सूर्य सिद्धांत अद्भुत ग्रंथ; 26 फरवरी ;सूर्य ग्रहण पर विशेष
28 फरवरी को वर्ल्ड साइंस डे विशेष आलेख– सूर्य सिद्धांत अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह अद्भुत ग्रंथ है ; गहन अध्ययन एवं मनन के अभाव में की गई भविष्यवाणी भ्रामक होती है ज्योतिष शास्त्र के 18 प्रवर्तक रहे हैं, जिसके पांच प्रमुख सिद्धांत है। सूर्य सिद्धांत उसमें सर्वाधिक स्पष्ट है। ज्योतिर्विज्ञान के क्षेत्र में उज्जैन का प्रमुख स्थान है। इसी नगरी में सूर्य-सिद्धांत की रचना – यूएस का वैज्ञानिक संस्थान नासा और भारत का इसरो मंगल ग्रह के बारे में जिन तथ्यों पर रिसर्च कर रहे हैं, उनका उल्लेख तो 1500 साल पहले ही एक भारतीय वैज्ञानिक ने अपनी किताब में कर दिया था। ये खगोलविद् और कोई नहीं वराह मिहिर थे। उनकी इस रिसर्च से वैज्ञानिक अाज भी हैरान हैं; www.himalayauk.org (HIMALAYA GAURAV UTTRAKHAND) Leading Web & Print Media: mail; csjoshi_editor@yahoo.in Mob. 9412932030
सूर्य सिद्धांत में वराह मिहिर ने वैज्ञानिक आधार पर खगोलीय गणना की है। ये मूल ग्रंथ अब गायब हो चुका है। बाद में अन्य विद्वानों ने सूर्य सिद्धांत को पुन: लिपिबद्ध कर उनकी रिसर्च को आगे बढ़ाया। इसका विश्व की सभी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। नासा के मंगल अभियान के समय वराह मिहिर की गणनाओं का तुलनात्मक अध्ययन खगोलविद् रिटायर्ड आईपीएस अरुण उपाध्याय ने भी किया है। उन्होंने इस पर किताब भी लिखी है। अब वे भी भारत के मंगल अभियान के डाटा का तुलनात्मक अध्ययन भी किया हैं। भारतीय खगोलविदों ने मंगल सहित अन्य सौरग्रहों का अध्ययन विस्तारपूर्वक वैज्ञानिक रूप से किया है। इसे सूर्य सिद्धांत, गरुण पुराण, श्रीमदभागवत पुराण, मत्स्य पुराण, अग्नि पुराण में पढ़ा जा सकता है। इसके अलावा वराह मिहिर, भास्कराचार्य तथा आर्यभट्ट की रचनाओं में भी इनका विस्तार से वर्णन है। उक्त सभी सिद्धांत 1500 से दो हजार साल पुराने हैं। भारतीय खगोलविदों की खगोलीय गणना की माप योजन में है, जो आधुनिक 12.75 किमी के बराबर है।
सूर्य सिद्धांत कई सिद्धान्त-ग्रन्थों के समूह का नाम है। यह भारतीय खगोलशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। वर्तमान समय में उपलब्ध ग्रन्थ मध्ययुग में रचित ग्रन्थ लगता है किन्तु अवश्य ही यह ग्रन्थ पुराने संस्क्रणों पर आधारित है जो ६ठी शताब्दी के आरम्भिक चरण में रचित हुए माने जाते हैं। सूर्य सिद्धांत आधुनिक त्रिकोणमिति का मूल है। इसमें ज्या सूत्र (ज्या), कोसाइन सूत्र (कोज्या या “अभिलम्ब साइन”) और अनुलोम साइन (उत्क्रम ज्या) का प्रयोग प्रथम दॄष्टया हुआ है।
भारतीय गणितज्ञ और खगोलशास्त्रियों ने इसका सन्दर्भ भी लिया है, जैसे आर्यभट्ट और वाराहमिहिर, आदि. वाराहमिहिर ने अपने पंचसिद्धांतिका में चार अन्य टीकाओं सहित इसका उल्लेख किया है, जो हैं:
- पैतामाह सिद्धांत, (जो कि परम्परागत वेदांग ज्योतिष से अधिक समान है),
- पौलिष सिद्धांत
- रोमक सिद्धांत (जो यूनानी खगोलशास्त्र के समान है) और
- वशिष्ठ सिद्धांत.
