सुभाष का जादू आज भी देश के सिर चढ़ कर बोलता है
120वें जन्मदिवस पर #ओजस्वी वक्ता, मुखर आंदोलनकारी और सांगठनिक क्षमता ऐसी, कि ‘नेताजी’ जिनके नाम का ही पर्याय बन गया. आधुनिक इतिहास में गौरवशाली किरदार निभानेवाले ऐसे महापुरुष को आज हम उनके 120वें जन्मदिवस पर याद कर रहे हैं. राष्ट्र के जनमानस के अंत:मन पर अंकित नेताजी सुभाष चंद्र बोस की शख्सियत से जुड़ी कुछ विशेष यादों को संजोये विचारों के साथ आज की विशेष प्रस्तुति… विजय नंदन#
(कांग्रेस के हरिपुर अधिवेशन में दिये गये अध्यक्षीय भाषण का अंश- ‘फेमस स्पीचेस एंड लेटर्स ऑफ सुभाष चंद्र बोस’ पुस्तक से साभार) presents by www.himalayauk.org (web & print media)
कहते हैं कि बीतते वक्त के साथ व्यक्तियों का और यहां तक कि नायकों का महत्व और उनका आकर्षण क्रमशः कम होता जाता है. पर क्या यह अचरज की बात नहीं कि जिस राष्ट्रनायक की तथाकथित मृत्यु के 71 वर्ष से ज्यादा गुजर चुके, साथ ही वैसी दो पीढ़ियां भी अतीत के हिस्से बन चुकीं, जो अपने सर्वथा भिन्न उम्रवर्ग में सुभाष चंद्र बोस की समकालीन थीं, पर उनकी शख्सियत की कशिश है कि वह आज भी ज्यों-की-त्यों कायम है? यह तथ्य स्वयं ही सुभाष चंद्र बोस को अपने समकालीन नेताओं-नायकों से अलग एक ऐसा विशिष्ट स्थान देता है, जिसकी पड़ताल न केवल सुभाष के व्यक्तित्व बल्कि भारतीय जनमानस को समझने के लिए सहज ही एक विशिष्ट अंतर्दृष्टि देती है.
पंडित नेहरू के व्यक्तित्व को भी गजब के आकर्षण का वरदान हासिल था. जनता उन्हें देखने को बेताब रहती, उनकी सभाओं में उनकी एक झलक पाने मात्र के लिए भीड़ खिंची चली आती. क्या बूढ़े और क्या जवान, उनका सम्मोहन सबके लिए समान सशक्त हुआ करता. अमीर हो या गरीब, समाज के हर वर्ग के बच्चों के लिए ‘चाचा नेहरू’ का नाम खास तौर पर जाना-पहचाना था. उनकी शेरवानी, उनका ‘जवाहर जैकेट’, बटन में टांकी हुई गुलाब की एक पुष्ट कली, सिर पर सुशोभित गांधी टोपी और चेहरे की मधुर मुस्कान ने जनता को जैसे बांध सा रखा था. पर उनके बाद की दो पीढ़ियों के मानस में यह तसवीर धीरे-धीरे ही सही, मगर धुंधलाती ही चली गयी.
–सुभाष चंद्र बोस ने अपनी सेना में सबसे ज्यादा भरोसा उत्तराखंडियों पर ही किया
आजाद हिंद फौज के मुखिया सुभाष चंद्र बोस ने अपनी सेना में सबसे ज्यादा भरोसा उत्तराखंडियों पर ही किया। उनके पर्सनल एड्जुटैंट से लेकर इस फौज में कई बड़े अधिकारी उत्तराखंड के ही थे। देश की आजादी के बाद पहली बार उत्तराखंड के समूचे इतिहास पर प्रकाशित हो रही ‘उत्तराखंड का समग्र राजनैतिक इतिहास’ लिखने वाले डा. अजय सिंह रावत ने पुस्तक के विमोचन समारोह के दौरान इसका खुलासा किया।
कोलकाता में अपने घर से जिस गाड़ी में बैठकर दिल्ली की ट्रेन पकड़ने की लिए नेता जी भागे थे वह कार अब फिर से चलने-फिरने लायक बना दी गई है। 1941 में इस कार में बैठकर नेता जी उस समय भागे थे जब उन्हें ब्रिटिश सरकार ने उनके ही घर में नजरबंद कर दिया था। नेता जी के भागने के 76वीं वर्षगांठ पर इस कार को कोलकाता में स्थित नेता जी रिसर्च ब्यूरो के 60वें स्थापना दिवस पर रीस्टोर करके प्रदर्शित किया गया। इस अवसर पर भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भी उपस्थित थे।
—
व्यक्तित्व का विद्रोहीपन
आशय इन दो जननायकों की तुलना करना बिलकुल ही नहीं है. स्वतंत्रता संग्राम तथा भारत के नवनिर्माण में नेहरू के अप्रतिम योगदान इतिहास में उन्हें अमर करने को काफी हैं. पर क्या यह तथ्य भी अपनी जगह सही नहीं है कि सुभाष के प्रसंग की चर्चा में जवाहर स्वयं ही सामने आ जाते हैं? दूसरी ओर, गांधी मानव की श्रेणी लांघ गये से लगते एक बिलकुल ही भिन्न पीठिका पर खड़े नजर आते हैं, जिनके प्रति असीम श्रद्धा रखते हुए भी आज का जनसामान्य उनसे स्वयं को जोड़ नहीं पाता. वह उन्हें देवत्व की कोटि में रखने को तो तैयार है, उनकी बातें उसे श्रेष्ठ तो लगती हैं, पर साथ ही वे ऐसे आदर्शों पर आधारित भी लगती हैं, जिनसे अपनी वृत्तियों का तादात्म्य स्थापित करने में उसे मुश्किलें पेश आती हैं.
