उत्‍तराखण्‍ड राज्‍य स्थापना दिवस 9 नवम्बर ; वहीं खड़े हैं जहां से चले थे

HIGH LIGHT;  उत्‍तराखण्‍ड राज्‍य का स्थापना दिवस 9 नवम्बर :राजनेताओं व ब्य्ाूरोक्रेट के गठजोड़ ने इस राज्य को लूटने का पूरा इंतजाम कर रखा  राज्य गठन की मूल अवधारणा पूरी नहीं हो पा रही कुल मिलाकर राज्य निर्माण के 1८ वर्ष बाद भी हम वहीं खड़े हैं जहां से चले थे। जहां उत्तर प्रदेश के जमाने में इस राज्य  को दो मण्डलायुक्‍‍‍त चलाते थे वहीं इस राज्य  को नौकरशाहो तथा नेताओ की फौज भी नही चला पा रही हैं।

स्कन्द पुराण में हिमालय को पाँच भौगोलिक क्षेत्र्ाों में विभक्त किया गयाा हैः
खण्डाः प´च हिमालय्ास्य्ा कथिताः नैपालकूमाँचंलौ ।
केदारोऽथ जालन्धरोऽथ रूचिर काश्मीर संज्ञोऽन्तिमः ।।
अर्थात हिमालय क्षेत्र में नेपाल, कुर्मांचल , केदारखण्ड (गढवाल), जालन्धर (हिमाचल प्रदेश) और सुरम्य काश्मीर पाॅच खण्ड है।

पौराणिक ग्रन्थों में कुर्मांचल क्षेत्र मानसखण्ड के नाम से प्रसिद्व था। पौराणिक ग्रन्थों में उत्तरी हिमालय में सिद्ध गन्धर्व, यक्ष, किन्नर जातिय्ाों की सृष्टि और इस सृष्टि का राजा कुबेर बताया गया हैं। कुबेर की राजधानी अलकापुरी (बद्रीनाथ से ऊपर) बताई जाती है। पुराणों के अनुसार राजा कुबेर के राज्य में आश्रम में ऋषि-मुनि तप व साधना करते थे।

