योगविद्या में तत्व साधना का अपना महत्त्व
मस्तिष्क स्पष्टत: एक जीता जागता बिजलीघर पंच तत्वों की साधना तत्व साधना एक महत्त्वपूर्ण सूक्ष्म विज्ञान तत्ववेत्ता मन: शास्त्रियों को अपनी दिव्यदृष्टि इतनी विकसित करनी पड़ती है कि मनुष्य के चेहरे के इर्द-गिर्द विद्यमान तेजोबलय की आभा को देख सकें और उसमें रंगों की दृष्टि से क्या परिवर्तन हुआ है इसे समझ सकें। (www.himalayauk.org) Web & Print Media
योगविद्या में तत्व साधना का अपना महत्त्व एवं स्थान है। पृथ्वी आदि पाँच तत्वों से ही समस्त संसार बना हैं। विद्युत आदि जितनी भी शक्तियाँ इस विश्व में मौजूद हैं। वे सभी इन पञ्च तत्वों की ही अन्तर्हित क्षमता है। आकृति-प्रकृति की भिन्नता युक्त जितने भी पदार्थ इस संसार में दृष्टिगोचर होते हैं वे सब इन्हीं तत्वों के योग-संयोग से बने हैं।
विहार में अथवा अपने में उस तत्व को उभार कर उसे अनुदान रूप रोगी या अभावग्रस्त को देते हैं। इस तत्व उपचार का लाभ सामान्य औषधि चिकित्सा की तुलना में कहीं अधिक होता है। न केवल शरीर की, वरन् मन की भी बनावट- तथा स्थिति में इन्हीं पंचतत्वों की भिन्न मात्रा का कारण है। शारीरिक, मानसिक दुर्बलता एवं रुग्णता में भी प्राय: इन तत्वों की ही न्यूनाधिकता पर्दे के पीछे काम करती रहती है। शरीर विश्लेषणकर्त्ताओं रासायनिक पदार्थों की न्यूनाधिकता अथवा अमुक जीवाणुओं की उपस्थिति- अनुपस्थिति को शारीरिक असन्तुलन का कारण मानते हैं, पर सूक्ष्मदर्शियों, की दृष्टि में तत्वों का-असन्तुलन ही इन समस्त संभ्रातियों का प्रधान कारण होता है। किस तत्व को शरीर में अथवा मन क्षेत्र में कमी है उसकी पूर्ति के लिए क्या किया जाय, इसका पता लगाने के लिए तत्व विज्ञानी अध्यात्मवेत्ता किसी व्यक्ति में क्या रंग कम पड़ रहा है, क्या घट रहा है यह ध्यानस्थ होकर देखते हैं और औषधि उपचारकर्ताओं की तरह जो कमी पड़ी थी, जो विकृति बड़ी थी उसे उस तत्व प्रधान आहार-
फिल्टरों से युक्त। नियोनआर्क लेम्प- लेसर किरणों के उपकरण- एक्सरेज की विशिष्ट धाराएँ- क्वान्टा किरणें इनर्जेटिक्स- क्वान्टम इलेक्ट्रोनिक्स आदि का प्रस्तुतीकरण सूर्य किरणों की विशेष रंग धाराओं का विश्लेषण करके ही सम्भव हो सका है। अब यह विज्ञान दिन-दिन अधिक महत्त्वपूर्ण स्तर पर उभरता चला आ रहा है और लगता है रंगों के भले-बुरे प्रभावों को अधिक अच्छी तरह जानना और उनका उपयुक्त प्रयोग करके लाभन्वित होना, मनुष्य के लिए निकट भविष्य में ही सम्भव हो जायेगा। रंग यों देखने में मात्र दृष्टि आकर्षण एवं शोभा सच्चा के लिए काम आते दीखते हैं, पर वस्तुत: उनकी गरिमा और क्षमता कहीं अधिक है। सामान्य रंगाई भी अपना प्रभाव रखती है, फिर सूक्ष्म रूप से काम करने वाली तत्वों से सम्बन्धित रंग शक्ति का तो कहना ही क्या।
लाल रोशनी का उत्तेजनात्मक प्रभाव असंदिग्ध है। प्रातःकाल और सायंकाल जब सूर्योदय और सूर्यास्त की लालिमा आकाश में छाई रहती है तब पेड़-पौधा, जलचर और पक्षिवृन्द अधिक क्रियाशील और बढ़ते विकसित होते पाये जाते हैं। वनस्पतियों की वृद्धि किस समय किस क्रम से होती है इसका लेखा-जोखा रखने वालों का निष्कर्ष यही है कि प्रात: सायंकाल के थोड़े से समय में वे जितनी तीव्र गति से बढ़ते हैं उतने अन्य किसी समय नहीं। मछलियों की उछल-कूद इसी समय सबसे अधिक होती है। पक्षियों का चहचाहाना जितना दोनों संध्या काल में होता है उतना चौबीस घण्टों में अन्य किसी समय नहीं होता है। इसी प्रकार पीला, हरा, बेंगनी, गुलाबी आदि अन्य रंगों का अपना-अपना प्रभाव होता है। रंगों की शोभा सर्वविदित है, पर उनकी सूक्ष्म शक्ति की जानकारी बिरलों को ही होती है।
