श्राद्ध पक्ष-पितर धरती पर 16 दिन के लिए पधार चुके हैं
जो व्यक्ति अपने पितरों को प्रसन्न नहीं कर सकता वह लाख प्रयत्न करने पर भी देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त नहीं कर सकता। पितर अपने दिवंगत तिथि के दिन अपने पुत्र-पौत्रों से यही अपेक्षा रखते हैं कि कोई श्रद्धापूर्वक उनके उद्धार के लिए पिण्डदान तर्पण और श्राद्ध करें# विभिन्न लोकों में गए पितर धरती पर आए हुए हैं# भोजन में मांस-मछली, मदिरा और तामसिक पदार्थों से परहेज रखना चाहिए # हिमालयायूके-
HIGH LIGHT; श्राद्ध पक्ष 25 सितंबर, मंगलवार से शुरू होकर 8 अक्टूबर,सोमवार तक # पितरों को तृप्त करना और उनकी आत्मा की शांति के लिए पितृ पक्ष में श्राद्ध करना जरूरी माना जाता है. श्राद्ध के जरिए पितरों की तृप्ति के लिए भोजन पहुंचाया जाता है और पिंड दान (Pind Daan) व तर्पण (Tarpan) कर उनकी आत्मा की शांति की कामना की जाती है.# पितृ पक्ष के दौरान पितरों का श्राद्ध करने से वे प्रसन्न होते हैं और उनकी आत्मा को शांति मिलती है # मान्यता है कि पितृ पक्ष में यमराज पितरों को अपने परिजनों से मिलने के लिए मुक्त कर देते हैं. इस दौरान अगर पितरों का श्राद्ध न किया जाए तो उनकी आत्मा दुखी हो जाती है. # इस दौरान कोई भी शुभ कार्य, विशेष पूजा-पाठ और अनुष्ठान नहीं करना चाहिए. हालांकि देवताओं की नित्य पूजा को बंद नहीं करना चाहिए. #इस दौरान रंगीन फूलों का इस्तेमाल भी वर्जित है #जमीन के नीचे पैदा होने वाली सब्जियां पितरों को नहीं चढ़ती हैं #श्राद्ध सम्पन्न होने पर कौवे, गाय, कुत्ते, चींटी तथा भिखारी को भी यथा नियम भोजन वितरित करना चाहिए।
श्राद्ध पक्ष में पितर, ब्राह्मण और परिजनों के अलावा पितरों के निमित्त गाय, श्वान और कौए के लिए ग्रास निकालने की परंपरा है। पितृपक्ष पूर्णिमा से अमावस्या तक 16 दिन का होता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार हमारी मान्यता है कि प्रत्येक की मृत्यु इन 16 तिथियों को छोड़कर अन्य किसी दिन नहीं होती है। इसीलिए इस पक्ष में 16 दिन होते हैं। एक मनौवैज्ञानिक पहलू यह है कि इस अवधि में हम अपने पितरों तक अपने भाव पहुंचाते हैं। चूंकि यह पक्ष वर्षाकाल के बाद आता है अत: ऐसा माना जाता है कि आकाश पूरी तरह से साफ हो गया है और हमारी संवेदनाओं और प्रार्थनाओं के आवागमन के लिए मार्ग सुलभ है।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष (पितृ = पिता) के नाम से विख्यात है। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात् उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं। ज्योतिष और धर्मशास्त्र कहते हैं कि पितरों के निमित्त यह काल इसलिए भी श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि इसमें सूर्य कन्या राशि में रहता है और यह ज्योतिष गणना पितरों के अनुकूल होती है।
श्रद्धया इदं श्राद्धम् (जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है।) भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है।
हिन्दू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिसमे हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं। श्राद्घ पक्ष में गाय को गुड़ के साथ रोटी खिलाएं और कुत्ते, बिल्ली और कौओं को भी आहार दें।
24 सितंबर- पूर्णिमा श्राद्ध , 25 सितंबर- प्रतिपदा, 26 सितंबर- द्वितीया, 27 सितंबर- तृतीया, 28 सितंबर- चतुर्थी, 29 सितंबर- पंचमी, महा भरणी, 30 सितंबर- षष्ठी, 1 अक्टूबर- सप्तमी, 2 अक्टूबर- अष्टमी, 3 अक्टूबर- नवमी, 4 अक्टूबर- दशमी, 5 अक्टूबर- एकादशी, 6 अक्टूबर- द्वादशी, 7 अक्टूबर- त्रयोदशी, चतुर्दशी, मघा श्राद्ध, 8 अक्टूबर- सर्वपित्र अमावस्या.
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था “प्रेत” है क्यों की आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।
पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।
तर्पण और पिंड दान करने के बाद पुरोहित या ब्राह्मण को भोजन कराएं और दक्षिणा दें.
