देवी के इस दरबार में मिलता है राजसत्ता सुख का वरदान
विंध्याचल ही ऐसा स्थान है जहां देवी के पूरे विग्रह के दर्शन होते हैं। शास्त्रों के अनुसार, अन्य शक्तिपीठों में देवी के अलग-अलग अंगों की प्रतीक रूप में पूजा होती है। मंदिर पसिर में ही स्थित कुंड में हवन बारहों महीने अखंड ज्योति के रुप में जलता रहता है, जिसमें पूर्णाहुति कर लेने से शत्रु तो परास्त होते ही है, मिलता है राजसत्ता सुख का वरदान।
(HIMALAYAUK BUREAU)
मां विंध्यवासिनी एक ऐसी जागृत शक्तिपीठ है, जिसका अस्तित्व सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी रहेगा। त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल निवासिनी देवी लोकहिताय, महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती का रूप धारण करती हैं। विंध्यवासिनी देवी विंध्य पर्वत पर स्थित मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। कहा जाता है कि इस स्थान पर जो तप करता है, उसे अवश्य सिद्वि प्राप्त होती है। शायद यही वजह है जब देवासुर संग्राम के वक्त देवों पर दानव भारी पड़ने लगे तो देवों के देव महादेव, ब्रह्मा व विष्णु ने भी इस धाम में तप की और मां के आर्शीवाद से विजय हासिल की। विविध संप्रदाय के उपासकों को मनवांछित फल देने वाली मां विंध्यवासिनी देवी अपने अलौकिक प्रकाश के साथ यहां नित्य विराजमान रहती हैं
सुरेश गांधी
चमत्कार की ढेरों कहानियां अपने अंदर समेटे विन्ध्य पहाड़ी पर विराजमान है आदिशक्ति जगत जननी मां विन्ध्यवासिनी। वह भी एक-दो नहीं, बल्कि तीन रुपों में भक्तों को दर्शन देती है मां विन्ध्यवासिनी। पहला मां विन्ध्यवासिनी, दुसरा मां काली और तीसरा मां सरस्वती, जिन्हें अष्टभुजा के रुप में भी जाना जाता है। मां किसी को भी अपने दरबार से खाली हाथ नहीं भेजती, तभी तो मां अपने भक्तों की चिंता तो दूर करती ही है, यहां वही भक्त पहुंच पाता है, जिसे मां का बुलावा होता है। मां का ये धाम अनोखा व अद्भूत इसलिए भी है कि भक्तों को यहां मां का दर्शन होता है गुफा के एक छोटे झरोखे में। खास बात यह है कि मां के तीनों रुप एक त्रिकोण पर विराजमान है, जिनकी परिक्रमा व विधि-विधान से पूजन-हवन कर लेने मात्र से भक्त न सिर्फ मोक्ष को प्राप्त होता है, बल्कि लौकिक व इलौकिक सुखों को भोगता हुआ प्राणियों की हर प्रकार की मुरादें पूरी होती है। इसके अलावा मंदिर पसिर में ही स्थित कुंड में हवन बारहों महीने अखंड ज्योति के रुप में जलता रहता है, जिसमें पूर्णाहुति कर लेने से शत्रु तो परास्त होते ही है, मिलता है राजसत्ता सुख का वरदान। मां के आशीर्वाद से बिगड़े काम भी तो बन जाते ही हैं, सफलता की राह में आ रही बाधाएं भी दूर हो जाती है। मुश्किलों को हरने वाली मां के शरण में आने वाला राजा हो या रंक मां के नेत्र सभी पर एक समान कृपा बरसाते है। मां की कृपा से असंभव कार्य भी पूरे हो जाते है।
देश के तमाम स्थानों में शक्तिपीठ है, लेकिन यहां की शक्तिपीठ की महिमा अद्भूत व निराली है। पुराणों में विन्ध्याचल को शक्तिपीठ, सिद्धपीठ व मणिपीठ कहा गया है। चूणामणि में 51 शक्तिपीठ व श्रीमद्भागवत में 108 पीठों का उल्लेख मिलता है। जिसमें विन्ध्याचल शक्तिपीठ का विशेष महत्व है। विन्ध्य पर्वत माला की आंचलों में स्थित यह विंध्याचल शक्तिपीठ अनादिकाल से ही शक्ति की लीला भूमि रही है। शास़्त्रों के अनुसार शती के पृष्ठभाग का विपार्थ हुआ था। कहा जाता है कि मां देवी पार्वती ने यहीं पर तप कर अर्पणा नाम पाया व भगवान शिव को प्राप्त किया। इस क्षेत्र को साधना व तपस्या हेतु जागृत प्रदेश माना जाता है। विन्ध्य क्षेत्र में ही नारायण ने महादेव की आराधना कर चक्र सुदर्शन प्राप्त किया था। इसके पीछे कथा यह है कि भगवान विष्णु की आराधना से जब महादेव प्रसंन हुए तो बदले में उनका नेत्र मांगा और जैसे ही