समाज व्यवस्था की सुध लेने का प्रयत्न
समाज व्यवस्था की सुध लेने का प्रयत्न
– ललित गर्ग –
शादियों में भोजन की बर्बादी, फिजुलखर्ची और दिखावा रोकने के लिए कानून बनाने की पहल करने संबंधी निजी बिल को कानून मंत्रालय ने राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की मंजूरी के लिए उनके पास भेजा है। राष्ट्रपति की हरी झंडी मिलने के बाद लोकसभा में यह निजी विधेयक चर्चा के लिए आ सकेगा। बिहार से कांग्रेस की सांसद रंजीत रंजन ने शादियों में खाने की बर्बादी रोकने के साथ विवाह के पंजीकरण को कानूनी रूप से अनिवार्य बनाने के लिए बीते साल इस निजी विधेयक को लोकसभा में पेश करने का प्रस्ताव रखा था। सामाजिक एवं पारिवारिक समारोह खासकर शादियों, जन्म दिन, सगाई, शादी की सालगिरह आदि में होने वाले फिजुलखर्ची, वैभव प्रदर्शन एवं खाने की बर्बादी को रोकने को लेकर पिछले कई सालों से आवाज सामाजिक मोर्चां पर तो उठाई जाती रही है, लेकिन राजनीतिक स्तर पर इस विषय को उठाकर और उस पर कानून बनाये जाने की पहल पहली बार हुई, जिसके सकारात्मक परिणाम समाज को नयी दिशा एवं साफ-सुथरा परिवेश देंगे। गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, बीमारी और तनावों की त्रासदी के बीच अमीरों की शान-शौकत, प्रतिष्ठा की भूख और ऊंचे कद और कोठी का अहं हमारी संस्कृति के गाल पर तमाचा है। जरूरत है समाज के अगुआ इस प्रवाह का रूख बदलें, अन्यथा कानून बन जाने के बाद उसका डंडा तो चलेगा ही।
आज की ज्वलंत समस्या है निरंकुश भोगवाद, फिजुलखर्ची और दिखावा। उपभोक्तावाद संस्कृति ने विलासिता और आकांक्षाओं को नए पंख दे दिए हैं। अधिक अर्जन, अधिक संग्रह और अधिक भोग की मानसिकता ने नैतिक मूल्यों को ताक पर रख दिया है। इससे सामाजिक व्यवस्था में बिखराव आया है। वैयक्तिक अर्थव्यवस्था भी लड़खड़ा गई है। तनावों, स्पर्धाओं और कुंठाओं ने भी जन्म लिया है। धन के अतिभाव और अभाव ने अमीर को अधिक अमीर बना दिया, गरीब और अधिक गरीब बनाता गया। फलतः अपराधों ने जन्म ले लिया। एक तरफ भुख और दूसरी तरफ भोजन की बर्बादी- ऐसी विसंगति है जिसने मानवीयता के गाल पर तमाचा जड़ा है और असमान असंतुलित समाज की नींव को मजबूत किया है।
जो हम चाहते हैं और जो हैं, उनके बीच एक बहुत बड़ी खाई है। बहुत बड़ा अन्तराल है। पीढ़ी का नहीं, नियति का। सम्पूर्ण व्यवस्था बदलाव चाहती है और बदलाव का प्रयास निरंतर चलता है। चलता रहेगा। यह भी नियति है। समाज में जो व्यवस्था है और जो पनप रही है, वह न्याय के घेरे से बाहर है। सब चाहते हैं, उपदेश देते हैं कि सामाजिक अन्याय न हो, शोषण न हो। अगर सामाजिक अन्याय को बढ़ावा नहीं मिले और उसका प्रतिकार होता रहे तो निश्चित ही एक सुधार की प्रक्रिया प्रारम्भ होगी। कई लोग सम्पन्नता के एक स्तर तक पहुंचते ही अनुचित तौर-तरीके अपनाने हुए