यदि 23 मई के पहले अदालत ने कोई उलटी राय जाहिर कर दी तो फिर ….
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का मुक़दमा दर्ज कराने के बाद बीजेपी अब इसे बड़ा मुद्दा बनाने में जुट गई है। बीजेपी में इस बात को लेकर बड़ी बेचैनी है कि राहुल गाँधी हर मंच से ‘चौकीदार चोर है’ के नारे लगवाते हैं। इससे बीजेपी रफ़ाल मुद्दे पर पिछले 6 महीनों से बैकफ़ुट पर चल रही है। राहुल गाँधी के इसी नारे की काट के लिए बीजेपी को प्रधानमंत्री के पक्ष में ‘मैं भी चौकीदार’ अभियान छेड़ना पड़ा। अंत में बैचेन भाजपा को सुप्रीम कोर्ट जाना पडा कि मी लार्ड राहुल को रोको, राहुल के इस नारे पर पाबंदी लगाओ, बडी अदालत का फैसला भी सितारो की चाल समान होता है ,कब आगे -कब पीछे कुछ कहा नही जा सकता- राहु-केतु की चाल कब क्या करे दे- कुछ कहा नही जा सकता-
यदि 23 मई के पहले अदालत ने कोई उलटी राय जाहिर कर दी तो फिर ….
इसके अलावा काले धन पर कांग्रेस को घेरने और इसे पूरी व्यवस्था से ख़त्म करने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी इस मुद्दे पर अब ख़ुद कटघरे में खड़ी दिखती है। नोटबंदी का विरोध करने वालों को काले धन का समर्थक बताने वाली नरेंद्र मोदी सरकार पर आरोप लग रहा है कि वह काले धन को बढ़ावा दे रही है। इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए अरबों रुपये का चंदा उगाहने वाला सत्तारूढ़ दल यह क़तई नहीं बताना चाहता है कि उसे किसने और कितने पैसे दिए। सुप्रीम कोर्ट ने एक बेहद अहम आदेश में कहा है कि सभी राजनीतिक दल इलेक्टोरल बॉन्ड से मिले पैसे की पूरी जानकारी चुनाव आयोग को दें। इसमें यह भी शामिल हो कि उन्हें किससे कितने पैसे मिले हैं। मोदी सरकार का अब तक यह कहना था कि चंदा देने वालों के नाम को उजागर करना ज़रूरी नहीं है। सरकार का पक्ष रखते हुए अटॉर्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल ने तो अदालत से यहाँ तक कह दिया कि मतदाता को वोट देने का हक़ है, वे वोट दें, उन्हें यह क्यों बताया जाना चाहिए कि किसने किस दल को कितने पैसे दिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी दलील को ख़ारिज कर दिया। 2017-18 के दौरान इलेक्टोरल बॉन्ड से मिले कुल पैसे का लगभग 95 प्रतिशत यानी 210 करोड़ रुपये सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को ही मिला है। यही पार्टी चंदा देने वालों के नाम बताने का सबसे ज़्यादा विरोध भी करती रही है। सुप्रीम कोर्ट ने सभी राजनीतिक दलों से कहा है कि वे 15 मई तक इलेक्टोरल बॉन्ड से मिले चंदे और चंदा देने वालों की जानकारी सीलबंद लिफाफे में 30 मई तक चुनाव आयोग में जमा कराएँ। इसमें उन्हें उन खातों का ब्योरा भी देना होगा, जिनमें रकम ट्रांसफ़र की गई है।
इन सब घटनाक्रम से सरकार अपनी नैतिक आभा खो चुकी लगती है।
वही दूसरी ओर डॉ. वेद प्रताप वैदिक लिखते है कि
इधर, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए रुस और यूएई के सर्वोच्च सम्मानों की घोषणा हो रही है और उधर पेरिस के प्रसिद्ध अख़बार ‘ल मोंद’ में हुआ रहस्योद्घाटन मोदी की छवि को धूल-धूसरित कर रहा है। चुनाव के दौरान इन ख़बरों के आने का विशेष महत्व है। भारत के किसी भी प्रधानमंत्री को विदेशों के इतने और बड़े सम्मान पहले कभी नहीं मिले लेकिन यह भी सच है कि 30 हज़ार करोड़ रुपये जितने बड़े घोटाले से आज तक किसी भी प्रधानमंत्री का नाम नहीं जुड़ा।
फ़्रांसीसी सरकार या वहाँ के किसी अख़बार ने यह दावा नहीं किया है कि मोदी ने रफ़ाल सौदे में अरबों रुपये खाए हैं लेकिन कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गाँधी उन्हें ‘चोर-चोर’ कहने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि अनिल अंबानी को बिचौलिया बनाकर रफ़ाल को दिया जाने वाला सरकारी पैसा वापस मोदी को मिल जाएगा, जिसका इस्तेमाल बीजेपी के लिए होगा। जब अंबानी को बिचैलिया बनाने से सरकार को इतना फायदा होगा तो वह अंबानी को फायदा क्यों नहीं पहुँचाना चाहेगी?
अंबानी की टेलिकाॅम कंपनी ‘रिलायंस एटलांटिक फ़्लैग फ़्रांस’ पर फ़्रांसीसी सरकार ने 1100 करोड़ रुपये का टैक्स कई वर्षों से ठोक रखा था। लेकिन अप्रैल 2015 में जैसे ही रफ़ाल सौदा हुआ, उसके छह माह के अंदर ही फ़्रांसीसी सरकार ने सिर्फ़ 56 करोड़ रुपये में मामला निपटा दिया। क्यों निपटा दिया, इसे आसानी से समझा जा सकता है।
अब फ़्रांसीसी सरकार और भारत सरकार ने कहा है कि यह शुद्ध संयोग है और इसका रफ़ाल सौदे से कुछ लेना-देना नहीं है। उनका यह मानना ठीक हो सकता है। यदि यह ठीक है तो इसे तीन साल पहले ही उजागर क्यों नहीं कर दिया गया? ऐसा उस समय करते तो शायद रफ़ाल सौदे की दलाली भी उसी समय उजागर हो जाती। लेकिन अब राहुल गाँधी ने आरोप लगाया है कि इस मामले में नरेंद्र मोदी ने फ़्रांस और अंबानी के बीच दलाली की है। सारा मामला अब सर्वोच्च न्यायालय के अधीन है। यदि 23 मई के पहले अदालत ने कोई उलटी राय जाहिर कर दी तो मोदी के लिए मुसीबत का नया पहाड़ टूट पड़ सकता है।
2019 के चुनाव में आम मतदाता पर इस मामले का कितना असर है, कुछ कहना मुश्किल है। ऐसा लगता है कि इस चुनाव में स्थानीय, प्रांतीय और जातिवादी मुद्दों का असर कहीं ज़्यादा रहेगा।