4 धाम यात्रा इस तरह होती है सफल: केवल 2 धामों की यात्रा उचित नही
चार धाम अवश्य #4धाम; यमनोत्री तथा गंगोत्री के जल से केदार नाथ जी का जलाभिषेक का महात्म है, फिर बद्रीनाथ #सबसे पहले यमुनोत्री (यमुना) और गंगोत्री (गंगा) का दर्शन करते हैं #यहां से पवित्र जल लेकर श्रद्धालु केदारेश्वर पर जलाभिषेक करते हैं# फिर अंत में ब्रद्रीनाथ जी के दर्शन का महात्म है- केवल एक धाम की यात्रा कर वापस लौटना उचित नही- 2 धाम शिव तथा ब्रदीनाथ जी तथा 2 धाम देवी के है- वीआईपी अक्सर ब्रदीनाथ या केदारनाथ जी के दर्शन कर वापस लौट जाते हैं, तथा देवी के धाम में जाना उचित नही समझते- इस तरह अपूर्ण यात्रा करना उचित नही है- 4 धामों का महात्म पूर्ण नही होता- 4 धाम यात्रा इस तरह होती है सफल: अपूर्ण दर्शन/यात्रा शुभ नही ; इस स्थान के संबंध में यह भी कहा जाता है कि यह वही स्थल है जहां पृथ्वी और स्वर्ग एकाकार होते है; धर्मग्रंथों में कहा गया है कि जो पुण्यात्मा यहां का दर्शन करने में सफल होते हैं उनका न केवल इस जनम का पाप धुल जाता है वरन वे जीवन-मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाते हैं। तीर्थयात्री इस यात्रा के दौरान सबसे पहले यमुनोत्री (यमुना) और गंगोत्री (गंगा) का दर्शन करते हैं। यहां से पवित्र जल लेकर श्रद्धालु केदारेश्व्र पर जलाभिषेक करते हैं।
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केदारनाथ (शिव मंदिर) बद्रीनाथ (विष्णु मंदिर) जबकि यमुनोत्री एवं गंगोत्री (देवी मंदिर) ; यह चारों धाम हिंदू धर्म में अपना अलग और महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनको चार धाम के नाम से भी जाना जाता हैं। धर्मग्रंथों में कहा गया है कि जो पुण्यात्मा यहां का दर्शन करने में सफल होते हैं उनका न केवल इस जनम का पाप धुल जाता है वरन वे जीवन-मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाते हैं। इस स्थान के संबंध में यह भी कहा जाता है कि यह वही स्थल है जहां पृथ्वी और स्वर्ग एकाकार होते हैं। तीर्थयात्री इस यात्रा के दौरान सबसे पहले यमुनोत्री (यमुना) और गंगोत्री (गंगा) का दर्शन करते हैं। यहां से पवित्र जल लेकर श्रद्धालु केदारेश्वर पर जलाभिषेक करते हैं। प्राचीन पुराणों के अनुसार ये चारों धामों भगवान शिव तथा भगवान विष्णु की आराधना के स्थल हैं तथा देश की प्राचीन संस्कृति और परंपरा से जुड़े हुए हैं। हिंदू मान्यताओं के अनुसार इन तीर्थस्थलों के दर्शन से व्यक्ति के समस्त पाप कट जाते हैं तथा मृत्योपरांत मोक्ष की प्राप्ति होती है। उत्तराखंड के खूबसूरत पहाड़ों में हर साल गर्मियों के महीनों में चारधाम यात्रा का आयोजन होता है। – चारों स्थलों को काफी पवित्र माना जाता है। चारों धामों की यात्रा का हिन्दुओं में काफी महत्व है। माना जाता है कि इन चारधामों की यात्रा करने वाले श्रद्धालु के समस्त पाप धुल जाते हैं और आत्मा को जीवन-मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिल जाती है।
