उत्तराखण्ड १६ साल में भी नही संवर पाया
#भिखारियों की बढती तादाद # उत्तराखण्ड १६ साल में भी नही संवर पाया # राज्य गठन के समय एक सुखद सपना देखा था #देवभूमि का देवत्व पलायन की पीडा से आहत है पहाड #संगठित भिक्षावृति ने पकडा जोर #उत्तराखण्ड के ग्रामीणों के लिए जीवित रहने का एकमात्र रास्ता ’पलायन‘ #सरकार कोई ध्यान नहीं दे रही #उत्तराखण्ड में पनपा माफिया, ठेकेदार, भू-माफिया, नौकरशाह और राजनेताओं का नापाक गठबंधन #राज्य में न केवल दिनोंदिन भिक्षुओं की संख्या बढ रही है अपितु भिक्षावृत्ति का धंधा भी खूब फलफूल रहा #भिक्षावृत्ति को रोकने के लिए कोई भी अधिनियम नहीं #राज्य के भीतर भिखारियों की संख्या कितनी है#इसकी गणना का भी कोई सही आकलन सरकारी रिकार्ड में दर्ज नहीं #सूबे की राजधानी के साथ-साथ प्रसिद्ध तीर्थस्थलों में भिखारियों की बढती तादाद #बम्बई भिक्षावृत्ति निवारण अधिनियम १९६० में दिल्ली में भी लागू किया गया# इस कानून के अनुसार कोई भी पुलिस अधिकारी भिक्षा मांगते हुए भिक्षुओं को पकड सकता है #उत्तराखण्ड में नही है ऐसा कोई कानून हमारे देश में भिखारियों की तादाद दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही है और यह एक बड़ा चिंता का विषय है। वहीं, भिखारियों की बढ़ती संख्या की बात करें तो इसका सबसे बड़ा मूलभूत कारण बेरोजगारी है- यह संगठित और फैलता हुआ एक व्यवसाय
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हल्दानीराजेन्द्र पन्त ’रमाकान्त‘/ विजय गुप्ता।
उत्तराखण्ड राज्य के भीतर चौथे विधानसभा चुनाव १५फरवरी को होने जा रहे है।देवभूमि के देवत्व को सवारने के सार्थक प्रयास आज तक सामने नही आये गौरतलब है कि उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति आंदोलन के दौरान क्षेत्र के विकास और उसके साथ अपनी खुशहाली का सपना संजोये, आंदोलनों में बढ-चढकर हिस्सेदारी करने वाले ग्रामीणों ने राज्य गठन के समय एक सुखद सपना यह भी देखा था कि उन्हें और उनके अपनों को पलायन की पीडा और विरह से धीरे-धीरे ही सही, परन्तु मुक्ति मिल जायेगी। परन्तु आज भी उत्तराखण्ड के ग्रामीणों के लिए जीवित रहने का एकमात्र रास्ता ’पलायन‘ ही है। हालिया घटित त्रासदी ने यह रहस्य भी उजागर कर दिया है कि उत्तराखण्ड के जल, जंगल, जमीनों से बेदखल किये गये लोगों के पलायन के लिए मजबूर किया जा रहा है। उनके पुनर्वास पर सरकार कोई ध्यान नहीं दे रही है। विगत लंबे समय में उत्तराखण्ड में पनपा माफिया, ठेकेदार, भू-माफिया, नौकरशाह और राजनेताओं का नापाक गठबंधन वर्तमान में सत्ता पर काबिज हो चुका है और राज्य के भीतर बृदि हुई तो केवल भीखमंगों की
‘ पिछले१६ सालों के भीतर राज्य में विकास की नयी…नयी घोसणाओं का पिटारा खुलता रहा है राज्य को समृद्व बनाने की बातें आये दिन हो रही है लेकिन यहा समृदि के बजाय भिखारियों की सख्या में बृद्वि होते जा रही है जो चिन्ता का विशय है।
उत्तर प्रदेश के विभाजन के बाद अलग अस्तित्व में आये राज्य में विकास की नई-नई गाथाओं का गुणगान आये दिन हो रहा है। मंदिरों, घाटों, गुफाओं को तीर्थाटन के रूप में विकसित करने की घोषणाएं प्राथमिकता के आधार पर की जा रही हैं। किंतु देवभूमि उत्तराखण्ड में मंदिरों, घाटों, गुफाओं, पर्यटन स्थलों के अलावा सार्वजनिक स्थलों पर पनप रही भिक्षावृत्ति को रोकने के केाई प्रयास सामने नहीं आ रहे हैं। पुलिस की निष्क्रियता कहें या समाज कल्याण विभाग का निकम्मापन या अन्य कोई कारण, बहरहाल भिक्षावृत्ति राज्य में संगठित धंधा बनता जा रहा है और दिन प्रतिदिन फलता-फूलता जा रहा है।