अंग्रेज इतिहासकारों के अनुसार हुण, सकास, नाग खश आदि जातिय्ाां भी हिमालय्ा क्षेत्र्ा में निवास करती थी। किन्तु पौराणिक ग्रन्थों में केदार खण्ड व मानस खण्ड के नाम से इस क्षेत्र्ा का व्य्ाापक उल्लेख है। इस क्षेत्र्ा को देव-भूमि व तपोभूमि माना गयाा है।
मानस खण्ड का कुर्मांचल व कुमाऊँ नाम चन्द राजाओं के शासन काल में प्रचलित हुआ। कुर्मांचल पर चन्द राजाओं का शासन कत्य्ाूरिय्ाों के बाद प्रारम्भ होकर सन 1790 तक रहा। सन 1790 में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमाऊँ पर आक्रमण कर कुमाऊँ राज्य्ा को अपने आधीन कर दियाा। गोरखाओं का कुमाऊँ पर सन 1790 से 1815 तक शासन रहा। सन 1815 में अंग्रजो से अन्तिम बार परास्त होने के उपरान्त गोरखा सेना नेपाल वापिस चली गई किन्तु अंग्रजों ने कुमाऊँ का शासन चन्द राजाओं को न देकर कुमाऊँ को ईस्ट इण्डिय्ाा कम्पनी के अधीन कर किय्ाा। इस पकार कुमाऊँ पर अंग्रेजो का शासन 1815 से आरम्भ हुआ।
ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार केदार खण्ड कई गढों (किले) में विभक्त था। इन गढों के अलग राजा थे और राजाओं का अपने-अपने आधिपत्य्ा वाले क्षेत्र्ा पर साम्राज्य्ा था। इतिहासकारों के अनुसार पंवार वंश के राजा ने इन गढों को अपने अधीनकर एकीकृत गढवाल राज्यय की स्थापना की और श्रीनगर को अपनी राजधानी बनायाा। केदार खण्ड का गढवाल नाम तभी प्रचलित हुआ। सन 1803 में नेपाल की गोरखा सेना ने गढवाल राज्य्र  आक्रमण कर गढवाल राज्य को अपने अधीन कर लिय्ाा। महाराजा गढवाल ने नेपाल की गोरखा सेना के अधिपत्य्ा से राज्य्ा को मुक्त कराने के लिए अंग्रजो से सहाय्ाता मांगी। अंग्रेज सेना ने नेपाल की गोरखा सेना को देहरादून के समीप सन 1815 में अन्तिम रूप से परास्त कर दिय्ाा । किन्तु गढवाल के तत्कालीन महाराजा द्वारा य्ाुद्ध व्य्ाय्ा की निर्धारित धनराशि का भुगतान करने में असमर्थता व्य्ाक्त करने के कारण अंग्रजो ने सम्पूर्ण गढवाल राज्य्ा गढवाल को न सौप कर अलकनन्दा मन्दाकिनी के पूर्व का भाग ईस्ट इण्डिय्ाा कम्पनी के शासन में सम्मिलित कर गढवाल के महाराजा को केवल टिहरी जिले (वर्तमान उत्तरकाशी सहित) का भू-भाग वापिस किय्ाा। गढवाल के तत्कालीन महाराजा सुदर्शन शाह ने 28 दिसंबर 1815 को टिहरी नाम के स्थान पर जो भागीरथी और मिलंगना के संगम पर छोटा सा गाॅव था, अपनी राजधानी स्थापित की। कुछ वर्षों के उपरान्त उनके उत्तराधिकारी महाराजा नरेन्द्र शाह ने ओडाथली नामक स्थान पर नरेन्द्र नगर नाम से दूसरी राजधानी स्थापित की। सन 1815 से देहरादून व पौडी गढवाल (वर्तमान चमोली जिलो व रूद्रप्रय्ााग जिले की अगस्तमुनि व ऊखीमठ विकास खण्ड सहित) अंग्रेजो के अधीन व टिहरी गढवाल महाराजा टिहरी के अधीन हुआ।

भारतीय गणतंत्र में टिहरी राज्य का विलय अगस्त 1949 में हुआ और टिहरी को तत्कालीन संय्ाुक्त प्रान्त का एक जिला घोषित किय्ाा गय्ाा। भारत व चीन य्ाुद्व की पृष्ठ भूमि में सीमान्त क्षेत्र्ाों के विकास की दृष्टि से सन 1960 में तीन सीमान्त जिले उत्तरकाशी, चमोली व पिथौरागढ का गठन कियाा गयाा ।