इन तीर्थयात्रियों के लिए परंपरागत मार्ग इस प्रकार है -:इन तीर्थयात्रियों के लिए परंपरागत मार्ग इस प्रकार है -:हरिद्वार – ऋषिकेश – देव प्रयाग – टिहरी – धरासु – यमुनोत्री – उत्तरकाशी – गंगोत्री – त्रियुगनारायण – गौरिकुंड – केदारनाथ.यह मार्ग परंपरागत हिंदू धर्म में होनेवाले पवित्र परिक्रमा के समान है। जबकि केदारनाथ जाने के लिए दूसरा मार्ग ऋषिकेश से होते हुए देवप्रयाग, श्रीनगर, रूद्रप्रयाग, अगस्तमुनी, गुप्तकाशी और गौरिकुंड से होकर जाता है। केदारनाथ के समीप ही मंदाकिनी का उद्गम स्थल है। मंदाकिनी नदी रूद्रप्रयाग में अलकनंदा नदी में जाकर मिलती है।
चार धाम यात्रा की उत्पत्ति के संबंध में कोई निश्चित मान्यता या साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। लेकिन चार धाम भारत के चार धार्मिक स्थलों का एक समूह है। इस पवित्र परिधि के अंतर्गत भारत के चार दिशाओं के महत्वपूर्ण मंदिर आते हैं। ये मंदिरें हैं- पुरी, रामेश्वरम, द्वारका और बद्रीनाथ इन मंदिरों को 8वीं शदी में आदि शंकराचार्य ने एक सूत्र में पिरोया था। इन चारों मंदिरों में से किसको परम स्थान दिया जाए इस बात का निर्णय करना नामुमकिन है। लेकिन इन सब में बद्रीनाथ सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और अधिक तीर्थयात्रियों द्वारा दर्शन करने वाला मंदिर है।
इसके अलावा हिमालय पर स्थित छोटा चार धाम (जिसकी चर्चा चार धाम यात्रा में आगे की जाएगी) मंदिरों में भी बद्रीनाथ ज्यादा महत्व वाला और लोकप्रिय है। इस छोटे चार धाम में बद्रीनाथ के अलावा केदारनाथ (शिव मंदिर), यमुनोत्री एवं गंगोत्री (देवी मंदिर) शमिल हैं। यह चारों धाम हिंदू धर्म में अपना अलग और महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
तीर्थ से ही वैराग्य और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। तीर्थ यात्रा का समय संक्रांति के बाद माना गया है जबकि सुर्य उत्तरायण होता है। तीर्थ में सबसे प्रमुख कैलाश मानसरोवर को माना गया है। इसके बाद क्रमश: चार धाम, द्वादश ज्योतिर्लिंग, शक्तिपीठ, सप्तपुरी का नंबर आता है। हिंदू धर्म में कैलाश मानसरोवर और चार धाम की यात्रा का ही महत्व माना गया है। इनकी यात्रा करते हुए ज्योतिर्लिंग व सप्तपुरियों की यात्रा स्वत: ही हो जाती है। इसके अलावा अन्य किसी तीर्थ की यात्रा करना या नहीं करना अपनी-अपनी श्रद्धा का मामला है, किंतु चार धाम अवश्य करना चाहिए।
1.कैलाश मानसरोवर।
2.चार धाम : बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम, जगन्नाथ पुरी।
3.द्वादश ज्योतिर्लिंग : सोमनाथ, द्वारका, महाकालेश्वर, श्रीशैल, भीमाशंकर, ॐकारेश्वर, केदारनाथ विश्वनाथ, त्र्यंबकेश्वर, रामेश्वरम, घृष्णेश्वर, बैद्यनाथ।