सूर्य सिद्धांत नामक वर्णित कार्य, कई बार ढाला गया है। इसके प्राचीनतम उल्लेख बौद्ध काल (तीसरी शताब्दी, ई.पू) के मिलते हैं। वह कार्य, संरक्षित करके और सम्पादित किया हुआ (बर्गस द्वारा १८५८ में) मध्य काल को संकेत करता है। वाराहमिहिर का दसवीं शताब्दी के एक टीकाकार, ने सूर्य सिद्धांत से छः श्लोकों का उद्धरण किया है, जिनमें से एक भी अब इस सिद्धांत में नहीं मिलता है। वर्तमान सूर्य सिद्धांत को तब वाराहमिहिर को उपलब्ध उपलब्ध पाठ्य का सीधा वंशज माना जा सकता है। इसमें वे नियम दिये गये हैं, जिनके द्वारा ब्रह्माण्डीय पिण्डों की गति को उनकी वास्तविक स्थिति सहित जाना जा सकता है। यह विभिन्न तारों की स्थितियां, चांद्रीय नक्षत्रों के सिवाय; की स्थिति का भी ज्ञान कराता है। इसके द्वारा सूर्य ग्रहण का आकलन भी किया जा सकता है।
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वराह मिहिर का जन्म उज्जैन के समीप ‘कपिथा गाँव’ में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पिता आदित्यदास सूर्य के उपासक थे। उन्होंने मिहिर को (मिहिर का अर्थ सूर्य) भविष्य शास्त्र पढ़ाया था। मिहिर ने राजा विक्रमादित्य के पुत्र की मृत्यु 18 वर्ष की आयु में होगी, यह भविष्यवाणी की थी। हर प्रकार की सावधानी रखने के बाद भी मिहिर द्वारा बताये गये दिन को ही राजकुमार की मृत्यु हो गयी। राजा ने मिहिर को बुला कर कहा, ‘मैं हारा, आप जीते’। मिहिर ने नम्रता से उत्तर दिया, ‘महाराज, वास्तव में तो मैं नहीं ‘खगोल शास्त्र’ के ‘भविष्य शास्त्र’ का विज्ञान जीता है’। महाराज ने मिहिर को मगध देश का सर्वोच्च सम्मान वराह प्रदान किया और उसी दिन से मिहिर वराह मिहिर के नाम से जाने जाने लगे। भविष्य शास्त्र और खगोल विद्या में उनके द्वारा किए गये योगदान के कारण राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने वराह मिहिर को अपने दरबार के नौ रत्नों में स्थान दिया।
वराह मिहिर की मुलाक़ात ‘आर्यभट्ट’ के साथ हुई। इस मुलाक़ात का यह प्रभाव पड़ा कि वे आजीवन खगोलशास्त्री बने रहे। आर्यभट्ट वराह मिहिर के गुरु थे, ऐसा भी उल्लेख मिलता है। आर्यभट्ट की तरह वराह मिहिर का भी कहना था कि पृथ्वी गोल है। विज्ञान के इतिहास में वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया कि सभी वस्तुओं का पृथ्वी की ओर आकर्षित होना किसी अज्ञात बल का आभारी है। सदियों बाद ‘न्यूटन’ ने इस अज्ञात बल को ‘गुरुत्वाकर्षण बल’ नाम दिया।
रचनाएँ ; वेद के एक अंग के रूप में ज्योतिष की गणना होने के कारण हमारे देश में प्राचीन काल से ही ज्योतिष का अध्ययन हुआ था। वेद, वृद्ध गर्ग संहिता, सुरीयपन्नति, आश्वलायन सूत्र, पारस्कर गृह्य सूत्र, महाभारत, मानव धर्मशास्त्र जैसे ग्रंथों में ज्योतिष की अनेक बातों का समावेश है। वराह मिहिर का प्रथम पूर्ण ग्रंथ ‘सूर्य सिद्धांत’ था जो इस समय उपलब्ध नहीं है। वराह मिहिर ने ‘पंचसिद्धांतिक’ ग्रंथ में प्रचलित पांच सिद्धांतों – पुलिश, रोचक, वशिष्ठ, सौर(सूर्य) और पितामह का हेतु रूप से वर्णन किया है। उन्होंने चार प्रकार के माह गिनाये हैं –