सन 1969 तक देहरादून को छोडकर उत्तराखण्ड के सभी जिले कुमाऊँ कमिश्नरी के अधीन थे। सन 1969 में गढवाल कमिश्नरी की स्थापना की गई जिसका मुख्य्ाालय्ा पौडी बनाय्ाा गय्ाा । सन 1975 में देहरादून जिले को जो मेरठ कमिश्नरी में शामिल था, गढवाल मण्डल में सम्मिलित करने के उपरान्त गढवाल मण्डल में जिलों की संख्य्ाा पाॅच हो गय्ाी थी जबकि कुमाऊं मण्डल में नैनीताल, अल्मोडा, पिथौरागढ, तीन जिले सम्मिलित थे। सन 1994 में उधमसिह नगर और सन 1997 में रूद्रप्रय्ााग, चम्पावत व बागेश्वर जिलों का गठन होने पर उत्तराखण्ड राज्य्ा गठन से पूर्व गढवाल और कुमाऊँ मण्डलों में क्रमश छः-छः जिले सम्मिलित थे। उत्तराखण्ड राज्य्ा में हरिद्वार जनपद के सम्मिलित किय्ो जाने पर राज्यय के गठन उपरान्त गढवाल मण्ढल में सात और कुमाऊँ मण्डल में छः जिले सम्मिलित हैं।
एक नयेे राज्य के रुप में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के फलस्वरुप (उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनिय्ाम, 2000) उत्तराखण्ड की स्थापना दि0 9 नवंबर 2000 को हुई। दिनांक 1 जनवरी 2007 से राज्य का नाम उत्तरांचल से बदलकर उत्तराखण्ड कर दिय्ाा गय्ाा है। राज्य्ा का स्थापना दिवस 9 नवम्बर को मनाया जाता है।
उत्तराखण्ड की नदिया
इस प्रदेश की नदिया भारतीय्ा संस्कृति में सर्वाधिक स्थान रखती हैं। उत्तराखण्ड अनेक नदिय्ाों का उद्गम स्थल है। य्ाहाँ की नदिय्ााँ सिंचाई व जल विद्युत उत्पादन का पमुख संसाधन है। इन नदिय्ाों के किनारे अनेक धार्मिक व सांस्कृतिक केन्द्र स्थापित हैं। हिन्दुओं की अत्य्ान्त पवित्र्ा नदी गंगा का उद्गम स्थल मुख्य्ा हिमालय्ा की दक्षिणी श्रेणिय्ााँ हैं। गंगा का पारम्भ अलकनन्दा व भागीरथी नदिय्ाों से होता है। अलकनन्दा की सहाय्ाक नदी धौली, विष्णु गंगा तथा मंदाकिनी है। गंगा नदी भागीरथी के रुप में गोमुख स्थान से 25 कि.मी. लम्बे गंगोत्रीी हिमनद से निकलती है। भागीरथी व अलकनन्दा देव पय्ााग संगम करती है जिसके पश्चात वह गंगा के रुप में पहचानी जाती है। य्ामुना नदी का उद्गम क्षेत्र्ा बन्दरपूँछ के पश्चिमी य्ामनोत्र्ाी हिमनद से है। इस नदी में होन्स, गिरी व आसन मुख्य्ा सहाय्ाक हैं। राम गंगा का उद्गम स्थल तकलाकोट के उत्तर पश्चिम में माकचा चुंग हिमनद में मिल जाती है। सोंग नदी देहरादून के दक्षिण पूर्वी भाग में बहती हुई वीरभद्र के पास गंगा नदी में मिल जाती है।

उत्तराखण्ड , भारत के उत्तर में स्थित एक राज्य है। 2000 और 2006 के बीच यह उत्तरांचल के रूप में जाना जाता था, 9 नवंबर 2000 को उत्तराखण्ड भारत गणराज्य के 27 वें राज्य्ा के रूप में अस्तित्व में आया। राज्य का निर्माण कई वर्ष के आन्दोलन के पश्चात हुआ।

उत्तराखण्ड की सीमाऐं उत्तर में तिब्बत और पूर्व में नेपाल से मिलती हैं तथा पश्चिम में हिमाचल पदेश और दक्षिण में उत्तर प्रदेश (अपने गठन से पहले यानि 2000 से पहले यह उत्तर प्रदेश का एक भाग था) इसके पडोसी हैं। पारंपरिक हिन्दू ग्रंथों और प्राचीन साहित्यय में इस क्षेत्र्ा का उल्लेख उत्तराखण्ड के रूप में किया गयाा है। हिन्दी और संस्कृत मे उत्तराखण्ड का अर्थ उत्तरी क्षेत्र् याा भाग होता है।
गैरसैण नामक एक छोटे से कस्बे को इसकी भौगोलिक स्थिति को देखते हुय्ो भविष्य्ा की राजधानी के रूप में प्रस्तावित किय्ाा गय्ाा है किन्तु विवादों और संसाधनों के अभाव के चलते अभी भी देहरादून अस्थाई राजधानी बना हुआ है। राज्य का उच्च न्यायालय नैनीताल में है।