4.बावन शक्तिपीठ : हिंगुल या हिंगलाज (पाकिस्तान), शर्कररे (करवीर-कराची-पाकिस्तान), सुगंधा-सुनंदा (शिकारपुर बांग्लादेश), महामाया (अमरनाथ के पास कश्मीर-भारत), सिद्धिदा अंबिका ज्वालादेवीजी (कांगड़ा-हिमाचल ), त्रिपुरमालिनी भीषण (जालंधर-पंजाब-भारत), जय दुर्गा बैद्यनाथधाम (देवघर-झारखंड), महशिरा गुजयेश्वरी मंदिर (काडमांडू-नेपाल), मानस दाक्षायणी (मनसा, मानसरोवर-तिब्बत), विरजा- विरजाक्षेत्र (ओड़िसा-भारत गण्डकी चण्डी चक्रपाणि (पोखरा, गंडक नदी-नेपाल), बहुला चंडिका (वर्धमान-पश्चिाम बंगाल-भारत), मंगल चंद्रिका (उज्जैन-मध्यप्रदेश-भारत), त्रिपुर सुंदरी (उदरपुर-त्रिपुरा-भारत), छत्राल चट्टल भवानी (चंद्रनाथ पर्वत-चटगांव-बांग्लादेश), त्रिस्रोत भ्रामरी (जलपाइगुड़ी-पश्चिनम बंगाल-भारत), कामगिरि कामाख्या (गुवाहटी-नीलांचल पर्वत-असम-भारत), ललिता (प्रयाग-उत्तर प्रदेश-भारत), जयंती (सिल्हैट जयंतीया- जयंती (सिल्हैट जयंतीया- बांग्लादेश), युगाद्या- भूतधात्री (वर्धमान जिला खीरग्राम स्थित जुगाड्या पश्चि्म बंगाल भारत), कालिका कालीपीठ (कोलकाता-पश्चिम बंगाल-भारत), किरीट- विमला भुवनेशी (मुर्शीदाबाद जिला किरीटकोण ग्राम पश्चिम बंगाल भारत), मणिकर्णिका विशालाक्षी (वाराणसी-उत्तर प्रदेश-भारत), श्रवणी-सर्वाणी (कन्याश्रम-अज्ञात स्थान), सावित्री (हरियाणा-कुरुक्षेत्र -भारत), गायत्री (पुष्कर-राजस्थान-भारत), श्रीशैल महालक्ष्मी (सिल्हैट जिला-जौनपुर ग्राम-बांग्लादेश), कांची देवगर्भ (वीरभूमि जिला-बोलापुर स्टेशन-कोपई नदी-पश्चिशम बंगाल-भारत), काली (अमरकंटक-कालमाधव-शोन नदी-मध्यप्रदेश- भारत), शोणाक्षी नर्मदा (अमरकंटक-शोणदेश-मध्यप्रदेश-भारत), शिवानी (चित्रकूट-रामगिरि-उत्तर प्रदेश-भारत), उमा (वृंदावन-भूतेश्वर-उत्तर प्रदेश- भारत), शुचि नारायणी (कन्याकुमारी-तिरुवनंतपुरम मार्ग-शुचितीर्थम-तमिलनाडु भारत), वाराही (पंचसागर-अज्ञात स्थान), अर्पण (शेरपुर बागुरा स्टेशन-भवानीपुर ग्राम-करतोया तट-बांग्लादेश), श्रीसुंदरी (श्रीपर्वत-लद्दाख-जम्मू और कश्मीर-भारत), कपालिनी भीमरूप (मेदिनीपुर-तामलुक – विभाष-पश्चिम बंगाल-भारत), चंद्रभागा (जूनागढ़-सोमनाथ-वेरागल-प्रभाष-गुजरात-भारत), अवंति (उज्जैन-भैरवपर्वत-क्षिप्रा नदी-मध्य प्रदेश-भारत), भ्रामरी (नासिक-जनस्थान-गोदावरी नदी-महाराष्ट्र-भारत), सर्वशैल राकिनी (राजामुंद्री-गोदावरी नदी तट-सर्वशैल-आंध्रप्रदेश-भारत), विश्वेश्वरी (गोदावरीतीर-भारत), रत्नावली कुमारी (हुगली जिला-खानाकुल-कृष्णानगर मार्ग-रत्नाकर नदी तट-पश्चिेम बंगाला-भारत), उमा महादेवी (जनकपुर- मिथिला-भारत-नेपाल सीमा), कालिका तारापीठ (वीरभूमि जिला- नलहाटि स्टेशन-पश्चिवम बंगाल-भारत), कर्नाट जयदुर्गा (कर्नाट अज्ञात स्थान), महिषमर्दिनी (वीरभूमि जिला-दुबराजपुर स्टेशन-पापहर नदी तट वक्रेश्वर-पश्चिम बंगाल-भारत), यशोरेश्वरी (खुलना जिला-ईश्व रीपुर-यशोर-बांग्लादेश), अट्टहास फुल्लरा (लाभपुर स्टेशन-अट्टहास-पश्चिाम बंगाल -भारत), नंदिनी (वीरभूमि जिला-सैंथिया रेलवे स्टेशन-नंदीपुर-चारदीवारी-पश्चिरम बंगाल- भारत), इंद्रक्षी (त्रिंकोमाली-श्रीलंका), विराट- अंबिका (अज्ञात स्थान), सर्वानन्दकरी (मगध-बिहार-भारत)।