वैभव का भौंडा प्रदर्शन करने लगते हैं और वहीं से शुरू होता है प्रदर्शन का ज़हर। समाज में जितना नुकसान परस्पर स्पर्धा से नहीं होता उतना प्रदर्शन से होता है। प्रदर्शन करने वाले के और जिनके लिए किया जाता है दोनों के मन में जो भाव उत्पन्न होते हैं वे निश्चित ही सौहार्दता से हमें बहुत दूर ले जाते हैं। अतिभाव और हीन-भाव पैदा करते हैं और बीज बो दिये जाते हैं शोषण और सामाजिक अन्याय के। कुछ लोग समाज सुधारक के तमगों को अपने सीने पर टांगे हुए हैं तथा पंचाट में अग्रिम पंक्ति में बैठने के लिए स्थान आरक्षित किए हुए हैं। लेकिन जब स्वयं अपने परिवार स्तर पर सुधार की बात आती है तब पुत्रों पर डाल देते हैं कि वे जानें। या ‘मेरी तो चलती नहीं कह कर अपने सफेद चोले की रज को झाड़ देते हैं। कब तक चलेगा यह नाटक? और कब तक झेलता रहेगा समाज ये विसंगतियां? इन सामाजिक विसंगतियों एवं विषमताओं को समाप्त करने के लिये बार-बार आवाज उठती रही है, लेकिन समाज की घायल अवस्था बदली नहीं। क्योंकि समाज में भी ऐसे लोग सामने आने लगे हैं जिनकी सिर्फ यही सोच है कि ‘मेरे पास वो सब कुछ होना चाहिए जो सबके पास हो मगर सबके पास वो नहीं होना चाहिए जो मेरे पास हो।’ इस स्वार्थी, संकीर्ण सोच ने अपराधों को आमंत्रण दिया है। असंयम से जुड़ी इन आपराधिक समस्याओं को रोकने के लिए यदि अर्जन के साथ विसर्जन जुड़ जाए, अनावश्यक भोग पर अंकुश लग जाए, आवश्यकता, अनिवार्यता और आकांक्षा में फर्क समझ में आ जाए तो सटीक समाधान हो सकता है।
कई आर्थिक-सामाजिक संगठनों ने अध्ययनों के आधार पर अनुमान लगाया है कि भारत में होने वाली अधिकांश शादियों में कम-से-कम 20 फीसद भोजन बर्बाद होता है। बंगलोर में करीब पांच साल पहले भारत और अमेरिका के खाद्य व आर्थिक विशेषज्ञों की टीम शहर की शादियों में भोजन की बर्बादी का अध्ययन करने के दौरान कुछ इसी तरह के निष्कर्ष पर पहुंची थी। देश में एक तरफ गरीबी और जीवन यापन के लिए संघर्ष करते लोगों की चुनौतियों तो दूसरी तरफ मध्य वर्ग में सामाजिक दिखावे की बढ़ती प्रवृत्ति से हो रहे प्रतिकूल असर ने समाज की व्यवस्था को लहूलुहान कर दिया है। इन स्थितियों पर नियंत्रण के लिये रंजीत रंजन ने पिछले साल लोकसभा में इस निजी बिल को लाने का प्रस्ताव पेश किया था। राष्ट्रपति के पास बिल को मंजूरी के लिए भेजने का मतलब है कि वर्तमान सरकार भी इसे लेकर सकारात्मक है। वास्तव में शादियों में खाने-पीने के आयोजनों की देखा-देखी में मध्यमवर्ग पीस रहा है। मध्यम वर्ग परिवारों को अपने लड़कियों की शादी पर एक दिन में 20 से 50 लाख तक खर्च करने पड़ते हैं और इस अनचाहे बोझ को उठाने में उनकी कमर टूट रही है। वैसे विवाह तथा अन्य सामाजिक आयोजनों में खाने की बर्बादी रोकना भी वक्त की जरूरत है।
