भगवान शंकर को प्रसन्न कर देवताओं का कोषाध्यक्ष बने कुबेर
विशेष आलेख- हिमालयायूके न्यूज पोर्टल की प्रस्तुति-
कुबेर देव को देवताओं का कोषाध्यक्ष माना गया है। पृथ्वी में जितना कोष है, सबके अधिपति कुबेर हैं। भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए कुबेर ने हिमालय पर्वत पर तप किया। भगवान शंकर ने तप सेे खुुुुश होकर एकाक्षीपिंगल नाम दिया- इनकी कृपा से ही मनुष्य को भू गर्भ स्थित निधि प्राप्त होती है। निधि-विद्या में निधि सजीव मानी गयी है, जो स्वत: स्थानान्तरित होती है। कुबेर जी मनुष्य के अधिकार के अनुरूप कोष का प्रादुर्भाव या तिरोभाव कर देते हैं। भगवान शंकर ने इन्हें अपना नित्य सखा स्वीकार किया है।
कुबेर महर्षि पुलस्त्य के पुत्र महामुनि विश्रवा के पुत्र थे। विश्रवा की पत्नी इलविला के गर्भ से कुबेर का जन्म हुआ था, जबकि उनकी दूसरी पत्नी कैकसी के गर्भ से रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण और शूर्पणखा का जन्म हुआ था। इस प्रकार कुबेर रावण का भाई था। भगवान ब्रह्मा ने इन्हें समस्त सम्पत्ति का स्वामी बनाया। इनके पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव भगवान श्री कृष्णचन्द्र द्वारा नारद जी के शाप से मुक्त होकर इनके समीप स्थित रहते हैं।
photo; Kubera. Northern India. 10th century. Sandstone. San Antonio Museum of Art
सुख-समृद्धि की उम्मीद में धन के देवता कुबेर का पूजन धनतेरस पर मंगलवार को होगा। मंगलवार को विशेष योग होने से कुबेर पूजा का महत्व और बढ़ गया है। घर में कुबेर देव की मूर्ति या फोटो अवश्य रखना चाहिए। कुबेर देव सुख-समृद्धि और धन देने वाले देवता हैं। कुबेर देव को देवताओं का कोषाध्यक्ष माना गया है। इसी वजह से कुबेर देव की मूर्ति या फोटो घर में लगाने से इनकी कृपा सदैव परिवार के सदस्यों पर बनी रहती है और धन से जुड़े कार्यों में सफलता प्राप्त होती है। कुबेर देव की बड़ी महिमा बताई गई है इसी वजह से इनकी फोटो या मूर्ति घर में कहां रखें? इस संबंध में विशेष सावधानी रखने की आवश्यकता है। कुबेर देव का निवास उत्तर दिशा की ओर माना गया है। अत: इनका फोटो घर में उत्तर दिशा की ओर ही लगाना श्रेष्ठ रहता है। साथ ही इस बात का ध्यान रखें कि जहां इनका चित्र लगाया जाए वह स्थान पवित्र हो। वहां किसी प्रकार का पुराना सामान या कबाड़ न हो। उस जगह की साफ-सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
कुबेर एक हिन्दू पौराणिक पात्र हैं जो धन के स्वामी (धनेश) माने जाते हैं। वे यक्षों के राजा भी हैं। वे उत्तर दिशा के दिक्पाल हैं और लोकपाल (संसार के रक्षक) भी हैं।
रामायण में कुबेर भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए कुबेर ने हिमालय पर्वत पर तप किया। तप के अंतराल में शिव तथा पार्वती दिखायी पड़े। कुबेर ने अत्यंत सात्त्विक भाव से पार्वती की ओर बायें नेत्र से देखा। पार्वती के दिव्य तेज से वह नेत्र भस्म होकर पीला पड़ गया। कुबेर वहां से उठकर दूसरे स्थान पर चला गया। वह घोर तप या तो शिव ने किया था या फिर कुबेर ने किया, अन्य कोई भी देवता उसे पूर्ण रूप से संपन्न नहीं कर पाया था। कुबेर से प्रसन्न होकर शिव ने कहा-‘तुमने मुझे तपस्या से जीत लिया है। तुम्हारा एक नेत्र पार्वती के तेज से नष्ट हो गया, अत: तुम एकाक्षीपिंगल कहलाओंगे।
कुबेर ने रावण के अनेक अत्याचारों के विषय में जाना तो अपने एक दूत को रावण के पास भेजा। दूत ने कुबेर का संदेश दिया कि रावण अधर्म के क्रूर कार्यों को छोड़ दे। रावण के नंदनवन उजाड़ने के कारण सब देवता उसके शत्रु बन गये हैं। रावण ने क्रुद्ध होकर उस दूत को अपनी खड्ग से काटकर राक्षसों को भक्षणार्थ दे दिया। कुबेर का यह सब जानकर बहुत बुरा लगा। रावण तथा राक्षसों का कुबेर तथा यक्षों से युद्ध हुआ। यक्ष बल से लड़ते थे और राक्षस माया से, अत: राक्षस विजयी हुए। रावण ने माया से अनेक रूप धारण किये तथा कुबेर के सिर पर प्रहार करके उसे घायल कर दिया और बलात उसका पुष्पक विमान ले लिया।