सौर, चन्द्र, वर्षीय और पाक्षिक।
भविष्य विज्ञान इस ग्रंथ का दूसरा भाग है। इस ग्रंथ में लाटाचार्य, सिंहाचार्य, आर्यभट्ट, प्रद्युन्न, विजयनन्दी के विचार उद्धृत किये गये हैं। खेद की बात है कि आर्यभट्ट के अतिरिक्त इनमें से किसी के ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं।
वराह मिहिर के कथनानुसार ज्योतिष शास्त्र ‘मंत्र’, ‘होरा’ और ‘शाखा’ इन तीन भागों में विभक्त था। होरा और शाखा का संबंध फलित ज्योतिष के साथ है। होरा और जन्म कुंडली से व्यक्ति के जीवन संबंधी फलाफल का विचार किया जाता है।[[ शाखा में धूमकेतु, उल्कापात, शकुन और मुहूर्त का वर्णन और विवेचन है। वराह मिहिर की ‘वृहत संहिता ‘ (400 श्लोक) फलित ज्योतिष का प्रमुख ग्रंथ है। इसमें मकान बनवाने, कुआँ, तालाब खुदवाने, बाग़ लगाने, मूर्ति स्थापना आदि के शगुन दिए गये हैं। विवाह तथा दिग्विजय के प्रस्थान के समय के लिए भी ग्रंथ लिखे हैं। फलित ज्योतिष पर ‘बृहज्जातक’ नामक एक बड़ा ग्रंथ लिखा। ग्रह और नक्षत्रों की स्थिति देखकर मनुष्य का भविष्य बताना इस ग्रंथ का विषय है। खगोलीय गणित और फलित ज्योतिष के मिहिर(सूर्य) समान वराह मिहिर का ज्ञान तीन भागों में बंटा हुआ था –
खगोल भविष्य विज्ञान वृक्षायुर्वेद ;;वृक्षायुर्वेद के विषय में सही गणनाओं से समृद्ध शास्त्र उन्होंने लिखा है। बोबाई, खाद बनाने की विधियाँ, ज़मीन का चुनाव, बीज, जलवायु, वृक्ष, समय निरीक्षण से वर्षा की आगाही आदि वृक्ष, कृषि संबंधी अनेक विषयों का विवेचन किया है। वराह मिहिर का संस्कृत व्याकरण पर अच्छा प्रभुत्व था। होरा शास्त्र, लघु जातक, ब्रह्मस्फुट सिद्धांत, करण, सूर्य सिद्धांत, आदि ग्रंथ वराह मिहिर ने लिखे थे, ऐसा उल्लेख देखने को मिलता है।
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ग्रहों के व्यास – सूर्य सिद्धान्त में ग्रहों के व्यास की गणना भी की गयी है। बुध का व्यास ३००८ मील दिया गया है जो आधुनिक स्वीकृत मान (३०३२ मील्) से केवल १% कम है। इसके अलावा शनि, मंगल, शुक्र और बृहस्पति के व्यास की गणना भी की गयी है। शनि का व्यास ७३८८२ मील बताया गया है जो केवल १% अशुद्ध है। मंगल का व्यास ३७७२ मील बताया गया है जो लगभग ११% अशुद्ध है। शुक्र का व्यास ४०११ मील तथा बृहस्पति का व्यास ४१६२४ मील बताया गया है जो वर्तमान स्वीकृत मानों के लगभग आधे हैं।
इस ग्रन्थ में विषयों की सूची निम्न है:
- ग्रहों की चाल
- ग्रहों की स्थिति
- दिशा, स्थान और समय
- चंद्रमा और ग्रहण
- सूर्य और ग्रहण
- ग्रहणों का पूर्व अनुमान/ आकलन
- ग्रहीय संयोग
- तारों के बारे में
- उनका उदय और अस्त
- चंद्रमा का उदय और अस्त
- सूर्य और चंद्रमा के एकई अहितकर पक्ष
- विश्वोत्पत्ति/ब्रह्माण्ड सॄजन, भूगोल और सॄजन के आयाम
- सूर्य घड़ी का दण्ड
- लोकों की गति और मानवीय क्रिया-कलाप
ज्योतिर्विज्ञान के क्षेत्र में उज्जैन का प्रमुख स्थान है। इसी नगरी में सूर्य-सिद्धांत की रचना