विष्णु ने चाकू से अपनी आंख निकालने की कोशिश की, महादेव नेे रोक लिया और विश्व कल्याण व सुरक्षा के लिए सुदर्शन चक्र भेंट किया। इसके बाद यहीं पर मां लक्ष्मी ने शिवशंकर की तपस्या की तथा महादेव से स्त्री यौवन व सदैव युवती रहने का वरदान प्राप्त किया। कहा जाता है कि देवासुर संग्राम के वक्त जब दानव देवों पर भारी पड़ने लगे तब स्वयं देवों के देव महादेव, ब्रह्मा एवं विष्णु ने मां विन्ध्यवासिनी के गर्भगृह में बने कुंड में हजारों साल तक तपस्या कर मां के आर्शीवाद से दानवों को परास्त कर सके थे।
मां के चमत्कारों की कहानी लंबी है और महिमा अनंत। मां के द्वार पर एक बार जो आ गया, वो फिर कहीं और नहीं जाता। कहते है दरबार में नित्य होने वाली मां के चारों रुपों की आरती का दर्शन कर लेने मात्र से हजार अश्वमेघ यज्ञ के फलों की प्राप्ति होती है। यह दिव्य मनोरम जगह है बाबा भोलेनाथ की नगरी काशी व भगवान विष्णु की नगरी प्रयाग के मध्य पवित्र विन्ध्याचल धाम, जो उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में है। जहां यूपी ही नहीं देश के कोने-कोने से तो श्रद्धालुओं का मां के दर्शन को तो आना होता ही है। चैत व शारदीय नवरात्र के नौ दिनों तक विशाल मेला लगता है। इस मेले में लाख-दो लाख नहीं बल्कि 25 लाख से भी अधिक श्रद्धालु पहुंचते है मां का दर्शन कर मन्नतों की झोली भरकर ले जाते है। मंदिर के प्रधान पुजारी श्रृंगारिया शेखर सरन उपाध्याय कहते है, विन्ध्य क्षेत्रे परम् दिव्यम् नास्ति ब्रह्मांड गोलके अर्थात विन्ध्याचल जैसा स्थान, जहां मां भगवती के तीनों रुप मां लक्ष्मी, मां काली मां सरस्वती एक ऐसे त्रिकोण पर विराजमान है, जो पूरे ब्रहमांड में कहीं नहीं है। नंदगोप गृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा, तत्स्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलवासिनी।। अर्थात भगवती जी ने स्वयं बोली है मैं द्वापर युग में नंद के यहां यशोदा के गर्भ से पैदा होगी और कंस के हाथों से मुक्त होकर विन्ध्य क्षेत्र में निवास करेगी। मां विंध्यवासिनी एक मात्र ऐसी जागृत शक्तिपीठ है जिसका अस्तित्व सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी रहेगा। यहां देवी के 3 रूपों का सौभाग्य भक्तों को प्राप्त होता है। पुराणों में विंध्य क्षेत्र का महत्व तपोभूमि के रूप में वर्णित है। त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल निवासिनी देवी लोकहिताय, महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती का रूप धारण करती हैं। विंध्यवासिनी देवी विंध्य पर्वत पर स्थित मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। यहां पर संकल्प मात्र से उपासकों को सिद्वि प्राप्त होती है। इस कारण यह क्षेत्र सिद्व पीठ के रूप में विख्यात है। ब्रह्मा, विष्णु व महेश भी भगवती की मातृभाव से उपासना करते हैं, तभी वे सृष्टि की व्यवस्था करने में समर्थ होते हैं। इसकी पुष्टि मार्कंडेय पुराण श्री दुर्गा सप्तशती की कथा से भी होती है। शास्त्रों में मां विंध्यवासिनी के ऐतिहासिक महात्म्य का अलग-अलग वर्णन मिलता है. शिव पुराण में मां विंध्यवासिनी को सती माना गया है तो श्रीमद्भागवत में नंदजा देवी कहा गया है। मां के अन्य नाम कृष्णानुजा, वनदुर्गा भी शास्त्रों में वर्णित हैं। इस महाशक्तिपीठ में वैदिक तथा वाम मार्ग विधि से पूजन होता है। शास्त्रों में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि आदिशक्ति देवी कहीं भी पूर्णरूप में विराजमान नहीं हैं, विंध्याचल ही ऐसा स्थान है जहां देवी के पूरे विग्रह के दर्शन होते हैं। शास्त्रों के अनुसार, अन्य शक्तिपीठों में देवी के अलग-अलग अंगों की प्रतीक रूप में पूजा होती है।