नौ नवम्बर 201८ को उत्तराखण्ड ने 1८ वर्ष पूर्ण कर लिये। उत्तराखण्ड बचपन से ही कुपोषण का शिकार हो गया। जिस राज्य इन 1८ सालों में सिर्फ मुख्यमंत्री तथा मुख्य सचिव बदलते हुए देखे हों उस राज्य में तरक्की की कल्पना करना भी बेइमानी जैसी लगती है।  राजनीतिक तौर पर भले ही कंगाली आज भी जारी है लेकिन राजनेताओं व ब्य्ाूरोक्रेट के गठजोड़ ने इस राज्य को लूटने का पूरा इंतजाम कर रखा है। जहां उत्तर प्रदेश के जमाने में इस राज्य  को दो मण्डलायुक्‍‍‍त चलाते थे वहीं इस राज्य  को नौकरशाहो तथा नेताओ की फौज भी नही चला पा रही हैं। इतना ही नहीं यह प्रदेश ब्य्रूूूूूरोक्रेटों के सेवा काल के बाद रोजगार का आशिय्ााना भी बन गय्ाा है। यहा य्ाह भी उल्लेखनीय है कि शायद उत्तराखण्ड देश का एकमात्र ऐसा राज्य होगा जहां बेरोजगारों को तो रोजगार के अवसर अभी तक नहीं ढूंढे जा सके है लेकिन सेवानिवृति के बाद बड़े अधिकारिय्ाों के रोजगार के अवसर सुरक्षित हैं। इस राज्य की इससे बड़ी बदकिस्मती क्य्ाा हो सकती है कि १८ वर्षो के बाद भी इसकी अपनी कोई स्थाय्ाी राजधानी नहीं है। सरकारें जनता भी भावनाओं और पहाड़ी राज्य्ा की अवधारणा से खुलेआम खिलवाड़ कर रही है जबकि वहीं दूसरी ओर देहरादून में स्थाय्ाी राजधानी के पूरे इंतजामात सरकारों ने कर दिया है।

 शहीदों को श्रद्वाजली का कार्यक्रम-

कूर्माचल सांस्कृतिक एवं कल्याण परिषद् गढी़ कैंट शाखा की ओर से राज्य स्थापना की 18वीं वर्षगांठ कीे पूर्व संध्या पर राज्य गठन की पूर्व संध्या पर प्राचीन शिव एवम् हनुमान मन्दिर कौलागढ़ देहरादून में सामूहिक दीप प्रज्ज्लवन कर शहीदों को श्रद्वाजली का कार्यक्रम आयोजित किया गया।

कूर्माचल सांस्कृतिक एवं कल्याण परिषद् गढी़ कैंट शाखा  की सचिव बबीता साह लोहनी ने हिमालयायूके को बताया कि  अनेकों दशकों तक चले उत्तराखण्ड आन्दोलन, अनेकों शहीदों का बलिदान, हजारों आन्दोलनकारियों द्वारा झेली गयीं यातनायें, अनेकों गीतकारों के क्रान्तिकारी गीत जिस उत्तराखण्ड के लिये थे, मानों वे सब सपनों की दुनिया में कहीं खो गये हैं।
उत्तराखंड के शहीदों,आन्दोलनकारियों को भावभीनी श्रद्धांजलि दीप प्रज्वलन कर दी गयी जिसमें इस अवसर पर वक्ताओं ने अपने विचार व्यक्त किये, इस अवसर पर पंडित श्रीनिवास नौटियाल,कूर्माचल केन्द्रीय अध्यक्ष कमल रजवार, महासचिव चंद्रशेखर जोशीसंरक्षक हरिबल्लभ अवस्थी,बबिता साह लोहनी,दामोदर कांडपाल,हरीश चंद्र पान्डे,कमला पान्डे,हंसा राणा,गिरीश चंद्र तेवारी,रविशंकर पांडेय,कमला उप्रेती समिधा गुरुंग,सागर गुरुंग,रेणुका डबराल, पवन डबराल, रजनी रावत, अस्मिता भत्तराई,अरविंद जोशी, महेंद्र सिंह रावत, गीता गुरुंग आदि ने दीप प्रज्ज्वलित किये।कौलागढ़ वार्ड में नगर निगम के पार्षद के चुनाव लड़ रहे सभी प्रत्याशियों और क्षेत्रवसीयों ने भी प्रतिभाग किया।