आज जब प्रदर्शन एक सीमा की मर्यादा लांघ गया है तो नतीजा भी परिलक्षित है। समाज में बदलाव के लिये छटपटाहट देखी जा रही है, कुछ लोग सार्थक बदलाव की पहल भी कर रहे हैं। सामाजिक आचार-संहिताएं बन रही हैं। देश के कुछ भागों में आज किसी बारात में 21 आदमी से ज्यादा नहीं जाने देते, एक निश्चित संख्या से अधिक खाने के आइटम नहीं बनाये जाते, दहेज नहीं लेने देते। सामाजिक सुधार के लिए अपनाये जाने वाले इन तरीकों से विचार भिन्न हो सकते हैं परन्तु प्रदर्शन, फैशन, दहेज, बड़े भोज, अनियंत्रित मेहमानों की सीमा कहीं-न-कहीं तो बांधनी ही होगी। दिल्ली के मारवाड़ी सम्मेलन की प्रेरणा से शादी-कार्डों पर होने वाले लाखों रूपयों की एवं समय की बर्बादी को रोकने के लिये ई-कार्ड के प्रचलन को आन्दोलन के रूप में घर-घर पहुंचाया जा रहा है। मेरठ में एक समाज ने शादी की सारी व्यवस्थाएं रियायती दरों पर उपलब्ध कराने की व्यवस्था की है, वह भी सराहनीय है। यहां मात्र डेढ़ लाख में शादी की सारी व्यवस्थाएं की जाती है।
सचमुच सामाजिक सुधार तब तक प्रभावी नहीं हांेगे, जब तक उपदेश देने वाले स्वयं व्यवहार में नहीं लायंेगे। सुधार के नाम पर जब तक लोग अपनी नेतागिरी, अपना वर्चस्व व जनाधार बनाने में लगे रहेंगे तब तक लक्ष्य की सफलता संदिग्ध है। भाषण और कलम घिसने से सुधार नहीं होता। सुधार भी दान की भांति घर से शुरू होता है, यह स्वीकृत सत्य है।
आज शादी में 50-60 लाख का व्यय मध्यम वर्ग में आम बात हो गई है। उच्च वर्ग की शादियां तो करोड़ों में होने लगी है। उत्सवों में लाखों-करोड़ो रुपये खर्च कर दिये जाते हैं और इस व्यवस्था में धार्मिक समारोह भी पीछे नहीं हैं। इस राशि से एक पूरा परिवार पीढि़यों तक जीवनयापन कर सकता है। हजारों अभावग्रस्तों को सहारा मिल सकता है। यह शोचनीय है। अत्यंत शोचनीय है। खतरे की स्थिति तक शोचनीय है कि आज तथाकथित नेतृत्व दोहरे चरित्र वाला, दोहरे मापदण्ड वाला होता जा रहा है। उसने कई मुखौटे एकत्रित कर रखे हैं और अपनी सुविधा के मुताबिक बदल लेता है। यह भयानक है। जब भी प्रस्ताव पारित किए जाते हैं तो स्याही सूखने भी नहीं पाती कि खरोंच दी जाती है। आवश्यकता है एक सशक्त मंच की। हम सबको एक बड़े संदर्भ में सोचने का प्रयास करना होगा। जिस प्रकार युद्ध में सबसे पहले घायल होने वाला सैनिक नहीं, सत्य होता है, ठीक उसी प्रकार प्रदर्शन और नेतृत्व के दोहरे किरदार से जो सबसे ज्यादा घायल होता है, वह है आपसी भाईचारा, समाज की व्यवस्था। बुराइयां मिटाने का दावा भले हम न कर सकें मगर बुरा न बनने की प्रतिज्ञा तो कर ही सकते हैं। हमारा संकल्प राष्ट्र के प्रति एक सार्थक योगदान होगा। यदि अभी कुछ नहीं हुआ, तो फिर कब होगा? इस प्रश्न का उत्तर भी हमें ही तलाशना होगा।
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ललित गर्ग
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