दिल्ली में उत्तराखंड समाज गौरवान्वित क्यो और कैसे हुआ ?
HIMALAYAUK BUREAU; High Light; दिल्ली में उत्तराखंड समाज गौरवान्वित क्यो और कैसे हुआ ? # उत्तराखण्ड राज्य स्थापना के बाद से उत्तराखंड की स्थानीय भाषा गढवाली कुमाऊनी जौनसारी पर काम करने के लिए आकादमी की स्थापना नहीं कर पाए # दिल्ली की सरकार ने दिल्ली के लाखों उत्तराखण्डियों के लिये यह कर दिखाया # दिल्ली में उत्तराखण्ड की भाषा गढवाली कुमाऊनी जौनसारी की अकादमी खुलने से यहाँ की जनता में खुशी का माहौल # कूर्माचल परिषद देहरादून ने उत्तराखण्ड सरकार से कूर्माचल परिषद के शिष्टमण्डल को आमंत्रित करने का निवेदन किया
दिल्ली में उत्तराखण्ड की भाषा गढवाली कुमाऊनी जौनसारी की अकादमी की मांग बहुत समय पहले से समाज की कई संस्थाओं द्वारा उठाई जा रही थी । कई अटकलों के बाद आखिर मे दिल्ली की आप सरकार द्वारा अकादमी का गठन कर दिया गया । इस अकादमी के गठन से दिल्ली में उत्तराखंड समाज अपने आप को गौरवान्वित महसूस कर रहा है ।
विदित हो कि उत्तराखण्ड राज्य स्थापना के बाद अभी तक उत्तराखण्ड में बनी तमाम सरकारौं और उनके नुमाइंदों ने अन्य सभी भाषाओं की अकादमी की स्थापना तो कर दी परंतु उत्तराखंड की स्थानीय भाषा गढवाली कुमाऊनी जौनसारी पर काम करने के लिए आकादमी की स्थापना नहीं कर पाए । जिस प्रदेश में यह बोलि भाषा करोडों लोगों द्वारा आम जीवन में बोलचाल की भाषा के रूप में प्रयोग की जाती हैं उन लोगों के लिए इस प्रकार से भाषा अकादमी की स्थापना नहीं हो सकी, किन्तु दिल्ली की सरकार ने दिल्ली के लाखों उत्तराखण्डियों के लिये यह कर दिखाया और उत्तराखण्ड में सरकार चलाने वाली पार्टियों के गाल पर करारा तमाचा मारा है।
उत्तराखंड की सरकारों में भाषा के सम्बंध में कई भ्रांति रही हैं, यहाँ कई बोलियाँ हैं जिनके अपने अपने साहित्यकार व कवि हैं जो बाहरी रूप से कवि सम्मेलनों के मंचों में साथ दिखते हैं परंतु आन्तरिक रुप से एक दूसरे के बिरुद्ध काम करते हैं । वह अपनी बोली को ही स्वयं स्थापित श्रेष्ठ भाषा मानकर उसकी अकादमी स्थापित कराना चाहते हैं । उत्तराखण्ड की भाषा की यह तीन गढवाली कुमाऊनी जौनसारी बोलियाँ भारतीय सम्बिधान से बाहर हैं परतु इनके कवि साहित्यकार इन्हें स्थापित व प्रतिष्ठित भाषाएं मानते हैं । संविधान से बाहर होने के कारण उत्तराखण्ड सरकार भी इन्हें भाषा नहीं मानती ।
यह सत्य है कि इन बोलियों के कवि व रचनाकारों ने साहित्य सृजन किया है, परंतु यह सृजन अमान्कीकृत शैली में लिखा है। पूरा का पूरा सहित्य अपभ्रंशित है। वह इस लिये चूंकि बोलियों की अपनी स्थानीय ध्वनियां भी होती हैं, जिनके चिन्हों का प्रयोग यहाँ की वर्तनी में नहीं हो पाया है, लिखते कुछ हैं पढ़ते कुछ हैं । वर्तनी में यहाँ की ध्वनि चिन्हों का अभाव है। इन ध्वनियों की पहचान और चिन्हित करने के लिये गढ़वाल विश्वविध्यलया द्वारा प्रो उमा मैठाणी के निदेशन पर इन पर शोध संपन्न हुआ। शोधार्थी डॉ बिहरीलाल जलंधरी के इस शोध के आधारित दो पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। इनका लाभ न उठाते हुए भी गढवाली कुमाऊनी जौनसारी के कवि साहित्यकारों द्वारा अपनी ही शैली में सहित्य सृजन करना जारी रखा हुआ है। आज यह साहित्य सीमित क्षेत्र तक ही सिमट कर रह गया है । शब्दोँ में ध्वन्यात्माक्ता होने से कभी अर्थ का अनर्थ हो जाता है ।
यह एक दुबिधा है सरकार के साथ साथ साहित्यकारों की । बोलियों के रचनाकार अपनी बोली से मोह नहीं त्याग पा रहे हैं, कुछ नया अपनाने के लिए तैयार नहीं हैं, यही कारण है कि प्रदेश सरकार ने बोली भाषा के इस मकडजाल को ही तिलांजलि दे दी। अब यह स्थिति बन गई है कि जहाँ बोली भाषा के साहित्यकारों को काम करना था वहाँ एन जी ओ काम कर रहे हैं ।
