मां टेरेसा अब संत,वेटिकन की धर्म सत्ता का अंश
कोलकाता की मां टेरेसा अब संत,वेटिकन की धर्म सत्ता का अंश
सबिता बिश्वास मां बड़ी है कि संत,यह विवाद का कोई विषय नहीं हो सकता।
धर्मसत्ता बड़ी है कि मातृसत्ता बड़ी है,इस सवाल में लेकिन नृतत्व का जटिल प्रश्न है।जिसे मदर के संत बनने के आख्यान में कोलकाता और भारत की भावभूमि की बड़ी भूमिका है।
संत की उपाधि धर्म सत्ता में शामिल कर लिए जाने की औपचारिकता मात्र है वरना हर मां स्वभाव और चरित्र से संत होती है।
समूचे परिवार और समाज,उनकी आकांक्षाओं और सपनों,उनके रोजमर्रे की जिंदगी के ताना बाना से जुड़ी हर मां अपनी संतान के अलावा भी वृहत्तर समाज में मां की भूमिका निभाती है।
मां टेरेसा की महानता स्वयंसिद्ध है और इसपर इतना लिखा और बोला गया है कि वे तमाम बातें किताब दर किताब सहेजी जा नहीं सकतीं।वेटिकन सिटी में मां को संत की उपाधि देने की औपचारिकता के महोत्सव में सारी दुनिया इकट्ठी हो गयी है।
यह बेहतर मौका है कि हम मां के इस ग्लोबल सफर में संत बनने के तक की मंजिल तक पहुंचने में कोलकाता और बाकी भारतभूमि की प्रासंगिकता और संदर्भों को समझें,जो बेहद अनिवार्य है।
नृतात्विक दृष्टि से अनार्य द्रविड़ बौद्धमय विभाजित बंगाल में पितृसत्ता उस तरह नहीं है, जैसे ब्राह्मणों की 23 फीसद जनसंख्या वाले अपने यूपी में और बाकी गायपट्टी के आर्यावर्त में।
आजादी के बाद पश्चिम बंगाल का ब्राह्मणीकरण हुआ है लेकिन यहां सत्ता और जीवन के हर क्षेत्र में ब्राह्मण वर्चस्व होने के बावजूद,धर्म कर्म में हिंदुत्व होने के बावजूद संस्कृति बाकी भारत से अलग अर्द्ध मातृतांत्रिक द्रविड़ अनार्य विरासत के मुताबिक है और बंगाल के हिंदुत्व में अनार्य देवियों की उपासना से इसी मातृसत्ता की निरंतरता है।
काली और दुर्गा के रूपक और मिथक मातृसत्ता के ही प्रतीक हैं।
बाकी भारत की तुलना में बंगाल में भी पितृसत्ता के अंतर्गत पत्नी की दुर्गति चाहे एक जैसी हो,लेकिन मां का सामाजिक वर्चस्व निःसंदेह सर्वव्यापी है।बेटी में भी मां का वही सार्वभौम स्वरुप है।बेटी इसलिए यहां पराया धन नहीं है बाकी भारत की तरह।
अपराजेय ममता बनर्जी हों या दिवंगत महाश्वेता देवी या फिर संत टेरेसा यह इसी मातृसत्ता को स्थापित करती है।संजोग है कि मां क संत की उपाधि देने के समारोह में ममता दीदी तो हाजिर हैं लेकिन यह देखने के लिए महाश्वेता दी जीवित नहीं है।
यह मातृसत्ता मणिपुर या पूर्वोत्तर या उतराखंड के जौनसार भावर के आदिवासी मूल के जन समुदाओं की प्रत्यक्ष मातृसत्ता नहीं है।बल्कि नृवंश की मातृसत्ता की निरंतरता है,जिसकी भावभूमि में संत टेरेसा का निर्माण हुआ है।
संत की उपाधि वैटिकन की एक निश्चित पद्धति है जिसके तहत व्यक्तित्व और कृतित्व को ईसाई धर्म की सर्वोच्च सत्ता में समाहित कर लिया जाता है और वह सबकुछ जो व्यक्ति का जीवनभर का कृतित्व है,इसके साथ ही उसका धर्म सत्ता में विलय हो जाना है।मां टेरेसा का महत्व इस संत उपाधि से भी बढ़कर है।
जन्म से मां का परिचय चाहे कुछ हो,वे संपूर्ण भारतीय होने के बाद ही संत बनी,हम इसे मान लें तो उनकी इस भारतीयता पर जाति धर्मनस्ल भाषा निर्विशेष गर्व करने की बात है।मां से संत तक की उनकी यात्रा भारतीय जीवन दर्शन,आध्यात्म और संस्कृति में रची बसी भारतीय मौलिक मातृसत्ता की वैश्विक स्वीकृति है,जिसका उनके ईसाई होने से या उनके ईसाई धर्म की सर्वोच्च धार्मिक सत्ता में समाहित हो जाने से कोई लेना देना नहीं है।यह कुल मिलाकर हमारे आत्म परिचय की पुरखौती की उपलब्धि है।
