41 सीटों पर भाजपा को भारी नुकसान की संभावना- देवबंद से महागठबंधन की पहली साझा रैली
2019 के सियासी रण में भगवा पार्टी को परास्त करने के मिशन के साथ पश्चिम यूपी के देवबंद की धरती लाल, नीले और हरे झंडों से सजाई गई है. नवरात्र के मौसम में मायावती, अखिलेश यादव और अजित सिंह ने महागठबंधन की पहली साझा रैली के लिए दुनिया के सबसे बड़े इस्लामिक सेंटर में शुमार देवबंद को चुना है, जो चुनावी लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण माना जा रहा है. इस रैली के लिए जरिए सपा-बसपा-आरएलडी गठबंधन का मकसद जहां अपनी एकजुटता दर्शाना है, वहीं पश्चिम यूपी में गठबंधन के लिए सबसे बड़े निर्णायक वोट बैंक दलित, मुस्लिम और जाटों को भी एक साथ लाना है.
2014 में भाजपा और अपना दल का वोट शेयर 43.63% था, जो सपा-बसपा के कुल वोट शेयर 42.12% से ज्यादा है. अगर, सीटों के हिसाब से देखें और सपा-बसपा का वोट शेयर मिलाया जाए तो 41 सीटों पर भाजपा को भारी नुकसान हो सकता है. लेकिन, परिणाम गणित पर नहीं, मुद्दों पर निर्भर करता है. 2014 में कांग्रेस के खिलाफ एंटी-इनकम्बेंसी थी, इसलिए लोगों ने भाजपा को चुना था.
सबसे बड़े दो मुद्दे
2019 में मोदी सरकार की परफॉर्मेंस सबसे बड़ा मुद्दा होगी. सपा-बसपा गठबंधन की सफलता जातीय समीकरणों पर निर्भर करेगी.
पश्चिम यूपी की 8 लोकसभा सीटों के लिए 11 अप्रैल को वोट डाले जाएंगे. पहले चरण के लिए गठबंधन के तीनों नेताओं की एकलौती संयुक्त रैली है. ऐसे में तीनों नेताओं ने ऐसे जगह से रैली को संबोधित करने के लिए चुना है कि एक साथ पश्चिम की करीब 5 लोकसभा सीटों के मतदाताओं को साधा जा सके. देवबंद ऐसा केंद्र है, जिससे सहारनपुर के साथ-साथ कैराना, मुजफ्फरनगर, बागपत और बिजनौर लोकसभा सीट को एक साथ फोकस करने की रणनीति है.
साल 1866 में दारुल-उलूम के रूप में देवबंद में एक मदरसा (इस्लामिक स्कूल) स्थापित किया गया, जो आज दुनिया के सबसे बड़े इस्लामिक शिक्षण केंद्र के रूप में अपनी पहचान रखता है. देश के मुसलमानों की सियासत का सबड़े बड़ा सेंटर भी देवबंद को माना जाता है. हालांकि, औपचारिक तौर पर दारुल-उलूम से किसी पार्टी के पक्ष में समर्थन देने का ऐलान नहीं किया जाता है, लेकिन वहां से निकलने वाले किसी भी संदेश के बड़े मायने होते हैं. ऐसे में भारतीय जनता पार्टी की सरकार को केंद्र से उखाड़ने के लिए पुरानी अदावत भुलाकर साथ आए सपा-बसपा देवबंद के मंच से बड़ा संदेश देना चाहते हैं. वरिष्ठ पत्रकार यूसुफ अंसारी का कहना है कि देवबंद की धरती से सपा-बसपा खासकर मुस्लिम मतदाताओं तक ये संदेश पहुंचाना चाहते हैं कि बीजेपी को हराने में गठबंधन ही सक्षम है. ऐसे में कांग्रेस को वोट न देकर गठबंधन के पक्ष में ही समर्थन दिया जाए.
पश्चिम उत्तर प्रदेश को सूबे की सबसे बड़ी मुस्लिम बेल्ट के रूप में भी जाना जाता है. यहां के सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बिजनौर, अमरोहा, बुलंदशहर और मुरादाबाद वो जिले हैं, जहां मुसलमान मतदाताओं की संख्या निर्णायक भूमिका में है. पहले चरण के तहत जिन आठ सीटों पर मतदान हो रहा है, उन लोकसभा क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या औसतन 25 फीसदी से ज्यादा है.