तत्वों के रंगों के सम्बन्ध में पाश्चात्य विज्ञानियों की मान्यता यह है कि आकाश तत्व का रंग नीला, अग्नि का लाल, जल का हरा, वायु का पीला और पृथ्वी का भूरा-मटमैला सफेद है। शरीर में जिस तत्व की कमी पड़ती है या बढ़ोत्तरी होती है उसका अनुमान अंगों के अथवा मलों के स्वाभाविक रंगों में परिवर्तन देखकर लगाया जा सकता है। त्वचा तो नस्ल के हिसाब से काली, पीली, सफेद या लाल रहती है, पर उसके पीछे भी रंगों के उतार-चढ़ाव झाँकते रहते हैं। साधारण स्थिति में त्वचा का जो रंग था उसमें तत्वों के परिवर्तन के अनुपात से परिवर्तन आ जाता है। यह हेर-फेर हाथ-पैरों के नाखूनों में, जीभ में, आँख की पुतलियों में अधिक स्पष्टता के साथ देखा जा सकता है। इसलिए शरीर में होने वाले तत्वों की न्यूनाधिकता को इन्हें देखकर आसानी से समझा जा सकता है मल-मूत्र में भी यह अन्तर दिखाई पड़ता है। सन्तुलित स्थिति में पेशाब साधारण स्वच्छ जल की तरह होगा, पर यदि कोई बीमारी होगी तो उसका रंग बदलेगा। डाक्टर मल-मूत्र रक्त आदि का रासायनिक विश्लेषण करके अथवा उनमें पाये जाने वाले विषाणुओं को देखकर रोग का निर्णय करता है तत्ववेत्ता अपने ढंग से जब तत्व चिकित्सा करते हैं तो यह पता लगाते हैं कि शरीर के आधार पंच तत्वों में से किसकी कितनी मात्रा घटी-बड़ी है। यह जानने के लिए उन्हें रंगों का शरीर में जो हेर-फेर हुआ है उसे देखना पड़ता है। तत्ववेत्ता मन: शास्त्रियों को अपनी दिव्यदृष्टि इतनी विकसित करनी पड़ती है कि मनुष्य के चेहरे के इर्द-गिर्द विद्यमान तेजोबलय की आभा को देख सकें और उसमें रंगों की दृष्टि से क्या परिवर्तन हुआ है इसे समझ सकें।
मानवीय विद्युत की ऊर्जा शरीर के हर अंग में रहती है और वह बाह्य जगत से सम्बन्ध मिलाने के लिए त्वचा के परतों में अधिक सक्रिय रहती है। शरीर का कोई भी अंग स्पर्श किया जाय उसमें तापमान की ही तरह विद्युत ऊर्जा का अनुभव किया जायेगा। यह ऊर्जा सामान्य बिजली की तरह उतना स्पष्ट झटका नहीं मारती या मशीनें चलाने के काम नहीं आती फिर भी अपने कार्यों को सामान्य बिजली की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह सम्पन्न करती है।
मस्तिष्क स्पष्टत: एक जीता जागता बिजलीघर है। समस्त काया में बिखरे पड़े अगणित तन्तुओं में संवेदना सम्बन्ध बनाये रहने, उन्हें काम करने की प्रेरणा देने में मस्तिष्क को भारी मात्रा में बिजली खर्च करनी पड़ती है। उसका उत्पादन भी खोपड़ी के भीतर ही होता है ! अधिक समीपता के कारण अधिक मात्रा में बिजली उपलब्ध हो सके, इसीलिए प्रकृति ने महत्त्वपूर्ण ज्ञानेन्द्रियाँ सिर के साथ जोड़कर रखी हैं। आँख, कान, नाक, जीभ जैसी महत्त्वपूर्ण ज्ञानेन्द्रियाँ गरदन से ऊपर ही हैं। इस शिरो भाग में सबसे अधिक विद्युत मात्रा रहती है इसलिए तत्त्वदर्शी आँखें हर मनुष्य के शिर के इर्द-गिर्द प्राय डेढ़ फुट के घेरे में एक तेजोवलय का प्रकाश लाल गोल घेरा चमकता देख सकती हैं। देवताओं के चित्रों में उनके चेहरे के इर्द-गिर्द एक सूर्य जैसा प्रकाश गोलक बिखरा दिखाया जाता है। इस इस अलकांर चित्रण में तेजोबलय की अधिक मात्रा का आभास मिलता है। अधिक तेजस्वी और मनस्वी व्यक्तियों में स्पष्टत: यह मात्रा अधिक होती है उसी के सहारे वे दूसरों को प्रभावित करने मंय समर्थ होते हैं।