मानव उत्पत्ति का आरंभ-काल अनिर्णीत है, उसी प्रकार आकाशस्थ ज्योति पुंजों की ओर मानव की जिज्ञासा कब जाग्रत हुई, इसका समय निश्चित करना असंभव है। ऋग्वेद संसार की प्राचीनतम रचना है। इस ग्रंथ में खगोलीय घटनाओं का उल्लेख अनेक ऋचाओं में वर्णित है। धार्मिक, ऐतिहासिक एंव ज्योतिर्विज्ञान के क्षेत्र में उज्जैन का प्रमुख स्थान है। इसी नगरी में सूर्य-सिद्धांत की रचना हुई थी। वराहमिहिर जैसे प्रकाण्ड विद्वान इसी नगरी के निवासी थे। भारतीय ज्योतिष के सिद्धांतकाल में उज्जैन की स्थिति ठीक कर्क रेखा एवं मुख्य मध्यान्ह रेखा पर स्थित होने के कारण भारतीय ज्योतिष में कालगणना का मुख्य केन्द्र माना गया है। यहाँ के ज्योतिर्लिंग का नाम महाकालेश्वर है। इससे ऐसा विदित होता है कि महाकलेश्वर की स्थापना होने के पहले से ही उज्जैन की कालज्ञान संबंधी कीर्ति प्रसिद्ध है। यहाँ की रेखा मुख्य मानने का उल्लेख शक पूर्व 300 से 400 तक रखे हुए आद्य सूर्य-सिद्धांत ग्रंथ में आया है। प्राय: उस काल से ही उज्जैन को हिन्दुस्तान का ग्रीनविच होने का सम्मान प्राप्त है।शिलालेख के अनुसार इस वेधशाला का निर्माण सन 1719 में महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने करवाया था। महाराजा जयसिंह उच्च कोटि के ज्योतिष मर्मज्ञ भी थे। भारतीय ज्योतिष में आ रही त्रुटि दग् प्रत्यय नहीं थी। उसमें सुधार करने हेतु उन्होंने वेधशालाओं का निर्माण करवाया। उनके द्वारा निर्मित वेधशालाएँ उज्जैन के अलावा जयपुर, मथुरा, काशी एवं दिल्ली में विद्यमान हैं।उज्जैन की वेधशाला लगभग दो सौ वर्ष तक भग्नावस्था में पड़ी रही। सन 1905 में बम्बई में अखिल भारतीय ज्योतिष सम्मेलन हुआ। उसमें ग्वालियर शासन की ओर से सान्दीपन व्यास, सिद्धांत वागीश, स्व. नारायणजी व्यास एवं गणक चूड़ामणि स्व. गोविंद सदाशिवजी आप्टे भेजे गये थे। इन्होंने प्रचलित पंचांग में संशोधन हेतु यह प्रस्ताव रखा कि एक करणग्रंथ तैयार किया जाये और वह कार्य प्रत्यक्ष वेधोपलब्ध उपकरणों द्वारा किया जाये तथा वेध मध्य रेखा स्थित उज्जैन की वेध-शाला द्वारा लिया जाये। इस प्रस्ताव की स्वीकृति के पश्चात स्वर्गीय महाराजा माधव राव सिंधिया ग्वालियर से वेधशाला के सुधार हेतु आग्रह किया गया। महाराजा ने अनुरोध स्वीकार कर जयपुर के विद्वान स्वर्गीय गोकुलचन्दजी भावन के निरीक्षण में इस वेधशाला का पुनरुद्धार सन 1923 में करवाया तथा वेध आदि कार्यों के लिए आर्थिक व्यवस्था की। 21 मार्च 1930 से श्री गोविन्द सदाशिव आप्टे के निर्देशन में कार्य प्रारंभ हुआ। वेधशाला पर लिये गये वेधों के आधार पर आप्टेजी ने एक करण ग्रंथ ‘ सर्वानन्द लाघव’ संस्था से प्रकाशित किया। इसके द्वारा बनाये गये ग्रह दृग प्रत्यय होते हैं।