कैराना सीट पर 26, मेरठ सीट पर 31, बागपत सीट पर 20, मुजफ्फरनगर सीट पर 31, सहारनपुर सीट पर 38, गाजियाबाद सीट पर 19 और बिजनौर सीट पर करीब 38 फीसदी मुसलमान हैं. जबकि गौतमबुद्धनगर सीट पर 14 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं. अकेले देवबंद तहसील में ही करीब 40 फीसदी मुसलमान हैं, जबकि यहां 25 फीसदी दलित आबादी है. यानी पहले चरण की सभी सीटों पर मुसलमान वोट अहम भूमिका में है, जहां सहारनपुर में सबसे ज्यादा मुस्लिम वोटर हैं. पहले चरण का मुस्लिम वोटर खासकर सुन्नी मुसलमान हैं, जिनका इस्लामिक सेंटर भी देवबंद है.
कांग्रेस को गठबंधन से बाहर रखकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ मायावती-अखिलेश यादव और अजित सिंह हुंकार भर रहे हैं. बीजेपी इन दलों के गठबंधन को महामिलावट बता रही है. एक सत्य ये भी है कि तीनों दलों का वोट बैंक अब तक एक-दूसरे का धुर विरोधी रहा है. जाट, गुर्जर, मुस्लिम और दलित वोटरों वाले पश्चिम उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का बड़ा समर्थन सपा को मिलता रहा है, जबकि दलित-मुसलमान गठजोड़ से बसपा को भी जीत मिलती रही है, वहीं आरएलडी का आधार जाट वोट रहा है.
सामाजिक तौर पर जाट और दलितों के बीच बड़ा टकराव देखने को मिलता रहा है. 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे ने मुसलमानों और जाटों के बीच बड़ी खाई पैदा की है. ऐसे में इन तीनों दलों के लिए अपने-अपने वोटबैंक के साथ पार्टी कार्यकर्ताओं को भी गिले-शिकवे भुलाकर एक साथ लाना बड़ी चुनौती है. सहारनपुर में दलित मुसलमान बड़ी तादाद में है, जिसे देवबंद की साझा रैली के जरिए साधने का प्रयास माना जा रहा है.
सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने ट्वीट कर बताया है कि दोपहर 1 बजे रैली को संबोधित करेंगे. उन्होंने लिखा है कि आज दोपहर 1 बजे समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव, बसपा राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती और आरएलडी राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह देवबंद में महागठबंधन की पहली संयुक्त रैली को संबोधित करेंगे.
उत्तर प्रदेश की सियासत में आज एक बड़ा दिन माना जा रहा है. 23 साल की दुश्मनी भुलाकर 25 साल पहले के तर्ज पर सपा-बसपा एक साथ चुनावी अभियान की शुरुआत पश्चिमी उत्तर प्रदेश के देवबंद से करने जा रहे हैं. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, बसपा प्रमुख मायावती और आरएलडी चीफ चौधरी अजित सिंह एक मंच से जनता को संबोधित कर राजनीतिक समीकरण साधने की कवायद करेंगे. बीजेपी के खिलाफ इन तीनों नेताओं के एक मंच पर आने के पीछे सिर्फ रैली ही नहीं बल्कि सियासी मायने भी छिपे हुए हैं.
सूबे में सपा-बसपा ने जब-जब हाथ मिलाया है तब-तब बीजेपी को मात खानी पड़ी है. 90 के दशक में राम मंदिर आंदोलन का दौर था, लेकिन मुलायम-कांशीराम ने 1993 के विधानसभा चुनाव में गठबंधन कर मैदान ने उतरे तो बीजेपी का पूरी सफाया हो गया. इसी तरह से 2018 में यूपी के उपचुनाव में बसपा के समर्थन से सपा ने बीजेपी को धूल चटा दी थी. लेकिन इस बार के लोकसभा चुनाव में गठबंधन को अपने इतिहास दोहराने की बड़ी चुनौती है. ऐसे में देवबंद में होने वाली गठबंधन यह रैली चुनावी रणभूमि का मिजाज तय करेगी.
2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिला और यूपी की 71 सीटों पर उसने फतह पाई. नतीजों के आकलन में यह तथ्य सामने आए कि बीजेपी को दलितों ने उम्मीद से ज्यादा वोट किया, जिसके चलते बीएसपी एक भी सीट नहीं जीत पाई. विधानसभा चुनाव में भी बीएसपी को बड़ा झटका लगा. इसके बाद मई 2017 में शब्बीरपुर में दलितों और राजपूतों के बीच पनपी हिंसा देशव्यापी चर्चा का विषय बनी. इस हिंसा से भीम आर्मी नेता चंद्रशेखर एक बड़ा चेहरा बनकर उभरे हैं, हालांकि मायावती सार्वनजनिक तौर पर उन्हें नकारती रही हैं.