राजनीतिक स्वार्थ की चर्बी राजनेताओं में इस हद तक चढ चुकी है कि परिसीमन जैसा गंभीर मुद्दा नेताओं ने स्वीकार कर अंगीकृत तक कर लिय्ाा है। नय्ो परिसीमन का आलम य्ाह है कि वर्ष 2032 के बाद उत्तराखण्ड के पहाड़ी हिस्सों में कुल 19 सीटें ही बच पाय्ोंगी। जबकि 51 सीटों के साथ मैदान मालामाल होंगे। साफ है कि आने वाले दो दशक बाद हम एक बार फिर उत्तर प्रदेश के दूसरे संस्करण का हिस्सा होंगे। वहीं दूसरी ओर देश में उत्तराखण्ड जैसी परिस्थिति वाले उत्तर पूर्वी राज्य्ाों में आवादी के हिसाब से नहीं बल्कि भौगोलिक क्षेत्र्ाफल के आधार पर विधानसभा क्षेत्र्ाों का परिसीमन किय्ाा गय्ाा है। उत्तराखण्ड के साथ य्ाह बड़ी विडम्बना ही कही जा सकती है कि य्ाहां अब भी उत्तरप्रदेश की मानसिकता वाले राजनीतिज्ञ व ब्य्ाूरोक्रेट राजनीति व नीतिनिर्धारण में पूरी तरह से सक्रिय्ा है जिसके चलते राज्य गठन की मूल अवधारणा पूरी नहीं हो पा रही है बल्कि नय्ो परिसीमन तो कुछ पहाड़ विरोधी नेताओं को ऐसे हथिय्ाार के रूप में मिला है जो उत्तराखण्ड के स्वरूप को ही बिगाड़ देगा। आगे चल कर य्ाह राज्य्ा उत्तराखण्ड की जगह दो खण्डों में विभक्त न हो जाय्ो इससे इंन्कार नहीं किय्ाा जा सकता। विकास का सारा आधारभूत ढांचा जिस तरह से राज्य्ा के तराई के क्षेत्र्ा में ही विकसित किय्ाा जा रहा है य्ाह इस बात का रोल माडल है कि तराई मिनी उत्तर प्रदेश के रूप में तब्दील होता जा रहा है। पलाय्ान पहाड़ की सबसे बड़ी समस्य्ाा रही है लेकिन राज्य्ा बनने के बाद य्ाह मर्ज कम होने के बजाय्ा और बढ गय्ाा है। पहाड़ों के जो लोग पहले लखनऊ, दिल्ली व मुम्बई जैसे स्थानों पर रोजगार की तलाश करते-करते बर्तन मांजते थे। नीति निर्धारकों ने उनके लिए रोजगार के नय्ो दरवाजे खोलने के बजाय्ा बर्तन मलने की देहरादून, हरिद्वार तथा हलद्वानी जैसे स्थानों पर व्य्ावस्था कर दी है। खेती बाड़ी पहले ही बिक चुकी थी सो रहे सहे गाड़ गधेरे इन सरकारों ने बेच डाले हैं। दस सालों में पंचाय्ाती राज एक्ट, कृषि नीति, शिक्षा नीति और न जाने कितनी ही और नीतिय्ाां नहीं बन पाय्ाी हैं।