सन 1942 से संस्था से अंग्रेजी में एक ‘ एफेमेरीज’ अर्थात् ‘ दृश्यग्रह स्थिति पंचांग ‘ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। सन 1964 से एफेमेरीज में आवश्यक नागरी लिपि का प्रयोग भी किया जा रहा है। इस एफेमेरीज के ग्रह वेध तुल्य होते हैं। इसमें नक्षत्र काल, ग्रहों के भोग, शर एवं क्रांति प्रतिदिन के मान से दिये जाते हैं। सूर्योदय, सूर्यास्त एवं चन्द्रोदय की सारणियाँ भी दी गई हैं। चन्द्र का राशि प्रवेश काल, चन्द्र से ग्रहों का योगकाल, दृष्टि विषय ग्रहों से ग्रहों का योगकाल, ग्रहों की युति एंव प्रतियुति कालीन समय एवं क्रान्त्यन्तर ग्रहण दशमलग्न सारणी, अक्षांश 60 से 340 तक लग्न कोष्टक एवं लघुगुणक कोष्टक भी दिये जाते हैं।यह वेधशाला, उज्जैन का एक महत्वपूर्ण पर्यटक केन्द्र है, यहाँ खगोलीय ज्ञान प्रत्यक्ष रूप में प्राप्त किया जा सकता है। खगोल एवं ज्योतिष के छात्र, प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने यहाँ आते रहते हैं।वेधशाला में निम्नांकित यंत्र बने हैं :–1. सम्राट यंत्र ,2. नाड़ी वलय यंत्र,3. दिगंश यंत्र ,4. भित्ति यंत्र ,5. शंकु यंत्रसम्राट यंत्र :–इसकी ऊँचाई 22 फुट 4 इंच है तथा जीने की लम्बाई 52 फुट 8 इंच है। यह जीना ठीक दक्षिणोत्तर है। इसके दोनों ओर पूर्व एवं पश्चिम की ओर जो वृत्तपाद हैं, उनकी त्रिज्या 9 फुट डेढ़ इंच है। इसका जीना पृथ्वी के अक्ष के समानान्तर होने के कारण ठीक उत्तर ध्रुव की दिशा होकर अक्षांश 23.11′ के बराबर कोण बनाता है। जीने पर खुदे अंकों से ग्रह, नक्षात्रादिकों की क्रांति का ज्ञान होता है। वृत्त पादों पर घंटे, मिनट एवं 20 सेकेंड के चिन्ह अंकित हैं। जीने की छाया वृत्त पादों पर जहाँ गिरती है वह उस समय का स्थानीय स्पष्ट काल (Local time) दर्शाता है। स्थानीय स्पष्ट काल से भारतीय समय (Indian standard time) जानने के लिए, यंत्र के पूर्व एवं पश्चिम की ओर अंग्रेजी और हिन्दी में संशोधन सारणी लगी हुई है।नाड़ीवलय यंत्र :–यह यंत्र सम्राट यंत्र के समीप ठीक दक्षिण में बना हुआ है। इसके उत्तर एवं दक्षिण दोनों ओर दो वृत्त बने हुए हैं जो विषुवत् वृत्त के समानान्तर हैं। इस यंत्र से ग्रह, नक्षत्रादि दक्षिण या उत्तर गोलार्द्ध में हैं, इसका यथार्थ ज्ञान हो जाता है। सूर्य के सायन मेषारंभ से सायन तुलारंभ तक सूर्य का प्रकाश इस यंत्र के उत्तर भाग के वृत्त पर पड़ता है और सायन तुलारम्भ सायन मेषारम्भ तक के दक्षिण भाग के वृत्त पर सूर्य का प्रकाश पड़ता रहता है। यह काल 23 सितम्बर से 21 मार्च तक होता है। प्रत्येक वृत्त के केन्द्र पर वृत को समकोणिक एक कीला लगा हुआ है। कीले की परछाई से, वृत्त पर खुदे अंकों से स्थानीय समय (L.T. या लोकल टाइम) ज्ञात होता है। स्थानीय समय में संशोधन सारणी से संशोधन करने पर भारतीय समय (I.S.T. या इंण्डियन स्टेन्डर्ड टाइम) ज्ञात होता है। कीले की सीध में ठीक उत्तर दिशा में ध्रुवतारा दिखाई देता है।