दूसरी ओर, सुभाष के व्यक्तित्व का विद्रोहीपन, लीक से हटी उनकी सोच, उनकी तेजी, उनका उतावलापन, उनकी बेचैनी, देशभक्ति, अकेला चलने और कुछ नया कर गुजरने की सामर्थ्य देश के चिर युवा मन को ‘अपील’ करती हुई सुभाष की शख्सियत और उसके आकर्षण को भी चिर यौवन प्रदान कर देती है.
सुभाष आज 120 वर्ष के रहे होते, पर राष्ट्र के मानस में उम्र की इस सुदीर्घ कालावधि के परे उनकी जो छवि बसी है, वह 46-47 वर्ष के उसी सेनानायक की है, जो हुंकारता है- तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा. अहिंसा तथा नागरिक अवज्ञा के हथियार दीर्घावधि में चाहे कितने भी प्रभावी हों, उनकी धीमी, चरणबद्ध और क्रमिक फलश्रुति जब जनता के धैर्य की परीक्षा ले रही थी, सुभाष की इस पुकार ने जैसे उसकी नसों में बिजली सी दौड़ा कर उसे झकझोर जगाया और वह उसे तत्काल अनुप्राणित कर गयी. सुभाष का यही रूप और उनके आह्वान के इसी स्वर का जादू आज भी देश के सिर चढ़ करबोलता है और उनकी अमर लोकप्रियता का स्थायी आधार बना है. कोई आश्चर्य नहीं कि देश के महानगरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों-बाजारों तक पोस्टरों तथा फोटो-फ्रेमिंग की हर दुकान सेनानायक की वेशभूषा में सज्जित सुभाष के बगैर अधूरी ही मानी जाती और निर्विवाद रूप से वह वहां सबसे अधिक बिकनेवाली तसवीरों में शुमार होती है.
गांधी से सैद्धांतिक मतभेद
जनसाधारण को गांधी तथा सुभाष के सैद्धांतिक मतभेद की बारीकियों का न तो पता है, न ही वह उसमें विशेष रुचि रखता है. ऐसा नहीं है कि सुभाष की लोकप्रियता को गांधी-विरोध के किसी सहारे की किंचित भी दरकार है. उसकी दृष्टि में तो इसके विपरीत, गांधी के प्रति उनकी घोषित श्रद्धा उनका कद और भी ऊंचा कर देती है. ऐसा भी नहीं है कि सुभाष की तत्कालीन लोकप्रियता को आजाद हिंद फौज की स्थापना तथा उसके सैन्य अभियान की आवश्यकता थी. यह तथ्य इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि 1939 के त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन में गांधी की प्रकट इच्छा तथा विरोध के बाद सुभाष लगातार दूसरी बार विधिवत कांग्रेस अध्यक्ष निर्वचित हुए थे. गांधी के प्रबल प्रभाव के उस काल में यह उपलब्धि उन्हें केवल अपनी निजी लोकप्रियता के बलबूते ही मिली थी. बापू ने खुले शब्दों में इसे अपनी ही हार करार दिया था और जब उनके विरोध का मान रखते हुए सुभाष ने निर्वाचन के कुछ ही दिनों बाद वह पद छोड़ दिया, तो एक बार फिर इस कदम से उनका कद कुछ और ऊंचा ही हुआ.
आजाद हिंद फौज की सफलता
वर्ष 1941 में अपनी नजरबंदी से निकल भारत से उनका निष्क्रमण गांधीवादी तौर-तरीकों से उनके पूरे मोहभंग को रेखांकित करता है. भविष्य के आकलन में सुभाष कितने सही अथवा गलत थे या कि धुरी राष्ट्रों की अधिनायकवादी शक्ति से सहयोग लेकर भारत की स्वतंत्रता का उनका सपना किस हद तक सही था, इनके उत्तर तो इतिहास के अगर-मगर में छिपे हैं, जिन पर शाश्वत बहसें चल सकती हैं.