5.सप्तपुरी : काशी, मथुरा, अयोध्या, द्वारका, माया, कांची और अवंति (उज्जैन)।
6. अन्य तीर्थ : दुर्गा के प्रमुख तीर्थ :-
चार धाम की यात्रा करते समय हो सकता है कि ज्यादातर लोगों को यह नहीं मालूम हो कि ये चारों धाम कहां हैं और इनकी यात्रा का महत्व क्या है। हाल ही के प्रचार माध्य म के चलते उत्तराखंड में गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा को ही चार धाम की यात्रा माना जा रहा है जबकि इन चारों की यात्रा करना तो एक धाम की यात्रा ही कहलाती है। बद्रीनाथ में तीर्थयात्रियों की अधिक संख्या और इसके उत्तर भारत में होने के कारण यहां के वासी इसी की यात्रा को ज्यादा महत्व देते हैं इसीलिए इसे छोटा चार धाम भी कहा जाता है। इस छोटे चार धाम में बद्रीनाथ के अलावा केदारनाथ (शिव ज्योतिर्लिंग), यमुनोत्री (यमुना का उद्गम स्थल) एवं गंगोत्री (गंगा का उद्गम स्थल) शामिल हैं। हिमालय के शिखर पर स्थित बद्रीनाथ मंदिर हिन्दुओं की आस्था का बहुत बड़ा केंद्र है। यह चार धामों में से एक है। बद्रीनाथ मंदिर उत्तराखंड राज्य में अलकनंदा नदी के किनारे बसा है। यह मंदिर भगवान विष्णु के रूप में बद्रीनाथ को समर्पित है। बद्रीनाथ मंदिर को आदिकाल से स्थापित और सतयुग का पावन धाम माना जाता है। इसकी स्थापना मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने की थी। बद्रीनाथ के दर्शन से बद्रीनाथ के दर्शन से पूर्व केदारनाथ के दर्शन करने का महात्म्य माना जाता है। बद्रीनाथ मंदिर के कपाट अप्रैल के अंत या मई के प्रथम पखवाड़े में दर्शन के लिए खोल दिए जाते हैं। लगभग 6 महीने तक पूजा- अर्चना चलने के बाद नवंबर के दूसरे सप्ताह में मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं।
बांदरपूंछ के पश्चिमी छोर पर पवित्र यमुनोत्री का मंदिर स्थित है। परंपरागत रूप से यमुनोत्री चार धाम यात्रा का पहला पड़ाव है। janki चट्टी से 6 किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ने के बाद यमुनोत्री पहुंचा जा सकता है। यहां पर स्थित यमुना मंदिर का निर्माण जयपुर की महारानी गुलेरिया ने 19वीं शताब्दि में करवाया था। यह मंदिर (3,291 मी.) बांदरपूंछ चोटि (6,315 मी.) के पश्चिमी किनारे पर स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यमुना सूर्य की बेटी थी और यम उनका बेटा था। यही वजह है कि यम अपने बहन यमुना में श्रद्धापूर्वक स्नान किए हुए लोगों के साथ सख्ती नहीं बरतता है। यमुना का उदगम स्थल यमुनोत्री से लगभग एक किलोमीटर दूर ४,४२१ मीटर की ऊंचाई पर स्थित यमुनोत्री ग्लेशियर है।