दिगंश यंत्र :–यह यंत्र दो समकेन्द्रीय दीवारों का बना हुआ है। बाहरी दीवार सुरक्षा के लिए बनाई गई है। भीतरी दीवार पर अंशों के अंक खुदे हुए हैं। भारतीय गणना के अनुसार पूर्व एवं पश्चिम बिन्दु पर 00 अंश और दक्षिणोत्तर बिन्दुओं पर 900 अंश के अंक खुदे हैं। इस यंत्र के मध्य में 4 फुट 4 इंच के स्तम्भ पर एक 4’ लम्बे लोहे के नल पर एक वृत्ताकार प्लेट जिसमें 00 से 3600 के अंक खुदे हुए हैं, लगी हुई है। इस प्लेट के कीले पर एक तुरीय यंत्र ( जो कि 00 से 900 वृत्तपाद के आकार का है) लगाकर ग्रह, नक्षत्रों के उन्नतांश एवं प्लेट से दिगंश ज्ञात किये जा सकते हैं।याम्योत्तर भित्ति यंत्र-यह एक दीवार के आकार का बना हुआ यंत्र है। यह ठीक दक्षिणोत्तर दिशा में बनाया गया है। इसकी ऊँचाई 24 फुट 3 इंच एवं चौड़ाई 24 फुट 7.5 इंच है। इस दीवार के पूर्वी भाग में ऊपर दोनों कोनों पर दो कीले गड़े हुए हैं, जिनका पारस्परिक अंतर 20 फुट 2 इंच है। कीलों को केन्द्र मानकर दो वृत्त पाद संगमरमर पत्थर के बने हैं एवं वृत्त पादों पर 00 से 900 तक के अंक खुदे हुए हैं। सूर्य जब इस भित्ति पर आता है, तब स्थानीय मध्यान्ह काल होता है। इसी समय यंत्र में लगे हुए कीलों में एक डोरी लगाकर सूर्य के याम्योत्तर लंधन के समय कीले की छाया की सहायता से यह डोरी यंत्रांकित वृत्त पाद में जहाँ स्पर्श करे, वह अंक तात्कालिक सूर्य के याम्योत्तर वृत्तीय नतांश होता है। इन नतांशों से स्थानीय अक्षांश, सूर्य की क्रांति, वर्षमान आदि प्रत्यक्ष रूप से ज्ञात किये जा सकते हैं।शंकु यन्त्र :–यह यंत्र एक गोलाकार चबूतरे का बना हुआ है। इसके केन्द्र में एक 4 फुट ऊँचे लोहे का नल लगा हुआ होता है। इस यंत्र का निर्माण संस्था के प्रथम अधीक्षक श्री गो.स.आप्टे के निर्देशन में सन 1937 में करवाया गया था। इस यंत्र पर 00 से 3600 के अंक खुदे हुए हैं। इस पर उत्तर एवं पूर्व दिशा में दो पट्टियाँ लगी हुई हैं। इस यंत्र पर 7 रेखाएँ खिंची हुई हैं जो क्रमश्: महीने एवं सूर्य की राशि का ज्ञान करवाती हैं। इस यंत्र से दिशा, समय, दिनमान का घटना-बढ़ना एवं संक्रांतियों का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप में होता है। 22 दिसम्बर को मकर संक्रांति के दिन सबसे छोटा दिन, 21 मार्च एवं 23 सितम्बर को समान दिन-रात एवं 22 जून को कर्क संक्रांति के समय सबसे बड़ा दिन होता है।दूरवीक्षण यन्त्र :–संस्था में 3 इंच व्यास का एक दूरवीक्षण यंत्र भी है। इससे चन्द्र, मंगल, शुक्र की कलाएँ, गुरु एवं उसके उपग्रह, शनि एवं उसका वलय देखे जा सकते हैं। ग्रहों को देखने के इच्छुक व्यक्तियों का समूह बनाकर संस्था प्रधान से दिनांक निश्चित करवाना आवश्यक है।प्लेनेटेरियम :-संस्था में एक प्लेनेटेरियम भी है जिससे कमरे में आकाश में स्थित नक्षत्रों एवं तारों को देखा जा सकता है।मौसम विभागीय कार्य :–यहाँ पर मौसम विभाग का कार्य भी होता है, जिसमें प्रात: 8.30 एवं सायंकाल 5.30 बजे प्रतिदिन तार द्वारा सूचना भोपाल भेजी जाती है। मौसम विभाग के यंत्रों में वायु दिशा सूचक यंत्र, वायु गति मापक यंत्र, आर्द्रता मापी यंत्र, उच्चतम-न्यूनतम तापमापी और स्व-चालित वर्षा मापक यंत्र इस वेधशाला में स्थापित हैं।
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