.कहा जाता है कि एक बार नारायण ने भगवान महादेव से विन्ध्य क्षेत्र की महिमा का वृतांत पूछा, महादेव ने कहा, विन्ध्य क्षेत्रस्य महात्मयम वक्तु शिशु परमेश्वर लिखतुम हहया क्षचु दृष्टतः सुरेश्यम् अर्थात विन्ध्य क्षेत्र की महिमा हजार मुख वाले सिस, लिखने को हजार भुजा वाले अर्जुन व सहस्त्र शस्त्रों से युक्त इंद्र भी बताने में असमर्थ है। जबकि एक बार ब्रहमा ने तराजु पर वैकुंठ व विंध्याचल को तौला था। वैकुंठ का पलड़ा हल्का होने से वह स्वर्ग चला गया, जबकि विंध्य पृथ्वी पर ही रह गया। इस तरह वैकुंठ स्वर्ग से भी विन्ध्यधाम अतिउत्तम है। कहा जाता है कि सूरज का रास्ता रोकने वाला इस संसार में एकमात्र विन्ध्य पर्वत ही था। विन्ध्य पर्वत द्वारा रास्ता रोक दिये जाने से परेशान सूर्यदेव, विन्ध्य के गुरु अगस्त्य मुनि की शरण में गये। सूरज की प्रार्थना सुनकर गुरु अगस्त्य मुनि ने विन्ध्य पर्वत से कहा कि, वह अपना आकार बढ़ाना रोक दे। अगस्त्य मुनि का कहना था, कि वे अब बूढ़े हो चले हैं। उनसे अब और ऊँचाई पर चढ़ पाना इस बढ़ती उम्र में असंभव है। अगस्त्य मुनि के लाख आग्रह के बाद भी जब विन्ध्य पर्वत नहीं माना तो उन्होंने श्राप देने को कहा, तभी विन्ध्य पर्वत शरणागत होते हुए क्षमा याचना की। मुनि द्वारा क्षमा किए जाने के बाद विन्ध्य पर्वत ने अपना आकार बढ़ाना रोक दिया। इसके बाद ही सूरज को आगे बढ़ने का रास्ता मिलना संभव हो पाया था। कहते हैं कि, तभी से विन्ध्य पर्वत आज भी जहां के तहां सिर झुकाये खड़ा है, अपने गुरु की आज्ञा पालन के लिए। इस तथ्य का उल्लेख श्वामन पुराण के 18वें अध्याय में भी है। कहते हैं कि, पर्वतराज विन्ध्य के ऊपरी शिखर पर ही मां भगवती दुर्गा आज भी निवास करती हैं। भगवान भास्कर की पहली किरण विध्याचल धाम पर ही पड़ती है। विन्ध्य क्षेत्रे समं क्षेत्रं, नास्ति ब्रहृमांड गोलके। विन्ध्य क्षेत्रं परम् दिव्यं, पावनं मंगलं प्रदत।
मां विन्ध्यवासिनी की चार आरती में चार पुरुषार्थ धर्म, काम, अर्थ व मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो भक्त जिस आरती में सरीक होता है उस आरती में उसे मां का उसी दिव्य स्वरुप का दर्शन होता है, और उसे उसी प्रकार के फलों की प्राप्ति होती है। ब्रह्ममुहूर्त में सुबह 4 बजे मां की प्रथम मंगला आरती होती है। इस आरती में मां का बाल्यवस्था का दर्शन होता है। इस आरती से भक्त को धर्म की प्राप्ति होती है। जिसमें उसका भविष्य मंगलमय होता है। मां के चरणों में शीश झुकाकर भक्त मनवांछित फल प्राप्त करता है। मध्यान्ह 12 बजे मां की द्वितीय आरती की जाती है, जिसे राजश्री आरती कहा जाता है। इसमें मातारानी का स्वरुप राज राजेश्वरी युवा अवस्था का होता है। इस आरती से भक्तों को अर्थ अर्थात समृद्धि एवं वैभव की प्राप्ति होती है जिससे मनुष्य धन-धान्य से परिपूर्ण होता है। मां विन्ध्यवासिनी को वन देवी भी कहा जाता है। इन्हीं के इच्छा से शती का प्रार्दुभाव हुआ। सायंकाल 7 बजे मां की तृतीय आरती छोटी आरती होती है जिसमें मां का स्वरुप द्रोणा अवस्था का होता है। इस आरती से भक्त को संतान तथा वंशवृद्धि की प्राप्ति होती है। मां की चतुर्थ शयन यानी बड़ी आरती रात साढ़े नौ बजे की जाती है इसमें मां का स्वरुप वैभव व वृद्धा अवस्था का होता है। इस आरती में शामिल होने वाले भक्त को मोक्ष की प्राप्ति होती है। मां की सुबह-शाम होने वाली आरती में जो लोग शामिल होते हैं वो अखंड पुण्य के भागी होते हैं। आरती की लौ में मां का असीम आशीर्वाद है और आरती के लौ की रौशनी जीवन के तमाम कष्टों का अंधियारा हर कर भक्तों के जीवन में खुशियों का उजियारा लाती है। हजारों लाखों भक्त मां के दर्शन करने, उनकी आरती में शामिल होने के लिए घंटों इंतजार करते हैं और जब ढोल नगाड़ों व घंटे की आवाजों के मां का श्रृंगार और उनकी आराधना होती है तो भक्तों की हर कामना पूरी हो जाती है।
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