पर इस सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि आजाद हिंद फौज की जमीनी सफलता तथा उसकी सैन्य शक्ति से परे उसकी प्रतीकात्मक ताकत, ‘जय हिंद’ के जयघोष और ‘दिल्ली चलो’ के युद्धघोष ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को गहराई से आशंकित तो अवश्य ही कर दिया, जिसने उसे कांग्रेसी नेतृत्व से और अधिक सहयोग करने तथा आजादी का आश्वासन देने को बाध्य कर दिया.
किसी देश के इतिहास में राजनेता तो बहुत आते-जाते हैं, पर ऐसे राष्ट्रनायक कभी-कभी ही पैदा होते हैं, जिनका नाम और पुण्यस्मरण मात्र पूरे राष्ट्र को पुलकित कर देता है. सुभाषचंद्र बोस भारत की राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीक बन चुके हैं. कालचक्र अपनी गति से चलता रहेगा, पर उनके विषय में व्यक्त बापू के ही शब्दों में ‘देशभक्तों में राजकुमार’ सुभाष का आकर्षण जन मानस में बसी उनकी छवि के ही अनुरूप चिर युवा, चिर नवीन बना रहेगा.
जीवन परिचय
जन्म : 23 जनवरी, 1897 को कटक, ओड़ीशा में एक बंगाली परिवार में हुआ.
शिक्षा : कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज से पढ़ाई के बाद इंगलैंड गये. 1920 में प्रशासनिक सेवा की परीक्षा उत्तीर्ण की, लेकिन जलियावालां बाग के नरसंहार से व्यथित हो कर 1921 में इस्तीफा दे दिया.
राजनैतिक शुरुआत : गांधीजी के संपर्क में आने पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए. गांधीजी के निर्देशानुसार देशबंधु चितरंजन दास के साथ काम करना शुरू किया. बाद में चितरंजन दास को अपना राजनैतिक गुरु बताया. 1930 में इंडीपेंडेंस लीग का गठन किया. वर्ष 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान इन्हें जेल भेजा गया. गांधीजी-इरविन समझौते के बाद 1931 में रिहाई हुई. जल्द ही ‘बंगाल अधिनियम’ के तहत दोबारा जेल भेजा गया. 1938 में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये. इस दौरान ‘राष्ट्रीय योजना समिति’ का गठन किया. 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष को दोबारा अध्यक्ष चुना गया. द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत के संसाधनों के उपयोग का विरोध करने पर कोलकाता में नजरबंद कर दिये गये. जनवरी, 1941 में घर से भागने में सफल रहे और अफगानिस्तान के रास्ते जर्मनी पहुंचे. जनवरी, 1942 में रेडियो बर्लिन से प्रसारण शुरू किया. 1943 में जर्मनी से सिंगापुर आये और आजाद हिंद फौज का गठन कर युद्ध की तैयारी शुरू कर दी. इसके बाद सुभाष को ‘नेताजी’ कहा जाने लगा.
मृत्यु : 18 अगस्त, 1945. बताया जाता है कि टोक्यो (जापान) जाते समय ताइवान के पास हवाई दुर्घटना में उनका निधन हो गया, लेकिन उनका शव नहीं मिल पाया. उनकी मौत के कारणों पर आज भी विवाद कायम है.
पृथक भाषायी क्षेत्रों के अधिकारों की रक्षा जरूरी
यह एक जानी समझी बात है कि हर साम्राज्य ‘बांटो और राज करो’ की नीति पर आधारित होता है. लेकिन, ग्रेट ब्रिटेन से ज्यादा कुशलता, व्यवस्थित ढंग और क्रूरता से किसी ने इस नीति का इस्तेमाल किया हो, इस पर मुझे शक है. ऐसा उन्होंने आयरलैंड में किया.
इसी तरह से फिलिस्तिनियों को कोई अधिकार देने से पहले यहूदियों और अरबों को बांट दिया जायेगा. भारत के लिए बनाये गये नये संविधान में इस बांटों और राज करो की नीति का नये तरीके से इस्तेमाल किया गया है. यहां अलग-अलग समुदायों को बांटने की कोशिश की गयी है. और जो संघीय व्यवस्था कायम करने की कोशिश की जा रही है, उसमें स्वेच्छाचारी महाराजाओं और ब्रिटिश इंडिया में लोकतांत्रिक तरीके से चुने गये प्रतिनिधियों को एक-दूसरे से भिड़ा दिया गया है. अगर किसी कारण से इस नये संविधान को खारिज कर दिया जाता है, तो मुझे कोई शक नहीं कि अंगरेज किसी-न-किसी संवैधानिक युक्ति का इस्तेमाल करके भारत को विभाजित कर देंगे, ताकि भारतीयों को सत्ता के हस्तांतरण को वे बेअसर कर दें. इसलिए अंगरेजों की तरफ से आनेवाले किसी भी संविधान को हमें बेहद सजगता के साथ परीक्षण करना होगा.
