चीन के दगाबाजी का इतिहास- इसके बाद भी उसके साथ कारोबारी रिश्तों को परवान चढाना-

चीन के दगाबाजी का इतिहास जानते हुए भी हम उसके साथ कारोबारी रिश्तों को परवान पर चढ़ाए बैठे हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध में हिरोशिमा-नागासाकी में परमाणु विध्वंस के बाद से ही युद्धपिपासुओं में यह विचार शुरू हो गया था कि क्या ऐसा कोई हथियार ईजाद नहीं हो सकता जिससे मनुष्य तो मर जाएं, लेकिन उसकी दौलत बची रहे।

हिमालयायूके न्‍यूज पोर्टल की प्रस्‍तुति-

चीन का अमोघ अस्त्र है कोरोना हिरोशिमा-नागासाकी में परमाणु विध्वंस के बाद से ही यह विचार शुरू हो गया था कि क्या ऐसा कोई हथियार ईजाद नहीं हो सकता जिससे मनुष्य तो मर जाएं, लेकिन उसकी दौलत बची रहे। हाइड्रोजन बम व अन्य रासायनिक और जैविक हथियारों की बातें सामने आ रही थीं। क्या चीनी वायरस कोरोना इसी विचार की उपज है? क्या चीन सुन त्जू के विचारों को चरितार्थ करते हुए बिना युद्ध विश्वविजय पर निकला है?

 जयराम शुक्ल चीन में एक दार्शनिक थे सुन त्जू। बहुत पहले वहां के शासकों को एक मंत्र दिया था, युद्ध के बगैर शत्रु को हराना ही सबसे उत्तम कला है और यह कला आर्थिक ताकत से सधती है। कोरोना ने जिस तरह विश्व की अर्थव्यवस्था को निपटाया है उससे यह लगने लगा है कि चीन ने बाबा सुन त्जू के विचार को चरितार्थ करने के लिए अपनी प्रयोगशाला से वायरस का अमोघास्त्र तैयार किया है। उधर लाॅकडाउन में फंसी दुनिया मौत के आंकड़े का हिसाब लगा रही इधर चीन के कारखाने पीपी किट्स, सेनेटाइजर और मास्क बना रहे हैं। साम्यवादी चीन का आर्थिक साम्राज्यवाद ठीक वैसे ही अहंकार के चरम पर है जैसे कि सोने की लंका के अधिपति रावण का था। चीन ने नैतिकता और मान मर्यादा को ताक पर रख दिया है। आज जहां दुनिया की अर्थव्यवस्था व्यवस्था चरमराकर ध्वस्त होने के करीब है वहीं चीन कोरोना वायरस फैलाने के साथ ही उसके इलाज और उपकरणों की तिजारत कर रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स की माने तो वुहान की प्रयोगशाला से कोरोना वायरस के निकलने से पहले ही वह इसके इलाज के उपकरणों से जुड़े कारखानों की श्रृंखला खड़ी कर दी थी और उसके गोदाम ऐसे उत्पादों से भर चुके थे। एक उदाहरण है। इस काल में जहां मुकेश अंबानी को 5.8 अरब डालर का नुकसान हुआ वहीं आनलाइन शापिंग अलीबाबा का मालिक जैक मां दो महीने के भीतर ही एशिया का शीर्ष पूंजीपति बन बैठा। अलीबाबा आज की तारीख में कोरोना की चिकित्सा से जुड़े उपकरणों की आपूर्ति का सबसे बड़ा आनलाइन शापिंग प्लेटफार्म है।