ब्राह्मण को सीधा या सीदा भी दिया जाता है. सीधा में चावल, दाल, चीनी, नमक, मसाले, कच्ची सब्जियां, तेल और मौसमी फल शामिल हैं. ब्राह्मण भोज के बाद पितरों को धन्यवाद दें और जाने-अनजाने हुई भूल के लिए माफी मांगे.
पुराणों में कई कथाएँ इस उपलक्ष्य को लेकर हैं जिसमें कर्ण के पुनर्जन्म की कथा काफी प्रचलित है। एवं हिन्दू धर्म में सर्वमान्य श्री रामचरित में भी श्री राम के द्वारा श्री दशरथ और जटायु को गोदावरी नदी पर जलांजलि देने का उल्लेख है एवं भरत जी के द्वारा दशरथ हेतु दशगात्र विधान का उल्लेख भरत कीन्हि दशगात्र विधाना तुलसी रामायण में हुआ है।
शास्त्रों का मत है कि श्राद्घ पक्ष में पितर कई बार जीव-जंतु या मनुष्य के रुप में अपने परिजनों के घर पहुंचते हैं। अगर उस समय उन्हें अन्न जल नहीं मिला और वह नाराज होकर चले गए तो समझ लीजिए आपके बुरे दिन आने वाले हैं। आपकी जितनी श्रद्घा और सामर्थ्य हो उस अनुसार आप दान और ब्राह्मण भोजन करवा सकते हैं। इस काम को करने से पितर बहुत प्रसन्न होते हैं। जो ऐसा करता है उस पर पूरे साल पितरों की कृपा बनी रहती है।
भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।
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घिनौने और कुकर्मियों का साथ न तो पितर देते है। और न देवता। दुर्गन्धित स्थान से हर कोई बच निकलना चाहता है। उसी प्रकार दिव्य शक्तियाँ भी कुकर्मियों के आह्वान अनुरोध को स्वीकार नहीं करती, जब कि सत्पात्रों को वे स्वयं ही तलाश करती रहती है। और अच्छे साथी के साथ सहयोग का आदान प्रदान करते हुए वे अपने सहयोग की सार्थकता अनुभव करते हुए प्रसन्न भी होती है। सत्पात्रों को वे सद्प्रेरणाएं एवं मातृपितृवत् स्नेह प्रदान करती हैं ऐसी अदृश्य सहायता के बलबूते अपनी निजी सामर्थ्य की तुलना में उन्हें कहीं अधिक कार्य कर गुजरते देखा जाता है। विश्व में ऐसे अनेकों उदाहरण विद्यमान है जिसमें लोगों पर पितर आत्माओं का स्नेह बरसा, उनकी सहायता मिली। इतना ही नहीं वे संबंधित व्यक्ति के पास प्रमाण स्वरूप अपना स्मृति चिन्ह भी छोड़ गये। रोम में विश्व का एक ऐसा ही अद्भुत एवं आश्चर्यजनक संग्रहालय है जिसमें पितर चिन्हित वस्तुओं के अनेकानेक प्रमाण संग्रहित है। इस संग्रहालय को “हाउस ऑफ शैडोज” के नाम से जाना जाता है। इसे “पितरों का गृह” भी कहते है। इसमें तरह तरह के छाया चित्र, तैल चित्र वस्त्र आभूषण, तख्त तथा मूर्तियां आदि रखी हुई है, जिन्हें मरने के बाद वापस आई हुई सूक्ष्म शरीर धारी आत्माओं की निशानी कहा जाता है।
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पितृपक्ष में हिन्दू लोग मन कर्म एवं वाणी से संयम का जीवन जीते हैं; पितरों को स्मरण करके जल चढाते हैं; निर्धनों एवं ब्राह्मणों को दान देते हैं। पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता-पिता का श्राद्ध किया जाता है, परंतु गया श्राद्ध का विशेष महत्व है। वैसे तो इसका भी शास्त्रीय समय निश्चित है, परंतु ‘गया सर्वकालेषु पिण्डं दधाद्विपक्षणं’ कहकर सदैव पिंडदान करने की अनुमति दे दी गई है।
हमारे हिंदू धर्म-दर्शन के अनुसार जिस प्रकार जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। पितृ दोष के अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से, अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएँ होते भी मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं। यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाएँ
पद्म पुराण का एक प्रसंग बहुचर्चित है कि राजा दशरथ के अतिशय पुत्र मोह वृत्ति के कारण मुक्ति नहीं हो पाई थी, तो भगवान राम ने पुष्कर में अपने पिताश्री का श्राद्ध कर्म सम्पन्न कर उनको अर्पण किया था। तभी उनका साँसारिक मोह से पीछा छूटा। आज भी वहाँ का जल कुण्ड जनश्रद्धा का आकर्षण केन्द्र बना हुआ है। लोग मान्यता है कि इस पवित्र कुण्ड में शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के साथ मंगल का योग बिठाने की स्नान किया जाए तो विशेष प्रकार की शाँति मिलती और श्रद्धास्पद वातावरण नवनिर्मित होता है। इसी के फलस्वरूप पुष्कर को ब्रह्मा के तीर्थ, तीर्थराज की मान्यता मिली है।
पितृ पक्ष की पौराणिक कथा के अनुसार जोगे और भोगे नाम के दो भाई थे. दोनों अलग-अलग रहते थे. जोगे अमीर था और भोगे गरीब. दोनों भाइयों में तो प्रेम था लेकिन जोगे की पत्नी को धन का बहुत अभिमान था. वहीं, भोगे की पत्नी बड़ी
सरल और सहृदय थी. पितृ पक्ष आने पर जोगे की पत्नी ने उससे पितरों का श्राद्ध करने के लिए कहा तो जोगे उसे बेकार की बात समझकर टालने की कोशिश करने लगा. पत्नी को लगता था कि अगर श्राद्ध नहीं किया गया तो लोग बातें बनाएंगे.