यमुनोत्री मंदिर के समीप कई गर्म पानी के सोते हैं जो विभिन्न पूलों से होकर गुजरती है। इनमें से सूर्य कुंड प्रसिद्ध है। कहा जाता है अपनी बेटी को आर्शीवाद देने के लिए भगवान सूर्य ने गर्म जलधारा का रूप धारण किया। श्रद्धालु इसी कुंड में चावल और आलू कपड़े में बांधकर कुछ मिनट तक छोड़ देते हैं, जिससे यह पक जाता है। तीर्थयात्री पके हुए इन पदार्थों को प्रसादस्वरूप घर ले जाते हैं। सूर्य कुंड के नजदीक ही एक शिला है जिसको ‘दिव्य शिला’के नाम से जाना जाता है। तीर्थयात्री यमुना जी की पूजा करने से पहले इस दिव्य शिला का पूजन करते हैं।
इसके नजदीक ही ‘जमुना बाई कुंड’ है, जिसका निर्माण आज से कोई सौ साल पहले हुआ था। इस कुंड का पानी हल्का गर्म होता है जिसमें पूजा के पहले पवित्र स्नान किया जाता है। यमुनोत्री के पुजारी और पंडा पूजा करने के लिए गांव खरसाला से आते हैं जो जानकी बाई चट्टी के पास है। यमुनोत्री मंदिर नवंबर से मई तक खराब मौसम की वजह से बंद रहता है।
मंदिर के खुलने का समय: मंदिर अक्षय तृतीया (मई) को खुलता है और यामा द्वितीया या भाई दूज या दीवाली के दो दिन बाद (नवंबर) को बंद होता है। मंदिर सुबह 6 बजे से लेकर शाम 8 बजे तक खुला रहता है। आरती सुबह में 6:30 बजे और शाम में 7:30 बजे होती है। साथ ही जन्माष्टमि और दिवाली के अवसर पर विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है।
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गंगोत्री समुद्र तल से ९,९८० (३,१४० मी.) फीट की ऊंचाई पर स्थित है। गंगोत् से ही भागीरथी नदी निकलती है। गंगोत्री भारत के पवित्र और आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण नदी गंगा का उद्गगम स्थल भी है। गंगोत्री में गंगा को भागीरथी के नाम से जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा भागीरथ के नाम पर इस नदी का नाम भागीरथी रखा गया। कथाओं में यह भी कहा गया है कि राजा भागीरथ ने ही तपस्या करके गंगा को पृथ्वी पर लाए थे। गंगा नदी गोमुख से निकलती है।
पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि सूर्यवंशी राजा सागर ने अश्वमेध यज्ञ कराने का फैसला किया। इसमें इनका घोड़ा जहां-जहां गया उनके ६०,००० बेटों ने उन जगहों को अपने आधिपत्य में लेता गया। इससे देवताओं के राजा इंद्र चिंतित हो गए। ऐसे में उन्होंने इस घोड़े को पकड़कर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। राजा सागर के बेटों ने मुनिवर का अनादर करते हुए घोड़े को छुड़ा ले गए। इससे कपिल मुनि को काफी दुख पहुंचा। उन्होंने राजा सागर के सभी बेटों को शाप दे दिया जिससे वे राख में तब्दील हो गए। राजा सागर के क्षमा याचना करने पर कपिल मुनि द्रवित हो गए और उन्होंने राजा सागर को कहा कि अगर स्वर्ग में प्रवाहित होने वाली नदी पृथ्वी पर आ जाए और उसके पावन जल का स्पर्श इस राख से हो जाए तो उनका पुत्र जीवित हो जाएगा। लेकिन राजा सागर गंगा को जमीन पर लाने में असफल रहे। बाद में राजा सागर के पुत्र भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में सफलता प्राप्त की। गंगा के तेज प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए भागीरथ ने भगवान शिव से निवेदन किया। फलत: भगवान शिव ने गंगा को अपने जटा में लेकर उसके प्रवाह को नियंत्रित किया। इसके उपरांत गंगा जल के स्पर्श से राजा सागर के पुत्र जीवित हुए।