चीन के दगाबाजी का इतिहास जानते हुए भी हम उसके साथ कारोबारी रिश्तों को परवान पर चढ़ाए बैठे हैं। चीन भारत के साथ 60 अरब डालर का सालाना करोबार करता है जबकि भारत का चीन के साथ महज 10 अरब डालर का व्यवसाय होता है। जब हम स्वदेशी की बात करते हैं तभी वह दीपावली में हमें मिट्टी के दीये भेज देता है। हमारे छोटे कुटीर उद्योगों पर बेरहम मार यदि किसी की है तो चीन की है। अब तो फल-फूल, तरकारी भी वहां से आने लगी है। कोरोना महामारी को वह अपने आर्थिक साम्राज्य के विस्तार के लिए सुअवसर की तरह देख रहा है। शैतानियत भरी चतुराई के साथ विश्व भर को करोना बांट चुका चीन अब स्वयं लाॅकडाउन से बाहर है। वुहान के कारखाने चल रहे हैं। फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड, इटली, स्पेन जैसी आर्थिक शक्तियां घुटनों के बल पर हैं। दुनिया सदी की सबसे भीषण मंदी के मुहाने पर बैठा है और चीन रावण की तरह बेशर्म अट्टहास कर रहा है। नोट करने वाली बात है कि वायरस की चपेट में सबसे ज्यादा वही देश हैं जो नाटो के सदस्य हैं। कोरोना वायरस प्राकृतिक नहीं है। चीन में यह आवाज उठाने वाला वह वैज्ञानिक लापता है। वहां जिसने भी इस वायरस के रहस्य से पर्दा उठाने की कोशिश की, गायब हो गया। अमेरिका, आस्ट्रेलिया समेत कई अन्य देश कह रहे हैं कि यह चीनी वायरस उसकी प्रयोगशाला की उपज है। आश्चर्य की बात यह कि विश्व स्वास्थ्य संगठन चीन के साथ खड़ा दिखता है। यह एक नई विश्व व्यवस्था है। अब तक हम यूएनओ और उसके अनुषांगिक संगठनों को अमेरिका का तोता मानकर चलते थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस मिथक को तोड़ दिया। इस संगठन के अध्यक्ष टेड्रोस अधनांम खुलेआम अमेरिका से सवाल करते हैं कि वे किस आधार पर चीन को कठघरे में खड़ा करना चाहते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख ट्रडोस दरअसल करोना आतंकवाद के मास्टरमाइंड की भूमिका में हैं। पहले जान लें कि ये महाशय हैं कौन? ये भुखमरे अफ्रीकी देश इथोपिया के रहने वाले हैं। इन्हें इस पद तक पहुंचवाने की भूमिका चीन की ही रही है।

ट्रडोस डब्ल्यूएचओ के ऐसे पहले अध्यक्ष हैं जो पेशे से डाक्टर नहीं हैं। विश्व में कोरोना की सनसनी फैलाने में ट्रेडोस का योगदान है। इन्होंने ही बीमारी को पैंडेमिक घोषित किया और साथ में लाॅकडाउन का मंत्र भी दिया। लाकडाउन यानी की हर तरह की तालेबंदी। इस तालेबंदी ने विश्व की अर्थव्यवस्था को वेंटीलेटर में डाल दिया।

यहां एक जिक्र जरूर करना है कि तमाम अपीलों के बाद भी स्वीडन ने अपने यहां लाकडाउन घोषित नहीं किया। यूरोप-अमेरिका में सबसे कम मृत्युदर 12% स्वीडन की ही है। चीन पोषित मीडिया ने यह फैलाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी कि यह बीमारी किसी भी देश का सर्वनाश कर सकती है। जबकि करोना पीड़ितों की मृत्युदर अन्य संक्रामक बीमारियों से काफी नीचे है।

विश्वभर में किस बीमारी से कितने लोग प्रतिवर्ष मरते हैं। उसके मुकाबले कोरोना कहां बैठता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की बेवसाइट में ये आंकड़े दर्ज हैं। हम भारत में ट्यूबरकुलोसिस यानी कि टीबी की बात करते हैं। भारत में टीबी के 2.5 करोड़ मामले प्रतिवर्ष आते हैं इनमें से 4.4 लाख की मृत्यु हो जाती है।

कोरोना को वैश्विक महामारी बताते हुए सनसनी फैलाकर विश्व की अर्थव्यवस्था को ताले में बंद करना चीन की साजिश का हिस्सा है। यह बात सभी राष्ट्राध्यक्ष समझ चुके हैं।

कोरोना प्राकृतिक नहीं बल्कि जैविक हथियार है, इस बात का खुलासा आज नहीं तो कल हो ही जाएगा। द्वितीय विश्वयुद्ध में हिरोशिमा-नागासाकी में परमाणु विध्वंस के बाद से ही युद्धपिपासुओं में यह विचार शुरू हो गया था कि क्या ऐसा कोई हथियार ईजाद नहीं हो सकता जिससे मनुष्य तो मर जाएं, लेकिन उसकी दौलत बची रहे।

हाइड्रोजन बम व अन्य रासायनिक और जैविक हथियारों की बातें सामने आ रही थीं। क्या चीनी वायरस कोरोना इसी विचार की उपज है?

क्या चीन सुन त्जू के विचारों को चरितार्थ करते हुए बिना युद्ध विश्वविजय पर निकला है? क्या लाॅकडाउन से निकलकर विश्व की अर्थव्यवस्था फिर पटरी पर आ पाएगी? क्या दुनिया के शेष देश चीन से उसका अपराध कबूल करवाकर उसे सबक सिखा पाएंगे? नई विश्वव्यवस्था में क्या अमेरिका के स्थान पर कोई दूसरी नियामक ताकत उभरेगी? ऐसे कुछ सवाल है जो फिलहाल हम सभी भुक्तभोगियों के दिमाग को मथते रहेंगे।

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