आन्दोलनकारियों के सपने आखिर हैं क्या
उत्तराखण्ड निर्माण के १८ वर्श हो गये और उत्तराखण्डी अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। अनेकों दशकों तक चले उत्तराखण्ड आन्दोलन, अनेकों शहीदों का बलिदान, हजारों आन्दोलनकारियों द्वारा झेली गयीं यातनायें, अनेकों गीतकारों के क्रान्तिकारी गीत जिस उत्तराखण्ड के लिये थे, मानों वे सब सपनों की दुनिया में कहीं खो गये हैं। उत्तराखण्ड आन्दोलन जिसे पूरी दुनिया में याद किया जाता है, आजाद भारत की पुलिस द्वारा किये गये क्रूरतम अत्याचारों की पराकाश्ठा तथा खून से लिखे गये मसूरी, खटीमा तथा मुजफ्फरनगर जैसे वीभत्स काण्ड कौन भुला सकता है।
उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों का सपना था कि अपना एक छोटा सा पहाड़ी प्रदेश होगा जिसकी देखरेख वे स्वयं करेंगे। पहाड़ की जवानी और पहाड़ का पानी अपने प्रदेश के विकास के काम आयेगा। अपना प्रदेश होगा तो रोजगार भी अपने नौजवानों को मिलेगा। पहाड़ की माताओं को भारी बोझ उठाने के कुछ हद तक मुक्ति मिलेगी।
लेकिन हुआ क्या, सपनों का उत्तराखण्ड कहीं खो गया। पहाड़ का पानी और जवानी फिर भी पराई ही रही। उद्योग आये नहीं और जो आये वे सब पहाड़ों के बजाय मैदानों में लग गये। बेरोजगारी वहीं की वहीं रह गयी। न विकास हुआ और न ही कोई योजना बनी। जो योजना बनी उसे नौकरशाह अपनी जेबों में भर ले गये।
प्रदेश की सरकारों ने आन्दोनकारियों को ही आपस में बांट दिया। कोई सात दिन कोई कम पता नहीं सरकार में बैठे लोग इतने हृदय हीन कैसे हो गये। आन्दोलनकारियों के लिये कोई ठोस योजना बनी ही नहीं। इतना जरूर नेता बोलते रहे तथा घोशणा पत्रों में लिखते रहे कि हम आन्दोलनकारियों तथा शहीदों के सपनों को साकार करेगे। लेकिन किसी ने भी आज तक यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि आन्दोलनकारियों के सपने आखिर हैं क्या। कथनी और करनी में जमीन आसमान का अन्तर है सरकार में बैठे लोगों की।
सरकारों ने अदूरदर्शी कदम उठाते हुए तीन महत्वाकांक्षी योजनायें विद्युत उत्पादन की प्रारम्भ कीं, किन्तु करोड़ों रूपये खर्च करने के बाद उनको बीच में बन्द कर दिया जिससे पहाड़ों के युवाओं पर और तुशारापात हो गया। सरकार की गलत नीतियों के चलते पहाड़ों पर बरसातों ने कहर ढाया और प्राकृतिक आपदाओं में पूरी कमर ही तोड़ दी। आपदा राहत में भी राजनीति और भाई भतीजावाद हावी है।
गैरसैण को राजधानी बनाने का मुद्दा ही समाप्त कर दिया गया, कारण सिर्फ यह कि मोटा वेतन लेने वाले नौकरशाह पहाड़ों पर जाना ही नहीं चाहते। चिकित्सक पहाड़ों पर चढ़ना नहीं चाहते और जो जाना चाहते हैं उनके पीछे राजनीति हावी हो गयी। पहाड़ों पर रेल तो दूर लोग बसों को भी तरस जाते हैं। अनेकों स्थानों पर ‘बाहर’ वालों ने इतने बड़े बड़े होटल बना दिये हैं कि स्थानीय युवा तो सपने भी वहां प्रवेश नहीं कर सकते। पहाड़ की कमाई पहाड़ के काम यहां भी नहीं आती। अनापशनाप कानून बनाकर पहाड़ की माताओं का बोझ कम करने के स्थान पर और बढ़ा दिया गया है। 17 वर्शौं में मुख्यमंत्री बनते गये। कुल मिलाकर राज्य निर्माण के 1८ वर्ष बाद भी हम वहीं खड़े हैं जहां से चले थे।

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