ऐसा माना जाता है कि १८वीं शताबादि में गोरखा कैप्टन अमर सिंह थापा ने आदि शंकराचार्य के सम्मान में गंगोत्री मंदिर का निर्माण किया था। यह मंदिर भागीरथी नदी के बाएं किनारे पर स्थित सफेद पत्थरों से निर्मित है। इसकी ऊंचाई लगभग २० फीट है। मंदिर बनने के बाद राजा माधोसिंह ने १९३५ में इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया। फलस्वरूप मंदिर की बनावट में राजस्थानी शैली की झलक मिल जाती है। मंदिर के समीप ‘भागीरथ शिला’ है जिसपर बैठकर उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए कठोर तपस्या की थी। इस मंदिर में देवी गंगा के अलावा यमुना, भगवान शिव, देवी सरस्वती, अन्नपुर्णा और महादुर्गा की भी पूजा की जाती है।
हिंदू धर्म में गंगोत्री को मोक्षप्रदायनी माना गया है। यही वजह है कि हिंदू धर्म के लोग चंद्र पंचांग के अनुसार अपने पुर्वजों का श्राद्ध और पिण्ड दान करते हैं। मंदिर में प्रार्थना और पूजा आदि करने के बाद श्रद्धालु भगीरथी नदी के किनारे बने घाटों पर स्नान आदि के लिए जाते हैं। तीर्थयात्री भागीरथी नदी के पवित्र जल को अपने साथ घर ले जाते हैं। इस जल को पवित्र माना जाता है तथा शुभ कार्यों में इसका प्रयोग किया जाता है। गंगोत्री से लिया गया गंगा जल केदारनाथ और रामेश्वरम के मंदिरों में भी अर्पित की जाती है।
मंदिर का समय: सुबह 6.15 से 2 बजे दोपहर तक और अपराह्न 3 से 9.30 तक (गर्मियों में)। सुबह 6.45 से 2 बजे दोपहर तक और अपराह्न 3 से 7 बजे तक (सर्दियों में)।
मंदिर अक्षय तृतीया (मई) को खुलती है और यामा द्वितीया को बंद होती है। मंदिर की गतिविधि तड़के चार बजे से शुरू हो जाती है। सबसे पहले ‘उठन’ (जागना) और ‘श्रृंगार’ की विधि होती है जो आम लोगों के लिए खुला नहीं होता है। सुबह 6 बजे की मंगल आरती भी बंद दरवाजे में की जाती है। 9 बजे मंदिर के पट को ‘राजभोग’ के लिए 10 मिनट तक बंद रखा जाता है। सायं 6.30 बजे श्रृंगार हेतु पट को 10 मिनट के लिए एक बार फिर बंद कर दिया जाता है। इसके उपरांत शाम 8 बजे राजभोग के लिए मंदिर के द्वार को 5 मिनट तक बंद रखा जाता है। ऐसे तो संध्या आरती शाम को 7.45 बजे होती है लेकिन सर्दियों में 7 बजे ही आरती करा दी जाती है। तीर्थयात्रियों के लिए राजभोग, जो मीठे चावल से बना होता है, उपलब्ध रहता है (उपयुक्त शुल्क अदा करने के बाद)।
तीर्थयात्री प्राय: गनगनानी के रास्ते गंगोत्री जाते हैं। यह वही मार्ग है जिसपर पराशर मुनि का आश्रम था जहां वे गर्म पानी के सोते में स्नान करते थे। गंगा के पृथ्वी आगमन पर (गंगा सप्तमी) वैसाख (अप्रैल) में विशेष श्रृंगार का आयोजन किया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार जिस दिन भगवान शिव ने भागिरथी नदी को भागीरथ को प्रस्तुत किया था उस दिन को (ज्येष्ठ, मई) गंगा दशहरा पर्व के रूप में मनाया जाता है। इसके अलावा जन्माष्टमि, विजयादशमी और दिपावली को भी गंगोत्री में विशेष रूप से मनाया जाता है।