विश्वश्रवा की दो पत्नियां थीं। पुत्रों में कुबेर सबसे बड़े थे। शेष रावण, कुंभकर्ण और विभीषण सौतेले भाई थे। उन्होंने अपनी मां से प्रेरणा पाकर कुबेर का पुष्पक विमान लेकर लंका पुरी तथा समस्त संपत्ति छीन ली। कुबेर अपने पितामह के पास गये। उनकी प्रेरणा से कुबेर ने शिवाराधना की। फलस्वरूप उन्हें ‘धनपाल’ की पदवी, पत्नी और पुत्र का लाभ हुआ। गौतमी के तट का वह स्थल धनदतीर्थ नाम से विख्यात है।
कुबेर के संबंध में एक जनश्रुति प्रचलित है। कहा जाता है कि पूर्व जन्म में कुबेर चोर थे- चोर भी ऐसे कि देव मंदिरों में भी चोरी करने से बाज नहीं आते थे। एक बार चोरी करने के लिए वे एक शिव मंदिर में घुसे। तब मंदिरों में बहुत माल-खजाना रहता था। उसे ढूंढने के लिए कुबेर ने दीपक जलाया, लेकिन हवा के झोंके से दीपक बुझ गया। कुबेर ने फिर दीपक जलाया, फिर बुझ गया। जब यह क्रम कई बार चला तो भोले-भाले और औढरदानी शंकर ने इसे अपनी दीप आराधना समझ लिया और प्रसन्न होकर अगले जन्म में कुबेर को धनपति होने का आशीष दिया।
कुबेर के संबंध में प्रचलित है कि उनके तीन पैर और आठ दांत हैं। अपनी कुरूपता के लिए वे अति प्रसिद्ध हैं। उनकी जो मूर्तियां पाई जाती हैं वे भी अधिकतर स्थूल और बेडौल हैं। शतपथ ब्राह्मण में तो इन्हें राक्षस ही कहा गया है। वहां ये चोरों, लुटेरों और ठगों के सरदार के रूप में वर्णित हैं। इन सभी बातों से स्पष्ट है कि धनपति होने पर भी कुबेर का व्यक्तित्व और चरित्र वैसा नहीं था, जैसा विष्णु की पत्नी, धन की देवी लक्ष्मी का है। कुबेर को राक्षस के अलावा कहीं-कहीं यक्ष भी कहा गया है। यक्ष धन का रक्षक ही होता है, उसे भोगता नहीं। कुबेर का जो दिक्पाल वाला रूप है, वह भी उसके रक्षक और प्रहरी की ही भूमिका को स्पष्ट करता है। पुराने मंदिरों के बाहरी भागों में कुबेर की मूर्तियों पाए जाने का रहस्य भी यही है कि वे मंदिरों के धन के रक्षक के रूप में कल्पित और स्वीकृत हैं। कौटिल्य ने भी खजानों में रक्षक के रूप में कुबेर की मूर्ति रखने के बारे में लिखा है।
शुरू में अनार्य देवता कुबेर, बाद में आर्य देव भी मान लिए गए। यह संभवत: उनके धन के प्रभाव के कारण ही हुआ होगा। बाद में पुजारी और ब्राह्मण भी कुबेर के प्रभाव में आ गए और आर्य देवों की भांति उनकी पूजा का विधान प्रचलित हो गया। तब विवाह आदि मांगलिक अनुष्ठानों में कुबेर के आह्वान का विधान हुआ। लेकिन यह सब होने पर भी वे दूसरी कोटि के देवता ही माने जाते रहे। धन को शुचिता के साथ जोड़कर देखने की जो आर्य परम्परा रही, संभवत: उसमें कुबेर का अनगढ़ व्यक्तित्व नहीं खपा होगा।
बाद के शास्त्रकारों पर कुबेर का यह प्रभाव बिल्कुल नहीं रहा, इसलिए वे देवताओं के धनपति होकर भी दूसरे स्थान पर ही रहे, लक्ष्मी के समकक्ष न ठहर सके। बाद में लक्ष्मी पूजन की परम्परा ही लोकप्रिय हुई। लोग धीरे-धीरे कुबेर को पूजने से निरंतर कतराते चले गए।
लक्ष्मी के धन के साथ मंगल का भाव जुड़ा हुआ है। इसके साथ वे धनदा भी हैं, वे धन अपने पास रखे नहीं रहतीं, बल्कि दूसरों को देती हैं। वे धन का संचय करती हैं, इसके साक्ष्य नहीं मिलते। जबकि कुबेर के धन के साथ लोक मंगल का भाव प्रत्यक्ष नहीं है। लक्ष्मी का धन स्थायी नहीं, गतिशील है। इसलिए उसका चंचला नाम मशहूर हुआ।
कुबेर का धन खजाने के रूप में कहीं गड़ा या स्थिर पड़ा रहता है। एक पाषाण पुरुष के धन से यह अपेक्षा भी कैसे की जा सकती है कि वह लोकोपकारक और गतिशील होगा? ऐसा अगतिशील धन काला धन ही हो सकता है। कुबेर के धन की प्रकृति का अनुमान आप कुबेर के निवास स्थान से भी लगा सकते हैं। कुबेर का निवास वटवृक्ष पर बताया गया है। ऐसे वृक्ष घर-आंगन में नहीं होते, गांव के केन्द्र में भी नहीं होते, वे अधिकतर गांव के बाहर या बियाबान में होते हैं। उन्हें धन का घड़ा लिए कल्पित किया गया। कहां लक्ष्मी के धन की मनोरमा, कल्पना, धान की बालियां और पिटारी आदि, कहां कुबेर का महाजनी रूप। दोनों में कहीं कोई समानता नहीं है। कुबेर का धन अत्यन्त भौतिक और स्थूल है।
आर्य देव परंपरा में कुबेर जो भी स्थान पा सके हैं, वह केवल अपने धन के प्रभाव के कारण। इससे अधिक उनका स्थान और महत्व हो भी कैसे सकता था?
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