भारत एक विशाल देश है, जिसकी जनसंख्या 35 करोड़ (आजादी से पूर्व) है. बड़ा क्षेत्रफल और बड़ी जनसंख्या अब तक हमारी कमजोरी का कारण था. लेकिन, आज यह हमारी ताकत बन गये हैं. हमें एकजुट होकर सबसे पहले यह समझना होगा कि ब्रिटिश भारत और रजवाड़ों के बीच किया गया विभाजन पूरी तरह से कृत्रिम है. भारत एक है और ब्रिटिश भारत व रजवाड़ों की जनता की आशाएं-आकांक्षाएं समान हैं. हमारा लक्ष्य स्वतंत्रता है और मेरी नजर में यह संघीय गणराज्य के द्वारा ही संभव है, जिसमें प्रांत और रजवाड़े बराबर के और इच्छुक साझीदार होंगे.
भारत की एकता पर बात करते हुए, जो अगला सवाल हमारे जेहन में उभरता है, वह है अल्पसंख्यकों का सवाल. कांग्रेस ने अलग-अलग समय पर इस समस्या पर अपनी नीतियों को प्रकट किया है. इस संबंध में 1937 में कलकत्ता में हुई अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में पारित किया गया आधिकारिक प्रस्ताव इस तरह है- कांग्रेस ने भारत के अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संबंध में अपनी नीतियों को बार-बार घोषित किया है.
हमने यह कहा है कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने, अल्पसंख्यकों के विकास की अधिकतम संभावनाएं सुनिश्चित करने और राष्ट्र के राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक जीवन में उनकी अधिक-से-अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने के प्रति हम प्रतिबद्ध हैं. कांग्रेस का लक्ष्य एक स्वतंत्र और एकजुट भारत है, जिसमें कोई वर्ग या समूह, बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक अपने फायदे के लिए दूसरे का शोषण न कर सके.
हमारा लक्ष्य एक ऐसे भारत का निर्माण करना है, जिसमें राष्ट्र के सारे अंग मिल कर एक साझे लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ें और भारत की जनता की बेहतरी के लिए काम करें. इस एकता और आपसी सहयोग का अर्थ किसी भी तरह से भारतीय सांस्कृतिक जीवन के शानदार प्रकारों और विविधताओं का दमन करना नहीं है. इस विविधता को हर हाल में सुरक्षित और संरक्षित किये जाने की जरूरत है, ताकि हर समूह और व्यक्ति को उसकी क्षमता और रुचि के मुताबिक बिना किसी रुकावट के विकास करने की आजादी और मौके मिल सकें. अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी फिर से कुछ बातों को दोहराना चाहती है. भारत ने मौलिक अधिकारों के अपने संकल्प में यह शामिल किया है- भारत के हर व्यक्ति को वाक् और अभव्यिक्ति की स्वतंत्रता मिले. लोगों को संघ बनाने, एकजुट होने, शांतिपूर्वक, बिना शस्त्रों के सम्मेलन करने का अधिकार मिले.
हर व्यक्ति को अंतः करण की स्वतंत्रता यानी अपने धर्म को मानने और उसके मुताबिक आचरण करने की स्वतंत्रता मिले. अलग-अलग भाषायी क्षेत्रों के अधिकारों की रक्षा की जाये. अल्पसंख्यकों की संस्कृति, भाषा और लिपि का संरक्षण किया जाये. सारे नागरिक जाति-पांति, धर्म आदि के भेदभाव के बिना कानून के समक्ष बराबर हों. किसी व्यक्ति को उसके धर्म, जाति, वंश या लिंग के कारण अयोग्य न माना जाये. राज्य हर धर्म के प्रति तटस्थ व्यवहार करे. (कांग्रेस के हरिपुर अधिवेशन में दिये गये अध्यक्षीय भाषण का अंश- ‘फेमस स्पीचेस एंड लेटर्स ऑफ सुभाष चंद्र बोस’ पुस्तक से साभार)
www.himalayauk.org (HIMALAYA GAURAV UTTRAKHAND)
(web & print media) Publish at Dehradun & Haridwar.
mob. 9412932030 mail; csjoshi_editor@yahoo.in