साझा रैली से ठीक पहले भी चंद्रशेखर ने चमार रेजिमेंट के बहाने अखिलेश यादव पर सवाल दागे हैं. दिलचस्प बात ये है कि शब्बीरपुर देवबंद विधानसभा क्षेत्र में ही आता है. हिंसा के बाद मायावती यहां पहुंची थीं, हालांकि उन्हें शब्बीरपुर नहीं जाने दिया गया था. ऐसे में एक बार फिर मायावती देवबंद के मंच से शब्बीरपुर में दलितों पर हुए अत्याचार को मुद्दा बनाकर बीजेपी को आसानी से घेर सकती हैं.
लोकसभा सीटों की फेहरिस्त में सबसे पहले नंबर पर सहारानपुर का ही नाम है. मुसलमानों और दलितों की बड़ी आबादी होने के बावजूद सहारनपुर लोकसभा सीट पर 2014 में बीजेपी के राघव लखनपाल ने जीत दर्ज की थी. हालांकि, उनकी जीत का अंतर काफी कम रहा था. लखनपाल ने कांग्रेस प्रत्याशी इमरान मसूद को करीब 65 हजार मतों से हराया था. जबकि बीएसपी के जगदीश सिंह राणा को करीब 2 लाख 35 हजार वोट मिले थे. चौथे नंबर सपा के टिकट पर लड़े इमरान मसूद के चचेरे भाई शाजान मसूद को 52 हजार वोट मिले थे. अब सपा बसपा तो साथ हैं, लेकिन इमरान मसूद फिर एक बार कांग्रेस के टिकट पर दम दिखा रहे हैं.
इसी तरह 2017 के विधानसभा चुनाव में देवबंद विधानसभा सीट पर बसपा-सपा उम्मीदवार की टक्कर में बीजेपी के बृजेश ने बाजी मारी थी. सहारनपुर में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी व प्रियंका गांधी भी रैली कर सकते हैं. ऐसे में इस सीट पर मुस्लिम मतदाताओं को कांग्रेस के बजाय गठबंधन की ओर पूरी तरह आकर्षित करने के मकसद भी देवबंद से चुनाव प्रचार का आगाज करना बड़ी वजह माना जा रहा है.
इस तरह देवबंद के जरिए गठबंधन सिर्फ सहारनपुर सीट पर ही दलितों व मुसलमानों को साथ लाकर बड़ा संदेश नहीं देना चाहता, बल्कि वह पूरे राज्य में यहां से एक बड़ा मैसेज देना चाहता है. खासकर, पहले तीन चरणों में पश्चिम यूपी की सीटों पर जहां मुस्लिम वोट निर्णायक भूमिका हैं, वहां इस रैली का व्यापक असर देखने को मिल सकता है.
पश्चिम उत्तर प्रदेश की पहले चरण की 8 लोकसभा सीटों के लिए 11 अप्रैल को मतदान होंगे. सहारनपुर, कैराना, मेरठ, मुजफ्फरनगर, बागपत, बिजनौर, गाजियाबाद और गौतमबुद्धनगर सीट है. 2014 के लोकसभा चुनाव में इन आठों सीटों को बीजेपी ने जीता था. लेकिन पिछले साल कैराना सीट पर हुए उपचुनाव में बीजेपी को मात खानी पड़ी थी और बसपा-सपा के समर्थन से आरएलडी ने जीत दर्ज करने में कामयाब रही थी.
पश्चिम यूपी एक दौर में बसपा और आरएलडी का मजबूत गढ़ माना जाता था, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने इन दोनों पार्टियों की सियासी जमीन को कब्जा जमाने में कामयाब रही थी. इसी वजह है कि बीजेपी जहां अपने वर्चस्व को बरकरार रखने की जद्दोजहद कर रही है. वहीं, बसपा, आरएलडी और सपा गठबंधन के लिए अपनी खोई हुई जमीन पाने की चुनौती है.
इसी मद्देनजर प्रथम चरण से ही बढ़त लेने के लिए हर राजनीतिक दल पूरी ताकत लगा रहा है. पश्चिम यूपी में बीजेपी ने एक के बाद एक कई रैलियां कर डाली हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन आठ सीटों के लिए मेरठ और सहारनपुर में जनसभा को संबोधित कर चुके हैं. जबकि गठबंधन की पहली रैली रविवार को सहारनपुर में रही है, जिसमें अखिलेश, मायावती और अजित सिंह तीनों नेता किसी मंच पर एक होंगे.