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केदारनाथ समुद्र तल से 11,746 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह मंदाकिनी नदी के उद्गगम स्थल के समीप है। यमुनोत्री से केदारनाथ के ज्योतिर्लिंग पर जलाभिषेक को हिंदू धर्म में पवित्र माना जाता है। वायुपुराण के अनुसार भगवान विष्णु मानव जाति की भलाई के लिए पृथ्वि पर निवास करने आए। उन्होंने बद्रीनाथ में अपना पहला कदम रखा। इस जगह पर पहले भगवान शिव का निवास था। लेकिन उन्होंने नारायण के लिए इस स्थान का त्याग कर दिया और केदारनाथ में निवास करने लगे। इसलिए पंच केदार यात्रा में केदारनाथ को अहम स्थान प्राप्त है। साथ ही केदारनाथ त्याग की भावना को भी दर्शाता है।
यह वही जगह है जहां आदि शंकराचार्य ने 32 वर्ष की आयु में समाधि में लीन हुए थे। इससे पहले उन्होंने वीर शैव को केदारनाथ का रावल (मुख्य पुरोहित) नियुक्त किया था। वर्तमान में केदारनाथ मंदिर 337वें नंबर के रावल द्वारा उखीमठ, जहां जाड़ों में भगवान शिव को ले जाया जाता है, से संचालित हो रहा है। इसके अलावा गुप्तकाशी के आसपास निवास करनेवाले पंडित भी इस मंदिर के काम-काज को देखते हैं। प्रशासन के दृष्टिकोण इस स्थान को इन पंडितों के मध्य विभिन्न भागों में बांट दिया गया है। ताकि किसी प्रकार की परेशानी पैदा न हो।
केदारनाथ मंदिर न केवल आध्यात्म के दृष्टिकोण से वरन स्थापत्य कला में भी अन्य मंदिरों से भिन्न है। यह मंदिर कात्युरी शैली में बना हुआ है। यह पहाड़ी के चोटि पर स्थित है। इसके निर्माण में भूरे रंग के बड़े पत्थरों का प्रयोग बहुतायत में किया गया है। इसका छत लकड़ी का बना हुआ है जिसके शिखर पर सोने का कलश रखा हुआ है। मंदिर के बाह्य द्वार पर पहरेदार के रूप में नंदी का विशालकाय मूर्ति बना हुआ है।
केदारनाथ मंदिर को तीन भागों में बांटा गया है – पहला, गर्भगृह। दूसरा, दर्शन मंडप, यह वह स्थान है जहां पर दर्शानार्थी एक बड़े से हॉल में खड़ा होकर पूजा करते हैं। तीसरा, सभा मण्डप, इस जगह पर सभी तीर्थयात्री जमा होते हैं। तीर्थयात्री यहां भगवान शिव के अलावा ऋद्धि सिद्धि के साथ भगवान गणेश, पार्वती, विष्णु और लक्ष्मी, कृष्ण, कुंति, द्रौपदि, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की पूजा अर्चना भी की जाती है।
केदारनाथ मंदिर के खुलने का समय निर्धारित नहीं रहता है। हर साल शिवरात्री की तिथि के अनुसार पंच पुरोहित के द्वारा उखीमठ में इस बात का फैसला किया जाता है कि मंदिर कब खुलेगी। मंदिर यामा द्वितीया या भाई दूज के दिन बंद हो जाता है। जाड़ों में मंदिर का द्वार बंद हो जाने के बाद वहां कोई नहीं रहता है। पंडा लोग गुप्तकाशी में और रावल उखीमठ में निवास करते हैं। मंदिर 6 बजे पुर्वाह्न से दो बजे अपराह्न तक खुला रहता है। पुन: पांच से लेकर आठ बजे सायं तक मंदिर खुला रहता है।
