‘मांडूक तंत्र’ प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिए- मेंढक पर विराजे महादेव; देश में यह इकलौता पूजा स्थल

तंत्र साधना जितनी रहस्यमयी व अनोखी होती है, ओयल का शिव मंदिर भी अपने आप में उतना ही अनूठा है. खास यह कि मंदिर पत्थर के विशाल मेंढक की पीठ पर बना है. मंदिर का आधार भाग अष्टदल कमल के आकार का है. इसी कारण यह मंडूक तंत्र और श्रीयंत्र पर आधारित कहा जाता है.

मेंढक पर विराजे महादेव का देश में यह इकलौता पूजा स्थल है.  मेंढक मंदिर से जुड़ी मान्यता के अनुसार सूखे और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिए इस धार्मिक स्थल का निर्माण हुआ था.  मेंढक मंदिर में दिवाली और महाशिवरात्रि, सावन के अवसर पर भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है. मंदिर की दीवारों पर तांत्रिक देवी-देवताओं के मूर्तियां लगी हुई हैं.  मंदिर के अंदर भी कई विचित्र चित्र भी लगे हुए हैं, जो मंदिर को शानदार रूप देते हैं. इस मंदिर के सामने ही मेंढक की मूर्ति है और पीछे भगवान शिव का पवित्र स्थल है

यहां का शिवलिंग रंग बदलता है. भगवान शिव के भक्त अपने आराध्य से जुड़े इस अजूबे को देखने आते हैं. शिवलिंग पर अर्पित किया जाने वाला जल नलिकाओं के जरिए मेंढक के मुंह से निकलता है. सावन के महीने में श्रद्धालुओं की खासी भीड़ उमड़ती है. मेंढक मंदिर की वास्तु संरचना अपने आप में विशिष्ट है. विशेष शैली के कारण लोकप्रिय है. मेंढक की पीठ पर तकरीबन 100 फीट का ये मंदिर अपनी स्थापत्य कला के लिए विख्यात है.  उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि भारत में बने अन्य शिव मंदिरों में यह सबसे अलग है.

पूरा शिव मंदिर एक विशालकाय मेंढ़क की पीठ पर बना है। पहले नीचे एक मगरमच्छ के मुंह में मछली बनी है, फिर मेंढक और उसके ऊपर चारों वेद रुपी चार सीढ़ियां, इसके पश्चात आठ पंखुडियों वाला कमल पुष्प व उसके ऊपर अष्टकोणीय तांत्रिक पूजन जंत्र बना है। मंदिर के चारों ओर चार गुंबद भी बने हैं। मंदिर के मुख्य द्वार के पास जमीन से करीब 50 फीट ऊपर एक कुआं बना है, जिसमें पानी जमीन के स्तर से भी ऊपर उपलब्ध रहता है, जो श्रद्धालुओं को आर्श्चचकित करता है। वहीं मंदिर के अन्दर एक विशाल श्वेत शिला के अरघे पर नर्मदेश्वर महादेव विराजमान हैं। पास ही एक विशालकाय नंदी महाराज की भी मूर्ति स्थापित है। मंदिर के चारों ओर कई देवी देवताओं व भक्तजनों की साधनाएं करती मूर्तियां भी स्थापित हैं। वहीं मंदिर व चारों गुम्बदों में मनोरम कलाकृतियां भी बनी हैं। मंदिर के शीर्ष पर स्थापित कलश पर अष्टधातु निर्मित चक्र के बीच में नटराज की मूर्ति विराज मान है। मान्यता है कि यह पहले के समय में सूर्य के साथ ही धूर्णनन करता था किन्तु अब छतिग्रस्त है।

माण्डूक्योपनिषद अथर्ववेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचयिता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है।  इस उपनिषद में कहा गया है कि विश्व में एवं भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालों में तथा इनके परे भी जो नित्य तत्त्व सर्वत्र व्याप्त है वह  है। यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म है। शंकराचार्य जी ने इस पर भाष्य लिखा है और गौड पादाचार्य जी ने कारिकाऐं लिखी हैं

आत्मा चतुष्पाद है अर्थात् उसकी अभिव्यक्ति की चार अवस्थाएँ हैं जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय।

  1. जाग्रत अवस्था की आत्मा को वैश्वानर कहते हैं, इसलिये कि इस रूप में सब नर एक योनि से दूसरी में जाते रहते हैं। इस अवस्था का जीवात्मा बहिर्मुखी होकर “सप्तांगों” तथा इंद्रियादि 19 मुखों से स्थूल अर्थात् इंद्रियग्राह्य विषयों का रस लेता है। अत: वह बहिष्प्रज्ञ है।
  2. दूसरी तेजस नामक स्वप्नावस्था है जिसमें जीव अंत:प्रज्ञ होकर सप्तांगों और 19 मुर्खी से जाग्रत अवस्था की अनुभूतियों का मन के स्फुरण द्वारा बुद्धि पर पड़े हुए विभिन्न संस्कारों का शरीर के भीतर भोग करता है।
  3. तीसरी अवस्था सुषुप्ति अर्थात् प्रगाढ़ निद्रा का लय हो जाता है और जीवात्मा क स्थिति आनंदमय ज्ञान स्वरूप हो जाती है। इस कारण अवस्थिति में वह सर्वेश्वर, सर्वज्ञ और अंतर्यामी एवं समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और लय का कारण है।
  4. परंतु इन तीनों अवस्थाओं के परे आत्मा का चतुर्थ पाद अर्थात् तुरीय अवस्था ही उसक सच्चा और अंतिम स्वरूप है जिसमें वह ने अंत: प्रज्ञ है, न बहिष्प्रज्ञ और न इन दोनों क संघात है, न प्रज्ञानघन है, न प्रज्ञ और न अप्रज्ञ, वरन अदृष्ट, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिंत्य, अव्यपदेश्य, एकात्मप्रत्ययसार, शांत, शिव और अद्वैत है जहाँ जगत्, जीव और ब्रह्म के भेद रूपी प्रपंच का अस्तित्व नहीं है (मंत्र 7)

मेंढक मंदिर यूपी की राजधानी लखनऊ से 135 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. मंदिर के लिए पहले लखीमपुर आना होगा.  लखीमपुर से ओयल महज 11 किलोमीटर दूर है.  लखीमपुर पहुंचकर आप बस या टैक्सी के जरिए ओयल जा सकते हैं.  

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