यहां संत का मातृत्व संपूर्ण भारतीय है और इसी लिए राजनीतिक विवादों के बावजूद जनमानस में मां की छवि कुछ वैसी ही है जैसे जन्म सूत्र से अनार्य मूल के देवों और देवियों की सार्वजनीन छवि भारत में प्रचलित है।
यह करिश्मा भारत तीर्थ का है,जहां मनुष्यता की विभिन्न धाराओं का एकीकरण हुआ है और उसी एकीकरण की निरंतरता में तथागत गौतम के बुद्धमय भारत में सत्य अहिंसा और प्रेम की विरासत जमीन पर मां टेरेसा सार्वजनीन मां हैं और संत हो जाने केबावजूद बंगाल और भारत के लिएवे मातृत्व की करुणामयी मूर्ति बनी रहेंगी।
यही करुणा भारत में समता और न्याय का मूल आधार है और बुद्धमय भारत में हिंदुत्व के निर्माण की भावभूमि भी है जो ईसाई इतिहास और विरासत,धर्म कर्म से अलहदा विशुध भारतीय है।
यही करुणा भारत की धर्मनिरपेक्ष संत बाउल फकीर पीर परंपरा की विरासत है और गौर करें की भारत में हम अपने संतों को शंकराचार्य पीठों की धर्मसत्ता में खभी समाहित नहीं करते।नहीं कर सकते क्योंकि संत परंपरा भारतीय संस्कृति के मुताबिक धर्म नरिपेक्ष है।
भारतीय जनता की लोकसंस्कृति की जमीन पर साधु, संत, फकीर, बाउल, पीर या किसी पादर मदर की कोई धार्मिक पहचान नहीं है।
जनता उन्हें धर्मसत्ता या सत्ता से जोड़कर देखने को अब्यस्त नहीं है और उनके दरबार में वे अपनी आस्था की भावभूमि से निकलकर कभी भी पहुंच जाने को अभ्यस्त है।
कोलकाता और बाकी भारत में इसीलिए मदर कभी ईसाई मिशनरी का चेहरा बनी नहीं है।उनका चेहरा मां का रहा है,सगी मां का।संत बनने के बावजूद वह चेहरा बदलेगा नहीं।
कोलकाता में मदर हाउस की नीली बार्डर वाली सफेद साड़ी में लिपटी मां की यह करुणामयी संरक्षक मूर्ति निर्विवाद तौर पर रंगभेद के पाश्चात्य और उनकी परस्परविरोधी परंपराओं के विपरीत विशुध भारतीय विविधता,बहुलता,सहष्णुता,बंधुता, मैत्री,करुणा,सत्य.अहिंसा,प्रेम और धम्म की भावभूमि है।
बुद्धमय बंगाल के हिंदुत्व कायाकल्प के पीछे संस्कृत के अंतिम महाकवि गीत गोविंदम के जयदेव से धर्म और संस्कृति, दर्शन और समाज के दिव्यता के सामंती संरचना से जनवादी बाउल परंपरा में बदल जाने की अलौकिक कथा है तो यह गायपट्टी के सामंतवाद विरोधी मनुष्य की स्वतंत्रता और संप्रभुता की स्थापना के लिए कबीर दास, तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई, रसखान,सिख गुरुओं,बौद्ध और जैन विभूतियों के धर्म निरपेक्ष प्रगतिशील संत परंपरा के तहत ही बंगाल में चैतन्य महाप्रभु के हिंदुत्व का प्रेममय धर्म कर्म का आध्यात्म और जीवन दर्शन की भावभूमि भी है ,जो सार्वभौम भारतीयता है।
संत मदर टेरेसा की ईसाई परंपरा में उसकी धर्मसत्ता में जो भी उपाधि या मान्यता हो और उसकी जो भी पद्धति हो,नीली किनारी की साड़ी की भारतीयता से हमारी मां टेरेसा को अलग नहीं किया जा सकता।
यूपी और बाकी भारत में रंगबिरंगे झंडों की पैदल सेनाओं की मारामारी के मद्यइस सार्वभौम भारतीयता की प्रासंगिकता को मदर की संत उपाधि की भावभूमि में हम चिन्हित कर सकें तो भारत फिर वही टैगोर का भारत तीर्थ बना रहेगा और हिंदुत्व के बावजूद तथागत गौतम बुद्ध के धम्म और पंचशील की तरह कोलकाता में मां का इतिहास भी भारतीयता और हमारे मानबंधन की परंपरा में बना रहेगा और यह मां के संत बन जाने की उपलब्धि से कम बड़ी बात न होगी।