अब दिल्ली में उत्तराखण्ड की भाषा गढवाली कुमाऊनी जौनसारी की अकादमी खुलने से यहाँ की जनता में खुशी का माहौल तो है परंतु दबे पांव अकादमी की समिति में इन भाषाओं के ख्यातिप्राप्त साहित्यकारों व शोधार्थीयों का अभाव भी एक बहुत बड़ा सवाल बनता जा रहा है ।
आपको बता दें कि दिल्ली में इन भाषाओं के केवल तीन दर्जन से ज्यादा रचनाकार हैं जिनमें कवि अधिक हैं, साहित्य की अन्य विधाओं पर काम करने वाले बहुत कम रचनाकार हैं । जिनमें मुख्य रूप से सर्ब श्री प्रेम लाल भट्ट, डॉ गंगा प्रसाद विमल, पांडेय, ललित केशवान, रमेश घिल्डियाल, गिरीश बिष्ट, पूरनचंद कांडपाल, डॉ बिहारीलाल जलंधरी, आर सी जोशी, डॉ पृथ्वी केदारखण्डी, डॉ सतीश कालेश्वरी, दिनेश ध्यानी, रमेश हितैसी तथा कई नवोदित कवि हैं। इन रचनाकारों में कवि अधिक हैं जिनका रुझान काव्य की ओर अधिक है । कुछ एक से अधिक विधाओं पर काम कर रहे हैं । जैसे डॉ जलंधरी ने ध्वनियोँ की पहचान कर उनके चिन्ह देवनागरी के साथ जोड़ कर स्थानीय बोली भाषा के प्राण बचाने की कोशिश की है ।
उत्तराखण्ड की भाषा गढवाली कुमाऊनी जौनसारी के लिये दिल्ली में अकादमी तो बना दी गई, परंतु उसकी समिति में इन बोली भाषा के साहित्यकारों को स्थान नहीं दिया गया । पूरी समिति में केवल आम आदमी पार्टी के पदाधिकारी, और उत्तराखण्ड के समाजिक संस्थाओं के पदाधिकारियों का होना कहीँ न कहीँ प्रश्न खड़ा कर रहा हैं।
इस समिति में कुल बीस महानुभाव हैं । जिनमें दिल्ली सरकार के मंत्री और चार पदाधिकारी व उत्तराखंड के कवि एवं गायक श्री हीरा सिंह राणा जी को छोडकर पंद्रह ऐसे सदश्य हैं जिनका नाम उत्तराखंड की बोली भाषा के जगत में कहीं सुनाई नहीं दिया। इन सदश्यों में आम आदमी पार्टी के जो पदाधिकारी हैं उनमें दिल्ली आप प्रकोष्ठ संयोजक बृज मोहन उप्रेती, उनके पदाधिकारी सर्ब श्री पृथ्वी सिंह, बासबानंद ढोंडियाल, दिवाकर उनियाल, दिनेश विष्ट, राजेश्वर शर्मा, जय सिंह राणा, पी एन शर्मा, पदम पंवार, चंद्र कला नेगी, पवित्री बडोला, प्रीति कोटनाला तथा गढ़वाल हितैशिणी सभा के सूरत सिंह रावत व पवन कुमार मैठाणी हैं।
सन 2019 के अन्त में या 2020 के आरम्भ में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हैं, आप ने कुछ चुनिन्दा साहित्यकारों की नाराजी तो जरूर ली, परतु भाषा अकादमी बनाकर उत्तराखण्ड के लोगों को खुश कर दिया । यहां तक जिनको वह बोली भाषा नहीं आती उसको भी सदश्य बना दिया। चंद साहित्यकारों के नाराज होने पर आम आदमी पार्टी को कोई फरक नहीं पड़ता । उन्होने तो एक तीर से दो निशाने साधे हैं । एक तो जनता की नजर में उन्होने वह काम कर दिखा दिया जिसे उत्तराखण्ड में कांग्रेस और भाजपा नहीं कर सकी, दूसरा भाषा के साहित्यकार जिनमें आन्तरिक रुप से आपसी खींचातान लगी रहती थी उन्हें इस अकादमी से दूर रखा। इसी सन्देश के बल पर आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में उत्तराखण्ड की लाखों की संख्या में जनता को उसके सच्चे हमदर्द होने का अहसास कराया है।
उत्तराखण्ड की भाषाओं पर काम हो न हो यह अलग बात है, परंतु इस बाहने उत्तराखण्डियों की वोट को अपनी झोली में डालने का भर्शक प्रयास किया है । दिल्ली में उत्तराखण्डियों के लिए अकादमी बनाकर, समाज को खुश कर वह अपनी पीठ खुद थपथपा रहे हैं ।
इन भाषाओं के कलमकार किस प्रकार इस अकादमी व सरकार या फिर इस अकादमी के पंद्रह नौसिखिए साहित्यकारों का अकादमी से बाहर रहकर भी मर्गदर्शन करेंगे। या फिर आम चुनाव में इन सदश्यों का प्रदर्शन ही इनका भविष्य तय करेगा।