारों के युग में पहुंच गई है.
फेसबुक के ग्लोबल बिजनेस में इस तिमाही में सबसे तेज बढ़ोतरी भारत में हुई है. इतना ही नहीं, भारत में फेसबुक यूजर की संख्या अब 16.5 करोड़ को पार कर चुकी है. यानी भारत का हर 9वां आदमी अब हर महीने कम से कम एक बार फेसबुक का इस्तेमाल करता है.
व्हाट्सएप्प के पिछले साल नवंबर तक के आंकड़े आए हैं और उसके यूजर्स की संख्या भी 16 करोड़ को पार कर चुकी है. जाहिर है कि अब यह संख्या और बढ़ चुकी होगी.
यह एक विशाल संख्या है. भारत अब अमेरिका के बाद फेसबुक का सबसे बड़ा बाजार है. व्हाट्सएप्प का भारत दुनिया में सबसे बड़ा बाजार है.
लेकिन हर 9वें आदमी के फेसबुक या व्हाट्सएप्प से जुड़े होने का यह भी मतलब है कि हर नौ में से आठ आदमी फेसबुक-व्हाट्सएप्प से बाहर हैं. इसमें अगर नाबालिग आबादी को छोड़ दिया जाए, जो वोटर नहीं है, तो भी जितने लोग फेसबुक-व्हाट्सएप्प से जुड़े हैं, उनसे कई गुणा ज्यादा लोग सोशल मीडिया से बाहर है.
मल्टिपल आईडी होने का यह भी मतलब है कि 16.5 करोड़ यूजर दरअसल 16.5 करोड़ लोग नहीं हैं.
क्या सोशल मीडिया की दुनिया उन लोगों के वोटिंग व्यवहार को प्रभावित करती है, जो इससे जुड़े नहीं हैं? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हर 9वें भारतीय के सोशल मीडिया पर होने का मामला इतना सरल भी नहीं है.
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