सूबे की राजधानी देहरादून, कुमाऊं के प्रवेश द्वार हल्द्वानी, तीर्थनगरी हरिद्वार सहित समूचे राज्य में न केवल दिनोंदिन भिक्षुओं की संख्या बढ रही है अपितु भिक्षावृत्ति का धंधा भी खूब फलफूल रहा है। भिक्षावृत्ति को रोकने के लिए कोई भी अधिनियम यहां पर नहीं है। गौरतलब है कि भिक्षावृत्ति को रोकने तथा भिखारियों के पुनर्वास के मद्देनजर सरकार ने सन् १९६० में बम्बई में लागू किये गये भिक्षा अधिनियम १९५९ को दिल्ली में भी लागू किया गया था, ताकि सडकों, चौराहों और सार्वजनिक स्थलों पर भीख के लिए हाथ फैलाते लोगों को दण्डित किया जा सके। लेकिन वहां भी भिखारियों की संख्या में कोई खास कमी नहीं आयी। उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून व राज्य के प्रमुख शहरों के अलावा यहां के तीर्थस्थलों में भीख मांगने वाले भिक्षुओं की संख्या बढती जा रही है और अब राजधानी के सार्वजनिक स्थलों में भिखारियों की संख्या में दिनोंदिन बढोत्तरी हो रही है। भिक्षावृत्ति ने एक संगठित धंधे का रूप अख्तियार कर लिया है। राज्य के भीतर भिखारियों की संख्या कितनी है, इसकी गणना का भी कोई सही आकलन सरकारी रिकार्ड में दर्ज नहीं है।
राज्य के भीतर पनप रही भिक्षावृत्ति से छोटे-छोटे बच्चों की इस कार्य में बढोत्तरी से अनुमान लगाया जा सकता है कि स्वेच्छा से भीख मांगने वालों की संख्या से ऐसे भिखारियों से कम है जो तथाकथित अभिभावकों के इशारे पर भीख मांगते हैं। भीख मांगने का प्रशिक्षण उम्र के हिसाब से दिया जाता है और दीन-हीन निर्धन व लाचार दिखने वाली टोटके भी इन्हें सिखाये जाते हैं। हारमोनियम व ढोलक के साथ गाना गाकर भीख मांगने का प्रचलन भी धीरे-धीरे जडें जमा रहा है। बेसहारा की दीनता दर्शाती स्त्रियों, बच्चों के हाथों में देवी-देवताओं की तस्वीरें थमाकर भीख मांगने अनोखा ढंग भी उभरता जा रहा है।
बाहरी राज्यों से यहां आकर भीख मांगने वाले भिखारियों में ज्यादातर बंगाली होते हैं, जो अधिकतर झुग्गी-झोपडयों में रहते हैं। इन स्थानों पर ऐसे तत्व भी सक्रिय रहते हैं जो न केवल भिक्षावृत्ति कराते हैं बल्कि अन्य अवैध धंधे भी ये लोग कराते हैं। इस धंधे में बच्चों, महिलाओं, अपाहिजों को इतना लाचार बना दिया जाता है कि लोग इन्हें देखते ही तरस खाकर पैसे दे देते हैं। राज्य के भीतर पनप रहे इस धंधे के पीछे कई शातिर गिरोह सक्रिय हैं इनकी भनक आम आदमी को नहीं लग सकती है। किसी भी व्यक्ति को भिखारी बनाने से पहले गिरोह द्वारा ऐसे बच्चों, महिलाओं, अपाहिजों को डराया, धमकाया जाता है यहां तक कि इन्हें इतना प्रताडत किया जाता है कि ये इस धंधे को करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। इस तरह इन लोगों का धंधा बेरोकटोक चलता रहता है।
भिक्षावृत्ति करने वाले इन असमाजिक तत्वों पर पुलिस प्रशासन का कोई नियंत्रण नहीं है एक तरह से पुलिस प्रशासन आंखें मूदे हुए है। भिखारियों की संख्या दिनोंदिन बढती जा रही है। इसे रोकने के लिए सरकार के पास न तो कोई कानून है और न ही इन पर शिकंजा कसा जाता है।
यहां पर भिक्षावृत्ति का एक दूसरा पहलू भी है। चौराहों, भीडभाड वाले स्थानों पर भीख मांगने वाले बच्चों में ज्यादा संख्या ऐसे बच्चों की है जिनका पूरा परिवार भिक्षा से ही पलता है। ऐसे बच्चों से बातचीत करने पर पता चलता है कि अधिकतर गरीबी व बेरोजगारी के कारण भिक्षावृत्ति को मजबूर हैं। अक्सर घर से भागे हुए बच्चे भी भिक्षावृत्ति करने लगते हैं।
सूबे की राजधानी के साथ-साथ प्रसिद्ध तीर्थस्थलों में भिखारियों की तादाद बढती जा रही है। यह एक तरह के कोड की तरह फैलता जा रहा है, जो चिंतनीय विषय है। उत्तराखण्ड का प्रमुख पर्यटन एवं धार्मिक स्थली होने के कारण पडोसी राज्यों से विशेषकर बंगाल, बिहार और दक्षिण भारत के भिखारी यहां पर भीख मांगने आते-जाते रहते हैं। यहां यह बताते चलें कि बम्बई भिक्षावृत्ति निवारण अधिनियम १९६० में दिल्ली में भी लागू किया गया। इस कानून के अनुसार कोई भी पुलिस अधिकारी भिक्षा मांगते हुए भिक्षुओं को पकड सकता है। पकडे गये भिक्षुओं का वर्गीकरण करके भिक्षु गृहों में भेजा जाता है तथा इन्हें सम्मानजनक जीविकोपार्जन की शिक्षा दी जाती है। लेकिन उत्तराखण्ड में अभी तक ऐसा कोई अधिनियम नहीं बना है जिससे भिखारियों की बढती संख्या पर अंकुश लगाया जा सके।
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