उसने सोचा कि अपने मायके के लोगों को दावत पर बुलाने और लोगों को शान दिखाने का यह सही अवसर है. फिर उसने जोगे से कहा, ‘आप ऐसा शायद मेरी परेशानी की वजह से बोल रहे हैं. मुझे कोई परेशानी नहीं होगी. मैं भोगे की पत्नी को
बुला लूंगी और हम दोनों मिलकर सारा काप निपटा लेंगे.’ इसके बाद उसने जोगे को अपने मायके न्यौता देने के लिए भेज दिया.
गरुड़ पुराण में बताया गया है कि पितरों को अन्न जल की प्राप्ति उनके परिवार के सदस्यों द्वारा दिए गए अन्न जल से होती है। इसलिए पूरे वर्ष जब आप सूर्य को जल देने के साथ पितरों को याद करते हुए अंगूठे के सहारे पानी धरती पर गिराएं इससे यह जल पितरों को प्राप्त हो जाता है।
अगले दिन भोगे की पत्नी ने जोगे के घर जाकर सारा काम किया. रसोई तैयार करके कई पकवान बनाए. काम निपटाने के बाद वह अपने घर आ गई. उसे भी पितरों का तर्पण करना था. दोपहर को पितर भूमि पर उतरे. पहले वह जोगे के घर गए.
वहां उन्होंने देखा कि जोगे के ससुराल वाले भोजन करने में जुटे हुए हैं. बड़े दुखी होकर फिर वो भोगे के घर गए. वहां पितरों के नाम पर ‘अगियारी’ दे दी गई थी. पितरों ने उसकी राख चाटी और भूखे ही नदी के तट पर जा पहुंचे. थोड़ी ही देर में सारे पितर इकट्ठा हो गए और अपने-अपने यहां के श्राद्धों की बढ़ाई करने लगे. जोगे-भोगे के पितरों ने आपबीती सुनाई. फिर वे सोचने लगे कि अगर भोगे सामर्थ्यवान होता तो उन्हें भूखा न रहना पड़ता. भोगे के घर पर दो जून की रोटी भी नहीं थी. यही सब सोचकर पितरों को उन पर दया आ गई. अचानक वे नाच-नाच कर कहने लगे- ‘भोगे के घर धन हो जाए, भोगे के घर धन हो जाए.’
शाम हो गई. भोगे के बच्चों को भी खाने के लिए कुछ नहीं मिला था. बच्चों ने मां से कहा कि भूख लगी है. मां ने बच्चों को टालने के लिए कहा, ‘जाओ! आंगन में आंच पर बर्तन रखा है. उसे खोल लो और जो कुछ मिले बांटकर खा लेना.’ बच्चे वहां गए तो देखते हैं कि बर्तन मोहरों से भरा पड़ा है. उन्होंने मां के पास जाकर सारी बात बताई. आंगन में आकर जब भोगे की पत्नी ने यह सब देखा तो वह हैरान रह गई. इस तरह भोगे अमीर हो गया, लेकिन उसने घमंड नहीं किया. अगले साल फिर पितर पक्ष आया. श्राद्ध के दिन भोगे की पत्नी ने छप्पन भोग तैयार किया. ब्राहम्णों को बुलाकर श्राद्ध किया, भोजन कराया और दक्षिणा दी. जेठ-जेठानी को सोने के बर्तनों में भोजन कराया. यह सब देख पितर बड़े प्रसन्न और तृप्त हो गए.
धर्मशास्त्रों अनुसार पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है। यह आत्माएं मृत्यु के बाद एक वर्ष से लेकर सौ वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म की मध्य की स्थिति में रहते हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है। अन्न से शरीर तृप्त होता है। अग्नि को दान किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर और मन तृप्त होता है। इसी अग्निहोत्र से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं। पक्षियों के लोक को भी पितृलोक कहा जाता है।
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