पश्चिमी यूपी की आठ लोकसभा सीटों पर जातीय समीकरणों पर भी इन तीन नेताओं की निगाहें हैं. इसी खास रणनीति के तहत गठबंधन ने देवबंद क्षेत्र से चुनावी रैलियों का आगाज करने का फैसला किया है. इस रैली के जरिए गठबंधन का प्रयास पश्चिमी यूपी में जाट, मुस्लिम और अनुसूचित जाति का गठजोड़ मजबूत करना माना जा रहा है.
पश्चिम यूपी में दलित, मुस्लिम और जाट मतदाता ही निर्णयक भूमिका में है. इसीलिए समीकरण को साधने के लिए तीनों नेता साथ आए हैं. दलित मतदाताओं को साधने की जहां मायावती कोशिश करेंगी. वहीं, मुस्लिम मतदाताओं को अखिलेश यादव और जाट समुदाय को चौधरी अजित सिंह साधने की कवायद करेंगे. दिलचस्प बात ये है कि बसपा अध्यक्ष मायावती ने राज्यसभा सदस्यता से जिस कारण इस्तीफा दिया था, उसके लिंक भी इसी सहारनपुर से जुड़ता है. ऐसे में मायावती जहां अपने समुदाय को ये संदेश देने की कोशिश करेंगी उनकी आवाज उठाने वाले वह एकलौती नेता हैं. सहारनपुर सीट से मायावती खुद भी प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं, ऐसे में इस सीट को हरहाल में जीतने की उनकी कोशिश है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पश्चिम यूपी की अपनी जनसभाओं के दौरान आरएलडी अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह और जयंत चौधरी पर सियासी प्रहार किए हैं, उसका पलटवार देवबंद में हो रही गठबंधन की सियासी रैली से किया जा सकता है. इतना ही पश्चिम यूपी किसान बेल्ट वाला इलाका है, ऐसे में ऐसे में चौधरी अजित सिंह किसानों के मुद्दे को उठाकर बीजेपी को घेर सकते हैं. इसके अलावा आरएलडी के लिए ये चुनाव करो या मरो की स्थिति वाला है. पिता-पुत्र दोनों की किस्मत का फैसला पहले चरण में है. ऐसे में उन्हें अपने आपको हर में साबित करने की चुनौती है.
वहीं, पहले चरण के लिए गठबंधन के तीनों नेताओं की यही एकलौती रैली है. ऐसे में तीनों नेता एक साथ आकर अपने कार्यकर्ताओं और मतदाताओं को भी बड़ा संदेश देने की कोशिश है कि वो एक हैं और आप भी एक हो जाएं. सहारनपुर में एक प्रयोग सफल रहता है तो गठबंधन के लिए आगे की राह काफी आसान हो जाएगी. पहले चरण से बने माहौल को सूबे की बाकी हिस्सों में गठबंधन कैश कराने की कोशिश करेगा.
सपा और बसपा एक बार फिर एकसाथ हैं. कारण सिर्फ इतना कि भाजपा को हराना है. 2014 में नरेंद्र मोदी की लहर थी. इसी वजह से यूपी में भाजपा को 78 में से 71 सीटें मिली थीं. यह पहला मौका नहीं है जब एक-दूसरे का विरोध करने वाली सपा-बसपा साथ आई हों. ठीक ऐसे ही 26 साल पहले 1993 में अयोध्या के राम मंदिर की लहर थी.
भाजपा को हराने के लिए बनाए गए अखिलेश यादव और मायावती गठबंधन को उम्मीद है कि वो दोनों 1993 का करिश्मा दोबारा दिखा सकते हैं. 1993 में मुलायम सिंह यादव और कांशीराम ने राम मंदिर लहर के बीच भाजपा को रोकने में सफलता पाई थी.
1993 में यूपी विधानसभा में 422 सीटें थीं. सपा 256 और बसपा 164 सीटों पर मैदान में उतरी थी. सपा ने 109 और बसपा ने 67 सीटें जीती थीं. दोनों दलों ने मिलकर 176 सीटों पर कब्जा किया. हालांकि, भाजपा ने 177 सीटें जीती थीं. लेकिन, सपा-बसपा ने जनता दल सहित कुछ दलों के साथ मिलकर सरकार बना ली थी. भाजपा को पूरा भरोसा था कि राम लहर उसे दोबारा सत्ता देगी. तब कांशीराम और मुलायम सिंह यादव की नजदीकियां चर्चा का केंद्र थीं. इस दौरान एक नारा ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जयश्री राम’ भी चर्चा में था.