केदारनाथ में विशेष पूजा का भी आयोजन किया जाता है। यह अमूमन सुबह चार से छह बजे तक होती है। लेकिन ज्यादा भीड़ होने पर आधी रात के बाद भी विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। दर्शानार्थी 20 वर्षों में एक बार होनेवाले विशेष पूजा के लिए भी अपनी व्यवस्था करवा सकते हैं। इसके लिए उनको भारतीय स्टेट बैंक, उखीमठ के नाम से अपेक्षित ड्राफ्ट गौरि माई मंदिर, उखीमठ, जिला-रूद्रप्रयाग, उत्तरांचल के नाम पर पोस्ट करना होता है।
::पौराणिक कथाओं में यह उल्लिखित है कि पीडि़त मानवता को बचाने के लिए जब देवी गंगा ने पृथ्वी पर आना स्वीकार किया तो हलचल मच गई, क्योंकि पृथ्वी गंगा के प्रवाह को सहन करने में असमर्थ थी। फलत: गंगा ने खुद को १२ भागों में विभाजित कर लिया। इन्हीं में से अलकनंदा भी एक है जो बाद में भगवान विष्णु का निवास स्थान बना जिसको बद्रीनाथ के नाम से जाना जाता है। बद्रीनाथ ‘पंच बद्री’ में एक है।
बद्रीनाथ नर और नारायण पर्वतों के मध्य स्थित है, जो समुद्र तल से १०,२७६ फीट (३,१३३मी.) की ऊंचाई पर स्थित है। अलकनंदा नदी इस मंदिर की खूबसुरती में चार चांद लगाती है। ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु इस स्थान ध्यनमग्न रहते हैं। लक्ष्मीनारायण को छाया प्रदान करने के लिए देवी लक्ष्मी ने बैर (बदरी) के पेड़ का रूप धारण किया। लेकिन वर्तमान में बैर का पेड़ तो बहुत कम मात्रा में देखने को मिलता है लेकिन बद्रीनारायण अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है। नारद जो इन दोनों के अनन्य भक्त हैं उनकी आराधना भी यहां की जाती है।
कालांतर में जो मंदिर बना हुआ है उसका निर्माण आज से ठीक दो शताब्दी पहले गढ़वाल राजा के द्वारा किया गया था। यह मंदिर शंकुधारी शैली में बना हुआ है। इसकी ऊंचाई लगभग १५ मीटर है। जिसके शिखर पर गुंबज है। इस मंदिर में १५ मूर्तियां हैं। मंदिर के गर्भगृह में विष्णु के साथ नर और नारायण ध्यान की स्थिति में विराजमान हैं। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण वैदिक काल में हुआ था जिसका पुनरूद्धार बाद में आदि शंकराचार्य ने 8वीं शदी में किया। इस मंदिर में नर और नारायण के अलावा लक्ष्मी, शिव-पार्वती और गणेश की मूर्ति भी है।
भू-स्खलन के कारण यह मंदिर अक्सर क्षतिग्रस्त हो जाता है। इस वजह से इसका आधुनिकीकरण भी बार-बार किया गया है। लेकिन सिंह द्वार जो इस मंदिर का मुख्य द्वार भी है, इसके बन जाने के बाद इसकी खूबसूरती में चार चांद लग गया है। इस मंदिर के तीन भाग हैं- गर्भगृह, दर्शन मंडप (पूजा करने का स्थान) और सभा गृह (जहां श्रद्धालु एकत्रित होते हैं)। वेदों और ग्रंथों में बद्रीनाथ के संबंध में कहा गया है कि, ‘स्वर्ग और पृथ्वी पर अनेक पवित्र स्थान हैं, लेकिन बद्रीनाथ इन सभी में अग्रगण्य है।’